बिज़्ज़ी को गए बारह बरस बीत चुके। बिज्जी गए तो लौटे नहीं, अब लौटेंगे भी नहीं। पर बिज्जी हैं, देह से परे - स्मृतियों में, बोरूंदा की गलियों में, ‘रूपायन’ की ईंट-ईंट में, ‘सबल निकेतन’ के आंगन में, गौशाला में, अपनी स्टडी में, अपनी घूमन्तू कुर्सी पर तो कभी अपने पाट पर पाटवी बनकर।
कहने को तो भौतिक रूप से ‘सबल निकेतन’ बिज्जी का निकेत रहा पर सही मायने में वो अनिकेत ही रहे..आजीवन ! एक विद्रोही घुमक्कड़ जोगी की तरह! कभी यहाँ,कभी वहाँ, कभी बोरूंदा,कभी जोधपुर, आज इस डगर, कल उस नगर, आज देश में, कल विदेश में, कभी इस ठिकाणे तो कभी उस ठौर!
युवावस्था में बिज्जी का निकेत रहा जोधपुर। बोरूंदा गांव से 105 किमी.दूर। जसवंत कॉलेज में पढ़ते थे। शहर आज की तरह ज़्यादा बड़ा न था, मंझला ही समझो। साहित्यिक- सांस्कृतिक गतिविधियां उतनी ही होती थीं, जितना शहर था; लेकिन बिज्जी पढ़ते खूब थे। लिखते भी थे। जसवंत कॉलेज की बड़ी लाइब्रेरी के अलावा सुमेर पब्लिक लाइब्रेरी भी थी। 1954 में राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, 1955 में राजस्थानी शोध संस्थान चौपासनी अस्तित्व में आ चुके थे। ‘साधना साहित्य सदन’ और ‘भारतीय पुस्तक सदन’ दो भाइयों की दो दुकानें थीं, जहाँ साहित्य ही मिलता था। जोधपुर में पढ़ने को किताबों की कोई कमी न थी, भंडार थे। सो ख़ूब पढ़ा। स्टेशन रोड का फुटपाथ इतना बड़ा था कि यहीं हर साल सोवियत पुस्तक प्रदर्शनी लगती थी। इसी प्रदर्शनी से बिज्जी ढेरों किताबें खरीदते। उस दौर में भी आज की तरह ‘बुद्धिजीवी’ बनने से ज़्यादा दिखने और लगने के लिए ‘वामपंथी’ होना एक ज़रूरी दस्तूर होता था, सो बिजी ने भी यह दस्तूर निभाया। मार्क्स, लेनिन के साथ टॉलस्टॉय, गोर्की और चेख़व उनके प्रिय थे। आगे चलकर तो चेख़व को अपना गुरु भी माना। साहित्य पढ़ते-पढ़ते बिज्जी पत्रकारिता से भी जुड़ गए।
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पहली पत्रिका, पहला विद्रोह
तेरहवीं कक्षा में जब आए तो साप्ताहिक अख़बार ‘ज्वाला’ में काम किया। वंशीधर पुरोहित के संपादन में निकलने वाले ‘ज्वाला’ में ‘ब्लिट्ज़’ साइज़ के सोलह पन्ने होते थे। सत्ता विरोधी तीखे स्वर से ‘ज्वाला’ प्रतिबंधित हुआ तो ‘अंगारे’ नाम से निकाला। वह भी प्रतिबंधित हुआ तो ‘आग’ बन गया और जब उस पर भी प्रतिबंध लगा तो ‘राख’ नाम से निकला। ये नाम बिज्जी के ही दिए हुए थे। फिर ‘रियासती साप्ताहिक’ से जुड़े। इन प्रेसों में लगातार काम करने के दौरान करीब तेरह सौ कविताएं और तीन सौ कहानियां हिन्दी में लिख चुके थे।
