"मैं अपने दर्शकों को बहुत मानता हूँ, पर नाटक अपने लिए करता हूँ। मैं अपने नाटकों से अपने-आपको पहले सन्तुष्ट करना चाहता हूँ।... और मेरे खयाल से मैं शबरी जैसा हूँ... कि मैं बेर, जो मेरा नाटक है, उसे पहले चखता हूँ। बेर मीठे हैं या खट्टे, यह मैं पहले देखता हूँ, और उसके बाद अगर बेर अच्छे हैं यानी नाटक अच्छा है, तभी मैं दर्शक को देता हूँ।... और मेरी जिन्दगी में बहुत सारे नाटक हैं, जिनका रिहर्सल शुरू हो गया, कॉस्ट्युम हो गया, पब्लिसिटी हो गई और मैंने कहा कि यह नाटक नहीं होगा। बन्द करो इसे। और इससे बहुत मुश्किल होती है कि हमेशा उसी अवस्था में वापस आ जाते हैं।... पर सब कुछ होते हुए भी वह नाटक क्यों नहीं हुआ? इसलिए नहीं हुआ कि... वही है कि वह बेर खट्टा था, जिसे मैं शेयर नहीं कर सकता। मैं शेयर करना चाहता हूँ।" यह कथन रतन थियम का है।

निर्देशक पर रंगमंच की दिनोदिन बढ़ती निर्भरता को लेकर इघर लगातार चिन्ताएँ प्रकट की जा रही हैं। निर्देशक की बढ़ती हुई ताक़त और दखल के कारण अभिनेता के रचनात्मक स्पेस के सिमटते जाने को भी रंगमंच की एक समस्या के रूप में देखा जा रहा है। ऐसी स्थिति में रतन थियम जैसे निर्देशकों की टिप्पणियों को नज़रअन्दाज़ नहीं किया जा सकता। इन टिप्पणियों के निहितार्थ को, इनके भीतर छिपे मर्म और अनुभव को विश्लेषित किया जाना चाहिए। रतन थियम जब यह कहते हैं कि, "नाटक पहले अपने लिए करता हूँ।" तो इस शबरी मानकर, अपने ही रचे हुए को चखकर उसे नकारना और जो कुछ श्रेष्ठ है, उसे ही दर्शकों तक पहुँचाने की कामना करना उनकी निष्ठा और दर्शकों के प्रति उनके लगाव को दर्शाता है। अपनी प्रस्तुतियों की गतिशीलता को लेकर किए गए मेरे एक प्रश्न के उत्तर में कुछ वर्षों पहले उन्होंने अपने को एक निर्मम सम्पादक कहा था। उनका मानना था कि जिसके पास अपने रचे हुए को सम्पादित करने या स्थगित करने का साहस होता है, वही सर्जना के उत्कर्ष को छू सकता है।

यहाँ एक और प्रश्न पैदा होता है कि नाटक की प्रस्तुति में शामिल अन्य लोगों की भूमिका क्या रचनात्मक नहीं? क्या प्रस्तुति पूरी तरह एक निर्देशक की रचनात्मक उपज है? अभिनेता और प्रस्तुति के अन्य पक्षों से जुड़े लोगों की रचनात्मकता का नियामक भी क्या निर्देशक ही है? यह सच है कि चाहे रंगकर्म के लिए उपयोग में आनेवाले विविध कलारूप हों या इन कलारूपों से जुड़े विविध लोग सबकी सामूहिक रचनात्मकता का प्रतिफल होता है नाटक। यही है रंगमंच का जनतन्त्र। फिर इस जनतांत्रिक कला में निर्देशक के पास शक्ति के इस केन्द्रीकरण का क्या औचित्य है? क्या इससे रंगमंच के विकास की गति एकांगी या अवरुद्ध नहीं होती? क्या सचमुच नाटक सिर्फ़ निर्देशक का बेर है, जिसे चखकर वह चाहे तो परोस दे या फेंक दे? कुछ रंगकर्मियों का मानना है कि निर्देशक तो दर्शकों का प्रतिनिधि होता है। मंचन के ठीक पहले तक वह दर्शक के प्रतिनिधि के रूप में उपस्थित रहता है, पर मंचन आरम्भ होते ही वह दर्शकों में शामिल हो जाता है। वह जितने बड़े दर्शक-समूह का प्रतिनिधि होता है, उतना ही ताक़तवर होता है। दर्शकों से उसका जुड़ाव ही उसे नाट्यालेख, अभिनेता के काम और रंगकर्म के अन्य पक्षों में हस्तक्षेप के लिए अधिकार देता है। हस्तक्षेप का यह अधिकार क्या रचनात्मकता के लिए ऐसे खतरों को जन्म नहीं दे रहा है, जिनके चलते रंगमंच, विशेषतः हिन्दी रंगमंच में संवादहीनता की स्थिति पैदा हो रही है? संवादहीनता की यह स्थिति क्या दिन-प्रतिदिन जटिल नहीं होती जा रही है?

