भूमंडलीकरण और बाजार के दौर में अब हर चीज एक “इवेंट” में बदल गई है और अब साहित्य भी उससे अछूता नहीं है। पिछले कुछ सालों से देश भर में हो रहे “लिट फेस्ट“ की संस्कृति ने साहित्य अकादमी को भी प्रभावित किया है और अब 'साहित्योत्सव' भी एक” इवेंट “ही नहीं बल्कि” मेगा इवेंट” में बदल गया है। शायद यही कारण है कि इस बार साहित्य अकादमी के “साहित्य उत्सव “में 700 से अधिक लेखकों ने भाग लिया और 120 सत्रों में यह पूरा समारोह संपन्न हुआ है।

जबकि दो साल पहले 400 लेखकों ने भाग लिया और 40 सत्र हुए थे। साहित्य अकादमी ने कुछ साल पहले भोपाल में एक आयोजन कर विश्व रिकॉर्ड बनाया था और इस बार सात मार्च से शुरू होकर 12 मार्च को समाप्त हुए “साहित्योत्सव” ने एशिया के सबसे बड़े साहित्यिक जलसे का रिकॉर्ड बनाने का दावा किया।

जब से केंद्र में मोदी सरकार आयी है संगीत नाटक अकादमी, राष्ट्रीय नाट्यविद्यालय जैसी संस्थाएं सब रिकार्ड कार्यक्रम कर रहे हैं और सोशल मीडिया पर इसका श्रेय मोदी सरकार ले रही है। अब इन संस्थाओं को अपने समारोह की खबर पीएमओ तथा मंत्रलाय को ट्वीटर आदि पर टैग करनी पड़ती है।

‘साहित्योत्सव” का विधिवत उद्घाटन संस्कृति एवं पर्यटन मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने किया तो उन्होंने कहा भी-' अब तकनीक के समय में अनुवाद के ज़रिए हमारा साहित्य वैश्विक होने लगा है। अब उस पर चर्चा प्रारंभ हो गई है। पूरी दुनिया का भारत को देखने का नज़रिया बदला है।' मोदीं सरकार लगातार यह नरेटिव तैयार कर रही है कि गत दस वर्षों में भारत के प्रति विश्व की दृष्टि बदली है। यों तो अकेडमी के पूर्व अध्यक्ष गोपी चंद नारंग से पहले अकेडमी के समारोहों में मंत्रीगण और राज्यपाल आदि नहीं आते थे और नौकरशाह लेखकों की भागीदारी कम होती लेकिन अब वे न केवल आने लगे हैं बल्कि उनकी भागीदारी भी बढ़ी है। और उनका वीआईपी ट्रीटमेंट भी होने लगा है। यह बात साहित्योत्सव में भी स्पष्ट तौर पर दिखाई पड़ी। 

Sahitya Utsav

लेकिन यह भी एक सच है कि साहित्य अकेडमी का अब पहले से अधिक विस्तार और लोकतंत्रीकरण भी हुआ है। नये लोगों की भागीदारी बढ़ी है और अज्ञात कुलशील लोगों की संख्या में भी वृद्धि हुई है। अब नए नए विषयों पर भी में सेमिनार होने लगे हैं। इस बार भी यह दिखाई पड़ा। अकेडमी के सचिव 'के.श्रीनिवास राव' ने बताया भी कि उन्होंने 'सामाजिक न्याय और साहित्य' पर पहली बार यह सेमिनार किया जिसमें देश के पूर्व मुख्य न्यायधीध दीपक मिश्रा जैसे लोगों ने भाग लिया।

दीपक मिश्रा ने दो साल पहले इस समारोह में संवत्सर व्यायख्यान दिया था। जबकि नोबेल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी और प्रसिद्ध उद्योगपति सुनील कांत मुंजाल ने विशेष वक्तव्य दिया। तब केंद्रीय संस्कृति राज्य मंत्री अर्जुनराम मेघवाल ने 'साहित्योत्सव' का उद्घाटन किया था।

