दृश्यम: रतन थियम का 'मैकबेथ'

इस मंच को तुम बहुत सूना कर गए प्रिय रतन थियम/जिस पर तुमने हमारी आँखों के आगे/कविता को घटित किया/चित्र बनाए-मिटाए /दुख का रुदन/ऋतुओं का श्रृंगार रचा/ कृत-कृत हैं हम दर्शक सदा सदा के लिए'-शम्पा शाह। आधुनिक भारतीय रंगमंच की बेहद ख्यातनाम शख्सियत रतन थियम नहीं रहे। वे कई भाषाओं के ज्ञाता थे पर सबसे ज्यादा जो बोलती थी, वह थी उनकी चुप्पी और बेचैनी, जिसका वे अपने निर्देशन में, कलाकारों के चरित्र निर्वहन में भी बखूबी इस्तेमाल करते थे। समाज, सत्ता, दुःख और अंधेरा उनके नाटकों के चयनित विषय रहे हैं। आज दृश्यम में उनके बेहद चर्चित नाटक 'मैकबेथ' पर बात कर रहे हैं, रंग समीक्षक अमितेश कुमार।

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शेक्सपियर और उनकी कृतियां किस तरह अपने काल का अतिक्रमण करके मानवीय स्वभाव के शाश्वत मूल्यों को पिछली चार सदियों से किस तरह प्रतिबिंबित कर रही हैं इसके बारे में बताने की अलग से जरूरत नहीं। और ना ही यह बताने की जरुरत है कि रतन थियम समकालीन भारतीय रंगमंच के अप्रतिम निर्देशक रहे हैं। शेक्सपीयर का नाटक ‘मैकबेथ’ मानवीय भावनाओं के बुनियादी पहलुओं को उभारता है, जो हर दौर के मनुष्य में मौजूद है। उसको शह मिलने की देर है वह सामने आ निकलता है और फिर इन प्रवृतियों का सामना मनुष्य की अनिवार्य नियति बन जाती है। असल बात यह है कि हम इन प्रवृतियों के प्रति आगाह हो कर इनको कितना संयोजित निंयत्रित करते हैं। और यह प्रवृति अगर एक सभ्यता में आ गई तो क्या हो सकता है? रतन थियम का ‘मैकबेथ’ इस संभावना को उभारता है। रतन थियम इस नाटक को अपने परिवेश में लेकर गये हैं, लेकिन इसका मिजाज उनकी दोनों प्रस्तुतियों ‘व्हेन वी डेड अवेकेन’ और ‘किंग आफ द डार्क चैम्बर’ से अलग है। क्योंकि इसमें ना दृश्य रचना के चमत्कार हैं और ना प्रकाश के जादूई खेल लेकिन इसमें जो विशेष है वह इसका हमारी चेतना पर तीक्ष्ण प्रहार। जो यह प्रस्तुति अपनी गति और अपनी रंगभाषा के निरूपण से करती है, बिलकुल सादगी से। आप अबूझ भाषा में होने वाली प्रस्तुति में भी अंत तक बंधे रहते हैं।

‘मैकबेथ’ को अबतक मंच पर ही नहीं बल्कि सिनेमा में भी अलग अलग व्याख्याओं में प्रस्तुत किया जाता रहा है। मंचीय प्रस्तुतियों के साथ यह सुविधा नहीं है कि उसे हम प्रस्तुति के बाद ठीक उसी रूप में उसे देख पाये जिस रूप में वह एक निश्चित समय में घटित होती है। सिनेमा के साथ यह सीमा नहीं है। इसलिये हम रोमान पोलांस्की निर्देशित ‘मैकबेथ’, अकीरा कुरोसावा निर्देशित ‘थ्रोन आफ ब्लड’ और विशाल भारद्वाज निर्देशित ‘मकबूल’ अगर एक साथ भी देखें तो तीन मुख्तलिफ़ सिनेमा देखेंगे।