ये भी छूटा तो ‘प्रेरणा’ नाम से मासिक पत्रिका निकाली। इसके संपादक बिज्जी और कोमल कोठारी थे। नाम कोमल दा का जाता था लेकिन काम अधिकांशतः बिज्जी ही करते थे। साहित्यिक स्वरूप वाली ‘प्रेरणा’ तत्कालीन कांग्रेस के दिग्गज और स्वाधीनता सेनानी जयनारायण व्यास की थी। जो आगे चलकर दो बार राजस्थान के मुख्यमंत्री बने। पत्रिका का प्रबंधन उनके बेटे देवनारायण व्यास देखते थे। गंभीर पत्रिका थी। ‘प्रेरणा’ का अपना हैंड कंपोज़िंग प्रेस था। एक दिन कंपोज़िटरों को काम में लगा देखकर बिज्जी ने हैरानी से पूछा – ‘क्या कंपोज हो रहा है ? मैं तो कुछ देकर नहीं गया।’ भाया (देवनारायण व्यास) ने उत्तर दिया – ‘मा’ट सा’ब की कहानी छपने जा रही है।’ यानी जयनारायण व्यास की। माथे में तनिक तनाव उपजा। धीरे-से बोले, ‘पढ़कर देखूंगा। छपने क़ाबिल हुई तो ज़रूर छपेगी, वरना…’ सुनकर व्यास जी एकदम उखड़ गए। उनके पिता जी की पत्रिका, वो ही मालिक और उनकी कहानी न छपे…यह कैसे हो सकता है …??? विवाद बढ़ता ही गया। कम्पोज़ होने पर कहानी पढ़ी। पसंद नहीं आई। स्पष्ट कहना ज़रूरी हो गया। बात बढ़ गई। न भाया टस न बिज्जी मस। आखिर ‘प्रेरणा’ छोड़ने का ही तय कर लिया बिज्जी ने। छूट गई। लेखन की दुनिया में बिज्जी के विद्रोह की यह शुरुआत थी। पहली पत्रिका, पहला विद्रोह !
बोरूंदा में बिज्जी, बिज्जी का बोरूंदा
यहाँ से शुरू होती है बिज्जी के वास्तविक घर की यात्रा। जोधपुर से बोरूंदा। बोरूंदा ही बिज्जी का घर रहा, बोरूंदा ही उनकी दुनिया..यहाँ का चप्पा-चप्पा उनका आंगन रहा तो हर शख़्स उनके घर का सदस्य! कथाकार डॉ. प्रेम कुमार ने बिज्जी से लिये एक साक्षात्कार में लिखा - ‘प्रेरणा’ से अलग होने के बाद उस दिन तो आकाश ही उलट पड़ा था। सपना बिखरने में कुछ भी देर नहीं लगी। तब उम्र रही होगी पच्चीस-छब्बीस बरस…। उन दिनों रूसी साहित्य के अनुवाद पढ़ने का बहुत उन्माद था। फ़्रेंच साहित्य भी पढ़ते थे। उससे जाना कि रूस में संभ्रांत व्यक्ति फ़्रेंच पढ़ते थे और ग्रामीण लोग और रूसी पढ़ते-बोलते थे। तब पहली बार ऐसा लगा – रूसी लेखकों से प्रेरणा लेकर – कि मातृभाषा में लिखे बग़ैर वे मीडियॉकर लेखक बन कर रह जाएंगे। तब जोधपुर में एक उद्योगपति थे – शाह गोवर्धनलाल काबरा। उद्योग तो केवल रोजी-रोटी थी, आत्मा सराबोर थी शिक्षा, साहित्य और संगीत से। रागों की बारीकियों से सुपरिचित, साहित्य की गहरी समझ। मम्मट का ‘काव्य प्रकाश’ मुख-ज़बानी याद। राजस्थान बनने के बाद ‘राजस्थान संगीत नाटक अकादमी’ जोधपुर को मिली। प्रथम अध्यक्ष शाह ही बने। तब सबसे ज्यादा संगीत के कार्यक्रम जोधपुर में ही होते थे।
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दूसरा विद्रोह- राजस्थानी की प्रण-प्रतिज्ञा
शाह साधन-संपन्न होने और संगीत-साहित्य में गहरी रुचि रखने के कारण सांस्कृतिक-बौद्धिक वर्ग को खूब प्रोत्साहित करते थे। बिज्जी पर उनका विशेष स्नेह था, बिज्जी के लिए वे बाबो-सा थे। रूसी लेखकों से प्रेरित होने के बाद बिज्जी के मन मे लोक और लोकभाषा के प्रति उमड़-घुमड़ मची हुई थी। एक दिन बिज्जी ने बाबो-सा के सामने अपनी इच्छा व्यक्त कर ही दी – “बाबा-सा मेहैं तौ अबै राजस्थानी मैं ई लिखण रौ मतौ कर् यो.” ( बाबा, मैंने तो अब राजस्थानी में ही लिखने का ही तय कर लिया है।)
