मैं सीमांचल की बेटी हूँ — उसी ज़मीन की, जहाँ से फणीश्वरनाथ रेणु की कहानियाँ जन्म लेती थीं।
बरसों से उनके शब्दों में जो गंध महसूस करती थी, वो गंध एक दिन सचमुच मेरी साँसों में घुल गई,
जब मैं उनके गाँव औराही हिंगना पहुँची।
कच्चे रास्ते, दूर तक फैले खेत,
और हवा में बसी एक पुरानी आवाज़ —
ऐसा लगा जैसे “मैला आँचल” की कोई पंक्ति अचानक मेरे सामने जी उठी हो।
गाँव के एक बुजुर्ग से बात हुई,
उन्होंने मुस्कुराकर कहा —
“रेणु बाबू जब लिखते थे, तो लगता था जैसे हम ही अपने आप को पढ़ रहे हैं।”
वो मुस्कान, वो आंखें — जैसे इतिहास की कोई कहानी सुन रही हूं मैं, बिना पन्ना पलटे।
मैंने उन गलियों को छुआ, जहाँ शायद रेणु ने अपने बचपन में दौड़ लगाई होगी,
मैंने उस मिट्टी को महसूस किया, जहाँ से उन्होंने शब्दों को उगाया था।
वहाँ एक छाया थी — न लेखक की, न नेता की —
बल्कि एक साधारण इंसान की, जो अपने गाँव को, अपनी ज़मीन को,
और वहाँ के लोगों की आवाज़ को अपनी लेखनी से अमर कर गया।
मुझे लगा —
रेणु सिर्फ पढ़े नहीं जाते,
रेणु महसूस किए जाते हैं।

'रेणु के गाँव में रसप्रिया की गूँज'

कुछ यात्राएँ, समय तय नहीं करता—मन करता है। और कभी-कभी वह वर्षों तक एक स्मृति में ठहरी रह जाती है, बस किसी अलक्षित क्षण का इंतजार करती हुई। मेरे लिए भी ऐसी ही एक यात्रा थी—फणीश्वरनाथ रेणु के गांव और उनके उस कमरे की यात्रा, जहाँ ‘मैला आँचल’, ‘परती परिकथा’, ’'रसप्रिया’ जैसी अमर रचनाएँ लिखी गयीं कि न लिखी गयीं, पर वे जन्म वहीं से लेती रहीं।‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌इसी माटी-पानी और  धूप-छांह से।
रेणु, जिनके लिए गांव केवल एक भौगोलिक स्थान नहीं था—वह जीवन का केन्द्र था। जिनकी लेखनी में धड़कता था ‘धरती का धुंधलका’, खेतों की गंध, माटी की भाषा, और इंसान की जिजीविषा।
गांव—औराही हिंगना। यह वही धरती है जहां संघर्ष की दास्तानें मिट्टी में दबी हुई हैं और साहित्य का दीपक हवा से लड़ते हुए भी टिमटिमाता रहा था।
रेणु का घर…न सिर्फ “घर” नहीं कह सकते इसे, य वह तो एक तीर्थ था, तीर्थ है। जिसे अब लोग रेणुग्राम कहते हैं।
चारों तरफ़ से नया निर्माण, नए कमरे—उनकी स्मृति को यह परिवार और यह गांव अभी भी जीता है...
पर एक कमरा अब भी वैसा ही है।
मिट्टी की दीवारें, खिड़की से आती रौशनी, और बीच में रखी वह मेज़, जहाँ रेणु की कलम कभी सच लिखती थी। कमरे के एक कोने में टंगी उनकी तस्वीरें और उनकी पत्नी की छवि—सब मिलकर जैसे उस कमरे को जीवित रखने में लगी हों। यहीं कहीं उन्होंने ‘मैला आँचल’ लिखने का सोचा होगा। इसकी भूमिका उनके मन में आई होगी।
जिसका पहला पन्ना आज भी जैसे वहाँ की दीवारों पर उकेरा हुआ है—'यह किसी एक व्यक्ति की कहानी नहीं है… यह गाथा है उस जनता की, जो आज भी ‘जनता’ नहीं बन सकी।”
इस उपन्यास का डॉक्टर प्रशांत आज भी गांव के किसी ओझा के आगे हारते विज्ञान की बेबसी को महसूस करता है, उसे गुहारता है। उस कमरे की खामोशी में जैसे वो आवाज गूंज रही थी—“एक दिन विज्ञान जीतेगा, लेकिन अभी नहीं…”
भूख, अशिक्षा, अंधविश्वास और सांप्रदायिकता जैसे राष्ट्रीय-प्रश्न इस उपन्यास में बार-बार चिन्हित होते हैं। उनकी आंचलिकता में भी जैसे आधुनिकता समाहित है।
इस उपन्यास का दूसरा पात्र बावनदास बार-बार एक वाक्य दोहराता है:- भारत माता जार-जार रो रही है।' 
मैंने जब उनके कमरे के कोने में रखी एक किताब देखी, तो मुझे  ‘परती परिकथा’ की याद आई।
परती ज़मीन—जिसे रेणु ने प्रतीक बनाया था उन लोगों का, जिनकी आत्मा तो उर्वर है, पर व्यवस्था ने उसे बंजर बना डाला।
“परती ज़मीन सो रही है, लेकिन वह नींद कभी भी टूट सकती है।”
यह लाइन जैसे उस कमरे की दीवारों में चुपचाप लिखा था—रेणु जानते थे कि परती मनुष्य भी एक दिन जागेगा।  इसीलिए उन्होंने बंजर के भीतर भी एक सपना बोया।
रेणु का यह कमरा सिर्फ एक लेखक का निवास नहीं था, यह एक सामाजिक प्रयोगशाला था—जहाँ पीड़ा, प्रेम, विद्रोह और करुणा, सब शब्दों में ढलते थे।
जहाँ ‘बाजार’, संसार और ‘बिहारी माटी’ सब एक ही वाक्य में एक ही बहाव में समा जाते थे।
रसप्रिया' के सुर में जो टीस थी, वही इस कमरे की खामोशी में घुली हुई है।