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में मैकबेथ की ‘बरनम वन’ के नाम से ब.व.कारंथ की प्रस्तुति इतिहास का हिस्सा है, जिसमें शेक्सपीयर और यक्षगान का मिलन हुआ था। कारंथ ने बरनम वन को अलग से उभारा और उसे महात्वाकांक्षाओं के जंगल के रूपक में बदल दिया। ऐसा जंगल जो अंततः मनुष्य को घेर कर मार डालता हैै। मैंने यह प्रस्तुति नहीं देखी थी लेकिन बांग्लादेश के निर्देशक सैयद जमील अहमद द्वारा रानावि तॄतीय वर्ष की प्रस्तुति ‘मैकबेथ’ जो मैंने देखी थी, उसे सत्ता पाने के पागलपन और षडयंत्र के तौर व्याख्यायित किया गया था।

रतन थियम ने ‘मैकबेथ’ के अपने इस रूपांतरण को आदिवासी पृष्ठभूमि में रखा। वेश-भूषा, हथियार, गतियां इसकी तरफ़ संकेत करती है। यहां अस्पताल का दृश्य रच कर इसे आधुनिक स्थितियों से जोड़ा गया है। महत्त्वाकांक्षा और लालच से घिरा मैकबेथ पागल हो जाता है और अस्पताल पहुंच जाता है। इसी जगह पर थियम अपना मंतव्य प्रकट करते हैं। वे इस चरित्र को व्यक्ति से अधिक एक प्रवृति के रूप में व्याख्यायित करते हैं, जिससे समस्त विश्व आक्रांत है। थियम स्वंय कहते हैं ‘मैकबेथ एक रोग का नाम है जो समकालीन विश्व और इस तथाकथित उच्च सभ्यता में अविश्वसनिय गति से पसर रहा है। यह खतरनाक रूप से संक्रामक है। असीम वासना, लालच, हिंसा इत्यादि जैसे इसके लक्षण हैं। इस व्याधि की आसानी से शिनाख्त नहीं होती, क्योंकि यह सतह पर नहीं भ्रष्ट और दूषित दिमागों में छुपी होती है। इसका विकास एक प्रक्रिया है जो खतरनाक, जटिल, उकसावे व षडयंत्र से भरा हुआ है। जिसकी अंतिम परिणति का विस्फोट हिंसा है, जिससे मानवता और पृथ्वी की शांति का विध्वंस होता है।’

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 ब.व. कारंत ने ‘मैकबेथ’ के बरनम वन को केंद्र में रखकर उसे महत्त्वकांक्षाओं बढ़ता जंगल कहा था, थियम इस जंगल के सभ्यता तक के निरंतर फैलाव होते जाने को उभारते हैं। सत्ता को किसी कीमत पर पाना और उसके खो जाने के भय से उपजी असुरक्षा विश्व को एक होड़ और निरंतर अंधकार की तरफ़ ठेल रही है। इसलिये उनकी इस प्रस्तुति का अधिकांश हिस्सा अंधेरे में घटित होता है। अब इस मनोरोग से निबटने के लिये क्या किया जाए? थियम वर्तमान के उपायो को क्षणिक और नाकाफी मानते हैं और कहते हैं कि ‘इलाज का हर प्रयास केवल एक बाहरी उपचार भर साबित हो जाता है, जो दिमाग के उस भ्रूण तक पहुंचने में नाकामयाब रहता है; जहां से ये बीमारियां प्रसारित होती है। ‘मैकबेथ’, यह नाटक और यह चरित्र भी, मानव जाति का सबसे कुरूप संस्करण है जिसकी संख्या विश्व में प्रतिदिन बढ़ रही है।”तो क्या इससे निजात का कोई साधन नहीं! इसके निदान के लिए इसकी शिनाख्त और जड़ से उन्मूलन आवश्यक है। इसलिए वे विकल्प रचते है। विकल्प है इन प्रवृतियों की सफ़ाई कर उसे दफना देना जो अंत में नर्सें करती है। मैकबेथ की कब्र के साथ उसकी प्रवृतियों को भी मंच से झाड़ू देकर साफ़ कर दिया जाता है। इस प्रस्तुति में केंद्रीय चरित्र वे प्रवृतियां बन जाती हैं जो मैकबेथ के अंदर पलती हैं और ऐसा मैकबेथ हर इंसान में मौजूद होता है जो उकसावा पाते ही बाहर आता है। इसलिये इसमें हर अभिनेता के कद को छोटा किया गया है, वे अपने वास्तविक स्वरूप में नहीं है। उनके चलने की गतियों को इस तरह नियोजित किया गया है जिससे वह कम लंबाई के दिखे।