शाह बोले – “बेटा, किन्हैं पढ़ण रौ सौक? कुण पढ़ैला? बिरथा वाद मत कर।” ( बेटा, राजस्थानी पढ़ने का शौक है किसको…? कौन पढ़ेगा ? व्यर्थ की बहस मत कर..।)
पर बिज्जी का हठ किसी तरह दूर नहीं हुआ तो उन्होंने राय दी – ‘जोधपुर छोड़कर तू अपने गांव जा और बरसों से चली आ रही लोक-कथाओं को सुनकर उन्हें अपनी कहानी-कला का बाना पहना।’ बाबो-सा की राय थी कि बिज्जी ने एक बक्से में अपने कपड़े-लत्ते, कॉपी-किताबें वगैरह डाली और तैयारी कर ली गांव जाने की। अब सिर्फ़ राजस्थानी में ही लिखने का प्रण लेखन की दुनिया मे बिज्जी का दूसरा विद्रोह था। बिज्जी अपनी इस प्रण-प्रतिज्ञा के प्रति कितने दृढ़, अटल रहे, इसका उदाहरण बरसों-बरस बाद उस समय देखने को मिला जब एक दिन भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक प्रभाकर श्रोत्रिय ने उन्हें फोन कर राजस्थान के प्रेमाख्यानों को लिखने के लिए ज्ञानपीठ फेलोशिप देने की पेशकश की। बिज्जी ने उसे इस शर्त के साथ स्वीकार किया कि अपनी प्रतिज्ञानुसार पहले वे सारे आख्यान राजस्थानी में लिखेंगे और तब उनका हिंदी में अनुवाद कर उसे ज्ञानपीठ को देंगे। इस प्रसंग की चर्चा करते हुए बिज्जी के साथ साल भर साथ रहने वाले मालचंद तिवाड़ी ने अपनी ‘बोरूंदा डायरी’ में लिखा है,- बिज्जी ने बताया कि - “ जब मैंने ऐसी शर्त रखी तो फोन पर श्रोत्रिय जी ने कहा, ‘बिज्जी यह तो और भी अच्छा है, आपकी कलम के जौहर से दोनों भाषाएं समृद्ध हो जाएंगी।’ ” यह उस कालखंड की बात है जब बिज्जी देश-विदेश में ख्यात हो चुके थे और अपनी रचनात्मकता के शिखर पर थे।
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ख़ैर, बात चल रही थी, गांव जाने की…तो सब कुछ खरीदा और गांव में प्रेस लगा लिया। बाबा-सा ने भी आर्थिक सहयोग दिया। सबसे बड़ी सहायता दी त्रिलोकी नाथ चतुर्वेदी ने। वे भी साहित्य प्रेमी थे, लेखकों का सम्मान करते थे। वे तब उद्योग विभाग के निदेशक थे। उन्होंने आठ हज़ार का ऋण मंजूर करवाया। उसी से लगा प्रेस।
बिज्जी के बेटे, लेखक-अनुवादक कैलास कबीर स्मृतियों के कोठार से लाकर रोचक बात बताते हैं, “ गाँव में अपनी ज़मीन थी, बड़ा-सा, खुला मकान था। उसी में एक ‘पोळ’ होती थी। उसी में प्रेस लगाई। गांव में तब बिजली नहीं थी। एक बड़ा-सा व्हील कबाड़ा–पट्टा लगाया। जोधपुर से एक बड़ा जेनरेटर लाए और उसी ‘पोळ’ में रखा। छोटे से गांव बोरूंदा वालों के लिए यह एक अद्भुत चीज थी, आते औऱ उसे कुतूहल भाव से देखते। देखते-देखते गांव वालों ने नाम दे दिया- ‘ इंजन घर’ ”। अपने इसी बेटे कैलाश को बिज्जी अपना ‘गुरु’ मानते थे, कारण कि उनकी राजस्थानी कहानियों का हिंदी अनुवाद कैलाश कबीर ठीक वैसा ही करते थे, जैसा बिज्जी चाहते।
