अपने दैनंदिन जीवन में- चौराहों पर, रेलगाडियों में, घर में बच्चों के जन्म आदि जैसे मौकों पर हम किन्नरों को देखते हैं। हालांकि आम बोलचाल में ऐसे लोगों को हिजड़ा कहा जाता है जो उपहास और असम्मान जतानेवाला है। फिर भी समाज मे अब किन्नरों को किंचित ही सही, कुछ सम्मान मिलने लगा है। वे चुनाव भी लड़ने लगे (लगी) हैं। एकाध जनप्रतिनिधि भी बन गए (गई) हैं। मगर समाज में हाशिए पर ही हैं। यो पश्चिमी साहित्य विमर्श में `क्वीर (QEER) विमर्श’ के कारण किन्नरों की स्थिति पर भी वैचारिक बातें होने लगी हैं। 

हिंदी में भी किन्नर विमर्श धीरे धीरे अपनी जगह बनाने लगा है। कथा साहित्य में किन्नर चरित्र आने लगे हैं। वैसे किन्नरों के लिए अंग्रेजी का शब्द `ट्रांसजेंडर’ हिंदी में  ज्यादा चलन में आने लगा है। इसलिए कि पारंपरिक हिंदी शब्द - किन्नर औऱ हिजड़ा -अभी भी पुराने असम्मानजक बोझ से लदे हुए हैं।

ये भूमिका इसलिए कि किरण सिंह की कहानी 'संझा' के नाट्य मंचन को सही परिप्रेक्ष्य में समझा जा सके। इस कहानी के केंद्र में भी एक ट्रांसजेंडर ही है, नाम है संझा। इस कहानी को हाल में  नाटक के रूप में  पेश किया राजेश तिवारी ने, जो हाल के बरसों में कहानी को रंगमंच पर मंचित करने का अपना विशिष्ट व्याकरण विकसित कर चुके हैं। `संझा’ को उन्होंने ही नाटक के रूप रूपांतरित किया। नाम रखा `संझा- विवाह शिखंडी का’। 

महाभारत के पात्र शिखंडी के बारे में भी एक धारणा ये है कि वो एक ट्रांसजेडर थे। ये कहानी और ये नाटक दोनों उस विमर्श से जुड़ते हैं जिसे क्वीर विमर्श कहा जाता है। पर यहां ये भी रेखांकित करना जरूरी है कि इस कहानी और इस नाटक को सिर्फ विमर्श के रूप में नहीं पढ़ा और देखा जाना चाहिए। 

दोनों एक ऐसे चरित्र के बारे में हैं जिसकी अपनी यातनाएं, दुश्चिंताएं और संघर्ष हैं। किरण सिंह ने अपनी रचना में मात्र एक चरित्र के आत्मिक संघर्ष को ही सामने नहीं लाया है, बल्कि समाज में व्याप्त दूसरे और अनुषांगिक मसलों को भी दिखाया है। जैसे पुरुषत्व की किन धारणाओं को समाज में प्रचारित किया जाता है, नाचनेवालों (या नाचनेवालियों) को किस निगाह से नीची निगाह से देखा जाता है, धार्मिक मसलों में भी  कई तरह के जद्दोजहद हैं -  जैसे मुद्दे भी इसमें मौजूद हैं जो राजेश तिवारी द्रारा निर्देशित नाटक में भी उभरकर सामने आते हैं।

दक्षिण एशियाई समाज में, जिसमें भारतीय समाज शामिल है, जब किसी परिवार में किसी ट्रांसजेंडर का जन्म होता है तो अमूमन कोशिश की जाती है ये खबर न फैले। रिश्तेदार न जानें। आसपास के लोगों को भनक तक न लगे। परिवार सदमें में होता है। उसे आत्मग्लानि होती है। हालांकि लंबे समय तक बात छिपती नहीं और देर सबेर किन्नर समुदाय उसे अपनाने आ ही जाता है। अगर वो जीवित बचा रह गया तो। और अगर वो शख्स जीवित बचा रह गया तो एक दूसरी संभावना भी रहती है। ज्यादातर परिवारों का प्रयास होता है कि लोगों को जानने ही न दें कि जिसका जन्म हुआ उसका लिंग क्या है? कुछ उसे लड़का बनाके रखना चाहते हैं और कुछ लड़की। और इसका बोझ हमेशा उस ट्रांसजेंडर पर रहता है।

