विज्ञान और तकनीकी क्रांति के इस युग में जहाँ विश्व के अन्य देश ए. आई. के ज़रिए पुरानी सामाजिक-आर्थिक-नैतिक संरचनाओं में फेरबदल कर नई विश्व-व्यवस्था लाने के लिए जी तोड़ प्रयास कर रहे हैं, वहीं धर्मांधता की कश्ती पर सवार होकर भारत का एक बड़ा राजनीतिक दल अकेले ही इतिहास के क्षीर सागर का मंथन करने में जुटा हुआ है। जब दूर-दूर तक कोई प्रतिद्वंद्वी न हो और बेशुमार भीड़ के नाम पर अपना ही अक्स चहुंओर लगे आईनों में प्रतिबिंबित हो रहा हो, तब मनचाहे निष्कर्षों को अवधारणा और उपलब्धि बना देना बहुत आसान हो जाता है। इतिहास को यूँ भी कामधेनु की तरह दुह लेने का प्रचलन अर्द्धशिक्षित समाज-व्यवस्थाओं में काफ़ी पहले से रहा है। लेकिन ज्ञानार्जन में शोध एवं अध्ययन की वैज्ञानिक पद्धति का समावेश कर लेने के बाद यादृच्छिकता पर स्वयमेव अंकुश लग जाते हैं। तब इतिहास तथ्यों की धुँधली विकृत लकीर पर बुनी गई मनोरम आख्यान शैली नहीं रहता, बल्कि अपनी तमाम वैज्ञानिकता के साथ कार्य-कारण श्रृंखला को प्रमाणों, सवालों एवं तार्किक दृष्टि से विश्लेषित करने वाली एंथ्रोपोलॉजिकल अध्ययन पद्धति की एक विशेष प्रशाखा बन जाता है। इतिहास को विकृत करने की शाइस्तगी मनुष्य सभ्यता के प्रदीर्घ बहुलतावादी सांस्कृतिक विकास की अनवरतता को भंग करना भर नहीं है, बल्कि एक नैतिक अपराध भी है जो मनुष्य और मनुष्यता दोनों को उसकी जड़ों से काटकर सूखे पत्ते की तरह हवा में उड़ा देता है। प्रसिद्ध इतिहासकार रोमिला थापर अपनी पुस्तक “हमारा इतिहास, उनका इतिहास, किनका इतिहास” के ज़रिए समय में एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप की तरह उभरती हैं। नई शिक्षा-नीति के तहत अन्य कटौतियों के बाद स्कूली पाठ्यक्रम में इतिहास की पुस्तकों से जिस प्रकार दसवीं शताब्दी से अठारहवीं शताब्दी के मुस्लिम काल को बाहर कर दिया गया है, वह सड़कों, शहरों, रेलवे स्टेशनों के नाम बदलने जितनी ‘मासूम‘ कोशिश न हो कर भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक धरोहर को छिन्न-भिन्न कर उसे एक ख़ास धर्म, रंग, पहचान से जोड़ने की वर्चस्ववादी राजनीतिक कोशिश है। इसलिए इस पुस्तक में (जिसे संजय कुंदन ने अनुवाद के ज़रिए हिन्दी पाठक-समाज को सुलभ कराया है) वे इतिहास-अध्ययन की वैज्ञानिक पद्धति पर बात करते हुए बहुत से महत्वपूर्ण सवालों से जूझते दिखाई देती है। जैसे, इतिहास क्या है? राष्ट्रवाद, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और इतिहास चेतना का क्या अंतर्संबंध है? इतिहास की प्रामाणिकता का परीक्षण कैसे किया जाए?
