गेरूआ या लाल चोगा पहने हुए माला फेरते बौद्ध भिक्षुओं को शान्ति के प्रतीक के रूप में दुनिया भर में जाना जाता है पर अपनी सरजमीं से विस्थापित होने की टीस दिल में बसाए ये तिब्बती शरणार्थी भीतर ही भीतर वतनवापसी की उम्मीद में कोयले की तरह तप भी रहे हैं, जो सबको नहीं दिखता।
2002 में चीनी प्रीमियर की मुंबई यात्रा के दौरान, एक युवा तिब्बती कवि, लेखक और रंगज़ेन (स्वतंत्रता) कार्यकर्ता, तेनज़िन त्सुंडु, उस होटल के बाहर मचान पर चढ़ गए, जिसमें चीनी प्रीमियर ठहरे हुए थे और उन्होंने 20 फ़ीट का बैनर फहराया, जिस पर लिखा था “तिब्बत को आज़ाद करो: चीन, बाहर निकलो।” तिब्बत पर चीनी कब्जे के खिलाफ़ एक अनोखे तरीके से विरोध दर्ज करने के कारण युवा एक्टिविस्ट तेनज़िन ने तिब्बत की आज़ादी के संघर्ष की तरफ अंतर्राष्ट्रीय मीडिया का ध्यान आकर्षित किया, जिसे अब तक तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा की आध्यात्मिक छवि के चलते उस तरह दर्ज नहीं किया गया था।
तिब्बत की आज़ादी का मुद्दा एक जटिल और लंबे समय से चला आ रहा भू-राजनीतिक संघर्ष है, जिसमें तिब्बत के ऐतिहासिक संप्रभुता के दावे और चीन के तिब्बत पर अपने नियंत्रण के दावों के बीच टकराव है, जिसके चलते अब तक लाखों तिब्बतियों को अपना देश छोड़कर बतौर शरणार्थी भारत या नेपाल जैसे देशों में अनंत निर्वासन झेलना पड़ रहा है।
तिब्बत: हिमालय जैसा विराट इतिहास
तिब्बत को प्राचीन काल में 'त्रिपिष्टप' या त्रिविष्टप' के नाम से जाना जाता था। अमरकोष में, 'त्रिविष्टप' को स्वर्ग का नाम बताया गया है। तिब्बत को 'संसार की छत' के नाम से भी जाना जाता है।
तिब्बत में बौद्ध धर्म के फैलने से बहुत पहले, यह क्षेत्र 'बॉन धर्म' का घर था, जो सनातन धर्म से काफी मिलता-जुलता था। बौद्ध धर्म के आगमन के साथ, कई बॉन प्रथाएँ बौद्ध परंपराओं के साथ विलीन हो गईं, जिससे तिब्बती बौद्ध धर्म का जन्म हुआ, जिसे हम आज जानते हैं। 7वीं शताब्दी ईसा पूर्व से यहां बौद्ध धर्म का प्रभाव बढ़ना शुरू हुआ। 10वीं शताब्दी में, तिब्बत में ऐसे शक्तिशाली साम्राज्य स्थापित हुए, जिन्होंने मध्य एशिया और चीन के साथ व्यापार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
13वीं शताब्दी में, तिब्बत मंगोल साम्राज्य के अधीन आ गया। 14वीं शताब्दी में, मंगोल साम्राज्य के पतन के बाद, तिब्बत ने कुछ हद तक स्वायत्तता प्राप्त की, लेकिन 17वीं शताब्दी में, तिब्बत में दलाई लामा के नेतृत्व में एक शक्तिशाली धार्मिक और राजनीतिक व्यवस्था स्थापित हुई। 18वीं शताब्दी में, तिब्बत पर किंग राजवंश का नियंत्रण स्थापित हो गया, लेकिन यह नियंत्रण सीमित था। 1911 में, किंग राजवंश के पतन के बाद, तिब्बत ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा की।
