फणीश्वर नाथ रेणु एक स्त्री संवेदी कथाकार हैं। ‘मैला आँचल’ की लछमी हो या ‘परती परिकथा’ की ताजमनी या फिर उनकी कहानियों की अन्यान्य स्त्री चरित्र, रेणु उन्हें न सिर्फ एक खास किस्म की सहजता, तन्मयता और अनायासपन के साथ रचते हैं बल्कि रचना में निहित अहम निर्णायक क्षणों की बागडोर भी उन्हीं के हाथों में सौपते हैं। रेणु के उपन्यासों की नायिकाएँ किस तरह स्त्री सशक्तीकरण के समकालीन मुहावरे की आत्मा को दशकों पूर्व बिना किसी शोर-शराबे के जीवंत करती रही हैं, वरिष्ठ लेखक और पत्रकार प्रियदर्शन का यह आलेख उसी की रचनात्मक पड़ताल करता है।
फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यासों की स्त्रियां बिल्कुल जादुई हैं- अपने मामूलीपन में ऐसी जगमग करती स्त्रियां जो अपने आसपास को अनायास बदल डालती हैं। रेणु के कथा परिसर में उनकी उपस्थिति बिल्कुल सक्रिय और निर्णायक भूमिका में है। उनके आगे आज के स्त्री-विमर्श के दौर की बहुत सुविचारित ढंग से गढ़ी जा रही नायिकाएं अगर पानी नहीं भरतीं तो भी कुछ फीकी जान पड़ती हैं- ऐसी नायिकाएं जिन्हें कुछ कृत्रिम या सजावटी ढंग से गढ़ा गया हो।
लेकिन रेणु अपने चरित्र गढ़ते नहीं हैं, बस वे उन्हें अपने आसपास से उठा लेते हैं। दूसरी बात यह कि किन्हीं क्रांतिकारी मुद्राओं के आकर्षण में फंसे बिना या उनसे बिल्कुल बेख़बर ये स्त्रियां अपनी तरह से अपने संसार को संचालित-नियमित कर रही हैं। ‘मैला आंचल’ की लछमी मठ की दासिन है। उसे मठ के महंत की सेवा करनी है। बचपन में उसके साथ जो भी घटा हो, लेकिन धीरे-धीरे वह स्वतंत्र व्यक्तित्व अर्जित करती है। महंत की मृत्यु के बाद उनके उत्तराधिकार के सवाल पर मठ में चल रही राजनीति को वह मूकदर्शक की तरह देख नहीं पाती। जब वह पाती है कि मठ के वास्तविक उत्तराधिकारी रामदास की जगह एक लंपट क़िस्म का साधु महंत बनने जा रहा है तो वह दखल देती है और दूसरों की मदद भी लेती है। वह न होती तो रामदास महंत न बन पाता। अपनी महंतई के अहंकार में रामदास जब लछमी से अनुचित संपर्क की कोशिश करता है तो वह उसे झटक देती है। वह अपनी ओर से गांधीवादी बालदेव से प्रेम करती है, उसे मठ की दीक्षा दिलाती है। लछमी किसी राजनीतिक-सामाजिक मुहावरे में फंसे बिना, उसकी शब्दावली से बिल्कुल अनजान, बस अपने भीतर की आंतरिक पुकार पर चलती है और जहां-जहां उसे कुछ कहना होता है, वहां वह कतई नहीं हिचकती। स्त्री सबलीकरण का इन दिनों जो बहुत प्रचलित मुहावरा है, उसको बिल्कुल निजी स्तर पर उतारने वाली यह सत्तर बरस पुरानी पुरखिन है।
लेकिन यह लछमी के कार्य ही नहीं हैं जो उसे महत्वपूर्ण बनाते हैं। दरअसल ध्यान से देखें तो रेणु अपने उपन्यास की महीन बुनावट में चुपचाप एक स्त्री पक्ष डाल देते हैं। जैसे उनके भीतर एक स्त्री है जो बहुत सख्य भाव से अन्य स्त्रियों के हाथ में कमान देकर चीज़ों को चला रही है। इस ढंग से ‘मैला आंचल’ नायकों का नहीं, अपनी नायिकाओं का उपन्यास है। अगर इस कथन में कुछ अतिरेक लग रहा हो तो कुछ छूट देकर यह कहा जा सकता है कि उसके महिला चरित्र उपन्यास के पुरुष चरित्रों से कहीं भी उन्नीस नहीं हैं। लेखक ने बहुत मनोयोग से उन्हें गढ़ा है।
