एक स्त्री होने के नाते इस डॉक्यूमेंट्री को देखते हुए पूरे समय खुद के अस्तित्व को लेकर अवचेतन में कुछ उमड़-घुमड़ होती रही। कितना बेरहम है हमारा यह समाज कि जिसके बिना सृष्टि का चलना मुश्किल है, उसी को नमक चटा कर, यूरिया मुंह में ठूंस कर या गर्दन मरोड़ कर मार डाला जाता है। 'द मिडवाइफ्स कन्फेशन' के नाम से यह डॉक्यूमेंट्री बनाई है, अमिताभ पराशर ने जो कि एक वरिष्ठ पत्रकार हैं। देश में महिलाओं की स्थिति पर हमेशा से चर्चा होती रही है, लेकिन नवजात बच्चियों की हत्या का मुद्दा उठाने वाली यह डाक्यूमेंट्री जिस तरह से समाज के क्रूर चेहरे को उजागर करती है, वह हमें झकझोर कर रख देता है। 

इसमें बिहार के कटिहार और पटना का परिवेश दिखाया गया है। जहाँ बेटियों को जन्म के तुरंत बाद ही मार दिया जाता है। बीबीसी के लिए बनाई गई इस डाक्यूमेंट्री में केवल उन घटनाओं की तथ्यात्मक प्रस्तुति नहीं है, बल्कि समाज के पितृसत्तात्मक मानसिकता को यह बहुत गहरे तक उजागर किया गया है।

एक बच्ची के कहीं फेंके जाने की घटना से यह फ़िल्म शुरू होती है और उसके बाद धीरे-धीरे निर्देशक और खोजी पत्रकार की पड़ताल आगे बढ़ती है और हमारे भारतीय समाज एक और चेहरा उजागर होता है। कई सालों में इकट्ठी की गई वास्तविक फुटेज में हम देखते हैं कि किस तरह इन इलाकों में बेटियों को बेरहमी से मरवा दिया जाता है, वो भी सिर्फ इस लिए कि दहेज देना पड़ेगा, दहेज में सामान देना पड़ेगा। 

इस समाज में बेटियों का जीवन आर्थिक आधार पर आंका जाता है, वे कहीं भी मानवाधिकारों के दायरे में तो आती ही नहीं हैं। कहीं कोई यह सोचते हुए नहीं दिखा कि पढ़-लिखकर यही लड़कियां खुद भी तो कमा सकती थीं। इस फिल्म में चार दाइयों से बातचीत के जरिये धीरे-धीरे यह खुलासा होता है कि बरसों से किस तरह इस क्षेत्र में नवजात बच्चियों की हत्या को अंजाम दिया जाता रहा है। 

दर्दनाक सच को सामने लाती फिल्म

कैमरे के सामने ये दाइयां खुलकर स्वीकार करती हैं कि उन्होंने बच्चियों को मारने के लिए अनेक प्रकार के तरीके अपनाए – नमक चटाकर, यूरिया मुंह में ठूंस कर या गला घोंटकर। सबसे दर्दनाक यह है कि ये हत्याएँ केवल इसलिए की जाती थीं क्योंकि भविष्य में दहेज देना पड़ेगा। 

स्त्रियों के मन की बात न कभी सुनी गई, न कभी पूछी गई। मांएँ रोती रह जाती पर बेटियों के मारने काम चलता रहा। आगे चलकर एक संस्था की डायरेक्टर से बातचीत से बहुत सारे बच्चियों के मारने की पुष्टि होती है। कुछ बच्चियों को जिंदा भी फेंक दिया गया था। कैमरे के आगे सभी दाइयों ने यह भी बताया कि किस वर्ग के लोग इस तरह बच्चियों को मरवाते थे। 

विडंबना देखिए ब्राह्मण, राजपूत और वैश्य लोगों के घर में इस तरह की हैवानियत को अंजाम दिया जाता था। जबकि वहीं हाशिए की महिलाएं जो दाई का काम करती है उनके घर कई-कई बेटियां थीं। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि सामाजिक प्रतिष्ठा और संपत्ति से जुड़े डर के कारण बेटियों को मारा जाता था, जबकि आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों में इस तरह की मानसिकता कम है।

बस एक बात बार बार परेशान करती रही कि क्यों नहीं दाइयां मना कर देती थीं मारने से - कि हम नहीं मारेंगे, शायद मां-बाप मान जाते, न मारते। कैसे हिम्मत हुई होगी एक जन्मते बच्चे को मारने की। वे भी तो किसी की मां थीं न। इतनी निर्दयी कैसे हुईं। क्या पैसे के लोभ ने यह सब करवाया? क्या डर नहीं लगा कि किसी दिन इसका खुलासा होगा तो पकड़े भी जायेंगे। क्या ये औरतें भी पुरुष सत्ता की पोषक बनी रहीं? इनका दिल इतना मजबूत कैसे हुआ कि नवजात शिशु की हत्या करती रहीं, ऐसे बहुत से सवाल हैं जो मेरा पीछा नहीं छोड़ रहे हैं।

