देश के विभाजन पर आधारित मंटो की कहानी 'टोबा टेक सिंह' में विभाजन से उपजी उलझन का शिकार हुआ किरदार बिशन सिंह अपने गांव के बारे में जब पूछता है, ''टोबा टेक सिंह कहाँ है? पाकिस्तान में या हिंदोस्तान में?” तो लगभग यही मनोभाव उन लाखों लोगों का रहा होगा, जो सरकारी फैसले के चलते रातोंरात अपने ही देश में अजनबी हो गए थे. चारों तरफ फैली विभाजन की अफरातफरी और उलझन में इन लाखों लोगों को अपना घर और अपनी जमीन छोड़कर एक नई सरज़मीं पर बतौर शरणार्थी आना पड़ा था.
इससे बड़ी दुविधा क्या होगी कि एक तरफ अंग्रेजी हुकूमत से आज़ादी के जश्न मनाया जा रहा था, तो दूसरी ओर आधे से भी ज़्यादा आबादी अपनी मिट्टी से दरबदर होने का दर्द झेल रही थी. यही शरणार्थी, जो नई खिंची सरहदों को लांघकर अपने नए पते की तलाश में हिन्दुस्तान आए थे, इनकी आपबीती भी इतिहास का वह पन्ना है, जो खून, पसीने और आंसुओ से लिखा गया है.
नए पते, नायक और नामकरण
पंजाब, गुजरात, राजस्थान और बंगाल को चीरकर जाती हुई रेडक्लिफ लाइन ने जिन बसे बसाए लोगों को लापता कर छोड़ा, उन्हें वापिस आबाद करने के लिए हिंदुस्तानी सरकार ने उनके सिर ढकने के लिए पहले पहल अस्थाई कैंप लगाए. दिल्ली में लाल किला, किंग्सवे कैंप, महरौली आदि इन शरणार्थियों की शरणस्थली बने. अम्बाला, कुरुक्षेत्र, करनाल, अमृतसर जैसे शहरों में भी शरणार्थी कैंप बनाए गए, जो बाद में 'मॉडल टाउन' के नाम से इन शरणार्थियों के स्थाई ठिकाने बने.
सरकार ने इन शरणार्थियों के लिए जो बस्तियाँ बसाईं, उनके नाम आज़ाद मुल्क के नए नायकों के नाम पर रखने का फैसला किया. मालवीय नगर, पटेल नगर, मुखर्जी नगर, राजेंद्र नगर, कमला नगर, लाजपत नगर, सुभाष नगर जैसे इलाकों का नाम स्वतंत्रता सेनानियों के नाम पर होना इनकी नायकों की स्मृति को अमर कर गया.
आज की मशहूर खान मार्केट का नाम एनडब्ल्यूएफपी (NWFP) के एक स्वतंत्रता सेनानी खान अब्दुल गफ्फार खान के नाम पर रखा गया था, जिन्हें फ्रंटियर गांधी के नाम से भी जाना जाता है। उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत (North-West Frontier Province), जिसे अब पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा प्रांत के रूप में जाना जाता है, वहां से लगभग सौ शरणार्थी परिवार इस इलाके में बसाए गए थे।
दक्षिण दिल्ली का चित्तरंजन पार्क वह क्षेत्र था जहाँ पूर्वी पाकिस्तान, जो अब बांग्लादेश है, से दिल्ली आए शरणार्थी बसाए गए थे। पहले इस इलाके को ईपीडीपी कॉलोनी (पूर्वी पाकिस्तान विस्थापित व्यक्ति कॉलोनी) कहा जाता था जो शुरू में बंजर और पथरीला था लेकिन आज समय के साथ यह संभ्रांत दिल्ली का हिस्सा बन गया।
पुनर्वास और जातीय-वर्गीय पक्षपात
वरिष्ठ पत्रकार पलाश विश्वास लिखते हैं, ''पूर्वी पाकिस्तान के सवर्ण शरणार्थी, विभाजन से पहले और विभाजन के दौरान पश्चिम बंगाल और दिल्ली में बसाए गए. कारोबार, राजनीति, साहित्य और संस्कृति में इन्ही का वर्चस्व रहा. लेकिन दिलचस्प है कि पश्चिम बंगाल और पश्चिम बंगाल से बाहर राज्यों, महानगरों और नगरों में बसे बंगाली विस्थापितों में से 99 प्रतिशत लोग दलित हैं, जिनकी नागरिकता अभी तक बहाल नहीं हुई है. इनमें दस प्रतिशत लोगों का भी पुनर्वास नहीं हुआ. जिनका पुनर्वास हुआ उन्हे जंगल, पहाड़, द्वीप में पुनर्वास की रस्म अदायगी के साथ बाघ का चारा बना दिया गया.