 

रोमिला थापर मानती हैं कि इतिहास कोई सुनिश्चित फ़्रेमबंद स्थिर अवधारणा नहीं है। वह समय की तरह निरंतर गतिशील है और विराट भी। इसलिए उसकी अंतर्वर्ती लहरों में एक साथ इतना कुछ घटित होता चलता है और अनजाने ही एक-दूसरे को प्रभावित कर वह इस क्रमिक अंदाज़ में ‘म्यूटेशन‘ कर रहा होता है कि किनारे बैठकर तुरत-फुरत कोई निष्कर्ष निकालना संभव नहीं। दूसरे, इतिहास बीत कर भी भी रीतता नहीं है। वह फॉसिल की तरह अपने डी. एन.ए. को समय की शिला पर जीवित छोड़ देता है। मुश्किल यह है कि एकबारगी सारे तथ्य और प्रमाण हासिल नहीं होते। उन्हें निरंतर चलते रहने वाली पुरातात्विक खोजों के ज़रिए, अप्राप्त पांडुलिपियों की प्राप्ति या अबूझ लिपियों को पढ़ने की नई वैज्ञानिक चेतना के ज़रिए नए सिरे से समझा और पुनर्मूल्यांकित किया जाता है। इस प्रक्रिया में पूर्ववर्ती निष्कर्ष/अवधारणाएँ बदलती हों तो बेशक़ बदले। चूँकि सभ्यता और संस्कृति की तरह इतिहास का स्तर भी बहुलतावादी है, इसलिए उसकी बुनाई में बहुत से स्रोतों से आए बहुत से धागों पर विचार करना पड़ता है।

 इतिहास की वैज्ञानिकता दृष्टिगत उदारता, अनुसंधान की निरंतरता, मनुष्य की ज्ञान पिपासा और वर्चस्व की लड़ाइयों के बावजूद सह-अस्तित्व में आस्था पर टिकी है। इतिहास-दृष्टि यदि एक स्तर पर विशिष्ट काल-खंड में जी रहे किसी समाज के यथार्थ की संश्लिष्ट जीवन्त धड़कनों को सुनने की आकांक्षा है, तो दूसरे स्तर पर वर्तमान की विवेक दृष्टि भी है जो घटित हो चुके अतीत के प्रति नि:संग रहने का वैचारिक अनुशासन देती है। इतिहास अतीत की बर्बरताओं और रंजिशों को वर्तमान के अखाड़े में सेटल करने की कुत्सा नहीं है लेकिन दुर्भाग्यवश आज ऐसा ही हो रहा है। इसलिए वे राष्ट्रवादी उन्माद की शिनाख्त से पहले राष्ट्रवाद के दो प्रकारों - समावेशी राष्ट्रवाद और विभाजक राष्ट्रवाद - को गहराई से समझने का आह्वान करती हैं। एरिक हॉब्सबॉम को उद्धृत करते हुए वे कहते हैं “राष्ट्रवादी, नस्लीय या कट्टरपंथी विचारधाराओं के लिए इतिहास एक कच्चा माल है, ठीक उसी तरह जैसे हेरोइन के नशेड़ियों के लिए अफ़ीम के बीज कच्चा माल हैं। इन विचारधाराओं में अतीत एक आवश्यक तत्व है, संभवतः सबसे आवश्यक। यदि कोई उपयुक्त अतीत नहीं होता, तो उसे गढ़ लिया जाता है।”
दरअसल इतिहास को ‘गढ़’ लेने की यह प्रवृत्ति स्थितियों के सरलीकरण और मनमाने उपयोग से कहीं अधिक बढ़ कर भविष्य की रगों में घृणा और बहुसंख्यक वर्चस्व को इंजेक्ट कर देने की घिनौनी कोशिश है जिसे हिटलर के नाज़ीवाद और जर्मनी के विघटन में पूरा विश्व देख चुका है।इस विभाजक राष्ट्रवाद के विपरीत है समावेशी राष्ट्रवाद जो बहुलतावादी स्वरों, संस्कृति और आस्थाओं का समंजन करते हुए सह-अस्तित्व, वैचारिक उदारता और पारस्परिक गरिमा की रक्षा की बात करता है। नेहरूजी की ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ इसका बेहतरीन उदाहरण है।