ख़ैर..सन् 1962 की दीपावली पर ‘बातां री फुलवाड़ी’ का पहला भाग निकला। इससे पहले शुरुआत में जब बिज्जी ने कोमल दा को उनके साथ गांव चलने, राजस्थानी में लिखने और अपना छापाखाना लगाकर अपनी पोथियां छापने की बात बताई तो वो उनसे सहमत नहीं हुए। कैलाश कबीर बताते हैं “ कोमल दा व्यावहारिक व्यक्ति थे। लिखना-पढ़ना अपनी जगह पर दुनियादारी की बातें अपनी जगह। वो उन दिनों जोधपुर में कहीं नौकरी करते थे। उन्होंने बिज्जी से कहा, ठीक है तुम लगाओ, जिस दिन यह प्रेस मुझे मेरी बीवी-बच्चों की रोजी-रोटी देने की स्थिति में आ जाएगा उस दिन मैं भी जुड़ जाऊँगा।” इसके बाद वे कलकत्ता चले गए, एक नौकरी के सिलसिले में। बाद में कोमल दा ने अपना वादा निभाया भी। जब प्रेस ठीक-ठाक जम गया तो वे कलकत्ता से नौकरी छोड़कर बोरूंदा आ गए, जबकि यहाँ उनकी पगार कलकत्ता से कम ही थी।
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बौद्धिक साझेदारी, रूपायन की नींव
इस तरह मौखिक इतिहासकार दो दोस्तों- विजयदान देथा और कोमल कोठारी- के संयुक्त प्रयासों से, स्वतंत्रता के बाद के भारत की सबसे बड़ी बौद्धिक साझेदारियों में से एक का निर्माण हुआ। यह साझेदारी राजस्थान के लोकगीत-संगीत, लोककथाओं को समर्पित संस्था- ‘रूपायन’- के रूप में फलीभूत हुई। कोठारी और देथा ने ग्रामीणों के साथ मिलकर लोक परंपराओं, कथाओं, मौखिक लोकगीत - संगीत का दस्तावेजीकरण करना शुरू किया। कोमल कोठारी तो जोधपुर रहते थे, सो आना-जाना लगा रहता था पर बिज्जी का तो ठौर-ठिकाणा वही बन गया। वहीं लिखना-पढ़ना, खाना-पीना, उठना-बैठना, सोना-जागना सब वहीं। ‘रूपायन’ उनका घर बन चुका था। यही उनका निकेत था। आगे चलकर बोरूंदा जैसे गांवनुमा कस्बे से ‘रूपायन’ संस्थान ने लंगा और मंगनियार जैसे पेशेवर जाति के अलावा अनेक लोक कलाकारों को भारत के अलावा कई देशों में ले जाकर उन्हें अंतरराष्ट्रीय मंच उपलब्ध करवाए।
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जी’सा का सबल निकेतन
बात अगर एक भौगोलिक सीमा, पैमाइशी नक्शे के मुताबिक़ चारभीती, दरी-दरवाज़े सहित एक निश्चित भू-खंड वाली इकाई की करें तो बोरूंदा में एक मकान बना ‘सबल निकेतन’। बिज्जी का घर। वय और सम्मान से बिज्जी अब बोरूंदा वालों के लिए ‘जी’सा’ बन चुके थे। (पिता,पिता-तुल्य,श्रद्धेय)।
‘सबल निकेतन’ जोधपुरी छीतर पत्थर से बना बड़ा-सा घर। कई कमरों वाला। खुला-खुला-सा, आगे बड़ा अहाता। दिवंगत बेटे सत्यदेव और दूसरे बेटे महेंद्र के परिवार के लिए अलग हिस्सा तो एक दिशा में बिज्जी का अपना कोना। यही उनका शयन, वहीं अध्ययन कक्ष। पीछे एक अतिथि कक्ष। उसके पीछे गौशाला। इसी अतिथि कक्ष में राजस्थानी के सुपरिचित लेखक, कवि मालचंद तिवाड़ी ने करीब साल भर रह कर उनकी ‘बातां री फुलवाड़ी’ का ‘बातों की बगिया’ नाम से हिंदी अनुवाद किया था। ‘सबल निकेतन’ के बनते-बनते बिज्जी अपनी रचनात्मकता की परिपक्वता प्राप्त कर चुके थे। उनका सृजनधर्मी रचनाकार