ऐसा नहीं है कि इस डाक्यूमेंट्री में सब कुछ बुरा ही बुरा है, निर्देशक अमिताभ पराशर इसी समाज के सकारात्मक पक्ष को भी इस फिल्म में दिखाते हैं। उन्होंने दो ऐसी बेटियों से मुलाकात की, जिन्हें गोद लिया गया था। इनमें एक बहुत छोटी है और एक पढ़-लिखकर नौकरी कर रही है। जो बच्ची बड़ी हो गई है और नौकरी कर रही है, उसको दाई से मिलवाया गया जिसने उसे बचाकर संस्था में भेजा था। इस मुलाकात में दाई फूट-फूटकर रोती है, शायद उनको अपने वो दिन याद आये होंगे जिन दिनों बच्चियों के माता-पिता के कहने उन्होंने हत्याएं कीं। 

फिल्मकार के कई बार पूछने पर भी दाई ने यह स्वीकार नहीं किया कि उसे कोई पछतावा है। फिल्म डायरेक्टर ने कैमरे के आगे बार-बार पूछा मगर उस दाई ने यही कहा कि पुराना कुछ याद नहीं आया, बस उस बच्ची को देखकर रोना आया। मुझे यह देखकर भी हैरानी हुई कि बच्चियों को मारने के बारे में बताते हुए दाइयों के चेहरे न कोई शिकन थी न बहुत मलाल हीं दिखा। एक स्त्री से ही एक स्त्री बनने वाली बच्चियों को मरवाता रहा हमारा पितृसत्तात्मक समाज।

जिस दिन मैंने यह डाक्यूमेट्री देखी उसी दिन सुबह दस बजे से शाम चार बजे तक मेरा रंग फाउंडेशन की एक वर्कशॉप में महिलाओं के साथ जेंडर संबंधी भेदभाव से जुड़े तमाम पहलुओं पर बात हुई। कैसे स्त्री पर कितने सारे बोझ लादे गये हैं। स्त्री घर भी संभाल ले, नौकरी भी कर ले, धार्मिक नेताओं के मुताबिक बहुत सारे बच्चे भी पैदा कर ले और उसके बाद भी दोयम दर्जे की बनी रही। 

ये समाज का दर्पण है इसमें देखा जा सकता है कि कैसे स्त्री होना सबसे नीचे वाली योनि में गिना जाता है। इन सारी चर्चाओं से गुजरकर जब शाम 6:30 पर ये फिल्म देखी तो रोना आ गया। फिल्म देखते हुए कई बार खुद को मजबूर सा महसूस किया। ऐसा लगा कि कुछ नहीं कर सकते समाज में व्याप्त इस अमानवीयता का। 

सच्चाई यह है कि आज भी ऐसे केस हो रहे हैं, लड़कियों को आज भी मारा जाता है या कहीं फेंक दिया जाता है। यह फिल्म इतने बुरे तरीके से हमें झकझोर देती है कि देखने के बाद हर कोई कुछ समय के लिए स्तब्ध था। 

amitabh parashar
अमिताभ पराशर

 फिल्म खत्म होने के बाद निर्देशक के साथ हमारी कुछ देर चर्चा भी हुई। उन्होंने बताया कि कैसे बीते 30 सालों से वह इस एक स्टोरी को लगातार फॉलो करते रहते। जब मौका मिला शूट करते रहे। मेरा फिल्म के निर्देशक से एक सवाल था कि कब और क्या देखकर आपको लगा कि इस विषय पर फ़िल्म बनानी चाहिए? अमिताभ जी ने बताया कि एक अखबार में छपी खबर ने उन्हें इतना झकझोरा कि उन्होंने तय किया कि वे इसकी गहराई में जाएंगे। सच में वे न सिर्फ इस अमानवीयता की तह तक गए बल्कि पत्रकारिता के माध्यम से समाज के इस अंधेरे कोने को उजागर किया।

अमिताभ पाराशर की यह फिल्म एक आईने की तरह हमारे समाज की सच्चाई को दिखाती है। यह ऐसा मुद्दा है, जिस पर हमें न केवल चर्चा करनी चाहिए, बल्कि इसके खिलाफ आवाज भी उठानी चाहिए। हमें यह समझना होगा कि बेटियाँ किसी पर बोझ नहीं, बल्कि समाज की आधारशिला हैं। जब तक यह सोच नहीं बदलेगी, तब तक लड़कियों की हत्या जैसी क्रूरताएं होती रहेंगी। इस साहसिक पत्रकारिता और समाज के अंधेरे पक्ष को उजागर करने के लिए अमिताभ पराशर को बधाई। यह डॉक्यूमेंट्री एक नई बहस की शुरुआत करती है और हमें सोचने पर मजबूर कर सकती है कि जन्म लेते ही बेटियों को मारने वाला हमारा समाज क्या सभ्य कहलाने लायक है?

Shalini Srinet
शालिनी श्रीनेत

आर्टिकल की लेखिका- शालिनी श्रीनेत

परिचय- शालिनी श्रीनेत सोशल एक्टीविस्ट और 'मेरा रंग' एनजीओ की संस्थापक हैं, जो घरेलू हिंसा पीड़ितों की सहायता करता है। इसके अलावा, वे साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों में भी सक्रिय रहती हैं।