ज्ञानपीठ सम्मान मिलने के बाद अपनी पहली प्रतिक्रिया में विनोद कुमार शुक्ल अपनी मृदु-कांपती आवाज़ में कहते दिखे- ‘मुझे लिखना बहुत था, बहुत कम लिख पाया, मैंने देखा बहुत, सुना भी मैंने बहुत, महसूस भी किया बहुत, लेकिन लिखने में थोड़ा ही लिखा। कितना कुछ लिखना बाक़ी है, जब सोचता हूं तो लगता है बहुत बाक़ी है। इस बचे हुए को मैं लिख लेता हूं। अपने बचे होने तक मैं अपने बचे लेखक को शायद लिख नहीं पाऊंगा। तो मैं क्या कहूं, मैं बड़ी दुविधा में रहता हूं। मैं अपनी ज़िंदगी का पीछा अपने लेखन से करना चाहता हूं। मेरी ज़िंदगी कम होने के रास्ते पर तेज़ी से बढ़ रही है और मैं लेखन को उतनी तेज़ी से बढ़ा नहीं पाता, तो कुछ अफ़सोस भी होता है।‘

यह वह चीज़ है जो बताती है कि विनोद कुमार शुक्ल के लिए रचनाशीलता का क्या मोल है। वह प्रशस्तियों और पुरस्कारों में निहित नहीं है, वह देखे-सुने और महसूस किए हुए को लिखने में निहित है, जिए हुए को शब्दों में पुनर्जीवित करने में निहित है, वह यह समझने में निहित है कि ज़िंदगी कम हो रही है और लेखन में उसका पीछा करना मुश्किल हो रहा है। लेकिन प्रशस्तियां और पुरस्कार विनोद कुमार शुक्ल का पीछा करते रहे हैं। 

पिछले साल ज्ञानपीठ की बहुत भद्द पिटी। गुलज़ार के साथ रामभद्राचार्य को यह सम्मान दिया गया। अब विनोद कुमार शुक्ल तक लौट कर यह शायद फिर कुछ सार्थक सा लगने लगे। हालांकि सम्मान की राशि के लिहाज से यह उनको मिला सबसे बड़ा पुरस्कार नहीं है। दो साल पहले उन्हें अपने कृतित्व के लिए अमेरिका का प्रतिष्ठित पेन नाबोकोव सम्मान मिला था। यह सम्मान 50,000 डॉलर यानी क़रीब 40 लाख रुपये से कुछ ऊपर का था। जिस जूरी ने विनोद कुमार शुक्ल को वह पेन सम्मान दिया था, उसमें भारत के अंग्रेज़ी लेखक अमित चौधुरी के अलावा ईरानी मूल की एक लेखिका रोया हकाकियन थीं जिन्हें 1979 की ईरानी क्रांति के समय महज 13 साल की उम्र में शरणार्थी के तौर पर अमेरिका आकर रहने को मजबूर होना पड़ा था। 

निर्णायक मंडल की तीसरी सदस्य माना मेन्जिस्ते इथियोपियाई मूल की लेखिका थीं जो वहां हुई बगावत के बाद 4 साल की उम्र में अपने मां-पिता के साथ अमेरिका आ गई थीं। यानी एशियाई-अफ़्रीकी स्मृति की खरोंचों और विस्थापित होने की विडंबना से बंधे निर्णायकों ने एक ऐसे लेखक को चुना था जिसके लिए घर से निकलना और घर लौटना एक पूरा औपन्यासिक आख्यान रहा है। ‘नौकर की कमीज’ शुरू ही इस वाक्य से होता है- ‘कितना सुख था कि हर बार घर लौट कर आने के लिए मैं बार-बार घर से बाहर निकलूंगा।‘

तो ज्ञानपीठ से पहले पेन सम्मान ने विनोद कुमार शुक्ल को एक अंतरराष्ट्रीय कीर्ति और आभा दी थी। उनके पहले यही सम्मान जाने-माने अफ़्रीकी लेखक न्गूगी वा थ्योंगो को मिला था। लेकिन अगर विनोद कुमार शुक्ल को पेन सम्मान न मिला होता, ज्ञानपीठ न मिलने की घोषणा हुई होती तो क्या वे छोटे हो जाते? समझने की बात यह है कि विनोद कुमार शुक्ल का चुनाव करके सम्मानों ने एक विश्वसनीयता अर्जित की है, विनोद कुमार शुक्ल का लेखन जैसा था वैसा ही है। वह पहले भी साहित्य की मीनार थे और अब भी हैं।