renu ka gao

अपने बारे में रेणु

रेणु की आँचलिकता में भी राष्ट्रीय-जागरण का उद्घोष है। रेणु की भाषा समूची प्रकृति की लय पकड़ने और उसे हू-ब-हू दोहराने में सक्षम थी। उनकी कथा-भाषा का भी अपना सौंदर्य है। अपना कमाया हुआ सादगी का सौंदर्य, जिसके जादुई स्पर्श से जनपद की माटी, मानुष, वनस्पति, ताल-पोखर, जीव-जंतु  सब बोलने लगते हैं। रेणु के लेखन में दृश्य किसी फिल्म की तरह आपके आगे से गुजरते हैं। शचरित्र की एक-एक रेख जैसे खुलती जाती है। कोई नैना जोगिन हो या कोई लाल पान की बेगम (बिरजू की मां), कोई निखट्टू कामगार पर गजब का कलाकार सिरचन हो या चिट्ठी घर-घर पहुंचाने वाला संवदिया हरगोबिंद या फिर ‘इस्स’ कहकर सकुचाता हीरामन और अपनी नाच से बिजली गिराती हीराबाई या फिर पंचलाईट ‘पेट्रोमेक्स’ के आने से खुश- चौंधियाए और कुछ हद तक डरे हुए भी गांव के भोले–भाले लोग , सबके बारे में यह बात कही जा सकती है। वे माटी के लेखक थे और उनकी कहानियों की मूरतें यहीं इस गांव‌ में या इसके आसपास बसती थीं। वह चाहे तीसरी कसम का 'हीरामन' हो, हीराबाई हों, या ठेस का सिरचन या फिर 'मानू' या उनके अन्यान्य पात्र, सब तो इसी मिट्टी की देन थे। सब पात्र में थे वो थोड़े बहुत और कहीं पूरे के पूरे भी। 'मैला आंचल' के प्रशांत वही हैं, और उसकी दोनों नायिकाएं उनकी पत्नी-पद्मा और लतिका।  यह कभी खुद उन्होंने स्वीकार किया था।
अधिकतम विधाओं में कुछ न कुछ लिखने वाले रेणु शायद इसीलिए आत्मकथा नहीं लिख पाए कि उन्होंने अपने उपन्यासों और कहानियों में खुद को पूरी तरह उड़ेल दिया था। हालांकि इस बारे में उनके मन में एक दुविधा भी थी। और क्या खूब दुविधा थी वह, ‘अपने बारे में जब भी कुछ कहना चाहता हूं, जीबीएस (जार्ज बर्नाड शॉ) का चेहरा सामने आ जाता है। आंखों में व्यंग्य और दाढ़ी में मुस्कराहट लिए। और कलम रुक जाती है। उस तरह कोई लिख ही नहीं सकता। कि संभव ही नहीं है वैसा लिखा जाना।’ 