अस्पताल के प्रयोग को आलोचक आसानी से कह सकते हैं कि यह आरोपित दृश्य योजना है। आख्यान का भीतरी हिस्सा नहीं। कुछ हद तक यह सही है, लेकिन इस योजना से ही निर्देशक इस प्रस्तुति को अपना मानी देता है। वह केवल ऐतिहासिक मैकबेथ की प्रस्तुति नहीं कर रहा वह अपने समय के मैकबेथ को अपने समय के द्वंद्व के साथ संप्रेषित करने के लिये प्रस्तुति कर रहा है‌। क्या उपभोक्तावाद, महत्वाकांक्षा, अकूत दौलत और शक्ति जमा करने की हसरत ने मनुष्यों की बस्ती को सामान्य रहने दिया है? क्या मनुष्य अपने मनुष्य होने की बुनियादी क्षमताओ और संवेदनाओं से जैविक तौर पर जुड़े रह सके हैं? आप किसी मनोवैज्ञानिक के क्लीनिक में जाएँ वहां के आंकड़े बताएँगे की मनोरोगियों की संख्या किस तरह दिन प्रतिदिन बढ़ रही हैं। इसलिए अपने आख्यान में थियम मनोरोगियों के अस्पताल का दृश्य रच कर उस भयावह भविष्य का दृश्य दिखाते हैं।

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प्रस्तुति के दौरान मंच का अधिकाँश भाग अंधकार में ही रहता है। प्रकाश, थियम की प्रस्तुति आख्यान का अभिन्न अंग होती है, जो अभिनेताओ की देह और गति के साथ मिलकर प्रस्तुति भाषा को सम्पूर्णता देती है। अंधकार एक तरह का मूड निर्मित करता है। अंधकार और प्रकाश के वृत में पात्रों को प्लेस करने के ढंग से भी नाटक का द्वंद्व सामने आता है। हत्या के समय लाल प्रकाश का प्रयोग और अस्पताल में व्हीलचेयरों पर मुर्दों के साथ मंच का चक्कर लगाती हुईं नर्से और उनके बीच मैकबेथ का पागलपन और लेडी मैकबेथ का बार बार अपने हाथ धोना, एक सुर्रीयल प्रभाव भी उत्पन्न करता है। इसमें लेडी मैकबेथ की भूमिका में अभिनेत्री अपने अभिनय से प्रभावित करती हैं। वे लेडी मैकबेथ की ठंढी क्रूरता और बाद में अपने हाथ धोने की असफ़ल कोशिश करने की उत्तेजना दोनों को प्रभावी ढंग से उभारती है।

प्रस्तुति में मैकबेथ में घटने वाली घटनाओं की विवरणात्मकता पर उतना जोर नहीं है जितना कारण और उसकी परिणति पर जिससे खून-खराबा और हत्याओं का दौर शुरू होता हैं और आत्महत्या व पागलपन में खत्म होता है। प्रस्तुति की एक सीमा यह है कि मैकबेथ और लेडी मैकबेथ के अलावा अन्य चरित्रों का विकास नहीं हो पाया है।