अकादमी ने उभयलिंगी एवम समलैंगिक लेखकों पर भी एक सत्र रखा और राष्ट्रीय निर्माण तथा न्यू मीडिया पर भी एक गोष्टी रखी।

पहला दिन

साहित्योत्सव के पहले दिन ही 20 विभिन्न कार्यक्रमों आयोजित हुए, जिसमें 100 से अधिक लेखकों ने सहभागिता की। एक जमाना था जब पूरे साहित्योत्सव में सौ लेखक भाग लेते थे लेकिन अब केवल एक दिन में इतने लेखक भाग ले रहें। लेकिन प्रश्न यह भी है कि क्या एक दिन में इतने सत्र होने से श्रोता वर्ग विभाजित नहीं हो रहेेंं? क्योंकि वैसे भी दिल्ली में श्रोता वर्ग कम हैं।

पहले दिन आदिवासी कविता एवं कहानी-पाठ और पैनल चर्चा हुई। भारतीय साहित्य में नदियाँ, भारत के उत्तर पूर्वी क्षेत्र की लोक संस्कृति, भारत की साहित्यिक कृतियों में लुप्त होता ग्रामीण समाज आदि विषयों पर भी विधिवत वक्तव्य दिए गए। अनेक सत्रों में बहुभाषी कविता और कहानी के पाठ किए गए।

23 लेखक सम्मानित

“साहित्योत्सव” के दूसरे दिन पुरस्कार-अर्पण समारोह के मुख्य अतिथि प्रख्यात अंग्रेज़ी नाटककार महेश दत्तानी थे।

प्रसिद्ध अंग्रेज़ी लेखक उपमन्यु चटर्जी ने संवत्सर व्याख्यान प्रस्तुत किया जिसका विषय था 'ध्यान देने योग्य कुछ बातें'। हिंदी की कवयित्री गगन गिल समेत 23 लेखकों को यह सम्मान मिला। पुरस्कार समारोह के बाद प्रख्यात बाँसुरी वादक राकेश चौरसिया द्वारा बांसुरी वादन प्रस्तुत किया गया।

पुरस्कृत रचनाकारों ने अपनी रचना प्रक्रिया को पाठकों के साथ साझा किया। इन सभी के अनुभव बिल्कुल अलग और दिल को छूने वाले थे। लेकिन सामान्यतः सामाजिक भेदभाव ही वह पहली सीढ़ी थी जिसने सभी को लेखक बनने के लिए प्रेरित किया।

इस बार हिंदी की कवयित्री गगन गिल को उनके कविता संग्रह “ जब तक मैँ आई बाहर “के लिए यह पुरस्कार मिला।समारोह में उनक़ा वक्तव्य सराहा गया और संगत के साक्षात्कारकर्ता अंजुम शर्मा ने गगन गिल के साथ संवाद किया।

पुरस्कृत कवयित्री गगन गिल ने अपना अनुभव साझा करते हुए कहा - 'कवि को न कविता लिखना आसान है न कवि बने रहना। कविता भले बरसों से लिख रहे हो, कवि बनने में जीवन भर लग जाता है।'

Gagan Gill

उन्होंने कविता को 'गूंगे कंठ की हरकत' कहते हुए कहा की अपने चारों तरफ अन्याय और विमूढ़ कर देने वाली असहायता में कई बार कवि को उन शब्दों को ढूंढ कर भी लाना मुश्किल होता है, जिससे वह उसका प्रतिकार कर सके।

राष्ट्रीय संगोष्ठी के इस दूसरे दिन, भारत के महाकाव्य, धर्म साहित्य, मध्यकालीन भक्ति साहित्य एवं स्त्री लेखन के प्रस्फुटन पर भी बातचीत हुई थी।