मेरा गांव डूबता है, तो मेरा घर कैसे तैर सकता है?

परती परिकथा सहित बाढ़ और उसकी त्रासदी यूं ही उनकी कई अन्य रचनाओं का भी स्रोत रही हैं। यह कोसी क्षेत्र की किस्मत थी और एक लेखक की बेबसी और लाचारी भी...इसे मूक देखते रहना या फिर चुपचाप अपनी रचनाओं में उसे दर्ज करते जाना। 
रेणु जी की कृति- 'ऋणजल धनजल' कई दृष्टियों से ऐतिहासिक है। बाढ़ और सूखे की दो अभूतपूर्व दुर्घटनाओं का यह ऐतिहासिक दस्तावेज है, और दूसरी, कि इसके प्रकाशन की पूरी रूपरेखा तय करने के साथ-साथ  उन्होंने पन्द्रह-बीस पृष्ठों की एक भूमिका भी लिखी थी। रेणु जी के जीवनकाल में यह पुस्तक प्रकाशित नहीं हो सकी, यह पुस्तक उनकी उस भूमिका के बगैर ही प्रकाशित हुई वह भी उनके मरणोपरांत। सन् 1966 का भयानक सूखा-जब अकाल की काली छाया ने पूरे दक्षिण बिहार को अपनी लपेट में ले लिया था और शुष्कप्राण धरती पर कंकाल ही कंकाल नजर आने लगे थे... और सन् 1975 की प्रलयंकर बाढ़ जब पटना की सड़कों पर  उमड़ पड़ी थी और लाखों का जीवन संकट में पड़ गया था...रेणु खुद एक मकान के दुतल्ले पर दो दिनों तक फंसे रहे थे। इन सारी  प्राकृतिक आपदाओं को केंद्र  में रखकर लिखे गये संस्मरणात्मक रिपोर्ताजों का संकलन है यह किताब।
बाढ से जुड़ी एक पुरानी और अनकही बात  उनके गांव के बुज़ुर्ग भी बताते हैं- ' एक बार गांव में भयानक बाढ़ आई थी। सबकुछ डूब गया। लोग ऊँचे स्थानों पर चले गए। लेकिन रेणु वहीं रुके रहें। उनके घर की निचली दीवारें भीग गई थीं। किसी ने पूछा—
“आप यहाँ क्यों रुके हैं? जान का खतरा है।”
रेणु बोले—
“अगर मेरा गांव डूबता है, तो मेरा घर कैसे तैर सकता है? लेखक तट पर खड़ा होकर भीगते लोगों की कहानी नहीं लिख सकता। उसे भीगना पड़ेगा, डूबना पड़ेगा।”
बाद में जब बाढ़ थमी, उन्होंने ‘तट पर बैठे लोग’ शीर्षक से एक छोटी कहानी लिखी। वह कहानी कभी किसी संग्रह में नहीं छपी। वह बस  यहां के लोगों की याद में रही। न जाने ऐसी कितनी कहानियां हैं जो गांव के वासियों ने उनसे सुनी तो जरूर पर वे कभी किसी किताब याकि पत्रिका का हिस्सा नहीं बन पायीं। यहां रहने पर रेणु के अंदर किस्सों का ज्वार उमड़ता था, रोज नयी कहानियां उनके अंदर आकार लेती थीं। फिर वे रची चाहे पटना में जाये, या कहीं और। 
और तो और परती परिकथा में रात के सन्नाटे में छिन्नमस्ता कोसी अपने असली रूप में गरजती हुई भागती आती हैं। आ गई.... मैया आ गई। विक्षुब्ध उत्ताल तरंगों और लहरों का तांडव नृत्य...मैया की जय-जयकार, हाहाकार में बदल जाती है। इंसान, पशु, पक्षियों का सह रुदन। कोसी की गड़गड़ाहट, डूबते और बहते हुए प्राणियों की दर्द भरी पुकार रफ्ता-रफ्ता तेज होती जाती है। सुबह को पुरा होने में अभी वक्त है, न मालूम कोसी मैया कब अपने मायके पहुंचेंगी। जब तक मायके नहीं पहुंचती, मैया का गुस्सा शांत नहीं होगा। पूरब मुलुक बंगाल से अपने ससुराल से, ससुरालियों के व्यवहार से रूठ कर, झगड़ कर, मैया पश्चिम की ओर अपने मायके जा रही है। रोती-धोती, सिर पीटती हुई जा रही है और आंसुओं से नदी-नाले बनते जाते हैं। सफेद बालू पर उनके पदचिह्न हैं। एक बार ससुराल से निकली हुई वापस ससुराल लौटकर नहीं जाना चाहती। चाहे जीवन भर भौजाइयों की लुगरी धोनी पड़े, चाहे उनके बच्चे खिलाने पड़े, चाहे जो भी करना पड़े, फिर ससुराल न लौटकर आना हो। झगड़ालू सास-ननद बढकर उसका झोंटा खींच वापस न ले जाये इसलिए बबूल, झरबेर, कास, घास, पटेर, झौआ, झलास, कंटैया, सेमल वगैरह को गिराकर उससे राह बंद करती जाती हैं। पर कोई भाई-भतीजा कोई नहीं सुन रहा उनकी गुहार... बस सौतेली बहन दुलारीदाय सुनती है उनकी आर्त पुकार... आगे बढकर जला देती है एक दीया...
पीपल की फुनगी पर बैठा हुआ 'राजगिद्ध' अपनी व्यापक दृष्टि से देखता है और पैमाइश करता है। पानी... पानी... पानी। इस बार तो सबसे ऊँचा गांव बलुआटोली भी डूब गया। उंह, पीपल की फुनगी पर बैठ जल के फैलाव का अंदाज लगाना असंभव । राजगिद्ध पंखों को तौल कर उड़ता है। चक्कर काटता हुआ आसमान में बहुत दूर चला जाता है, फिर चक्कर काटने लगता है।‌यह जीवंत वर्णन पढकर लगता है जैसे कोई रिपोर्टर कोसी की विभीषिका का आँखों देखा हाल ब्रॉडकास्ट करने के लिए हवाई जहाज में उड़ रहा है। कितना प्रामाणिक और मार्मिक चित्र!