इतिहास शासकों/सम्राटों के प्रभुत्व का लेखा-जोखा भर नहीं है। राजनीतिक गतिविधियां बेशक उसकी आधारभूमि हैं लेकिन वे तमाम गतिविधि विधियाँ शून्य से नहीं टपकतीं, बल्कि समाज-व्यवस्थाओं, धार्मिक आचार-व्यवहार और आर्थिक नीतियों की टकराहट से खाद-पानी पाती हैं। धर्म किसी भी राष्ट्र के इतिहास के स्वरूप को प्रभावित करने वाला सबसे बड़ा घटक है। लेकिन प्राचीन भारत में धर्म ‘रिलीजन की बजाए एक ‘संस्कार’ था जिससे अपनी अन्य पुस्तक ‘प्राचीन भारत का सामाजिक इतिहास’ में विस्तार से विश्लेषित करते हुए रोमिला थापर भारतीय संस्कृति के पुरुषार्थ-चतुष्ट्य से जोड़ती हैं। पुरुषार्थ (जीवन-व्यवहार) के ये चार प्रकार हैं - धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। धर्म का अर्थ है सामान्य जन के लिए वर्णाश्रम व्यवस्था द्वारा निर्धारित सामाजिक स्थिति के अनुरूप आचरण करने की बाध्यता। लेकिन वर्णाश्रम व्यवस्था भी न अ-चुनौतीपूर्ण है, न अंतिम सत्य। बुद्ध का आविर्भाव मनुष्य की स्वायत्तता और समाज की बहुलता को श्रेणीकृत करते वैदिक ब्राह्मण धर्म को चुनौती देता है जिसमें कालांतर में श्रमण परंपरा के अन्य घटक - जैन, चार्वाक और आजीवक जैसे के नास्तिकवादी भी सम्मिलित कर दिए गए। यही नहीं, हिन्दू दर्शन भी समय के साथ अपना वैचारिक विस्तार करते हुए इन विरोधी स्वरों को स्वीकारता है और आस्तिक एवं नास्तिक संप्रदायों की स्वायत्तता की बात कर स्वयं को षड्दर्शन रूप में अभिव्यक्त करता है। यह सांस्कृतिक विकास की बहुलतावादी ध्वनियों को समेट कर इतिहास का सतत् प्रवाहमान समय-सलिला में ढल जाना है जिसे आज मुस्लिम-द्वेष के विष से दूषित किया जा रहा है। मतभिन्नता द्वेष नहीं है। वह अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताओं के साथ स्पेस की माँग करती मनुष्य सहृदयता है जो बदले में दूसरे की प्रतिबद्धता, आस्था और स्पेस का सम्मान करती है। रोमिला थापर उदाहरण देकर बताती हैं कि वैष्णव, शैव, शाक्त - भिन्न संप्रदायों में बंटा ब्राह्मण धर्म तलवारें खींच कर एक-दूसरे से टकराता भी रहा है और समानांतर चलता भी रहा है। बौद्ध चैत्यों और मठों को हिन्दू मंदिरों में बदल देना और विष्णु के दशावतारों की कल्पना करते हुए नवें अवतार के रूप में महात्मा बुद्ध को स्थान देना एक स्तर पर यदि भीषण राजनीतिक टकराहटों का परिणाम है, तो दूसरे स्तर पर समय की पदचापों को सांस्कृतिक धरोहर के रूप में संजोने की उदारता भी है। रोमिला थापर को सख़्त एतराज़ है कि आज हम मुस्लिम एवं ईसाई धर्म के अनुकरण पर हिंदू धर्म को भी मोनोलिथिक (एकेश्वरवादी) धर्म मानने लगे हैं। हिन्दू धर्म वैदिक धर्म से रूपांतरित होकर बनने वाला ब्राह्मण धर्म है