1950 में, पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (पीआरसी) ने तिब्बत पर आक्रमण किया और इसे अपने नियंत्रण में ले लिया। तिब्बत के कुछ इलाकों को स्वायत्तशासी क्षेत्र में बदल दिया गया और बाक़ी इलाकों को इससे लगने वाले चीनी प्रांतों में मिला दिया गया। लेकिन साल 1959 में चीन के ख़िलाफ़ हुए तिब्बती नागरिकों के एक विद्रोह के बाद 14वें दलाई लामा को तिब्बत छोड़कर भारत में शरण लेनी पड़ी जहां उन्होंने निर्वासित सरकार का गठन किया।
साठ और सत्तर के दशक में चीन की सांस्कृतिक क्रांति के दौरान तिब्बत के ज़्यादातर बौद्ध विहारों को नष्ट कर दिया गया। माना जाता है कि दमन और सैनिक शासन के दौरान हज़ारों तिब्बतियों की जाने गई थीं। जब तिब्बत का चीनीकरण शुरू हुआ तब तिब्बत की भाषा, संस्कृति, धर्म और परम्परा सबको निशाना बनाया गया।
चीन के कब्जे के दौरान किसी बाहरी व्यक्ति को तिब्बत और उसकी राजधानी ल्हासा जाने की अनुमति नहीं थी, इसीलिये उसे प्रतिबन्धित शहर कहा जाता था। विदेशी लोगों के तिब्बत आने पर ये पाबंदी 1963 में लगाई गई थी। हालांकि 1971 में तिब्बत के दरवाज़े विदेशी लोगों के लिए खोल दिए गए थे। सन 1997 में आई मशहूर हॉलीवुड फ़िल्म Seven Years in Tibet भी चीन, दलाई लामा और तिब्बत के संघर्ष की कहानी कहती है।
तिब्बत का चीन के साथ संघर्ष आज भी जारी है। तिब्बत का कहना है कि वह एक स्वतंत्र राष्ट्र था और चीन ने उस पर अवैध रूप से कब्जा किया है। चीन का कहना है कि तिब्बत 13वीं शताब्दी से उसका हिस्सा रहा है। आज केंद्रीय तिब्बती प्रशासन (सीटीए), यानि निर्वासित तिब्बती सरकार, भारत के धर्मशाला (हिमाचल प्रदेश) से चल रही है।
आम तिब्बती का निर्वासित जीवन
तिब्बत की बात होती है तो ज़्यादातर बहस सिर्फ़ यहां के राजनीतिक संघर्ष पर ही होती है। लेकिन अनंत निर्वासन में रह रहे आम तिब्बती लोगों के संघर्षों का ज़िक्र कम ही आख्यानों में आ पाता है। चीनी पंजे से निकलने को छटपटाता हुआ देश तिब्बत और उसके आम बाशिंदे, जो स्वतंत्रता सेनानी भी हैं, वे अपने अनवरत संघर्ष के बावजूद कभी मुख्यधारा की हेडलाइन नहीं बन पाते।
आज अंतरराष्ट्रीय पटल पर कई वैश्विक ताकतों द्वारा दलाई लामा को अगर चीन के विरुद्ध सियासी औजार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है तो तिब्बती शरणार्थी सिर्फ़ दुनिया की संवेदना जीतने का जरिया बनकर रह गया है।
ग़ौरतलब है कि भारत में तिब्बती शरणार्थियों को पूर्ण नागरिकता का अधिकार भी हासिल नहीं हैं, जिससे सरकारी नौकरियां और अन्य लाभ उन्हें नहीं मिल पाते। उन्हें अभी भी 'विदेशी' का सरकारी दर्जा हासिल है और उन्हें जो पंजीकरण प्रमाणपत्र जारी किया जाता है, उसे समय समय पर नवीनीकृत करवाना पड़ता है।
तिब्बती शरणार्थी बेशक देश की बाकि संस्कृतियों में घुल मिल गए हैं लेकिन आज भी लोग उन्हें कभी थाई, कभी जापानी, कभी नेपाली, कभी पूर्वोत्तर भारतीय तो कभी चीनी नागरिक समझते हैं। तिब्बती शरणार्थी अमूमन कम से कम तीन जुबानें बोल सकते हैं, अंग्रेज़ी, हिंदी और स्थानीय मगर अपनी मादरी ज़ुबान तिब्बती में वे अपनी आज़ादी की उम्मीद भरी धुन गुनगुनाते रहते हैं।
