माता सुंदरी गुरुद्वारा के करीब ऐवाने गालिब से दरियागंज एक-डेढ़ किलोमीटर भी दूर नहीं होगा। पिछली 20 नवंबर को ऐवाने गालिब सभागार खचाखच भरा हुआ था। सब लोग सर सैयद अहमद खान पर खेले गए ‘सर सैयद’ नाम के एकल नाटक को देखने आए थे। डॉ.एम सईद आलम द्वारा लिखित और निर्देशित नाटक में सर सैयद का किरदार निभा रहे थे मशहूर अखबारनवीस और शायर तहसीन मुनव्वर।
नाटक के खत्म होने के बाद तहसीन मुनव्वर के साथ सेल्फी लेने वालों की भीड़ लग गई। उनके काम को सबने बहुत पसंद किया। उसके बाद बहुत से दर्शक उसी दरियागंज के अपने घरों की तरफ जाने लगे, जहां सर सैयद का जन्म हुआ था।
सर सैयद दिल्ली वाले थे…
सर सैयद को आमतौर पर अलीगढ़ के साथ ही जोड़कर देखा जाता है। इसकी वजह वाजिब ही है। आखिर उन्हीं की कोशिशों से खड़ी हुई अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू)। पर वे थे तो दिल्ली वाले। दिल्ली में उनकी जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा गुजरा। उनका जन्म अब बंद हो गए गोलचा सिनेमा हॉल के पीछे हुआ था। उस जगह को सर सैयद अहमद रोड कहते हैं। वहां की एक बड़ी सी हवेली में पैदा हुए थे सर सैयद अहमद।
एंग्लो अराबिक स्कूल में बॉयोलॉजी के टीचर मकसूद अहमद कहते हैं कि वे 1992 में जब दिल्ली आए तो संयोग से सूई वालान में रहने लगे। उन्हें तब पता चला कि उनके घर के करीब ही सर सैयद का जन्म स्थान है। वे फौरन उस जगह पर गए। उन्हें यह देखकर धक्का लगा कि एएमयू के बानी और मुसलमानों को आधुनिक शिक्षा के महत्व को समझाने वाले शख्स के जन्म स्थान पर फ्लैट बन रहे हैं। उनकी हवेली के आगे घरेलू सामान बेचने वाली दुकानें खुल गई हैं।
मकसूद अहमद ही नहीं, बहुत सारे लोगों को इस बात का अफसोस होता कि सर सैयद के जन्म स्थान की बहुत कम लोगों को जानकारी है। बड़ी मुश्किल से कोई बता पाता है कि सर सैयद का पुश्तैनी घर का रास्ता कहां है।
सर सैयद: अब जन्म स्थान के सिर्फ अवशेष बचे हैं
सर सैयद के परिवार की पुश्तैनी हवेली डेढ़-दो हजार गज में थी। इसमें ही सर सैयद का 17 अक्तूबर 1817 को जन्म हुआ था। उनके परिवार की दिल्ली में खासी प्रतिष्ठा थी। इसी में उनके परिवार के बाकी सदस्य भी रहते थे। अब उनके घर के अवशेष ही बचे हैं। कुछ साल पहले तक यहां गायें-भैंसें बंधी रहती थीं। इधर सिर्फ गंदगी ही गंदगी हुआ करती थी। बीते कुछ समय के दौरान सर सैयद के घर के एक हिस्से को जमींदोज करके फ्लैट और फ्लोर बन गए हैं। इनकी कीमत करोड़ों रुपये में है। अफसोस इसके बाहर किसी ने एक शिलापट्ट लगवाने की भी कोशिश नहीं की ताकि पता चल जाए कि क्यों ये स्थान खास है।
