काव्य का स्वरूप बड़ा व्यापक है, जितना व्यापक है उतना सूक्ष्म भी। आज तक कविता की मुकम्मल परिभाषा तय नहीं हो पाई है। लेकिन यह सच है की कविता ही हमें मनुष्य होने का अर्थ बताती है। कविता में इतनी शक्ति होती है कि वह मनुष्यता के संकट का सामना कर सके। अपनी रचनात्मकता से वह हमें मृत्यु के मुख से बाहर खींच लाती है। आज की हिंदी कविता नई संवेदना और नई चेतना से समृद्ध हो रही है। लेकिन ऐसा भी नहीं कि पहले लिखी कविताओं का महत्व कहीं कम हो गया है। पुरातन एवं नवीन दोनों ही दृष्टि से हिंदी के अधीत्सुओं को सजग रहना चाहिए।
इसी दृष्टिकोण के साथ कविता शिविर की शुरुआत हुई जहाँ कविता की रचना प्रक्रिया एवं काव्य शास्त्रीय परंपरा, पुरखा कविगण एवं विविध विमर्शों पर चर्चा हुई। डॉ रामदयाल मुंडा जनजातीय कल्याण शोध संस्थान, मोराबादी राँची में प्रगतिशील लेखक संघ, शब्दकार और साहित्य कला फाउंडेशन के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित तीन दिवसीय इस कविता शिविर में छह सत्रों में आमंत्रित वक्ताओं ने कविता पर चर्चा की और 13 आमंत्रित वक्ताओं ने अपना व्याख्यान दिया।
कविता शिविर का पहला दिन
उद्घाटन सत्र में प्रसिद्ध आलोचक रविभूषण ने कहा कि मनुष्य के जन्म के साथ ही कविता का आरंभ हुआ होगा। कविता हमें मनुष्यता, बंधुत्व, प्रेम, संवेदनशीलता से समृद्ध करती है। कविता मनुष्य को एक बेहतर मनुष्य बनाती है। कविताओं की दुनिया में प्रवेश करना अपने अनुभव के आकाश को समृद्ध करना है। उन्होंने कहा कि कविता के लिए आज यह एक बड़ा संकट है कि वह आज के खतरनाक समय में अपनी भूमिका कैसे निभाये।
प्रसिद्ध कथाकार रणेंद्र ने कहा की कविता आज के समय में बहुत महत्वपूर्ण है। उन्होंने बताया कि रचनाएँ कालजयी क्यों होती हैं? कविताएँ समाज उसकी सभ्यता, संस्कृति और अस्मिता का निर्माण करती हैं और उन सबको पहचानने में मदद करती हैं, अतः वे कालजयी हैं। और कविता को कला रूप में ढालने के लिए किस कुशलता की आवश्यकता है? मुक्तिबोध ने जिस ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान की बात की थी उसे समझना जरूरी है। कविता के सृजन हेतु मुक्तिबोध भावोद्रेक के उमगने, बिंबो के गठन उनके फैंटेसी में परिवर्तित होने, उसके बाद उनके शब्दों में अभिव्यक्त होने के तीन क्षणों की सविस्तार व्याख्या करते हैं। कविता रचने के लिए सृजन के तीन क्षणों से गुजरना होता है और रचनाकार के लिए यह आवश्यक है कि सृजन के तीन क्षणों को समझे।
प्रसिद्ध साहित्यकार अशोक प्रियदर्शी ने कहा की कविता अपने समय और समाज से जूझती है। कविता हृदय की संवेदना से निकलती है इसलिए इसे परिभाषा में बांधना संभव नहीं है। प्रसिद्ध कहानीकार पंकज मित्र ने कहा कि कविता समय, समाज के सवालों से टकराती है। कविता ही मानव की मुक्ति का प्रश्न उठाती है और आज के समय में यह जरूरी है।
आलोचक डा. मिथिलेश कुमार सिंह ने कहा की कविता जीवन में आशा का संचार करती है और मनुष्य को मानवता की ओर ले जाती है। साहित्यकार महादेव टोप्पो ने कहा कि कविता में आदिवासी जीवन दृष्टि किस तरह से आ रही है यह भी महत्वपूर्ण है। कविताओं में आदिवासी जीवन दर्शन आज के आदिवासी कवियों की रचनाओं में सहज ढंग से चित्रित हो रहा है। डॉ रामदयाल मुंडा जनजातीय शोध संस्थान की उप निदेशक श्रीमती मोनिका टूटी ने काव्य शिविर के प्रतिभागियों को शुभकामनाएं दीं।