दरअसल विनोद कुमार शुक्ल के लेखन को लेकर दो-तीन बातें बहुत आसानी से लक्षित की जा सकती हैं। वे अक्सर गद्य और पद्य के बीच की बहुत पतली सी पगडंडी पर चलते रहे हैं, जहां यह पगडंडी नहीं है, वहां वे इसे अपने उद्यम से बनाते रहे हैं- उन शब्दों की तलाश करते हुए या उन्हें नए अर्थ देते हुए जिनमें मनुष्यता की धीमी और सूक्ष्म आवाज़ें पूरी मार्मिकता से अभिव्यक्त हों। 

साल 1971 में अशोक वाजपेयी द्वारा संपादित ‘पहचान’ शृंखला के तहत प्रकाशित उनके पहले संग्रह ‘लगभग जयहिंद’ की भाषा में बेशक उस दौर की काव्यगत प्रवृत्तियों की कुछ छाया मिलती है और लगभग मुखर राजनीतिक वक्तव्य भी, लेकिन धीरे-धीरे विनोद कुमार शुक्ल जैसे एक निजी संवेदन और विचार की यात्रा पर निकल पड़ते हैं। उनका दूसरा कविता संग्रह ‘वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहन कर विचार की तरह’ संयोग से उनके इस प्रस्थान बिंदु का एक संकेत भी दिखता है। 

बाद के वर्षों में शब्दों के अर्थों को अधिकतम खुरचते हुए, संबंधों के भीतर के अनजाने ख़ालीपन को भरते हुए, जो भी अतिरिक्त है, उसको काटते-छांटते, तराशते हुए बिल्कुल वहां तक पहुंचते हैं जहां बस तरल संवेदना है और मनुष्य होने का मर्म है। ‘सबकुछ होना बचा रहेगा’ और ‘अतिरिक्त नहीं’ जैसे संग्रहों में उनकी इस यात्रा को और ज़्यादा पहचाना जा सकता है। उनकी कुछ कविताएं तो बिल्कुल उद्धरणों की तरह इस्तेमाल की जाने लगी हैं। मसलन ‘अतिरिक्त नहीं’ संग्रह की यह पहली कविता- ‘हताशा में एक व्यक्ति बैठ गया था / व्यक्ति को मैं नहीं जानता था / हताशा को जानता था / इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया / मैंने हाथ बढ़ाया / मेरा हाथ पकड़ कर वह उठ खड़ा हुआ / वह मुझे नहीं जानता था / मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था / हम दोनों साथ चले / दोनों एक-दूसरे को नहीं जानते थे / साथ चलने को जानते थे।‘

कुछ वाचाल होने का जोखिम उठाते हुए यह कहने की इच्छा होती है कि यह कविता एक तरफ़ शिंबोर्स्काई सादगी से जुड़ती है तो दूसरी तरफ़ ब्रेख़्तीय साझेपन के आह्वान से।

विनोद कुमार शुक्ल की कविता का असली वैभव उनके बाद के संग्रहों ‘अतिरिक्त नहीं’, या ‘कविता से लंबी कविता’ में खुलता है। वे जैसे अपनी कविता में काल और कालातीत दोनों को साध रहे हैं, अदृश्य में छुपे दृश्य को पकड़ रहे हैं। अदृश्य के इस संधान को विनोद कुमार शुक्ल अन्यत्र बहुत ठोस ढंग से कह भी डालते हैं, ‘कि नहीं होने को / टकटकी बांध कर देखता हूं / आकाश में / चंद्रमा देखने के लिए/ चंद्रमा के नहीं होने को। (कि नहीं होने को)

फिर वे अदृश्य में दृश्य ही नहीं खोजते, क्षण में काल और कालातीत को भी पहचान लेते हैं। उनकी कविता में एक विशाल चट्टान के ऊपर एक दूसरी चट्टान इस तरह रखी हुई है जैसे वह कभी भी गिर सकती है। 

‘कभी भी’ का वह लम्हा न जाने कब से स्थगित है और जो चट्टान ‘अभी-अभी गिरने को है’, वह न जाने कब से टिकी हुई है। गिरने की क्षणिकता और न गिरने की कालातीतता के बीच बनी कविता अचानक एक मानवीय उपस्थिति से नई और बड़ी हो उठती है। वे समय की सीमा को भी अपनी दृष्टि से अतिक्रमित करना चाहते हैं। वे बाक़ायदा अपनी कविता में पूछते हैं, ‘कटक को कैसे देखूं कि वह मुझे हज़ार वर्ष से / बसा हुआ दिखे’ और कहते हैं ‘हज़ार वर्ष से बह रहा है इन नदियों का जल / हज़ार वर्ष के इस आकाश को इस समय का आकाश / हज़ार वर्षों की आज की रात्रि में एक स्वप्न / कि कटक बसने की पहली रात्रि में / एक निवासी स्वप्न देख रहा है / उसके स्वप्न में मैं हूं / और मेरे स्वप्न में वह। (हज़ार वर्ष पुराना है कटक)