मकसूद अहमद और अल्लांमा रफीक ट्रस्ट के सदस्य बीते कई सालों-दशकों से लगातार कोशिशें कर रहे हैं ताकि सर सैयद के घर के बाहर एक शिलापट्ट लग जाए। उसमें बता दिया जाए कि इधर ही सर सैयद का जन्म हुआ था। उनकी हवेली के कुछ हिस्से में एक लाइब्रेयरी बन जाए। वे इस बाबत स्थानीय नेताओं से लेकर दिल्ली के मुख्यमंत्री से मिलते रहे हैं। दिल्ली की तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने उनसे वादा भी किया था। हालांकि फिर उनकी सरकार ही चली गई। बाकी ने मकसूद अहमद या उनके जैसे किसी को वक्त तक नहीं दिया।
दरियागंज से दिल्ली विधानसभा के सदस्य शोएब इकबाल एक बार बता रहे थे कि उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) के दिल्ली में रहने वाले पुराने छात्रों से सर सैयद के घर को स्मारक या लाइब्रेयरी में तब्दील करने के संबंध में बार-बार बात की। शोएब इकबाल एएमयू के कई पुराने छात्रों से मिले भी, जो अब बड़े ओहदों पर हैं। लेकिन बात आगे नहीं बढ़ी। सब वादे करके भूल गए।
दरियागंज में 100 साल पुराना डीएवी स्कूल भी है। इसके लंबे समय तक प्रिंसिपल रहे रमाकांत तिवारी कहते हैं कि सर सैयद के घर को स्मारक बनाया ही जाना चाहिए। रमाकांत तिवारी और मकसूद अहमद जैसे लोगों की कोई कमी नहीं है जो कहते हैं कि कि अगर सरकार उन्हें सर सैयद के जन्म स्थान के कुछ भाग को सौंप दे वे वहां एक लाइब्रेयरी बनाने के लिए तैयार हैं। लाइब्रेरी का नाम सर सैयद अहमद के नाम पर रखा जाएगा।
गालिब इस्टीच्यूट के डायरेक्टर डॉ. अकील अहमद कहते हैं कि मिर्जा गालिब और सर सैयद अहमद खान में गहरी दोस्ती थी। सर सैयद अहमद ने दिल्ली के महत्वपूर्ण स्मारकों पर ‘आसारुस सनादीद’ (इतिहास के अवशेष) नाम से एक बेहद महत्वपूर्ण किताब भी लिखी। इसका प्रकाशन 1847 में हुआ था। इसमें दिल्ली की ऐतिहासिक इमारतों पर विस्तार से लिखा गया है।
गालिब ने सर सैयद की किताब ‘आईंने अकबरी’ की प्रस्तावना लिखी थी। इससे साफ है कि दोनों में करीबी संबंध थे। कहते हैं कि मिर्जा गालिब एक बार रामपुर गए हुए थे। जब वहां पर पहले से रह रहे सर सैयद अहमद को गालिब साहब के आने का पता चला तो वे उनसे मुलाकात करने के लिए गए। यानी दोनों की दिल्ली से बाहर मुलाकातें हुईं।
क्या है‘आसारुस सनादीद’ में
सर सैयद ने ‘आसारुस सनादीद’ में दिल्ली के जिन स्मारकों का जिक्र किया है, उनमें से कइयों को ब्रिटिश सरकार ने सन 1857 के गदर के बाद नेस्तानाबूत कर दिया था। फिर सन 1911 में दिल्ली के राजधानी बनने के बाद भी कई स्मारक तोड़ दिए गए। ‘आसारुस सनादीद’ में सर सैयद अहमद महरौली स्थित हौज ए शम्सी का जिक्र करते हैं। 800 साल पुराना राष्ट्रीय महत्व का यह ऐतिहासिक तालाब है।
अफसोस कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) ने इसकी कायदे से सुध नहीं ली। एएसआई की संरक्षित स्मारकों की सूची में शामिल यह तालाब बदहाल है। वे ‘आसारुस सनादीद’ बाग ए नजीर का भी जिक्र करते हैं। ये भी महरौली इलाके में है। सर सैयद का किरदार निभाने वाले तहसीन मुनव्वर कहते हैं कि जिस सर सैयद ने दिल्ली और देश के लिए इतनी खिदमात दी हों उनका एहसान भुलाया नहीं जाना चाहिए।