धर्म है जो श़क सम्राट पुष्यमित्र के राजकीय संरक्षण के कारण दूसरी सदी ई०पू० में धीरे-धीरे मज़बूत होने लगा, लेकिन यह भी तय है कि इसकी आधारभूत संरचना में बौद्ध धर्म के प्रभाव-चिन्ह मिलते हैं। जैसे यवनों द्वारा पहली सदी ई० पू० और दूसरी सदी ई० पू० के बीच बुद्ध-प्रतिमा का निर्माण करने के अनुकरण पर निराकार एवं प्रकृतिपूजक वैदिक धर्म को लार्जर दैन लाइफ़ व्यक्ति (ईश्वर) का रूप देने के क्रम में न केवल उसके अवतारी रूप और लौकिक जीवन के चामत्कारिक क़िस्से बुने गए, बल्कि भक्तों को आपसदारी में जोड़ने के लिए पूजा की विशिष्ट विधि का प्रतिपादन भी किया गया। इसी क्रम में पुराण-साहित्य की रचना हुई और बुद्ध के विस्तृत प्रभाव-क्षेत्र का अनुसरण करते हुए उच्चकुलोद्भव वर्णों की प्रतिष्ठा के समानांतर निम्न वर्णों और अवर्णों को भी भक्ति के ज़रिए ब्राह्मण धर्म से जुड़ने की छूट दी गई। यह वैदिक धर्म की ज्ञान परंपरा का क्रमशः भक्ति परंपरा में संचरण है जो आठवीं सदी में शंकराचार्य के ज़रिए भक्ति की सगुण-निर्गुण धारा और दार्शनिक संप्रदायों के रूप में पूरे भारत में फैल गई।
 ‘हमारा इतिहास, उनका इतिहास, किनका इतिहास’ पुस्तक मुझे इसलिए भी विशिष्ट लगी कि एक स्वतंत्र रचना होते हुए भी यह लेखिका की समूची इतिहास-अनुसन्धान की यात्रा का निचोड़ है। ज़ाहिर है इस पुस्तक के परिपार्श्व में लेखिका की अनेक पुस्तकें चलती दिखाई देती हैं। लिहाज़ा उनकी इतिहास-पुस्तकों की अध्येता होने के नाते मुझे बिखरी कड़ियों को जोड़ लेने की सहूलियत भी मिलती रही है। ऐसा नहीं कि सहिष्णुता समन्वय, सह-अस्तित्व और सांस्कृतिक बहुलता की यह ‘भारतीय-परंपरा मुस्लिम शासन के आने के बाद समाप्त हो गई बल्कि सत्य तो यह है कि सोलहवीं सदी में उत्तर भारत में फैला भक्ति-आंदोलन शंकराचार्य के पूर्ववर्ती भक्ति-आंदोलन से इस अर्थ में विस्तृत था कि अब मुस्लिम संस्कृति और धर्म के संपर्क में आकर उसने सूफ़ी साहित्य और दर्शन के साथ संवाद करना शुरू किया। संस्कृत, प्राकृत एवं अन्य स्थानीय बोलियों के साथ फ़ारसी के मेल-जोल ने भाषाई संस्कृति को समृद्ध किया। अमीर ख़ुसरो द्वारा फ़ारसी की मसनवी शैली के अलावा खड़ी बोली का प्रयोग और हिंदी-फ़ारसी भाषा में ग़ज़ल का एक-एक अंतरा लिखना दो बोलियों, संस्कृतियों और धर्मों के आपसी मेलजोल का ज्वलंत उदाहरण है। दारा शिकोह सामासिक संस्कृति का ऐसा ही एक अन्य महत्वपूर्ण उदाहरण है जिसने राज्य के संरक्षण में उपनिषदों, पौराणिक ग्रंथों, भागवत गीता आदि का फ़ारसी में अनुवाद कराया और फारसी दर्शन को संस्कृत में अनूदित कराया।