नायिकाओं का उपन्यास मैला आंचल
'मैला आंचल' की दूसरी स्त्री कमली है- गांव के तहसीलदार की बेटी- जो किसी अनजान मर्ज से बेहोश हो जाती है। गांव के मलेरिया सेंटर में नियुक्त डॉ प्रशांत यह पहचान जाता है कि यह रोग जितना दैहिक है, उससे कहीं ज़्यादा मानसिक है- इसके पीछे अवचेतन की यौन ग्रंथियों का भी हाथ संभव है। वह अपनी सखा ममता को लिखी जा रही चिट्ठी में जोड़ता है- ‘पत्र अधूरा छोड़ कर एक केस देखने गया था। केस अजीब है। केस हिस्ट्री और दिलचस्प है। तुम्हारी शीला रहती तो आज ख़ुशी से नाचने लगती; हिस्टीरिया, फ़ोबिया, काम विकृति और हठ प्रवृत्ति जैसे शब्दों की झड़ी लगा देती। शीला से भेंट हो तो कहना- मैंने अपने पोर्टेबल रेडियो से उसके दिमाग को झकझोर कर दूसरी ओर करने की चेष्टा की है।‘
लेकिन कमली जैसे-जैसे अपनी बीमारी से उबरती है, वैसे-वैसे उसका एक और चरित्र सामने आता है। सहज अनुराग और अधिकार भाव से वह डॉ प्रशांत को आवाज़ देने लगती है- कभी भोजन पर निमंत्रण तो कभी होली खेलने का न्योता। हम पाते हैं कि चालीस के दशक के उत्तरार्ध में रेणु ने अपनी नायिका से तब एक असंभव सी जान पड़ने वाली छलांग लगवा दी है- वह डॉक्टर के क़रीब आते-आते उसके बच्चे की अनब्याही मां बन जाती है। स्त्रीत्व के शील- और ख़ासकर अविवाहित मातृत्व- को लेकर हिंदी साहित्य और समाज तब- और अब भी- जितना संवेदनशील बन जाता है, उसे याद करते हुए यह कथा-विस्तार किसी धमाके से कम नहीं लगता। लेकिन यह रेणु की ही कलम का कमाल है कि वह अपनी इस नायिका को किसी की निगाह में खलनायिका नहीं होने देते। बल्कि कमली के भीतर भी किसी पछतावे या अविश्वास का भाव पैदा नहीं होता। वह अपनी साधारणता में असाधारण है।
ध्यान दें तो ये दोनों स्त्रियां लछमी और कमला अपने फ़ैसले ख़ुद करती हैं। लछमी बालदेव को भी अच्छी लगती है। बालदेव को लगता है कि उसके बदन से हमेशा एक सुगंध आ रही है। उसके भीतर लछमी को लेकर एक पवित्र सा भाव भी उभरता है। लेकिन वे लछमी से कुछ कह नहीं पाते। अंततः यह लछमी है जो उनसे प्रेम की घोषणा करती है, उन्हें अपने साथ जोड़ती है। इसी तरह कमला के आकर्षण को पहचानने और महसूस करने के बावजूद डॉ प्रशांत ख़ामोश रहता है। यह कमली है जो अपनी सक्रियता से उसे अपनी ओर खींचती है। यह कमली है जो उसके बच्चे को उसकी बेख़बरी और जेल के दौरान अपनी कोख में बेधड़क पालती है।
मैला आंचल की स्त्री कथा
‘मैला आंचल’ की इस स्त्री कथा को एक बहुत सुंदर आयाम ममता देती है- दरभंगा के प्रसिद्ध डॉक्टर कालीप्रसाद श्रीवास्तव की बेटी जो ख़ुद डॉक्टर है और प्रशांत की दोस्त। यह दोस्ती भी नायाब है। प्रशांत अपनी हर बात ममता से साझा करता है। उसे लगातार चिट्ठियां लिखता है। उसका रिसर्च भी वही छपवाती है। आदर्शवादी प्रशांत के प्रति बहुत गहरे ममत्व से भरी यह आदर्शवादी लड़की बेहद सलीके वाली और ख़ुशमिज़ाज है। वह कमला और प्रशांत के बेटे को कुमार नीलोत्पल नाम देती है।