चुड़ैल की भविष्यवाणियां, बरनम वन का बढ़ते हुए आना और मैकडफ द्वारा मैकबेथ की ह्त्या आदि उपकथानक लगने लगते हैं और अस्पताल में नर्सों से घिरे लेडी मैकबेथ का अपने हाथ के दाग पोंछने की असफल कोशिश करना और भयग्रस्त मैकबेथ का पागलपन और नर्सो का उसको जिम्मेदार ठहराने का बिंब दर्शकों के चित्त पर ठहर जाता है।

थियम की प्रस्तुतियां सुपरिभाषित होती हैं और अभिनेता व्याकरण से बद्ध होते हैं जिन्हें अपने देह, आवाज और गति को ध्वनि, प्रकाश और मंच के स्पेस में इस तरह साधना होता है, जिससे रंगभाषा मुकम्मल आकार ले। संपूर्णता के लिये इनमें से प्रत्येक एक दूसरे में घुले भी रहते हैं और अपनी निजता भी बरकरार रखते हैं।

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इस लेख के लेखक और रतन थियम

 थियम दृश्यों को इस तरह नियोजित करते हैं कि स्पेस किसी असीम का बोध देने लगता है। ब्लाकिंग, किरदारों को आमने सामने खड़ा करना, उनका प्रवेश प्रस्थान, उनकी गति और वेश भूषा, पृष्ठ ध्वनि प्रस्तुति को गहराई देते हैं। ऐसी प्रस्तुति जिसका एक भी संवाद आपके मस्तिष्क में अनुवादित नहीं हो रहा अर्थ के लिये, लेकिन संवादों की त्वरा और अभिनेता की गतियों से आप बंधे हुए है। कथानक की पहले से जानकारी आपको प्रस्तुति के विकास से अवगत कराती चलाती है। रंग, नाद और बिंब के कुशल समायोजन से मंच पर जो घटित हो रहा है वो विरल ‘नाट्यानुभूति’ है। ‘नाट्यानुभूति’ शब्द का मतलब आप ठीक ठीक समझ पाते हैं जब आप प्रस्तुति के अंत तक उसके साथ एक यात्रा कर लेते हैं।

रतन थियम की दृष्टि और उनके सरोकार कास्मोपोलिटन हैऔ। वो वर्तमान को भविष्य केंद्रित दृष्टि से मंच पर व्याख्यायित करते हैं जिसमें एक चेतावनी रहती है कि हम कहाँ जा रहे हैं? उनकी रंगमंचीय भाषा की राजनीति है कि समूचे विश्व में कैसे प्रकृति और मनुष्य को प्राप्त प्रकृतिजन्य संवेदना को सरंक्षित किया जाए। दरअसल मणिपुरी भाषा के लोकेशन से वो विश्व को सम्बंधित कर रहे होते हैं।

भारत में रंगमंच की वास्तविक स्थिति के बारे में बताते हुए थियम अक्सर ये कहते रहे हैं कि संसाधनों की कमी की वज़ह से वे आज तक वैसी प्रस्तुति नहीं कर पाये जैसी वे सोचते हैं। हमेशा वे विकल्पों की तलाश में रहते जिससे न्यूनतम संसाधनों में प्रस्तुति हो सके। मैकबेथ की प्रस्तुति भी इस तथ्य का परिचायक है, जिसमें उन्होंने न्यूनता बरती है। उन्होंने अक्सर कहा है कि ऐसे समय में जब तकनीक और वैश्वीकरण के कारण विश्व की समस्त भू सरंचना बदल रही है, रंगमंच मूलभूत मानवीय गुणों को बहाल करने में सबसे कारगर होगा और इस क्रम में रंगमंच को भी बुनियादी मानवीय क्षमताओं पर तकनीक से अधिक भरोसा करना होगा। अपने व्याख्यानों और सार्वजनिक जीवन में प्रकृति और बुनियादी मानवीय संवेदना के निरंतर क्षरण की चिंता वो हमेशा जताते रहें और उसमें रंगमंच से जिस तरह की भूमिका के निर्वाह की अपेक्षा वो करते थे ‘मैकबेथ’ की यह प्रस्तुति उसी की कड़ी है।

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