गैब्रियल गार्सिया मारक़ेज़ की एक कहानी है- ‘आई सेल माई ड्रीम्स’। कहानी की नायिका सपने देखती है और उनकी व्याख्या करती है। उसकी व्याख्याओं का आतंक ऐसा है कि लोग उनके हिसाब से अपने दिन का कामकाज तय करते हैं और उसकी चेतावनी पर मुल्क छोड़ कर चले जाते हैं। एक दिन वह चिली के कवि पाब्लो नेरुदा से मिलती है। नेरुदा कहते हैं कि उन्हें सपनों पर नहीं, कविता पर भरोसा है। लेकिन उसी दिन नेरुदा सपना देखते हैं कि वह लड़की उनके बारे में सपना देख रही है। वह लड़की भी सपना देखती है कि नेरुदा उसके बारे में सपना देख रहे हैं। 

यह कहानी याद दिलाती है कि सपने उतने सरल या सुंदर नहीं होते जितने हमें लगते हैं। वे अपने भीतर बहुत जटिल यथार्थ छुपाए रखते हैं- इतना जटिल कि उसे हम अपनी सरलरेखीय तर्क पद्धति से समझ नहीं पाते। अपनी नींदों की अंधेरी दुनिया में जो सपने हम देखते हैं वे सुबह होते-होते विलुप्त हो जाते हैं- बस उनकी छायाएं बची रहती हैं, एक धुंधली सी स्मृति जिसे कुछ अनिश्चय के साथ हम जीना चाहते हैं। बेशक, कुछ सपने बहुत गाढ़े होते हैं, वे नींद में बार-बार लौटते हैं और जागते हुए भी बरसों हमारा पीछा करते हैं। उनकी चमक भले कुछ कम हो जाती हो, लेकिन हम बरसों उनके असर में रहते हैं।

अकीरा कुरोसावा की एक फिल्म है- ‘ड्रीम्स’। यह एक जटिल सी फिल्म है। कहते हैं, यह उसने अपने सपनों को जोड़ते हुए बनाई थी। फिल्म के आठ हिस्से हैं- आठ देखे हुए सपने- जो मन और जीवन की गुत्थियों के आसपास भटकते हैं। फ्रायड कहता ही था कि सपनों में हमारी सबसे गहरी कामनाएं, सबसे गहरे भय और सबसे तीखे द्वंद्व चुपचाप चले आते हैं।

इन सबके उल्लेख का मक़सद बस यह बताना है कि एक लेखक जो सपने देखता है- उनमें उसकी देखी हुई दुनिया की परछाइयां होती हैं और कई बार वह जागी हुई दुनिया में भी उन परछाइयों का पीछा कर रहा होता है।

लेकिन यहां हम उन सपनों की बात कर रहे हैं जो हम जागी हुई आंखों से देखते हैं। क्या एक लेखक के तौर पर मेरे पास ऐसा कोई सपना है? कुछ मामूली सपने हर व्यक्ति के पास होते हैं। मैं ऐसे सपनों के बारे में सोचना चाहूं तो सपाट ढंग से कुछ सपने गिना सकता हूं- अच्छा लिखने का सपना, पढ़े और समझे जाने का सपना, कुछ प्रसिद्धि पाने का सपना और ऐसे आर्थिक आधार का सपना जिसमें सम्मानपूर्वक जीवन जिया जा सके।

लेकिन ये बहुत मामूली सी चीज़ें भी अगर मेरे सपनों या मेरी कल्पनाओं का हिस्सा हैं तो इसका मतलब यह है कि जीवन अभी तक इनसे वंचित है। जो लिखना चाहता हूं वह लिख नहीं पाया, जो लिखा उसे मेरी अपेक्षाओं के मुताबिक पढ़ा नहीं गया, प्रसिद्धि जैसी चीज़ दूसरों पर मेहरबान दिखती है और आर्थिक आधार के लिए नौकरी करने की मजबूरी है। 

निस्संदेह यह बहुत निजी क़िस्म के सपने हैं। कुछ सपने सार्वजनिक भी हैं- ऐसे सपने जो किसी लेखक को देखने ही चाहिए- मसलन खुशहाल समाज का सपना, सबके लिए बराबरी और न्याय का सपना, नफ़रत और हिंसा से मुक्त एक दुनिया का सपना। कहने की ज़रूरत नहीं कि यह सपना कुछ ज़्यादा ही अप्राप्य साबित हो रहा है- इसके लक्ष्य अलंघ्य होते जा रहे हैं। 

लेकिन क्या ये सपने हैं? ये मामूली इच्छाएं या भोली कल्पनाएं भर हैं। सपने कुछ और होते हैं। वे आपके भीतर एक जुनून पैदा करते हैं। लेकिन ऐसे सपने कब आते हैं? मेरे भीतर ऐसा कोई सपना क्यों नहीं है? क्या मैं विकट स्वप्नहीनता में जी रहा हूं और कल्पनाओं को स्वप्न की तरह देख रहा हूं? 