निर्देशक के सर्वशक्तिमान होते जाने और रंगमंच की रचनात्मकता में शामिल अन्य भागीदारों के लिए स्पेस के सिकुड़ते जाने की चर्चा के बरअक्स यदि हम रंगमंच के दूसरे पक्ष पर विचार करें तब कई तरह के दृश्य उभरते हैं। यदि हम हिन्दीभाषी क्षेत्र के रंगकर्म को विश्लेषित करें तो यह तथ्य स्पष्टतः उभरकर सामने आता है कि यहाँ व्यावसायिक यानी प्रोफ़ेशनल थियेटर नहीं है। यहाँ के रंगमंच का ढाँचा पूरी तरह शौकिया है। आर्थिक और अन्य संकट इतने गहरे हैं कि हर बार फिर से आरम्भ करना पड़ता है। यह शौकिया रंगमंच कई प्रकार के अन्तर्द्वन्द्वों से भरा हुआ है और समय-समय पर इनका शिकार भी होते रहता है। 

रतन थियम एक ऐसे रंगगुरु हैं, जिन्होंने मणिपुर जैसे दूरस्थ क्षेत्र में 'कोरस रिपर्टरी' को खड़ा किया है और उसे जीवित रखने के लिए हमेशा संघर्ष करते रहें। उनकी रिपर्टरी के कलाकार सिर्फ नाटक ही नहीं करते बल्कि अपने श्रम से नाटक करने के लिए साधन जुटाते और अपना जीवनयापन भी करते रहे हैं। उनका मानना था, "...हम शौकिया स्तर पर जो भी नाटक करते हैं, उसे प्रोफ़ेशनल सेमीप्रोफ़ेशनल ऍप्रोच के साथ करना होगा। शौकिया रंगमंच के प्रति हमें अपना ऍप्रोच बदलना होगा, भले ही हम उन अभिनेताओं के साथ काम कर रहे हों, जो पार्टटाइम एक्टर हैं। हमें मानसिक रूप से प्रोफ़ेशनल या सेमीप्रोफ़ेशनल बनना होगा। बिना इसके अनुशासन नहीं आएगा। अनुशासन बहुत जरूरी है। रंगकर्मी जितना अनुशासित होंगे, उतना ही अनुशासन दर्शकों के पास होगा ।... 

'आप स्वयं अनुशासित नहीं हैं। रिहर्सल पाँच बजे शुरू होता है और आप सात बजे पहुँचते हैं... कभी भी पहुँचते हैं या नहीं भी पहुँचते। इससे नैतिक गिरावट आती है। दर्शक की संख्या कुछ भी हो, नाटक सही समय पर शुरू होना चाहिए। और मैं ऐसा ही करता हूँ। मैं अभिनेता और दर्शक को बराबर का दर्जा देता हूँ। परफॉर्मेंस पाँच बजे है, तो अभिनेता दो बजे से तैयार होता है। वह तीन घंटे से लगा हुआ है, इसलिए दर्शक को भी समय पर आना होगा।... यह तभी हो सकता है, जब हम स्वयं वक़्त के पाबन्द हों। शौकिया एक्टर समय पर नहीं आते, संवाद याद नहीं रखते, पर हम सबको मुआफ़ करते जाते हैं। कितने बड़े दिल के होते हैं हम! पर इस बड़े दिल से काम नहीं चलेगा। रंगकर्म इसे स्वीकार नहीं करता। हम इस मानसिकता से नाटक नहीं कर सकते। शौकिया रंगमंच... एमेचर थियेटर भारत में बहुत शक्तिशाली है। इससे भी रंगमंच का विकास होगा, इसलिए इसे अनुशासित होना पड़ेगा।"

रंगगुरु रतन थियम की नसीहतें अनुभवजन्य हैं। इन नसीहतों के पीछे छिपी भावनाओं की निष्ठा पर क्या शक किया जा सकता है? शायद नहीं। हिन्दी का समकालीन रंगमंच, जो मुख्यतः शौकिया रंगमंच के रूप में विकसित हुआ, शौकिया रंगमंच के तौर पर ही जीवित है। यह रंगमंच उन समस्याओं का शिकार है, जिनकी ओर रतन थियम साफ़-साफ़ संकेत करते  रहे हैं। विशेषतः छोटे शहरों या क़स्बों में यह समस्या कई रूपों में उपस्थित है। रंगऊर्जा और निष्ठा के बावजूद आदतन अनुशासनहीनता, अगम्भीरता और अपनी क्षमता के प्रति अविश्वास या अतिविश्वास का शिकार बन जाना यहाँ आम बात है। यह समस्या स्थानीयता के हिसाब से अपना रूप बदलती रहती हैं। फिर भी, इन्हीं स्थितियों के बीच समय-समय पर आश्चर्यजनक रूप से ऐसी प्रस्तुतियाँ सामने आती हैं, जो लम्बे समय तक रंग परिदृश्य पर अपना प्रभाव क़ायम रखती हैं।