उद्घाटन सत्र में स्वागत वक्तव्य साहित्यकार रश्मि शर्मा ने दिया और कहा कि रचनाकार के लिए चिंतन की मौलिकता जरूरी है चिंतन के बिना कविता में मौलिकता की उम्मीद नहीं की जा सकती। कार्यक्रम का संचालन करते हुए डॉ प्रज्ञा गुप्ता ने कविता की खूबियों पर प्रकाश डाला। कविता मात्र किसी जीवन समस्या या भावनात्मक उलझन को सुलझाने का कार्य ही नहीं करती, बल्कि वह अपने समय की व्यापक सच्चाई का साक्षात्कार कराती है। उस समय में निहित द्वंदों और संघर्षों में गहरे उतरने की कोशिश करती है।
उद्घाटन सत्र के पश्चात् पहले सत्र में डॉ अनामिका प्रिया ने कविता के अभिलक्षणों पर चर्चा की। दूसरे संसाधन सेवी के रूप में डॉ. अशोक प्रियदर्शी जी का कामायनी पर व्याख्यान हुआ। मानव जीवन की अनेक जटिलताओं उलझनों एवं वैषम्यों के निराकरण का रास्ता कामायनी में दिखाई देता है। समरसता के सिद्धांत द्वारा आध्यात्मिक जीवन और व्यवहारिक जीवन की विभिन्न जटिलताओं और वैषम्यों का कामायनी में परिहार किया गया है।
द्वितीय सत्र में डॉ. मिथिलेश कुमार सिंह ने काव्य शास्त्रीय परंपरा पर चर्चा की एवं दूसरे संसाधन सेवी डॉ रमेश प्रसाद गुप्त ने ‘कविता की रचना प्रक्रिया’ पर व्याख्यान दिया।कविता जब हृदय से निकलती है तब सारी वैयाकरणिक संरचनाओं को तोड़कर एक नई भाषा का निर्माण करती है। संवेदनाएँ अपना शिल्प एवं रूप स्वयं रचती हैं हर पीढ़ी का अपना युग सत्य होता है लेकिन परंपरा को भी जानना आवश्यक है।
कविता शिविर दूसरा दिन
‘कविता शिविर’ के दूसरे दिन दो सत्र आयोजित हुए।पहले सत्र में डॉ. माया प्रसाद ने “महादेवी का वाग्वैशिष्ट्य और निराला की गीति- योजना” पर चर्चा की। उन्होंने कहा कि महादेवी ने अपनी कविताओं में अपने जीवन अनुभव एवं वेदना की अभिव्यक्ति जिस विशेषता से की है, उसने स्त्री चेतना एवं अधिकारों को अभिव्यक्ति दी है। निराला ने गीति काव्य के द्वारा छायावादी काव्य को एक नई ऊंचाई दी। निराला आरंभ से अंत तक आस्थावादी एवं आस्तिक रहे हैं, अतः उनके काव्य में प्रार्थनापरक गीतों की प्रधानता है। दुख- सुख की उद्दाम आवेशमयी स्थिति में ही गीति का जन्म होता है। निराला के यहां दु:ख से उपजे गीत अधिक भावप्रवण हैं।
पहले सत्र के दूसरे वक्ता राही डूमरचीर ने ‘शमशेर बहादुर सिंह की कविताओं में बिंब विधान’ पर चर्चा की। उन्होंने कहा कि शमशेर की कविताओं की एक बड़ी विशेषता उनका बिंब-विधान है और यह बिंब-विधान कवि की सौंदर्य दृष्टि का परिणाम होता है। शमशेर की कविताओं में बिंब की निर्मिति ही नहीं है, बल्कि बिंब की निरंतरता भी बनी रहती है।
डॉ पंकज मित्र ने ‘कविता में प्रतीक एवं बिंब विधान’ पर चर्चा की। उन्होंने बताया कि कविता में बिंब एवं प्रतीक के सटीक प्रयोग उसकी प्रभावशीलता को बढ़ाते हैं। कवि बिंब एवं प्रतीक के माध्यम से अपनी बात सरलता से कह पाता है। असल में बिंब एक स्मृति भी है।