यह सवाल मुझे अगले सवाल तक ले जाता है। क्या यह पूरा युग ही स्वप्नविहीनता का है? क्या बड़े सपने देखे जाने का समय ख़त्म हो गया है? क्या यह छोटी लड़ाइयों और छोटे सपनों का समय है? क्या मैं इसी समय की संतान हूं और इसलिए मेरे भीतर कोई ऐसा सपना नहीं है जिसे साझा करते हुए किसी उदात्त अनुभव को छूने का, उसकी रोशनी में जगमग होने का एहसास हो?

इसके बाद एक सवाल और पैदा होता है। जिस तरह सभ्यताएं सभ्यताओं से टकराती हैं, जिस तरह राज्य राज्यों से टकराते हैं, क्या उसी तरह सपने भी सपनों से टकराते हैं? हमारे समय में कुछ दूसरी तरह के सपने लगभग अट्टहास की मुद्रा में हैं- विश्व गुरु होने का सपना, लोकतंत्र की जगह धार्मिक वर्चस्ववाद को थोपने का सपना, सबसे ताकतवर बनने का सपना- ये डरावने सपने हैं। ये सपने मेरे मामूली सपनों को जैसे लील जाते हैं। 

यह सच है कि एक लेखक के रूप में मेरी हताशाएं मेरे स्वप्नों से बड़ी हैं। मैं अपने आसपास ऐसी दुनिया बनती देख रहा हूं जो बाज़ार की चमक-दमक में खोई हर अनुभव को वस्तु में बदल रही है और हर वस्तु की तरह उसका मोल लगा रही है। जो भी है, वह ख़रीदे-बेचे जाने के लिए है। यह ख़रीदना-बेचना भी चीज़ों के वास्तविक मूल्य पर आधारित नहीं है, यह भड़कीले विज्ञापनों, बाज़ार के बड़े खिलाड़ियों की रणनीतियों और बहुत चमकीली रोशनी में अपनी आंखें जैसे खो चुके एक समाज की प्राथमिकताओं से तय हो रहा है। इस समाज में सपने बेहद सस्ते हैं जिनका बहुत आसानी से मोल लगाया जा सकता है।

लेकिन शायद यह इंसान होने की फितरत है, शायद लेखक होने की लत है कि जैसे हम लिखना नहीं छोड़ते, वैसे स्वप्न देखना नहीं छोड़ते। तो सपने हमें आते रहते हैं। वे इस बजबजाते यथार्थ की सुरंग में रोशनी का काम करते हैं, वे हमें हमारी उस एकरस अमानवीयता से उबारने का काम करते हैं जो कोई सपना न होने की स्थिति में हमें लगभग मार डाले। 

सबसे सुंदर सपने प्रेम की चाहना से जुड़े होते हैं, सबसे उदात्त सपने न्याय की कामना से जुड़े होते हैं, सबसे अच्छे सपने उस सबसे गहरी नींद में आते हैं जब हम इस समाज के साथ अपने समझौतों की घुटती हुई दिनचर्या से लड़ते हुए, बहुत गहरी थकान के बीच, आंख मूंद लेते हैं और अपने उस अवचेतन को जीते हैं जो जागती अवस्था में राख और रेत में दबा होता है। 

मेरे सपनों का रंग अमूमन धूसर होता है- सोते हुए देखे गए सपनों का भी और जागती आंखों से सोचे गए सपनों का भी। कई बार मुझे लगता है कि लिखते हुए भी मैं सपना ही देखता हूं- बेशक, यथार्थ की एक ज़ंजीर मुझे बांधे रहती है जो एक हद से ज़्यादा उड़ने नहीं देती, लेकिन कई बार वह सपना अपने साथ बहाए ले जाता है। तब लिखना बहुत सोच-समझ कर नहीं होता, वह सुनियोजित क़िस्म की योजना का हिस्सा नहीं होता, वह एक आवेग से निकलता है, सबकुछ तोड़-मरोड़ देने की उद्दाम इच्छा से और फिर सबकुछ जोड़ देने के संयत विवेक से। इस उद्दाम इच्छा और संयत विवेक के संघर्ष से ही मेरे शब्द भी निकलते हैं और मेरे स्वप्न भी।