मोहन राकेश को उनकी जन्मशती पर किया गया याद

साहित्योत्सव का महत्वपूर्ण संवाद प्रख्यात लेखक नाटककार मोहन राकेश पर रहा। पांचवे दिन हिंदी के प्रख्यात लेखक एवम नाटककार मोहन राकेश को उनकी जन्मशताब्दी पर याद किया गया और सवाल उठा कि क्या उनकी रचनाओं का मूल्यांकन उनके जीवन की घटनाओं के आधार पर होना चाहिए या उनके लिखे के आधार पर ? सवाल यह भी था कि क्या वे अपनी रचनाओं में स्त्री विरोधी थे?

वरिष्ठ सांस्कृतिक पत्रकार एवम नाट्य समीक्षक अजित राय ने मोहन राकेश के तीनों नाटकों के हवाले से कहा कि उनके नाटकों में स्त्री पात्रों के साथ न्याय नहीं किया गया है और रचनाओं में “रखैल” शब्द का इसतेमाल किया गया है। यह राकेश की स्त्री विरोधी दृष्टि का नतीजा है। उन्होंने यह भी कहा कि राकेश ने’ आधे अधूरे” में भी सारा दोष सावित्री पर मढ़ा है। 

प्रसिद्ध नाट्य आलोचक एवम रंगकर्मी देवेन्द्र राज अंकुर ने श्री राय की इस स्थापना को खारिज किया और कहा कि राकेश के बारे में इस तरह फैसला नहीं दिया जा सकता और मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। राकेश को संपूर्णता में देखा जाना चाहिए। यह सच है कि राकेश की चर्चा नाटककार के रूप में अधिक होती है बनिस्बत कहानीकार के लेकिन वे महत्वपूर्ण कहानीकार थे। उन्होंने कहा कि राकेश की डायरियों पत्रों आदि से उनके जीवन की जो कथा पढ़ने को मिलती है, वही उनकी कहानियों में भी है और उनके नाटकों में भी।

आलोचक वैभव सिंह का कहना था कि नामवर सिंह जैसे आलोचकों ने राकेश का सही मूल्यांकन नहीं किया जबकि राकेश प्रेमचन्द ,अज्ञेय, मुक्तिबोध की तरह वे भी एक संपूर्ण लेखक हैं।

प्रसिद्ध आलोचक शम्भू गुप्त ने कहा कि राकेश ने 66 कहानियां लिखीं और वे शहरी चेतना के कहानीकार माने जाते हैं जबकि उन्होंने ग्रामीण चेतना की भी कहानियां लिखीं। उनकी कहानियां आज भी प्रासंगिक हैं। इससे पहले उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष माधव कौशिक ने की और बीज वक्तव्य प्रख्यात हिंदी नाट्य समालोचक जयदेव तनेजा ने दिया। दूसरे सत्र में आशीष त्रिपाठी जी ने आपने वक्तव्य से सबको आकर्षित किया और उनके इस वक्तव्य की अनुगूंज इस कार्यक्रम के अंतिम सत्र तक सुनाई देती रही।

इस कार्यक्रम का आरंभिक वक्तव्य हिंदी परामर्श मंडल के संयोजक गोविंद मिश्र ने दिया था।अपने स्वागत वक्तव्य में साहित्य अकादेमी के सचिव के. श्रीनिवासराव ने मोहन राकेश के व्यक्तित्व को बहुआयामी बताते हुए कहा कि उनके लेखन के पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता है। श्री मिश्र ने कहा कि वह पहले ऐसे नाटककार हैं जिनके नाटक, नाटक के स्तर पर सौ फीसदी खरे उतरते हैं। उनके लेखन का द्वंद उनके निजी जीवन का भी द्वंद्व है और वह समाज को आँकने के लिए कई सूत्र देता है।