ऐतिहासिक साक्ष्यों की लंबी सूची देते हुए रोमिला थापर इतिहास/अध्ययन की वैज्ञानिक पद्धति से पल भर भी विचलित नहीं होतीं। वे शिलालेखों, स्मारकों, स्तंभों पर उत्कीर्णन अभिलेखों का अध्ययन कर इस निष्कर्ष पर पहुँचती हैं कि चौथी सदी ईसा पूर्व अशोकक़ालीन स्तंभों, शिलालेखों पर परवर्ती राजाओं ने अपने समय की महत्वपूर्ण सूचनाओं को अंकित करवा कर भारतीयता की जिस ऐतिहासिक परंपरा को जीवित रखा, उसे मुस्लिम शासकों ने भी अंत तक बनाए रखा। फ़िरोज़शाह तुग़लक़ के समय के एक अभिलेख का अध्ययन कर वे लिखती है - “भारतीय अतीत की एक झलक पेश करने वाला यह सब अपने आप में अनोखा है। इसका उपयोग तीन सहस्राब्दियों में तीन प्रमुख शासकों द्वारा किया गया था और इसे तीन भाषाओं और लिपियों में लिखा गया था। यह तीन महान भारतीय संस्कृतियों की निरंतरता को व्यक्त करता है - मौर्य, गुप्त और मुग़ल। गुप्तों और मुगलों के लिए यह भारतीय अतीत के साथ अपनी पहचान जोड़ने का प्रयास था … इस विशेष स्तंभ को इसके पूर्ववर्ती शिलालेखों के साथ आगरा क़िले में रखना इसी जुड़ाव की परंपरा का परोक्ष संकेत है।”

पुराने दस्तावेजों और धरोहरों के साथ-साथ ‘भारतीयता’ को सुरक्षित रखने की यह संवेदनशीलता दूसरी सहस्राब्दी में मुस्लिम शासकों में इस क़दर मज़बूत थी कि उन्होंने हिन्दू-समाज की वर्ण-व्यवस्था का सम्मान करते हुए जहाँ सवर्णों को दरबार में उच्च स्थान दिया और राजनीतिक उद्देश्यों के लिए राजपूतों से वैवाहिक संबंध स्थापित किए, वहीं निम्न जातियों के लिए भूमि सुधार एवं कुटीर धंधों को संरक्षित किया। यही वजह है कि सत्रहवीं-अठारहवीं सदी का भारत मुग़ल शासन के अधीन सोने की चिड़िया कहलाया, और भारत के हिंदू समाज ने तुर्कों/ तरुष्कों को श्रमणों की भाँति मलेच्छ मानते हुए भी आदर-मान दिया। अपने इस कथन की पुष्टि में वे 14वीं शताब्दी के संस्कृत ग्रन्थ ‘सर्व दर्शन संग्रह’ का उल्लेख करती हैं। दूसरे साक्ष्य के रूप में चौदहवीं से सोलहवीं सदी के दौरान दिल्ली में रहने वाले हिंदू व्यापारियों द्वारा निर्मित कराए गए शिलालेखों का उल्लेख करती हैं जहाँ संस्कृत शैली में सत्तारूढ़ तुरुष्क सम्राट की वन्दना के समानांतर हिन्दू देवताओं की वन्दना है, राजपूत राजवंश की विरुदावली है, और निर्माता के रूप में हिन्दू व्यापारियों की वंशावली है। तीसरा साक्ष्य स्वयं अल्प-शिक्षित कामगारों द्वारा शिलालेखों-स्तंभों की मुरम्मत के बाद ठीक हिन्दू शैली में देवताओं का आह्वान किया गया है। कुतुबमीनार और कई मस्जिदों में पाए जाने वाले ये शिलालेख तद्युगीन इतिहास की गोद में पनप रही समन्वयवादी संस्कृति की तस्वीर पेश करते हैं जो बहुलतावादी चरित्र के साथ सबको साथ लेकर विकसित-परिमार्जित हो रही थी। साहित्य, संगीत, नृत्य, चित्रकला के अतिरिक्त स्थापत्य कला में भी हिन्दू एवं मुस्लिम शैली का सम्मिश्रण दो संस्कृतियों के बीच समन्वय एवं संघर्ष की मिली-जुली कथा कहता है।