Phanishwar Nath Renu home in Aurahi Hingna village

उद्घाटन करने के लिए किसी किसान को बुलाओ

बात 1967 की है। रेणु तब तक चर्चित हो चुके थे। ‘मैला आँचल’ ने हलचल मचा दी थी। दिल्ली, कोलकाता, पटना—सब जगह साहित्यिक हलकों में रेणु का नाम था। लेकिन रेणु, रेणु ही थे—नाम से नहीं, काम से पहचाने जाते।
उसी साल, औराही हिंगना में एक नया स्कूल खुला था। उद्घाटन के लिए बहुतों ने दिल्ली से मेहमान बुलाने की बात की। लेकिन रेणु ने एक चिठ्ठी लिखी—
“गांव का बच्चा जब स्कूल जाएगा, तब ही मेरा साहित्य सफल होगा। उद्घाटन करने के लिए कोई लेखक नहीं, किसी किसान बुलाओ।”
और उस दिन स्कूल का फीता एक किसान ने काटा—जिसने जीवन में कभी स्कूल नहीं देखा था। रेणु मुस्कुरा रहे थे, उनके शब्दों ने फिर एक बार ‘जनता’ को सिरमौर बनाया था।
इसी दौर में रेणु का एक और चेहरा गांव वालों ने देखा—एक लोक कलाकार के रूप में। रात में चुपचाप वह हारमोनियम लेकर गांव के बीच चौपाल पर बैठते, और एक भिखारी की तरह गाते—
“हमरा गाँव ना छोड़ब राजा… चाहे लाठी खा जाएब।”
गांव के बच्चे उन्हें घेर लेते। वह उन्हें कहानी सुनाते—कभी ‘रसप्रिया’ की, कभी ‘ ठेस’ की और कभी एक अजानी स्त्री की, जो अपने हक़ के लिए चुपचाप लड़ रही।  