कहानी पाठ

मोहन राकेश पर वृहद तौर पर काम कर चुके 'जयदेव तनेजा' ने कहा कि एक लेखक के रूप में मोहन राकेश हिंदी साहित्य के सबसे ज़्यादा एक्सपोज्ड लेखक हैं। उन्होंने अपने बारे में पूरी ईमानदारी और दबंगई से लिखा और स्वीकार किया। उन्होंने उनके बारे में गढ़ लिए गए बहुत से मिथकों के बारे में बात करते हुए कहा कि उन्होंने पहली बार हिंदी नाटककार को गरिमापूर्ण छवि प्रदान की। उन्होंने उनके पुराने घर, दादी, मां और यायावरी जीवन जीने के बारे में भी विस्तार से बताया। उन्होंने उनकी डायरी आदि में लिखे उन अधूरे उपन्यासों/कहानियों आदि की विस्तार से चर्चा की, जो बाद में किसी और नाम से प्रकाशित हुए या नहीं हुये।

'फिल्म और साहित्य के सम्बंध' पर बातचीत

साहित्योत्सव में रंगमचं के अलावा फिल्म और साहित्य के सम्बन्धों पर बात हुई। प्रसिद्ध फ़िल्म निर्देशिका नंदिता दास ने तीसरे दिन समारोह में भाग लेते हुए घोषणा की कि वह अपनी अगली फिल्म अपनी कहानी पर बनाएंगी जो उन्होंने बीस साल पहले लिखी थी।

सत्र 'स्याही से दृश्य तक: साहित्यिक कृतियां जिन्होंने सिनेमा को रोचक बनाया' विषय पर हुई यह परिचर्चा प्रख्यात फिल्म लेखक अतुल तिवारी की अध्यक्षता में संपन्न हुई। समारोह में प्रख्यात फिल्म अभिनेत्री और निर्देशिका नंदिता दास के अलावा मुग्धा सिन्हा, मुर्तजा अली खान और रेंतला जयदेव ने भाग लिया।

नंदिता दास ने अपनी फिल्म 'मंटो' के आधार पर कहा कि 'कई बार कोई ऐतिहासिक पात्र वर्तमान में भी बहुत प्रासंगिक होते हैं और उसके सहारे हम वर्तमान में भी बदलाव की बात कर सकते हैं।'

महाश्वेता देवी की कहानी पर कई फिल्में बना चुकी नंदिता दास ने कहा कि जहां-जहां का मेनस्ट्रीम सिनेमा मजबूत है वहां सार्थक या साहित्यिक फिल्में बनाना मुश्किल होता है। हिंदी और तेलुगु सिनेमा ऐसा ही है। आगे उन्होंने कहा कि भारतीय भाषाओं के साहित्य का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद न होने के कारण भी इस तरह की साहित्यिक फिल्में कम बन पाती हैं। वे लगातार एक अच्छी कहानी की तलाश में रहती हैं।

तीसरा दिन

साहित्योत्सव के तीसरे दिन 22 सत्रों में आयोजित विभिन्न कार्यक्रमों में पुरस्कृत रचनाकारों के साथ लेखक सम्मिलन, भारतीय ऐतिहासिक कथा साहित्य की सार्वभौमिकता और साझा मानव अनुभव, क्या जनसंचार माध्यम साहित्यिक कृतियों के प्रचार प्रसार का एक मात्र साधन है, वैश्विक साहित्यिक परिदृश्य में भारतीय साहित्य, ओमचेरी एन. एन. पिल्लै जन्म शतवार्षिकी संगोष्ठी, आधुनिक भारतीय साहित्य में तीर्थाटन आदि विषयों पर चर्चा और युवा साहिती तथा बहुभाषी कविता और कहानी पाठ के कई सत्र हुए।