ये जड़ों से उखाड़ दिए गए छिन्नमूल मनुष्य हैं जो दलित हैं, जो मातृभाषा, भूमि अधिकारों, आरक्षण और नागरिक मानवाधिकार से वंचित हैं. जो इतिहास, भूगोल, भाषा, साहित्य, संस्कृति, नागरिकता से बेदखल लोग हैं. इनकी कथा न साहित्य में है और न इतिहास में.''
पलाश जी शरणार्थियों के जिस पक्षपाती पुनर्वास की तरफ इशारा करते हैं, उसे इतिहास में दंडकारण्य प्रोजेक्ट के नाम से दर्ज किया गया. दंडकारण्य प्रोजेक्ट भारत सरकार द्वारा सितंबर 1958 में शुरू की गई एक परियोजना थी जिसका मुख्य उद्देश्य तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से विस्थापित हुए लोगों को दंडकारण्य क्षेत्र, जो मुख्य रूप से छत्तीसगढ़ और ओडिशा के कुछ हिस्सों में फैला हुआ था, में बसाना और इस क्षेत्र का एकीकृत विकास करना था, जिसमें स्थानीय आदिवासी आबादी के हितों का विशेष ध्यान रखा जाना था.
इस क्षेत्र में शुरुआती पुनर्वास उन शरणार्थियों का किया गया, जिनमें से कई निम्न जातियों से थे, विशेष रूप से नामशूद्र थे. हालांकि खुले तौर पर कभी दंडकारण्य प्रोजेक्ट को दलितों या शूद्रों की पुनर्वास नीति के रूप में प्रचारित नहीं किया गया था, लेकिन इस परियोजना ने शिविरों में गरीब और अधिक कमजोर शरणार्थियों को असमान रूप से प्रभावित किया, जिनमें से कई निम्न जातियों से थे और उनके पास इस पक्षपाती स्थानांतरण का विरोध करने के लिए कम संसाधन थे। दंडाकारण्य परियोजना का कुप्रभाव स्थानीय जनजातीय समुदायों पर भी पड़ा, जिसके चलते आदिवासियों और शरणार्थियों के बीच संसाधनों को लेकर पर संघर्ष भी चला.
कुछ स्त्रोत बताते हैं कि अनुसूचित जातियों को पुनर्वास के लिए उतनी सहायता या संसाधन नहीं मुहैया करवाए गए जितने कि उच्च-जाति के शरणार्थियों को मिले थे। विभाजन के बाद, पाकिस्तान से आए दलित शूद्र शरणार्थियों को अलग इलाकों में बसाया गया ताकि उनका अन्य समुदायों के साथ 'कम से कम मेलजोल' हो सके. इसी क्रम में पुनर्वास मंत्रालय ने 15 फरवरी, 1948 को विस्थापित दलितों को बसाने के उद्देश्य से एक विशिष्ट 'हरिजन अनुभाग' (Harijan section) की स्थापना की थी.