कौन पढ़े ‘आसारुस सनादीद’
बेशक, असरारुस्नादीद हरेक उस शख्स को पढ़नी चाहिए जो दिल्ली से मोहब्बत करता है और इसके इतिहास को जानना चाहता है। सर सैयद की ‘आसारुस सनादीद’ का अंग्रेजी में अनुवाद प्रख्यात इतिहासकार राणा सफवी ने किया, ताकि हम 19वीं सदी में दिल्ली को एक बार फिर देख सकें।
सर सैयद ने विज्ञान, गणित, फ़ारसी और उर्दू का अध्ययन किया था। वे शाहजहाँनाबाद में अपने परिवार के साथ रहते हुए अपने भाई के एक उर्दू अखबार को प्रकाशित करने में मदद करते थे। वे इसी दौरान फ़ारसी पांडुलिपियों का अनुवाद भी कर रहे थे।
सर सैयद ‘आसारुस सनादीद’ के लिए रिसर्च करने के दौरान दिल्ली के कोने-कोने की खाक छानते थे। वे महरौली का लगातार चक्कर लगाते थे। जरा सोचिए कि वे उस दौरान कैसे इतना घूमते होंगे। वे एक जगह दिल्ली की आबादी में “हाल ही में” हुई वृद्धि से व्यथित है, जिससे यह शहर भीड़-भाड़ वाला हो गया है। लेकिन, वे फिर भी कहते हैं कि “इन सभी वजहों के बावजूद, दिल्ली की जलवायु अभी भी अन्य शहरों की तुलना में हजार गुना बेहतर है।”
दिल्ली और अलीगढ़ की जामा मस्जिदें
हिन्दुस्तान के मुसलमानों का दिल्ली की जामा मस्जिद को लेकर अकीदा जगजाहिर है। इससे वे अपने को भावनात्मक रूप से भी जोड़कर देखते हैं। ये जब बनी तब मुगलकाल का स्वर्णकाल था। जामा मस्जिद के बाद देशभर में कई मस्जिदें इसके डिजाइन को ध्यान में रखकर बनीं। अगर आप कभी अलीगढ़ जाएं तो यह देखकर हैरान रह जाएंगे कि वहां एएमयू कैंपस में बनी मस्जिद देखने में दिल्ली की जामा मस्जिद से मिलती-जुलती है।
दोनों का डिजाइन कमोबेश एक जैसा ही है। इसी के उत्तरी भाग में एएमयू के संस्थापक सर सैयद अहमद खान को उनकी 27 मार्च 1898 में मृत्यु के बाद दफन किया गया था। एएमयू की मस्जिद दिल्ली की मस्जिद की तुलना में छोटी है।
मशहूर पत्रकार और लेखक मोहम्मद वजीहउद्दीन अपनी किताब Aligarh Muslim University: The Making of the Modern Indian Muslim में लिखते हैं- “दरअसल सर सैयद अहमद खान मूल रूप से दिल्ली वाले थे। उनका बचपन और जवानी भी दिल्ली में गुजरी थी। उन्होंने जामा मस्जिद को करीब से देखा होगा। उसमें नमाज भी अदा की होगी। जाहिर है, वे जब अलीगढ़ में रहने लगे तो उनके मन में दिल्ली की जामा मस्जिद की तरह की मस्जिद बनाने का ख्याल आया होगा। इसलिए ही अलीगढ़ में दिल्ली की जामा मस्जिद जैसी मस्जिद बनी।”
दिल्ली-6 के सोशल वर्कर मोहम्मद तकी की दिली ख्वाहिश है कि दिल्ली को अपने बुजुर्ग सर सैयद के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी। इस लिहाज से दिल्ली में सर सैयद के जन्म स्थान को एक लाइब्रेरी के रूप में तब्दील किया जा सकता है।
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