किरण सिंह की कहानी में जो संझा है उसके पिता बड़ी होशियारी से लोगों के बीच प्रचारित करते हैं, उनके यहां लड़की हुई है। उसका लालन पालन उसी रूप में किया जाता है। संझा के पिता वैद्य हैं, इसलिए उम्र बढ़ने के साथ साथ वो वैद्यकी का काम भी सीख लेती है। और फिर एक दिन उसकी शादी भी करा दी जाती है। एक ऐसे लड़के से जिसमें पुंषत्त्व नहीं है। पिता को  लगता है कि बात हमेशा छिपी रहेगी। राज राज ही रह जाएगा। मगर ऐसा होता नहीं है। राज खुल जाता है। 

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फिर क्या हुआ? बेशक कहानी में नाटककीयता है। यहां दो तरह के नाटक है। एक तो जो जीवन में घटित होता है और दूसरा जो मंच पर दीखता है। नाटक सिर्फ कला नही। वो तो जीवन है। जीवन में हर पल है। जिंदगी में ऐसी स्थितियों का आ जाना जिनका हम पहले से अनुमान नहीं लगा पाते और जो अप्रत्याशित की तरह हमारे जीवन में घटती हैं, वहीं से हमारे वास्तविक संसार में नाटक शुरू होता है। `संझा’ कहानी में ऐसी कई स्थितियां हैं। 

परंपरा से बंधे वैद पिता के घर में एक ट्रांसजेंडर का जन्म लेना, समाज में इस तथ्य को छिपाया जाना, खुद संझा का अन्य लड़कियों को देखकर ये महसूस करना कि वो तो बाकी से अलग है, क्यों अलग है जैसे सवाल, उसकी शादी, फिर सबके सामने ये जाहिर होना कि वो क्या है और अंत में उसका सबके सामने खड़ा होना कि जिसे जो चाहे वो कर ले, वो तो जो है सो है - इस तरह के प्रसंग सिंर्फ कहानी में नहीं आते। वे वास्तविक दुनिया में भी होते हैं। किरण सिंह ने खुद अपने आत्मकथ्य में ये लिखा है कि कहानी का स्रोत कहां से फूटा।

यानी कहानी लेखिका के लिए सिर्फ कल्पना की उड़ान नहीं है। बस उन्होंने उन नाटकीय विंदुओं को दर्ज किया है। और निर्देशक ने उस दर्ज किए को मंच पर उतारा है। कहानीकार और निर्देशक - दोनों अपनी अपनी  विधाओं में उस भयावहता को रेखांकित करते हैं जिसका साक्षात्कार संझा करती है, उसके पिता करते हैं और उसके ससुराल वाले करते हैं।

यहां ये भी बता देना आवश्यक होगा कि `संझा- विवाह शिखंडी का’ सिर्फ एक अभिनेता का नाटक है। यानी ये एक एकल अभिनय वाली प्रस्तुति है। और अभिनेता हैं मनीष शर्मा जो दिल्ली रंगमंच के एक सुपरिचित रंगकर्मी है। मैने कई नाटक देखें हैं जिनमें उन्होंने अभिनय किया है। किंतु ये शायद उनके लिए अब तक की सबसे चुनौतीपूर्ण भूमिका रही होगी। वैसे तो अभिनय को परकाया प्रवेश कहा जाता है लेकिन ये सब इतना आसान नही होता। और एक किन्नर की काया में प्रवेश! वो तो और भी दुष्कर है। 

अभिनय की दुनिया में एक सिद्धांत कहता है कि अभिनेता को अपने जीवन के अतीत को याद करना चाहिए जिससे वो किसी किरदार के चरित्र को समझ सके और फिर उसे मंच पर ला सके। पुरानी यादें संदर्भ और स्रोत का काम करती हैं। लेकिन एक पुरुष अभिनेता अपने बीते जीवन के किस प्रसंग को याद करेगा जिससे उसे एक ट्रांसजेंडर की भूमिका करने में मदद मिल सके? 

अमूमन ट्रांसजेंडेर की जो याद मन में होती भी है वो सकारात्मक नहीं होतीं। ताली बजाकर पैसे मांगनेवाले की होती है। आम लोगों के लिए जो वितृष्णापूर्ण होती है। इस याद से आप उस ट्रांसजेंडर चरित्र को कितना समझ सकते हैं, जिसका लालन पालन एक लड़की को रूप में हुआ। उसके मन में कितने तरह के भूचाल आते रहे, कितने बवंडर उठे, उनके बारे में किस विधि से जाना जा सकता है?