लोकप्रिय गीतकार नीरज की जन्मशती पर भी हुआ सेमिनार

साहित्योत्सव में लोकप्रिय गीतकार गोपालदास नीरज की जन्मशती पर भी सेमिनार हुआ। ‘कवि नीरज:अप्रतिम रोमांटिक दार्शनिक’ शीर्षक से हुई परिचर्चा की अध्यक्षता प्रख्यात गीतकार बालस्वरूप राही ने की और इसमें उनके पुत्र मिलन प्रभात गुंजन के साथ ही अलका सरावगी, निरुपमा कोतरू और रत्नोत्तमा सेनगुप्ता ने हिस्सा लिया।

‘कथासंधि’ के अंतर्गत प्रख्यात हिंदी कथाकार जितेंद्र भाटिया का कथा-पाठ भी संपन्न हुआ।

अन्य आयोजित कार्यक्रमों में स्वातंत्र्योत्तर भारतीय साहित्य में राष्ट्रीयता, भारत का लोक साहित्य, साहित्य और अन्य कला-रूपों के बीच साझा बिंदु, उत्तर-पूर्वी और पूर्वी भारत के मिथक और दिव्य चरित्र आदि विषयों पर बातचीत हुई। सांस्कृतिक कार्यक्रम के अंतर्गत नलिनी जोशी द्वारा हिंदुस्तानी गायन प्रस्तुत किया गया।

Gopaldas Neeraj

केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के पूर्व प्रमुख एवम गोआ के उप राज्यपाल के पूर्व सलाहकार एपी माहेश्वरी ने आज साहित्योत्सव में वेश्याओं के जीवन की दर्दनाक कहांनी सुनाकर समाज की असलियत को उजागर किया और लेखकों से जमीनी हकीकत के मद्देनजर साहित्य में बदलाव लाने की अपील की।
1984 बैच के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी श्री माहेश्वरी ने सामाजिक न्याय और साहित्य विषय पर भाषण देते हुए कहा कि अच्छा साहित्य वही है जो कम से कम सौ साल पढा जाए।

राष्ट्रपति पदक से सम्मानित श्री माहेश्वरी ने कहा कि लेखक को समाज की बदलती हकीकत का साहित्य लिखना चाहिए ।साहित्य को अपना रुख मोड़ना चाहिए। उन्होंने समाज के हाशिये के सहित्य का जिक्र करते हुए ओमप्रकाश बाल्मिकी और उनके उपन्यास 'जूठन' का उल्लेख किया और कहा कि यह देश लोगों का जूठन खाकर बड़ा हुआ है।

उन्होंने साहित्य में हो रहे बदलावों की चर्चा करते हुए कहा अब नया साहित्य आ रहा है।थर्ड जेंडर की कहानियां आ रही हैं। अब जमाना ए आई का और डिजिटल साहित्य का है।

ट्रांसजेंडरों लेखकों की अलग साहित्य अकादमी पुरस्कार की मांग 

प्रसिद्ध ट्रांसजेंडर लेखक 'कल्कि सुब्रामन्यम ने साहित्य अकादमी से अपने समुदाय के लोगों के लिए यह मांग की जिसका समर्थन अन्य ट्रांसजेंडर लेखकों ने भी की। कल्कि ने आज साहित्योत्सव के तीसरे दिन ट्रांसजेंडर साहित्य के बारे में गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए यह मांग की।उन्होंने अपनी शानदार अंग्रेजी में भाषण देकर सबको मुग्ध कर लिया। उनके भाषण की सबने तारीफ की।

उन्होंने कहा कि समाज को चाहिए कि वे हमारे समुदाय के लोगों को मुख्यधारा में शामिल करें। आखिर हम भी मनुष्य हैं और हमारी संवेदना तथा भावनाएं पुरुषों जैसी है लेकिन हमें परिवार और समाज से तिरस्कार मिलता है और हम बहिष्कृत लोग हैं।

उन्होंने कहा कि हम भी कविता कहानी लिखते हैं ,इसलिए हमारी पहचान एक लेखक के रूप में होनी चाहिए नकि। ट्रांसजेंडर के रूप में? उन्होंने साहित्य अकादमी के प्रति आभार प्रकट किया कि उसने हमें देश भर से बुलाया और अपनी बात कहने का अवसर दिया।