दरअसल विनोद कुमार शुक्ल की इन कविताओं को बार-बार पढ़ने, उनके अर्थ समझने और इन पर लिखने का मोह काफ़ी बड़ा है। लेकिन यह चर्चा तब तक अधूरी रहेगी जब तक हम उनके गद्य पर नज़र न दौड़ाएं। हिंदी में गद्य और पद्य तो बहुत सारे लेखकों ने लिखे हैं, लेकिन संभवतः अज्ञेय के बाद विनोद कुमार शुक्ल अकेले हैं जो संपूर्ण कवि भी हैं और संपूर्ण उपन्यासकार भी। 

हिंदी में उपन्यास लेखन की यथार्थवादी प्रविधि को 1980 के आसपास आए जिन दो उपन्यासों ने लगभग तोड़फोड़ कर हिंदी के पाठकों को नया आस्वाद सुलभ कराया, उनमें एक मनोहर श्याम जोशी का ‘कुरु-कुरु स्वाहा’ था और दूसरा विनोद कुमार शुक्ल का ‘नौकर की कमीज।‘ निस्संदेह इसके पहले हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यास इस यथार्थवादी शिल्प के पार जाकर अपना एक अलग जादुई यथार्थवाद रचते रहे, लेकिन वे मूलतः इतिहास की गलियों में उतर कर सांस्कृतिक अंतर्द्वंद्व और अस्मिता बोध की पड़ताल के उपन्यास हैं। इन उपन्यासों का अपना बहुत बड़ा मोल है, मगर ‘नौकर की कमीज’ को इन वर्षों में एक शास्त्रीय दर्जा सा प्राप्त हो चुका है। 

मणि कौल ने इस पर फिल्म भी बना डाली। उनके बाद के उपन्यासों ‘खिलेगा तो देखेंगे’ और ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ की भी खूब चर्चा रही है। ख़ास कर ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ हिंदी के कई पाठकों का प्रिय उपन्यास है। यथार्थ की दीवार के पार जाकर उसका जो काव्यात्मक वितान खुलता है, वह अपने-आप में अप्रतिम है।

लेकिन यह भाषा या शिल्प या जादुई यथार्थवाद जैसा कोई मुहावरा नहीं है जो विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यासों को बड़ा बनाता है। उनके उपन्यासों की सबसे बड़ी चीज़ वह मध्यवर्गीय साधारणता है जो इनका पर्यावरण बनाती है। वे इस साधारणता को आभामंडित नहीं करते, बस जस का तस रख देते हैं- उसकी निरीहता को भी और नृशंसता से उसकी कातर मुठभेड़ों को भी। 

‘नौकर का कमीज’ के संतू बाबू घर-परिवार, समाज और दफ़्तर की अनगिन व्यस्तताओं में- अपेक्षाओं में, उपेक्षाओं में, संघर्ष में और उपहास तक में- हाड़मांस का ऐसा जीवित किरदार बन जाते हैं जो जितना हमारे चारों तरफ़ है उतन ही हमारे भीतर भी- और उनकी मार्फ़त हम उस कुचले जाते और फिर भी बचे रह जाते जीवन को पहचानते हैं जिसे पहचानना भी भूल चुके हैं। 

पहली बार इसी उपन्यास में लोगों ने कुछ अचरज से एक अलग तरह की भाषा को सांस लेते देखा जो घर को घर बना देती थी और बाहर को बाहर, जो बहुत कम संवादों में निम्नमध्यवर्गीय घरों के दुख-सुख बयान कर जाती थी, जो जितनी वास्तविक है उतनी ही प्रतीकात्मक भी और जितनी गद्यात्मक है उतनी ही काव्यात्मक भी। यह अनायास नहीं है कि इस उपन्यास के भी कई वाक्य बिल्कुल ‘कोटेबल कोट्स’ हो चुके हैं, मसलन, ‘घर बाहर जाने के लिए उतना नहीं होता जितना लौटने के लिए होता है‘। साहब की चाहत के मुताबिक एक कमीज़ में फिट होने लायक नौकर की तलाश के खेल में जो तकलीफ़देह विडंबना है वह इस उपन्यास को अन्यतम बनाती है।