कई बार मुझे लगता है कि समाज का काम सच्चाई के बिना तो चल सकता है, सपनों के बिना नहीं। सपने न हों तो सच्चाइयां वे मृत देह हो जाएं जिन्हें हम किन्हीं वेताल की तरह अपने कंधों पर थामे अभिशप्त विक्रम बने घूमते रहें और उस कहानी का इंतज़ार करते रहें जिसका सही अर्थ समझ कर हम अपने सिर के सौ टुकड़े होने से बचा सकते हैं। सपने न हों तो यथार्थ वह फंदा बन जाए जिसमें हमारी गर्दनें टूट जाएं। हम बचे हुए हैं तो इसलिए कि हमारे पास सपनों का एक कवच है- भले ही हमें उसका भान नहीं है। 

यहां से फिर अपने सपने की ओर लौटता हूं। एक लेखक के रूप में क्या है मेरा सपना? क्या वाकई बस लिखना, बिकना, शोहरत और समृद्धि हासिल करना? क्या यह काम किसी दूसरे तरीक़े से नहीं हो सकता था? जाहिर है, लिखने का स्वप्न मेरे लिए जीने का स्वप्न है- ऐसा स्वप्न जिसके दर्पण में मैं रोज़ ख़ुद को नए सिरे से पहचानता हूं, रोज़ किसी नए सपने के लिए खुद को तैयार करता हूं। जिस विकट स्वप्नहीनता की बात ऊपर मैंने की थी, उसके यथार्थ से मुठभेड़ का सपना भी मेरे लेखन का बीज बनता है। जब भी मैं लिखता हूं, उसके साथ-साथ एक सपना भी देखता हूं। इस सपने को समझना, पकड़ पाना आसान नहीं होता। लेकिन वह होता है हमारे भीतर और दूसरों की मौजूदगी भी उसे रचती है। ऊपर मारक़ेज़ की जिस कहानी के ज़िक्र से यह टिप्पणी शुरू हुई थी, उसमें सपनों की व्याख्या करती हुई लड़की और कवि पाब्लो नेरूदा एक-दूसरे को एक-दूसरे का सपना देखते हुए अलग-अलग सपने देखते हैं। हम सब शायद ऐसे ही एक-दूसरे के सपनों में शामिल होते हैं। हम किसी और के हिस्से का स्वप्न देख रहे हैं, कोई हमारे हिस्से के सपने रच रहा है। इन सबको मिला कर शायद बनता है वह महास्वप्न, जो इस महायथार्थ से मुठभेड़ में हमारी मदद करता है, जो हमें अच्छा-बुरा कुछ भी लिखने लायक बनाता है, जो हमें किसी भी सूरत में अपने स्वप्न बचाए रखने को तैयार करता है।  

धर्मवीर भारती के कविता संग्रह ‘सपना अभी भी’ में शामिल कविता ‘क्योंकि’ की ये पंक्तियां उद्धृत करने का मन हो रहा है-

‘और मुझको

ढाल-छूटे, कवच टूटे हुए मुझको

-फिर तड़प कर याद आता है कि

सबकुछ खो गया है- दिशाएं, पहचान, कुंडल, कवच 

लेकिन शेष हूं मैं, युद्धरत मैं, तुम्हारा मैं

तुम्हारा अपना अभी भी

इसलिए तलवार टूटी, अश्व घायल

कोहरे डूबी दिशाएं,

कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सबकुछ धुंध धूमिल

किंतु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी

....क्योंकि है सपना अभी भी।‘

लेकिन यह सच है कि मुझे अब भी अपने उस सपने का इंतज़ार है जिसे जीते हुए मैं कह सकूं कि देखो यह मेरा सपना है और इसके लिए मैं जुनून की हद तक जाने को, जान देने को तैयार हूं। मगर ऐसे सपने अपने-आप को शायद हमेशा प्रगट नहीं करते। वे किन्हीं निर्णायक घड़ियों में, किन्हीं अंतिम क्षणों में किसी यथार्थ के सामने खड़े हो जाते हैं कि आओ और मुझे चुनो। मुझे उम्मीद है कि ऐसी कोई घड़ी आएगी तो मैं अपने सपने के साथ खड़ा रहूंगा, और उसके सहारे यथार्थ को बदलने का सपना देखूंगा।