रतन थियम ने जिस अन्य मुद्दे पर अपनी टिप्पणी दर्ज की, वह था-प्रेजेन्टेशन और स्टाइल। उनका आशय प्रस्तुति की पद्धति या नाट्यभाषा के प्रयोग से था। उनका कहना था, "हमारे पास सब कुछ है,पर स्टाइल नहीं है। जो है. उसमें रंग भरना होगा। वी नीड द बी कलरफुल । ... जब संस्कृत थियेटर शुरू हुआ, तो अलंकार और अलंकरण की बहुत जरूरत महसूस की गई। सौन्दर्य और भावों की रचना में अलंकार और अलंकरण की भी बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। ये हमारे सौन्दर्यबोध के विकास में मददगार होते हैं। नाट्यशास्त्र से इस दिशा में बहुत मदद मिलती है। पर आज मुझे इसकी बहुत कमी दिखती है। सत्तर के दशक में इस दिशा में बहुत काम हुआ, पर यह काम आज हमसे छूट गया है। आज इस काम में थोड़ा ढीलापन दिख रहा है।"

रतन थियम अपनी प्रस्तुतियों में परिपूर्णता या निर्दोषिता (परफ़ेक्शन) के साथ अलंकरण के लिए जाने जाते हैं। अलंकरण के प्रति उनका यह मोह उन्हें बार-बार खींचकर अपनी शास्त्रीय और लोक परम्परा की ओर ले जाता है। मणिपुर के नाट्यरूप, संगीत, नृत्य, खेल और युद्धकौशल के तत्त्वों का उन्होंने अपनी प्रस्तुतियों के लिए उपयोग किया है। वह वेशभूषा या रूपसज्जा को ही अलंकरण नहीं मानते। वह आंगिक चेष्टाओं, मुद्राओं और गतियों को अपने नाटक की संवेदना से जोड़ते हैं तथा अभिव्यक्ति के नए रास्तों की खोज करते हैं। नाटक की अन्तर्वस्तु के भीतर से भी अलंकरण के तत्त्वों को चुनते हैं। 'उरुभंगम्', 'चक्रव्यूह' या 'कर्णभारम्' जैसी उनकी बहुचर्चित प्रस्तुतियों में उन्हें अलंकरण के बल पर नए सौन्दर्यबोध को रचते हुए देखा जा सकता है। उनका सौन्दर्यबोध उनकी प्रस्तुतियों में संवेदना को विस्तारित करता है।

अभिनेता के अनुशासित रहने और उसके लिए एक विशेष क़िस्म की नैतिकता के आग्रही रतन थियम कहते हैं, "अभिनेता रंगमंच का सबसे महत्त्वपूर्ण उपकरण है।... पर हमारे अधिकांश अभिनेता मॅटिरिअलिस्टिक ऍप्रोच में फँसते गए,... उन्हें बहुत कुछ चाहिए था...और उन्होंने रंगमंच से नाता तोड़ लिया। यह उनकी विवशता हो सकती है, पर इससे रंगमंच को नुक़सान हुआ। नाटक करने में जो स्वाद है.... आत्मा को जो खुशियाँ मिलती हैं, वो बहुत कम कलारूपों में मिलती हैं। नाटक अन्य कलारूपों से इसीलिए अलग है कि वह हमारी व्यवस्था के ग़लत पक्ष पर आक्रमण करता है। नाटक का सफल होना, उसके अन्तर्द्धन्द्धों, उसके मुद्दों और उसकी आक्रामकता पर निर्भर करता है। नाटक खानाबदोशों जैसी चीज़ है,... यह कम्पोजिट आर्ट है। यहाँ सब कुछ है, पर सब कुछ होने के बाद भी अलग-अलग कुछ भी नहीं है।"

सच, रंगमंच की सामूहिकता ही उसका जादू है, जिसमें दर्शक और रंगकर्मी दोनों बँधते हैं। अपने समस्त अन्तर्विरोधों के बावजूद 'शौकिया रंगमंच' हिन्दी रंगमंच की मुख्यधारा बना हुआ है। यह भी सच है कि दुनिया के तमाम बड़े नाट्यान्दोलनों को शौकिया रंगमंच ने ही आरम्भ किया और गति दी। रतन थियम जैसे रंगगुरुओं की नसीहतों के भीतर छिपी चिन्ता को पहचानते हुए हमें अपनी रंगचर्या को अनुशासित करना होगा तथा दर्शकों के प्रति अपने दायित्वबोध का निर्वाह करना होगा। किसी सरकार, संस्थान या संरक्षक की प्रतीक्षा में रंगकर्म ठिठका नहीं रह सकता।