यह खयाल आता है कि बिल्कुल हाड़-मांस की जान पड़ने वाली ये स्त्रियां लेखक की कल्पना की उपज हैं या वास्तविकता में भी होती हैं? लेकिन इस खयाल को झटकने की इच्छा होती है। क्योंकि अंततः हमारा यथार्थ हमारी कल्पना के मेल से भी बनता है।
‘मैला आंचल’ के बाद ‘परती परिकथा’ में भी रेणु जैसे इन स्त्री चरित्रों को आगे बढ़ान का काम करते रहते हैं। कुछ ध्यान से देखें तो ‘परती परिकथा’ की इरावती ‘मैला आंचल’ की ममता का ही कुछ बदला हुआ रूप है। इरावती डॉक्टर नहीं है, लेकिन देश और समाज को बदलने की इच्छा से राजनीतिक संघर्ष के मैदान में आई है। वह साहसी है, पुरुषों के साथ अकेले ट्रेन में घूम सकती है और किसी लंपट नेता द्वारा अनुचित कोशिश किए जाने पर उसका प्रतिरोध कर बीच ट्रेन से उतर सकती है। वह अपने ‘परती पुत्तर’ जितेंद्र मिश्र को खोजती हुई परानपुर पहुंची है। वह लगभग जैसे कथा से अपने-आप को अदृश्य या बहिष्कृत रखते हुए भी जित्तन की ताकत बनी हुई है। अपने ग्राम-समाज में बढ़ रहे मोहभंग, सामाजिक विद्वेष, आर्थिक संकट और इन सबसे बनने वाली दरारों को पाटने के लिए जित्तन जिस सांस्कृतिक आंदोलन की परिकल्पना करता है, उसे पूरा करने में इरावती के समर्थन और सहयोग की बड़ी भूमिका है।
लेकिन ‘परती परिकथा’ की असली नायिकाएं दूसरी हैं- नट्टिन टोले की ताजमनी और हरिजन टोले की मलारी। रेणु के भीतर स्त्री-आधुनिकता और स्त्री-स्वातंत्र्य को लेकर जो बहुत गहरी आस्था नज़र आती है, वह इन स्त्री चरित्रों की मार्फ़त ही दिखती है। ताजमनी जित्तन की बाल सखा है। जित्तन की मां को उस पर बहुत भरोसा है। मां को मालूम है कि उसका बेटा कुछ ‘पगलैट’ टाइप का है। उसे संभालने के लिए एक बहुत संभला हुआ और भरोसेमंद शख़्स चाहिए। यह ताजमनी है। जित्तन गांव छोड़कर जा चुका है और बरसों बाद लौटा है। उसकी झोली में दुनिया भर के अनुभव हैं। वह महसूस करता है कि गांव समाज को बचाने के लिए उसकी उखड़ रही लोक-संस्कृति की सांसों को बचाना ज़रूरी है। इसके अलावा नेहरू के विकास के मंदिरों में उसकी गहरी आस्था है। जब उसे पता चलता है कि उसके क्षेत्र में कोसी नदी पर बांध बन रहा है तो वह गांव लौटता है। गांव में उसकी एक विराट परती ज़मीन है। जित्तन को समझ में आता है कि इस ज़मीन में बहुचक्रीय फ़सल की गुंजाइश है। वह ट्रैक्टर से इसे जोतना शुरू करता है। गांव हैरान है। उसे लग रहा है कि इस ऊसर को जोत कर यह जमींदार का बिगड़ा हुआ बेटा कुछ भी हासिल नहीं कर पाएगा। लेकिन इस मोड़ पर ताजमनी उसके साथ खड़ी है- भावनात्मक रूप से भी और सक्रिय भागीदार के तौर पर भी। जित्तन जब गांव में मंद पड़ रही सामा-चकेवा की परंपरा को पुनर्जीवित करना चाहता है तो वह ताजमनी की मदद लेता है। ताजमनी गांव में इस लोक नृत्य से परिचित है, ख़ुद बहुत अच्छा नृत्य करती है, वह किसी प्रवाद से नहीं डरती। ऐसा लगता है कि ताजमनी न होती तो जित्तन का काम पूरा नहीं होता।