दिल्ली के रेघरपुरा में इन दलित-शूद्र समुदायों के लिए एक अलग आवासीय कॉलोनी बसाने की योजना बनाई गई. रेघरपुरा के अलावा भी कई इलाकों में अनुसूचित जाति के शरणार्थियों को बसाया गया जैसे कि सिविल लाइन्स, सब्जी मंडी, दिल्ली कैंटोनमेंट, करोल बाग और पटेल नगर जैसे क्षेत्रों में भील आदिवासियों की बसावट की गई वहीं तिमारपुर और बलजीत नगर में विभाजन के बाद अनुसूचित जाति के शरणार्थी लाकर बसाए गए.
लाल फ़ीताशाही के फंदे में फंसा पुनर्वास का पेंच
यूं तो एक त्रासदी यह भी रही है कि देश को बांटने वाली रेडक्लिफ लाइन को खींचने वाले अफसरों में सब स्थानीय परिस्थितियों और भूगोल से अनभिज्ञ थे. स्थानीय पटवारियों और भू-अधिकारियों से इस बाबत कोई मशवरा नहीं किया गया और नतीजतन, हर पक्ष को यह थोपा गया बंटवारा नाजायज ही लगा.
बावजूद इसके, विभाजन के बाद हज़ारों अफसर और पटवारी दिन-रात एक करके पुराने दावों के आधार पर शरणार्थियों को नई भूमि आवंटित करने के काम में लगे रहे. इसके लिए नए भूमि रिकॉर्ड बनाने या मौजूदा रिकॉर्ड को दुरुस्त करने की आवश्यकता पड़ रही थी, जो एक दुरूह काम था और दशकों तक चला. इस बीच कई पुनर्वास अधिकारियों ने अपने जाति-बिरादरी वालों के प्रति पक्षपाती होकर उन्हें नाजायज़ पट्टे भी बांटे.
पश्चिम पंजाब के बहावलपुर और आस-पास के इलाकों से लगभग 600 शरणार्थी परिवार दिल्ली आए थे, जिनमें से ज़्यादातर खेतिहर मज़दूर थे. उन्हें खेती शुरू करने के लिए ज़मीन चाहिए थी. सरकारी स्वयंसेवकों के साथ शरणार्थियों का एक समूह दिल्ली के आसपास उन ज़मीनों को खोजने निकला जिन्हें मुसलमान पाकिस्तान जाते समय छोड़ गए थे, ताकि उन्हें खेतिहर शरणार्थियों को दिया जा सके. उन्हें कुतुब मीनार के पास, मेहरौली के गाँवों में लगभग 6,000 एकड़ ज़मीन मिली. लेकिन उन्हें यह जानकर बहुत हैरानी हुई कि उस ज़मीन का एक बड़ा हिस्सा सरकारी अधिकारियों ने पहले ही अपने नाम करवा रखा था. काफी लंबी लड़ाई के बाद, जिसमें नौकरशाही के साथ बहुत उलझना शामिल था, और पुनर्वास के प्रयासों को कमज़ोर करने की कई कोशिशें की गईं, आखिरकार सरकार ने अफसरों के नाम किया गया ज़मीन आवंटन रद्द किया और उस ज़मीन को शरणार्थियों को दिया गया.
विभाजन के चलते बैठे बिठाए शरणार्थी बन गए लोगों की लंबी और मुश्किल यात्रा भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास का एक अविस्मरणीय अध्याय रहा है. अस्थाई शिविरों में रहकर मुफलिसी में दिन काटने से लेकर भूमि आवंटन के लिए किए गए संघर्ष तक, रिफ्यूजी होने के ताने सुनने से लेकर अपना जीवन दोबारा शुरू करके पटरी पर लाने तक विभाजन के शरणार्थियों ने फीनिक्स (पौराणिक पक्षी) की तरह अटल और अथक जज्बा दिखाया है. इनके संघर्षों की कहानियां आज भी आंसुओं से तर हैं. पीछे छूट गए वतन और घर मोहल्लों की यादें आज भी इनके दिल में लौ सी झिलमिलाती हैं; इसीलिए आज भी एक जीता-जगता धरोहर हैं विभाजन के शरणार्थी और उनकी कहानियां.