 मौर्यकालीन शिलालेखों का ज़िक्र करते हुए रोमिला थापर लिखती है कि एक शिलालेख में सम्राट अशोक ने ब्राहम्ण-श्रमण आदि विभिन्न धार्मिक संप्रदायों के बीच सामंजस्यपूर्ण संबंध बनाए रखने का आह्वान किया है। यानी मुस्लिम धर्म के भारत-आगमन से पूर्व पहली सहस्राब्दी ईसा पूर्व में भी धर्म को लेकर टकराहट जारी थी। तो यह क्यों माना जाए कि मुस्लिम अनिवार्यता बर्बर और असहिष्णु कौम है? वे इन दोनो धर्मों के सांस्कृतिक समन्वय की परंपरा के बाद सवाल उठाती है क्यों हिंदू-मुस्लिम धर्मावलंबियों के बीच दरार गहराती गई? आर्काइव्ज़ में ऐसे अनेक साक्ष्य हैं जो बताते हैं कि मुस्लिम शासकों के समय न केवल धड़ल्ले से हिन्दू मंदिरों का निर्माण हुआ, बल्कि उनके संपोषण के लिए औरंगज़ेब सहित मुस्लिम शासकों ने आसपास के कई गांवों की ज़मीन मंदिर के नाम पट्टे पर दी। इन्हीं शासकों के शासनकाल में मंदिर पूजा एवं अध्ययन-अध्यापन स्थल से कैसे धीरे-धीरे वाणिज्य के केंद्र बने और बाद में राजनीतिक दुराग्रहों के अड्डे बने, यह किसी से छुपा नहीं है। सोमनाथ मंदिर का उदाहरण देते हुए वे बताती हैं कि “उस समय मंदिर जमींदार थे तो बैंकर और व्यापार में निवेशक भी।” अथाह संपत्ति के कारण विदेशी आक्रांता इन मंदिरों को लूटने आते रहे। सोमनाथ और महमूद गजनवी का क़िस्सा भला कौन भूल सकता है? लेकिन ग़ौरतलब है कि संस्कृत-फ़ारसी ग्रंथ सोमनाथ पर चढ़ाई की बात अलग-अलग ढंग से करते हैं। फारसी ग्रंथों में हमले का उल्लेख तो मिलता है लेकिन संस्कृत ग्रंथ प्राय इस विषय पर मौल हैं या हमले का हल्के ढंग से उल्लेख करते हैं। बारहवीं सदी में चालुक्य-नरेश कुमार पाल ने जब इस जीर्ण-शीर्ण मंदिर का पुनरुद्धार कराया, तब तत्कालीन विद्वान आचार्य मेरुतुंग के संस्कृत ग्रंथ ‘प्रबंध चिंतामणि’ में दर्ज किया गया कि मंदिर के रख-रखाव का दायित्व भलीभाँति वहन न करने के कारण और समुद्री लहरों के थपेड़ों के कारण मंदिर जर्जर हुआ। रोमिला थापर की मान्यता है कि सोमनाथ मंदिर हिंदू आस्था का केंद्र होने के साथ-साथ सभी समुदायों/धर्मों के व्यापारिक-हितों से भी जुड़ा हुआ था।

 दरअसल इतिहास में होने वाली ज्यादतियों को धर्म का चश्मा लगाकर देखने से वर्तमान के वर्चस्ववादी अहम् को तो पुष्ट किया जा सकता है, इतिहास के भीतर धड़कते समाजशास्त्र और सामाजिक मनोविज्ञान को नहीं जाना जा सकता। अन्य भारी-भरकम करों के अलावा जजिया कर लगाना या मंदिर तुड़वाना मुस्लिम शासकों की मज़हबपरस्ती का एक उदाहरण हो सकता है, लेकिन बौद्ध मठों को तोड़कर मंदिर बनवाने की परंपरा को फिर क्या कहा जाएगा? बेशक़ धर्म-द्वेषी दृष्टिकोण के कारण जजिया कर गलत कहा जाएगा, लेकिन ऐसा क्यों हुआ कि ग्यारहवीं सदी के कश्मीर नरेश हर्षदेव ने हिन्दू मंदिरों को लूटना शुरू कर दिया? दरअसल राजनीतिक गतिविधियां धर्म और संस्कृति की आड़ लेकर हमेशा अपना बचाव करती रही हैं। रोमिला थापर इन दोनों उदाहरणों को राज्य की आर्थिक स्थितियों से जोड़कर देखने की हामी है जहाँ राजकोषीय संकट के निवारण के लिए दोनों शासकों ने अपने-अपने ढंग से समाधान खोजने के प्रयास किए।