अपनों के रेणु

उनके परिवार जन कहते हैं- 'उस कमरे की ओर जब कोई बाहरी आगंतुक आता है, तो हम केवल एक लेखक की स्मृति नहीं सहेजते या दिखाते—बल्कि एक पिता की साँसों, एक पति की ख़ामोशियों, एक बेटे की मुस्कानों और एक पड़ोसी के आत्मीय स्पर्श को फिर से जीते हैं।'
उनके बेटे कहते हैं - 'पिताजी (रेणु जी) जब लिखते थे, तो उनकी आँखों में एक पूरी दुनिया उतर जाती थी—कभी खेत की पगडंडियों पर चलते किसी किसान की लाचारी, कभी स्कूल जाती एक बच्ची की उम्मीद, और कभी किसी स्त्री की मौन क्रांति।
वह कलम से ऐसे प्रेम करते थे जैसे कोई माँ अपने बच्चे से करती है—दुलार भी, डाँट भी, और अंत में ममता से भरी रचनाएँ। हमें आज भी वह क्षण याद है जब ‘मैला आँचल’ के अंतिम अध्याय पर उनकी कलम रुकी थी। कमरे में चुप्पी थी, और उन्होंने बस इतना कहा था—“अब ये मेरा नहीं, इस देश की मिट्टी का है।”
माँ कहा करती थीं—“रेणु का हर शब्द पहले मन में उगता है, फिर कागज़ पर उतरता है।”
और सच में, उन्होंने खेत की माटी को उपन्यास बना दिया।'
रेणु चले गए, लेकिन वह कमरा नहीं गया। वह आज भी साँस लेता है। और हर बार जब कोई पाठक वहाँ रुकता है, तो हमें लगता है पिताजी मुस्कुरा रहे हैं।
उनके बेटे, परिवार, और गाँववालों के लिए यह केवल ‘कमरा’ नहीं, एक जीवित आत्मा है।
हर कोने में कोई स्मृति बसी है—पिताजी की आवाज़, माँ की पुकार, किताबों की गंध, और आने वाले भविष्य की धीमी आहट।

Phanishwar Nath Renu son

फणीश्वरनाथ रेणु के ज्येष्ठ पुत्र

यह चुप्पी शब्दों की हत्या होगी 

रेणु को लेकर एक दिलचस्प और भावुक प्रसंग उनकी पत्नी ने एक बार साझा किया था।
'एक दिन वह बहुत उदास थे। मैंने पूछा, क्या हुआ?'
उन्होंने कहा—‘मैंने एक पात्र को मार दिया है… लेकिन वो मरा नहीं।’
मैं समझी नहीं।
वह बोले—‘वो पात्र मेरे मन में अब भी जिंदा है। वो कह रहा है—तुमने मेरी हत्या की है…।'
रेणु पात्रों से इस हद तक जुड़ते थे, जैसे वे उनके अपने खून-मांस के लोग हों। शायद इसलिए उनके पात्र कभी कागज़ तक सीमित नहीं रहे, वो गली-मुहल्ले में हर गांव में सांस लेते थे। 
उनकी लेखनी में जितना प्रेम था, उतना ही विद्रोह भी।1975 में जब आपातकाल लगा, उन्होंने उसका खुला विरोध किया। उन्हें जेल भी हुई। लेकिन उन्होंने लिखा—
“अगर मेरी लेखनी चुप हो गई, तो यह चुप्पी शब्दों की हत्या होगी।”
वे जितने अपने लेखन के लिए जिम्मेदार थे, उतनी ही अपनी राजनीति के लिए भी...उनका यह विश्वास था जो कि आखिरकार निराधार साबित हुआ था-
'लाठी-पैसे और जाति के ताकत के बिना भी चुनाव जीते जा सकते हैं। मैं इन तीनों के बगैर चुनाव लड़कर देखना चाहता हूँ।' और तब उन्हें एक सीख मिली थी- 'जाति बहुत बड़ी चीज है। जात- पात नहीं मानने वालों की भी जाति होती है।'