उंन्होने कहा कि-' भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है।यहां सभी भाषाओं और संस्कृति के लोगों के लिए जगह होनी चाहिए और सबके लिए समान अवसर होना चाहिए। ट्रांसजेंडर अपने शरीर से ही पहचान में आ जाते हैं, लेकिन हमारे शरीर से हमारी पहचान नहीं होनी चाहिए। बल्कि गुणों के आधार पर होनी चाहिए। हमारी प्रतिभा की कद्र होनी चाहिए। हमें अपनी पहचान मिलनी चाहिए। हमको आम लोगों की तरह एक मनुष्य समझा जाये।'

उन्होंने अंत मे एक कविता सुनाई, जिसका अर्थ था कि 'फिलिस्तिनियों की तरह उनक़ा भी कोई घर नहीं है। वे बेघर लोग हैं। नाच गाकर जीवन यापन करते हैं। उन्होंने समाज में अपने साथ होने वाले भेदभाव अन्याय यौन शोषण बलात्कार का भी जिक्र किया और संसार को सुंदर और समावेशी बनाने की अपील की।

समारोह में लखनऊ के ट्रांसजेंडर लेखक देविका देवेंद्र ने पत्रकारों से बातचीत में कल्कि की मांग का समर्थन किया।वे अंग्रेजी में लिखते हैं और उत्तर प्रदेश मेंट्रांसजेंडर बोर्ड के सदस्य भी हैं।

उनके अतिरिक्त समारोह में रेशमा प्रसाद, मंगलमुखी ए रेवती, संजना सिमोजा, शिव गुरेजा और अक्षय के रथ ने भाग लिया।

एक दूसरे सत्र में 7 अन्य ट्रांसजेंडर कवियों ने कविता पाठ किया, जिनके नाम क्रमशः अखिल कत्याल, चित्रा व्यास, जमीला निशात, धीरेन बोरसिया, दिव्य ज्योति शर्मा, जोशिवा मुइवा, और एम. एन. परसुरामन थें। 

साहित्य और कानून का आपस में गहरा संबंध 

भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा ने कहा -'समाज में न्याय की स्थापना केवल अदालत तक सीमित नहीं है बल्कि साहित्य और कानून का भी आपस में गहरा संबंध है और साहित्य को देश के अंतिम जन को न्याय दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए।'

बहुत कम लोग जानते हैं कि न्यायमूर्ति मिश्र भी एक कवि भी हैं और उनके चार कविता संग्रह आ चुके हैं।उन्होंने 'साहित्योत्सव' के चौथे दिन सामाजिक न्याय और साहित्य-विश्व पर परिचर्चा की अध्यक्षता करते हुए यह बात कही।इस परिचर्चा में ए.पी. माहेश्वरी, मुकुल कुमार एवं अश्विनी कुमार ने भाग लिया।

न्यायमूर्ति मिश्र ने कहा कि साहित्य का सामाजिक न्याय के साथ सुखद गरिमापूर्ण और प्रभावशाली संबंध है। जिस तरह साहित्य के कई खंड होते है, उसी तरह सामाजिक न्याय की अवधारणा में भी कई पहलू शामिल होते हैं, जैसे समानता, सहानुभूति, आपसी सम्मान, समावेशिता, मानवतावाद और मानवाधिकारों का मूल्य आदि।

उन्होंने 'रोस्को पाउंड' को उद्धृत करते हुए कहा कि 'मैं उनकी इस बात से सहमत हूँ कानून स्थिर होना चाहिए लेकिन स्थिर नहीं रहना चाहिए। ठीक उसी तरह साहित्य को किसी भी तरह के कालक्रम में नहीं बाँधा जाना चाहिए।'