 मौजूदा भारत में उग्र सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पनपने के पीछे बहुसंख्यक राजनीतिक हितों का ध्रुवीकरण है तो साझा सामासिक संस्कृति को ‘बहुसंख्यक’ और ‘अल्पसंख्यक’ हितों में बाँटने के पीछे ब्रिटिश उपनिवेशवादी ताक़तों का अपना मुस्लिम-द्वेष भी रहा है। हम सब जानते हैं कि क्रिश्चिएनिटी के लिए मध्यकाल का जो दौर ‘डार्क एज’ रहा है, वही बाइज़ेन्टाइन साम्राज्य के रूप में मुस्लिम धर्म के लिए राजनीतिक, आर्थिक, वैज्ञानिक ताक़त का शिखर-काल रहा है। भारतीय इतिहास-लेखन की विधिवत परंपरा ब्रिटिश काल में शुरू हुई और उन्होंने अपनी-अपनी व्यक्तिगत द्वेषपूर्ण दृष्टि के चलते भारतीय इतिहास को तीन कालों में बाँटा। प्राचीन काल को वैदिक-ब्राह्मण धर्म की प्रतिष्ठा के साथ जोड़ते हुए इसे भारतीय संस्कृति का स्वर्णकाल कहा। भारत में मुस्लिम धर्म के प्रवेश के कारण मध्य युग को अंधकार युग की संज्ञा दी। तीसरे काल को औपनिवेशिक ब्रिटिश काल कहा जो भारत का ‘रिवाइवल’ करता है. यह वह काल है जो 1857 के साझा सैन्य-विद्रोह से घबराता है, कट्टरवादी हिन्दू-मुस्लिम राजनीतिक दलों को द्वि -राष्ट्र सिद्धांत पर बने रहने का प्रोत्साहन देता है, और भारत की सामासिकता को ‘हम’ और ‘वे’ में बांटकर तोड़ता है ताकि आर्थिक लूट का कार्यक्रम बदस्तूर जारी रहे। आज जब इतिहास राजनीति का ‘रोचक’ और ‘अ-वैज्ञानिक’ विषय हो गया है, तब सवाल उठता है कि हम इतिहास को कितना जानते हैं? समझना चाहिए कि गोरखनाथ और कबीर-नानक को एक साथ एक समय में संवादरत दिखा देने वाले राजनीतिक वक्तव्य भ्रम या अज्ञान की उपज नहीं बल्कि सोची-समझी साजिश के तहत इतिहास को ही प्रहसन में तब्दील करने की युक्तियाँ हैं। उग्र हिंदुत्व के उभार के बीच जानना चाहिए कि क्यों भारत से विश्व भर में फैला बौद्ध धर्म भारत से ही लुप्त हो गया है? क्यों सवन, शक, कांबोज, पारसीक, बाह्लीक और राजपूत को भारतीय संस्कृति में समायोजित करने वाली परंपरा हिंदुत्व (सावरकर) के सिद्धांतों पर चलकर रक्त-शुद्धि और कर्मभूमि के अतिरिक्त पुण्यभूमि (धर्म का उद्भव स्थल) भारत को मानने की जिद में सिमट गई? जाहिर है यह पुस्तक इतिहास के जरिए अपनी जड़ों, परंपरा, मनुष्यता को समझ कर वर्तमान का सृजन करने की लोकतांत्रिक चेतना का सकारात्मक हस्तक्षेप है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पल-पल जीकर हम अपनी आगामी पीढ़ियों का इतिहास ही बनाते हैं।

पुस्तक- हमारा इतिहास उनका इतिहास किनका इतिहास
लेखक- रोमिला थापर
विषय- इतिहास
अनुवाद- संजय कुंदन
प्रकाशक- वाम प्रकाशन
मूल्य- 250रु.