परिपूर्ण हो चुका था। एक दौर था जब सोलह-सोलह, सत्रह-सत्रह घन्टे लिखना उनकी दिनचर्या का हिस्सा था। सन 1981 तक वे ‘बातां री फुलवाड़ी’ के चौदह भाग पूर्ण कर चुके थे – पांच-पांच, छह-छह सौ पृष्ठों के। आर्थिक कठिनाइयों की वजह से प्रेस न बेचना पड़ता तो तीस-बत्तीस भाग निकालने का विचार था। ‘लोक संस्कृति’ पत्रिका भी निकाली। साहित्य जगत को ‘राजस्थानी-हिन्दी कहावत-कोश’ के भी आठ खंड दिए। देह अब थक चुकी थी, मन भी तृप्त हो चला था पर कोई रचनात्मक तृष्णा अब भी अतृप्त थी। अतिथि कक्ष में बैठकर ‘बातां री फुलवाड़ी’ का हिंदी अनुवाद कर रहे मालचंद तिवाड़ी को पोते निर्मल या चिमन को भेजकर रोज अपने कमरे में बुलवाते और उस दिन किये हुए अनुवाद को बड़े ध्यान और तल्लीनता से सुनते। वो भी तब,जब उनकी श्रवण शक्ति बेहद क्षीण हो गई थी। तिवाड़ी को अपना लिखा लगभग चिल्ला-चिल्ला कर सुनाना पड़ता था। जीवन का एक ऐसा भी दौर आया जब वे ‘सबल निकेतन’ की चारदीवारी, फिर अपने कमरे और अंततः अपने बिस्तर, फिर अपने पाट तक सिमट कर रह गए। लिखने-पढ़ने से लाचार, उठने-बैठने में भी असमर्थ। कोई मिलने-जुलने आता तो भी लेटकर या चिमनिए की मदद से पाट पर बैठकर ही बात कर पाते। बोलने में दिक्कत होती, फुसफुसाते। कई बार मुख से शब्द की जगह वायु ही निकलती। तिवाड़ी उन दिनों उनकी स्थिति बताते हुए अपनी ‘बोरूंदा डायरी’ में लिखते हैं - “...वे सोए हैं-पीठ के बल। करवट तो जीवन मे कभी ली ही नहीं। जिस कुर्सी पर वे बैठकर पिछले तीस-चालीस साल से लिखते रहे, वह उनको बिस्तर से गिरने से बचने की एक आड़ मात्र बन गयी है।”… और यह- “ वे उदास हैं। एक ढीले-से अधोवस्त्र के सिवा प्रायः नंगे बदन ही रहते है - शिशुवत ! ज़्यादा देर नहीं बैठ सकते। बिस्तर ही उनकी परिधि और सीमा है।”.. औऱ यह भी कि - “ बिज्जी धीरे-धीरे अपने प्रयाण-बिंदु की ओर बढ़ रहे हैं। वहाँ पहुंच कर राजस्थानी के निस्सीम नभ का यह गरुड़-पाखी किसी अदीठ देश मे विलीन हो जाएग..”
जीवन के इस दौर में वे अपनी दिनचर्या की हर क्रिया के लिए चिमनिया पर निर्भर हो चुके थे। चिमनिया यानी उनका आधी सदी से ज़्यादा पुराना भृत्य, सेवक। बोरूंदा में जब ‘बातां री फुलवाड़ी’ के लिए प्रेस लगाई थी, उसी काम के लिए उसे रखा था। समय के साथ चिमनाराम उनका आत्मीय ‘चिमनिया’ बन गया और चिमनिया के लिए वे ‘वा भा’(बड़ा भाई)। अंतिम सांस तक चिमनिया ही उनकी सेवा सुश्रुषा करता रहता। देह जब निढाल हो चली तो उनको अपने हाथों से जगाकर, उठाने-बिठाने से खिलाने-पिलाने से सुलाने तक। अपने जीवन के अंतिम चार दिनों में से पहले दो-तीन दिन तक वे अचेत-से रहे, आँख भी बमुश्किल खोलते। चौथे दिन आँख खुली, कुछ सचेत हुए तो बेटे महेंद्र से कहकर चिमनिए की हर महीने दस हज़ार रुपए की पेंशन बंधवा दी। अगले ही दिन.. 10 नवंबर 2013 को अन्ततः गरुड़-पाखी उड़ गया किसी अदीठ देश में…
जी’सा नहीं रहे !