ऐसे में मनीष ने संझा की मन:स्थितियों को समझने और दिखाने के लिए कल्पना का ही सहारा लिया होगा। और सामने होगी `संझा’ कहानी। संझा के मनोलोक में कितने गह्वर हैं , इसका पता तो बहुत कुछ ये कहानी देती है। लेकिन उस सबको अपने हावभाव में उतारना, अपने आवाज की लरज में लाना,  ये किसी अभिनेता के लिए अनजान पथ पर चलने जैसा है। मनीष शर्मा उस अनजान रास्ते पर चलते हुए एक प्रामाणिक चरित्र को मंच पर लाने में सफल रहे। हैं।

यहां  दो और पहुलओं को याद रखना भी जरूरी है। एक तो राजेश तिवारी ने  इसकी जो मंच सज्जा रखी है, जिसकी परिकल्पना उन्होंने खुद की है उसमें भी कई अर्थछवियां है। यहां एक स्थायी किस्म की मंच सज्जा नहीं थी। जाली, लाठी, चौकी जैसी कई वस्तुओं का प्रयोग इसमें हुआ है। संझा खुद एक जाल में फंस गई है और इस जाल से निकलना संभव नहीं है। अंत में वो लाठी उठाती है, लेकिन उस वक्त भी उसकी मुद्रा में एक चीत्कार है। वो समाज को चुनौती देती है, किंतु इस चुनौतीपूर्ण अंदाज में भी एक छटपटाहट है। वो जानती है कि उसे आगे और भी लड़ना है क्योंकि सामाजिक मान्यतां और धारणाएं उस पर आगे भी आक्रामक रहेंगी। नाटक में और मनीष के अभिनय में ये सब उद्गघाटित होते हैं।

दूसरा पहलू प्रकाश व्यवस्था है। राघव प्रसाद मिश्र इस नाटक में प्रकाश परिकल्पक हैं। इस क्षेत्र में उनका नाम है और उनको संगीत नाटक अकादेमी पुरस्कार भी मिल चुका है। पर इस नाटक में उन्होंने जो प्रकाश परिकल्पना की है उस पर अलग से बात करनी चाहिए। ज्यादातर समय उन्होंने मंच को लाल ही रखा है। इसलिए कि संझा के जीवन में अंधेरा ही अंधेरा है। पर मंच पर अंधेरा तो रखा नहीं जा सकता है। और वैसे भी लाल रंग जब गहराता है तो वो काला हो जाता है। 

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संझा के वैयक्तिक जीवन के स्याह संसार को दिखाने के लिए इससे उपयुक्त रंग कोई और नहीं हो सकता था। इस नाटक को एक बार सिर्फ इसके प्रकाश संयोजन के लिए भी देखा जाना चाहिए। कोई अभिनेता सिर्फ आंगिक, वाचिक और आहार्य के माध्यम से ही मंच पर अपना जादू नहीं पैदा करता है, प्रकाश परिकल्पना की भी उसमें बड़ी भूमिका होती है। संगीत की भी होती है। `संझा : विवाह शिखंडी  का ‘ इस लिहाज से भी एक विशिष्ट नाट्य प्रस्तुति के रूप में याद रखा जाएगा।

हर अच्छी कहानी की अपनी खूबसूरती होती है। लेकिन जब वो किसी अच्छे निर्देशक के माध्यम से मंच पर अवतरित होती है तो उसकी खूबसूरती में कुछ अतिरिक्त बात पैदा हो जाती हैं। इस कारण कि निर्देशक उस कहानी के शब्दों, वाक्यों और प्रसंगों को कई चाक्षुषताओ और ध्वनियों से अलंकृत कर देता है। 

हालांकि वो सब उस रचना में निहित होती हैं, लेकिन सामान्य पाठक उनको देख या सुन नहीं पाता। हर कहानी, हर उपन्यास किसी निर्देशक के हाथों नए ढंग से सज-संवर जाती है। वो नाटक का भी निर्देशक हो सकता है और फिल्म का भी। हर अच्छा निर्देशक एक रसिक पाठक या विशिष्ट किस्म का सहदय होता है। राजेश तिवारी भी एक विशिष्ट सहृदय हैं।