बेहद न्यूनतम सुविधाओं के बीच जीवन यापन करते तिब्बती शरणार्थी कहीं ढाबों रेस्तराओं में खाना बनाते हैं, कहीं सालाना बाजारों में ऊनी कपड़े बेचते हैं, कहीं पत्थर से बने ताबीज़ और अंगूठियां बेचते हैं, कहीं पहाड़ी सड़कें बनाने के लिए मज़दूरी करते हैं और पत्थर ढोते हैं तो कहीं ठेलों पर मोमो और लाफिंग बेचते मिलते हैं मगर हिमालय की गोद में बसे अपने देश तिब्बत में स्वाभिमान से लौटने का ख्वाब बचाए रखते हैं।
दिल्ली में मजनू का टीला हो या धर्मशाला में नॉर्बुलिंका या कर्नाटक की ढोंडेलिंग कॉलोनी, इन तिब्बती शरणार्थी कॉलोनियों में 'स्थानीय बनाम शरणार्थी' का संघर्ष भी जारी रहता है। लेकिन अपनी जीवटता के साथ ये तिब्बती अपने जीवनयापन में लगे रहते हैं।
मुज़ारों की तरह गैर ज़मीन को भी अपने खून पसीने से सींचते हुए दुनिया भर में बसे तिब्बती शरणार्थी हर 10 मार्च को तिब्बत की आज़ादी के लिए एक सांकेतिक मार्च निकालते हैं लेकिन यह दृश्य सिर्फ़ अखबारों में एक छोटी सी सालाना खबर बनकर रह जाता है और तिब्बत के निर्वासितों का जीवन फिर मजबूरी के उसी ढर्रे पर रेंगता रहता है।
सियासी खींचतान में हाथों और स्मृति से छूटता देश
लोग बौद्ध भिक्षुओं को देखकर यही सोचते हैं कि तिब्बती सिर्फ मौन अहिंसा और मुर्दा शांति के प्रतीक हैं लेकिन उन सब तिब्बती स्वतंत्रता सेनानियों के नाम किसी को नहीं याद, जिन्होंने बौद्ध होकर भी अपनी सरजमीं को आज़ाद करवाने के लिए चीन जैसी शक्ति के विरुद्ध बगावती जंग छेड़ी और लड़ते जूझते हुए शहीद हुए।
सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि आज तिब्बत दुनिया के मानचित्र पर कहीं नहीं दिखाई देता। तिब्बत से दूर पैदा होने वाले बच्चों को अपने देश के बारे में बताते हुए तिब्बती एक कलात्मक नक्शा खींचते हैं, जिसमें तिब्बत की जनजातियां और क्षेत्रों का विवरण होता है। अमूमन हर तिब्बती शरणार्थी के घर में दलाई लामा की तस्वीर के साथ तिब्बत देश का नक्शा टंगा दिखेगा; ताकि अपनी असल पहचान से नई पीढ़ी जुड़ी रहे। पश्चिम आज भी तिब्बत को वह मिथकीय 'शंग्रीला' समझता है, जो लोगों की कल्पना मात्र है लेकिन हाड-मांस के बने इन बौद्ध शरणार्थियों के दिल में आज भी अपने पराधीन देश का असली नक्शा छपा हुआ है।
लद्दाख से बहुत पास ल्हासा दिखाई तो देता है लेकिन इसकी कोई सरहद दिखाई नहीं देती मगर चीन, तिब्बत और भारत को पाटती हुई एक अदृश्य सरहद है ज़रूर।
विडम्बना देखिए कि सेमिनारों में बैठे कॉमरेड एक सीमाविहीन और सरहद-वीज़ा रहित दुनिया की परिकल्पना करते हैं लेकिन उन्हीं का कम्युनिस्ट चीन अपनी सरहद फैलाता जा रहा है और तिब्बतियों जैसे लाखों लोगों को दरबदर कर उनकी (राष्ट्रीय) पहचान से भी जबरन महरूम कर रहा है और 'फ्री तिब्बत' के पोस्टर तक लगाने वालों को जेल में भरकर यातनाएं दे रहा है। ऐसे में गुलज़ार का लिखा याद आता है:
"लकीरें हैं तो रहने दो।
किसी ने रूठ कर गुस्से में शायद खींच दी थीं।
इन्हीं को अब बनाओ पाला
और आओ, कबड्डी खेलते हैं।"