बिज्जी चले गए !
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निकेतन उदास, सबल सूना
बोरूंदा उदास हो गया। हर आँख भीग उठी। अंतिम विदाई देने बोरूंदा और आसपास के गांवों से ही नहीं, जोधपुर-अजमेर से भी लोग पहुंचे। बिज्जी यहीं जन्मे, यही गुज़रे.. यहीं दिन बिताए यहीं रैन ..यहीं दुःख-सुख पाया, यहीं चैन ! इसी बोरूंदा में रहते हुए पद्मश्री, साहित्य अकादमी सहित अनेक सम्मान, पुरस्कार पाए, अपने ‘गुरु’ रवींद्रनाथ टैगोर के बाद बिज्जी पहले क्षेत्रीय भाषा वाले भारतीय साहित्यकार थे जो नोबल पुरस्कार के लिए नामांकित हुए थे। इसी बोरूंदा में उनका ‘रूपायन’ और फिर ‘सबल निकेतन’। यहाँ अब बेटों के परिवार के सदस्य हैं पर बिज्जी का कमरा ज्यों का त्यों है। स्मृति-स्थल की तरह। उनके कागद-पतर-पत्रों, लेखन सामग्री, किताबों, पांडुलिपियों सहित सभी स्मृति चिन्हों, मंजुषाओं की देखभाल उनके पुत्र महेंद्र देथा आज भी पूरी सावधानी, सम्मान और श्रद्धा से करते हैं।
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बिज्जी के जीते-जी लोक साहित्य से जुड़े विद्यार्थियों, शोधार्थियों, विद्वानों और लोक गीत-संगीत के कलाकारों के लिए बोरूंदा एक तीर्थस्थली बन चुका था तो ‘रूपायन’ और ‘सबल निकेतन’ शक्ति-पीठ। बिज्जी इनकी शक्ति थे। सन 1994 से बिज्जी के स्नेह पात्र रहे लक्ष्मण सिंह देवल भावुक होकर बताते हैं, “ जी’सा से मिलने ‘रूपायन’ और ‘सबल निकेतन’ में राजस्थान के ही नहीं, हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के अनेक लेखक, लोक-कला मर्मज्ञ, रंगकर्मी यहाँ आ चुके थे, आते ही रहते थे। ‘राजस्थानी सबदकोस’ के शिल्पी सीताराम लालस और बिज्जी में एक एक शब्द को लेकर देर तक गहन चर्चा होती थी। इनके अलावा नारायण सिंह भाटी, कल्याण सिंह शेखावत,शक्तिदान कविया, नंदकिशोर आचार्य, शीन काफ़ निज़ाम, अर्जुनदेव चारण, हरीश भादानी, नंद भारद्वाज, विजय वर्मा, हेमंत शेष, हबीब तनवीर, अशोक वाजपेयी, मणि कौल, बी वी कारंथ, अकबर पदमसी, अमोल पालेकर, इऱफान खान, लक्ष्मणदान कविया सहित अनगिनत नाम हैं जिन्होंने यहाँ बिज्जी के साथ हथाई और बंतळ की थी। पद्मश्री सीपी देवल तो उनके जामाता ही हैं। दुनिया के अलग-अलग देशों से आने वाले शोधार्थियों के झुंडों के अलावा विश्विद्यालयों के आचार्यों, विद्वानों ने भी तीर्थाटन किया। अब बोरूंदा में सन्नाटा है। बिज्जी की यह स्मृति-गाथा लिखते-लिखते ख़बर मिली कि पिछले सप्ताह चिमनिया भी देह छोड़कर चले गए बिज्जी के पास! ‘रूपायन’ और ‘सबल निकेतन’ हैं पर बिज्जी नहीं हैं, पर यह भी सच है कि दैहिक रूप बिज्जी भले ही अब न हो पर सबल का बल अब भी बिज्जी ही हैं। उनकी अपणायत का बल ! यहीं उनकी स्मृतियों का कोठार है…यहीं अतीत की दृश्यावलियां जीवंत हैं। ‘सबल निकेतन’ की हर दर-ओ-दीवार से बिज्जी की आहट, चहलकदमी, आवाजाही महसूस होती है आज भी।