श्री मिश्र ने कहा कि समाज में न्याय की स्थापना केवल न्यायालों तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि साहित्य के माध्यम से भी समाज के हर वर्ग की आवाज को प्रमुखता से प्रस्तुत करना आवश्यक है। न्याय की परिभाषा तभी सार्थक होगी जब समाज के अंतिम व्यक्ति को भी उसका अधिकार मिलेगा और साहित्य इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।

चौथा दिन

चौथे दिन 22 से अधिक कार्यक्रमों में विभिन्न भारतीय इन कार्यक्रमों में पाँच बहुभाषी कवि सम्मिलन और चार कथा सम्मिलनों के साथ ही 'स्वतंत्रता-पूर्व भारतीय साहित्य में ‘राष्ट्र’ की अवधारणा', क्या कॉमिक्स साहित्य है?, रंगमंच, भारतीय समाज में परिवर्तन के प्रतिबिंब के रूप में, सांस्कृतिक रूप से भिन्न भाषाओं में साहित्यिक कृतियों के अनुवाद में चुनौतियाँ, प्रवासी लेखन में मातृभूमि आदि महत्त्वपूर्ण विषयों पर परिचचाएँ हुईं।

'भारतीय साहित्यिक परंपराएँ: विरासत और विकास' शीर्षक से राष्ट्रीय संगोष्ठी में शुभारंभ उद्घाटन वक्तव्य प्रख्यात बांग्ला विद्वान एवं अनुवादक सुकांत चौधरी ने दिया तथा बीज वक्तव्य प्रख्यात अंग्रेजी लेखक मकरंद परांपजे ने।
 सांस्कृतिक कार्यक्रम के अंतर्गत फौज़िया दास्तानगो और रीतेश यादव द्वारा दास्तान-ए-महाभारत पेश की गई।

अंतिम दिन

'साहित्योत्सव' के अंतिम दिन 15 सत्र हुए पर सबसे खास बात रही कि दिव्यांग लेखकों के काव्य पाठ और कहांनी पाठ हुए। 10 भाषाओं के दिव्यांग लेखकों ने विनोद आसुदानी एवं अरविंद पी. भाटीकर की अध्यक्षता में काव्य-पाठ एवं कहानी पाठ प्रस्तुत किया।

अन्य विचार-सत्रों में भविष्य के उपन्यास, भारत की सांस्कृति परंपरा पर वैश्वीकरण का प्रभाव, अनूदित कृतियों को पढ़ने का महत्त्व, एकता और सामाजिक एकजुटता, कृत्रिम बुद्धिमता और साहित्यिक रचनाएँ आदि विषयों पर इनके विशेषज्ञों के साथ विचार विमर्श हुआ।

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'भारतीय साहित्यिक परंपराएँ: विरासत और विकास' विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी के अंतिम दिन भारतीय कविता, दलित साहित्य एवं आध्यात्मिक साहित्य पर गंभीर विचार-विमर्श हुआ।

इन सत्रों की अध्यक्षता क्रमशः विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, श्यौराज सिंह बेचैन एवं विष्णु दत्त राकेश ने की। बहुभाषी कवि सम्मिलन एवं कहानी-पाठ के भी तीन सत्र हुए।

बच्चों के लिए चित्रकला/रेखांकन प्रतियोगिता एवं भाषण प्रतियोगिताएँ आयोजित की गई जिनमें 15 स्कूलों के 300 से ज्यादा बच्चों ने भाग लिया। इन प्रतियोगिताओं में 12 बच्चों को पुरस्कृत किया गया।

Children

इस अवसर पर पुस्तक की अनुवादिका अमृता बेरा और साहित्य अकादेमी के सचिव भी उपस्थित थे। साहित्य अकादेमी ने पिछले वर्ष 484 किताबें और 459 कार्यक्रम आयोजित किए। यानी यहां हर रोज एक समारोह और एक किताब का प्रकाशित हो रहा है।