Phanishwar Nath Renu Wife latika

अपनी पत्नी लतिका के साथ रेणु।

कपड़े सूखते नहीं हैं, कहानियाँ सूखती हैं… धूप में।

रेणु के जीवन में दुख की  एक और एक ही परछाईं थी—उनका स्वास्थ्य। वे पहले भी बीमार पड़ते और ठीक हैते रहते थे। पर जीवन के उत्तरार्ध में वह ज्यादा बीमार रहने लगे थे। मगर तब भी वह लिखते रहे। बीमारी के दिनों में वह एक अधूरी कहानी पर काम कर रहे थे—जिसका नाम था “धूप में सूखती कहानियाँ”।
यह कहानी थी एक विधवा स्त्री की, जो दूसरों के कपड़े धोती थी। हर धुलाई में वह कोई किस्सा सुनती थी—कभी किसी के प्रेम का, कभी किसी के विश्वासघात का।
रेणु कहते थे—
“कपड़े सूखते नहीं हैं, कहानियाँ सूखती हैं… धूप में।”यह कहानी अधूरी रह गई। लेकिन इसका कुछ अंश उनके बेटों ने अब भी सहेज रखा हैं।

Phanishwar Nath Renu wife

रेणु के पुराने घर का कमरा।

निर्मल के रेणु 

एक जगह निर्मल वर्मा ने लिखा है- 'हमारी चीजों को चाहे बहुत लोग पढ़ें, किन्तु हम लिखते बहुत कम लोगों के लिए हैं। मैं जिन लोगों को ध्यान में रखकर लिखता था उनमें रेणु सबसे प्रमुख थे। मैं हमेशा सोचता था पता नहीं मेरी यह कहानी, यह लेख, यह उपन्यास पढ़कर वह क्या सोचेंगे। यह ख्याल ही मुझे कुछ छद्म और छिछला, कुछ दिखावटी लिखने से बचा लेता था।
कुछ लोग हमेशा हम पर सेंसर का काम करते हैं - सत्ता का सेंसर नहीं, जिसमें भय और धमकी छिपी रहती है - किन्तु एक ऐसा सेंसर जो हमारी आत्मा और 'कॉन्शंस,' हमारे रचना-कर्म की नैतिकता के साथ जुड़ा होता है। रेणु जी का होना, उनकी उपस्थिति ही अंकुश और वरदान थी। 
रेणु, अंत तक शब्दों को जीते रहे। उनके लिए लेखन साधना था, विद्रोह भी, और आत्मा की आवाज़ भी।
जब वह गए, तो सिर्फ देह गई। उनकी रचनाएँ, उनकी धड़कन, और उनका वह कमरा आज भी कहता है—
“मैं अभी भी लिख रहा हूँ…
हवा में, मिट्टी में, धूप में, और उन आँखों में—
जो अब भी ‘मैला आँचल’ की आख़िरी पंक्तियों को याद करती हैं।”
मैं जैसे ही मैं वहां से चलने को हुई, मुझे एक बार फिर पीछे मुड़ना पड़ा।
मुझे लगा जैसे वह कमरा कह रहा हो— लौटकर आना। मैं तुम्हारी राह देखूंगा। मुझे लगा अपनी कुर्सी से मुड़कर रेणु भी यही कह रहें।
और शायद…
अब जब मैं लौट आई हूँ अपने जीवन की राह पर,
तो मन के किसी कोने में एक बीज बोकर  लौटी हूँ —
जो कभी किसी कहानी में फूट पड़ेगा, और उसमें होगा थोड़ा सा सिमांचल, थोड़ी सी कोशी। थोड़े से रेणु,
और थोड़ी सी मैं।