इस उपन्यास की तीसरी नायिका है मलारी। हरिजन टोले की मलारी सुंदर है, गांव के लिहाज से पढ़ी-लिखी है और बेबाक-निडर भी है। वह गांव के स्कूल मे पढ़ाती भी है। लेकिन मलारी के साथ फिर रेणु के लेखक का एक क्रांतिकारी व्यक्तित्व सामने आता है। हरिजन मलारी का सवर्ण सुवंश बाबू से प्रेम है। दोनों छुप-छुप कर मिलते हैं और एक दिन गांव से निकल कर शहर में शादी कर लेते हैं। गांव में चर्चा है- जो संभवतः सही है कि उनकी इस शादी में जित्तन मिश्र ने भी मदद की है। फिर कहना मुश्किल है कि उन दिनों जो हिंदी साहित्य लिखा जा रहा था, उसमें हरिजन और सवर्ण के बीच विवाह की कथाएं कितनी हैं। लेकिन इन दोनों का ब्याह करना ही काफ़ी नहीं है, ज़रूरी इस ब्याह को गांव की मान्यता दिलाना भी है। इसका ज़रिया बनता है सामा-चकेवा का आयोजन जिसमें ताजमनी के अलावा मलारी भी शामिल होती है। लड़कियों के दो नृत्य समूहों में एक की नेता मलारी है और दूसरी की ताजमनी। दोनों के इंद्रधनुषी नृत्य से जैसे धरती-आसमान दोनों रंग जाते हैं, गांव तो मन तो इंद्रधनुषी हो ही जाता है। मलारी रेणु की औपन्यासिक कल्पना को बिल्कुल एक अलग आयाम देती है।
दरअसल रेणु अपने समकालीन और उत्तरकालीन लेखकों से बहुत अलग हैं। वे उपन्यास लिखते नहीं हैं, गांव-देहात को उसकी बोली-बानी, उसके चरिंदों-परिंदों, उसके पनघट-तालाबों, उसके घर-आंगन, पेड़-पौधों सहित जस का तस उतार देते हैं। पनघट पर आपस में बतियाती या उलझती उनकी स्त्रियां इतनी आवाज़ों में बोलती हैं कि पाठक मुग्ध और हैरान रह जाता है। यह कमाल ‘मैला आंचल’ में भी है और ‘परती परिकथा’ में भी।
हिंदी और भारतीय साहित्य में यादगार महिला चरित्र बहुत सारे हैं। शरतचंद की संवेदनशील-मानिनी स्त्रियां एक दौर के बंगाल में रोल मॉडल रहीं। रवींद्रनाथ ठाकुर के यहां भी एक से बढ़ कर एक बौद्धिक स्त्रियां हैं। प्रेमचंद की धनिया, झुनिया सिलिया चमारिन या मालती भी उल्लेखनीय हैं, प्रसाद के नाटकों में ध्रुवस्वामिनी, अलका, सुहासिनी, मालविका जैसी न भुलाई जाने वाली नायिकाएं हैं, जैनेंद्र के दार्शनिक अंतर्द्वंद्वों से भरी नायिकाएं हिंदी साहित्य की धरोहर हैं, लेकिन रेणु की नायिकाएं इन सबसे अलग हैं। वे धूल-मिट्टी के बीच खड़ी और बड़ी हुई स्त्रियां हैं। वे बड़ी साधारण लगती स्त्रियां हैं- वे गाती हैं, रोती हैं, परेशान होती हैं लेकिन उनके भीतर उनकी सहजता से पैदा एक अलौकिक चमक है जो उनकी निजी और सामाजिक चेतना तक चली आती है। प्रतिरोध की भाषा बोले बिना वे नैतिक प्रतिरोध की नायिकाएं हैं। यह लिखते-लिखते याद आ रहा है कि उनके उपन्यासों में ही नहीं, उनकी कहानियों में भी ऐसी संवेदनशील-सरल-तरल और यादगार चरित्रों की भरमार है जिन्हें भूलना असंभव है।
एक आंचलिक कथाकार के तौर पर सीमित कर दिए रेणु को दुहराने की बहुत सारी कोशिशें हुईं, उनकी नायिकाओं जैसी नायिकाएं भी बनाई गईं, लेकिन यह सोच कर आश्चर्य होता है कि खुद रेणु के सामने ऐसा कोई रोल मॉडल नहीं था। वे अपनी करुणा के जल से, अपनी सांस्कृतिक समझ की मिट्टी से, गांव-देहात के मर्म की अपनी पहचान से, और गोबर-लिपे छोटे-छोटे घरों के कमरों-आंगनों में पसरने वाले सुख-दुख के साथ अपने बहुत गहरे सान्निध्य से वे अपनी स्त्रियां गढ़ते रहे जो इतनी साधारण हैं कि कुछ कहती नहीं, लेकिन जिनमें इतनी चमक है कि उनकी रोशनी दशकों बाद भी हमारे ऊपर पड़ रही है।