‘नौकर की कमीज’ के क़रीब दो दशक बाद आए उपन्यास ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ में लगता है, संतु बाबू ही गणित के व्याख्या रघुवर प्रसाद बन गए हैं। यह उपन्यास भी मामूलीपन में सांस लेते जीवन के बेहद जीवंत वृत्तांतों से सजा है। घर की रसोई में पति-पत्नी के संवाद कि सब्ज़ी कहां से आई और कैसी बनी है से लेकर पिता की एक चप्पल खो जाने तक जैसे अनगिनत प्रसंग हमें अपने आसपास की उस दुनिया में ले जाते हैं जहां रोज़ यह सब घटता है।

लेकिन इसमें एक बात और है- प्रेम का वह स्वप्न देखने की कोशिश- जो जीवन को अनायास सारे अभावों और संघर्षों के बावजूद बेहद सुंदर बना डालता है। रघुवर प्रसाद और सोनसी की प्रेम कहानी शायद हिंदी या विश्व साहित्य में दांपत्य के गहरे प्रेम की सबसे मार्मिक दास्तानों में एक है। बेशक, कुछ आलोचकों को उपन्यास के बाद के हिस्से में एक रीतिबद्धता नज़र आती है, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि यह हमारे समय का बड़ा उपन्यास है।

विनोद कुमार शुक्ल अब 88 साल के हैं। उनकी लेखकीय सक्रियता बिल्कुल हाल-हाल तक बनी रही है। बच्चों के लिए किताबें छापने वाली संस्था ‘इकतारा’ के आग्रह पर उन्होंने बच्चों का एक उपन्यास भी लिखा है और कई छोटी-छोटी कविताएं भी लिखी हैं। मोटे तौर पर वे बहुत निस्पृह होकर लेखन करते रहे हैं। 

हाल के रॉयल्टी विवाद को छोड़ दें तो किसी विवाद की छाया उन पर नहीं पड़ी। वे लेखक संगठनों और आयोजनों से अमूमन दूर रहने वाले लेखक हैं। उनके पहले कविता संग्रह ‘लगभग जयहिंद’ के प्रकाशन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले और उनके पहले उपन्यास ‘नौकर की कमीज’ के लेखन के लिए उन्हें फेलोशिप दिलाने वाले हिंदी के बड़े लेखक और संस्कृति मर्मज्ञ अशोक वाजपेयी याद करते हैं कि किस तरह विनोद कुमार शुक्ल तमाम आयोजनों से सायास और ससंकोच दूर रहने की कोशिश करते रहे हैं। 

इस निस्पृहता की छाया उनके लेखन पर भी है जो वर्तमान की राजनीतिक-सामाजिक हलचलों को बहुत दूर से देखता है। कुछ लोगों की यह शिकायत है (जो प्रथमदृष्टया वैध भी लगती है) कि पिछले कई वर्षों में इस देश में जो लेखन-विरोधी माहौल है, अभिव्यक्ति के सामने जिस तरह के ख़तरे हैं, उनके राज्य छत्तीसगढ़ से लेकर दिल्ली तक जिस तरह का अपसांस्कृतिक माहौल बनाया जा रहा है, उसको लेकर वे चुप रहे हैं और राज्य के सांस्कृतिक आयोजनों में शामिल होते रहे हैं। लेकिन यह चुप्पी उनके लिए रणनीति नहीं, उनका लेखकीय स्वभाव है। 

वैसे भी हर लेखक के प्रतिरोध का अपना ढंग होता है, उसकी चुप्पी अपनी तरह से टूटती है। विनोद कुमार शुक्ल की कई कविताओं में यह चुप्पी टूटती नज़र आती है- बेशक, बहुत मुखर राजनीतिक ढंग से नहीं, मगर बहुत मार्मिक ढंग से वे अपनी कविताओं में छत्तीसगढ़ के आदिवासी समाज की पीड़ा भी रखते रहे हैं और राज्य के उत्पीड़न की ओर भी इशारा करते हैं।

यह सच है कि भारत में- और ख़ास कर हिंदी में- पुरस्कारों का जो हाल है- और खुद ज्ञानपीठ ने अपना जो हाल किया है- उसे देखते हुए किसी सम्मान पर जश्न मनाते हुए संकोच ही नहीं होता, यह अंदेशा होता है कि यह कहीं लेखक के कृतित्व के साथ अशालीन व्यवहार तो नहीं। लेकिन अपने अच्छे-बुरे निर्णयों के बीच पुरस्कार तभी सार्थक हो उठते हैं जब वे किसी सुपात्र को मिलते हैं। बेशक, विनोद कुमार शुक्ल को ज्ञानपीठ कुछ बरस पहले मिला होता तो अच्छा होता- लेखन में जीवन का पीछा करने की उनकी कोशिश कुछ आसान हो जाती।