दूसरे सत्र में दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर डॉ .सुजाता ने “स्त्रीवादी सौंदर्य-शास्त्र” पर व्याख्यान दिया। उन्होंने कहा कि ऐतिहासिक परंपरा से स्त्रियों को हमेशा बाहर रखा गया। लेखन में भी हम देखते हैं कि एक खास प्रकार की पुरुष दृष्टि है। उन्होंने बताया कि स्त्रीवादी सौंदर्य-शास्त्र ने मौखिक परंपरा को महत्व दिया है। तमाम लोकगीतों को स्त्री विमर्श का हिस्सा समझना चाहिए। इतिहास में जाकर छूटी हुई चीजों को लाना और स्त्रीवादी सौंदर्य दृष्टि की पहचान आज के समय में जरूरी है।स्त्रीवादी दृष्टि की शुरुआत मीरा के पहले थेरीगाथाओं एवं वैदिक परंपराओं तक हमें वापस ले जाती है।
दूसरे सत्र के द्वितीय वक्ता डॉ सुधीर सुमन ने अनामिका, नीलेश रघुवंशी और सविता सिंह की कविताओं पर चर्चा की। उन्होंने कहा कि तीनों ही कवयित्रियां स्त्री की आकांक्षा और उसके सपनों के लायक दुनिया की बात करती हैं, लेकिन तीनों की अपनी-अपनी विशेषताएं हैं। अनामिका की कविता में विषयगत विविधता के साथ कहन की भी विविधता है। मध्यवर्गीय लोक समाज और परिवार से जुड़ी छोटी बड़ी बहुत सारी चीजों को वे अपनी कविता में जगह देती हैं। नीलेश रघुवंशी का लोकल भी अनामिका जैसा ही है पर वर्गीय पृष्ठभूमि भिन्न है। सविता सिंह स्त्री के अपनेपन को, देह और मातृमूलक अनुभव को, स्वीकारती हैं; लेकिन उसे पार करके ‘स्व’ को चेतना और विवेक में खोजती हैं।
तीन दिवसीय काव्य शिविर का तीसरा दिन
इस तीन दिवसीय काव्य शिविर के आखिरी दिन के पहले सत्र में प्रोफेसर रविभूषण ने सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की लंबी कविता, ‘राम की शक्ति पूजा’, मुक्तिबोध की ‘अंधेरे में’ और अज्ञेय की 'असाध्यवीणा' पर परिचर्चा करते हुए कहा कि यह तीनों ही कविताएँ समयबद्ध होकर भी कालातीत हैं। इन तीनों कविताओं ने हिंदी कविता के फलक को विस्तार दिया है। मुक्तिबोध की ‘अंधेरे में’ स्वाधीन भारत की महानतम कविता है, वो नए इतिहास के निर्माण की कविता है। अज्ञेय की ‘असाध्य वीणा’ कविता, जीवन के रहस्य और सत्य के खोज का प्रतीक है जहाँ हर कोई अपने तरीके से सत्य की खोज करता है।
पहले सत्र के दूसरे वक्त डॉ जिंदर सिंह मुंडा ने “भारतीय भाषाओं की कविता में आदिवासियत, कैसे प्रकट हो रही है” पर बोलते हुए कहा कि आदिवासी जीवन दर्शन को समझे बिना कविता में आदिवासियत कैसे प्रकट हुई है यह नहीं समझा जा सकता है। उन्होंने ग्रेस कुजूर, निर्मला पुतुल, महादेव टोप्पो, अनुज लुगुन, जसिंता केरकेट्टा, पार्वती तिर्की, राही डूमरचीर की कविताओं पर बात करते हुए कहा कि, इनकी कविताओं में सामूहिकता एवं सहजीविता सहज रूप में है। आदिवासी कविता में श्रम ही सौंदर्य है ।
आदिवासी कविताएं अपनी मौखिक परंपरा में जीवित हैं । इसकी अपनी दुनिया है जहां अन्य हिंदी कविताओं से इतर इनका अपना सौंदर्य बोध है।
डा विहाग वैभव ने भारतीय भाषाओं में दलित कविता और दलित सौंदर्य शास्त्र पर व्याख्यान देते हुए सवाल किया कि, दलित साहित्य और कविता पर केवल दलित ही क्यों बात करे? सवर्णों को यह लिखने की जरूरत है कि, दलितों का शोषण उनके पूर्वजों ने किस तरह किया। क्योंकि दलित कविता शोषण दमन असमानता आदि मनुष्य विरोधी शक्तियों से संघर्ष करती हुई निर्मित हुई है और अपने वैचारिक आधार को ज्योतिबा फुले और डॉक्टर अंबेडकर के दर्शन में निर्धारित करती है, इसलिए दलित कविता के मूल्य भारतीय संवैधानिक मूल्यों के बहुत निकट पहुंच जाते हैं।
सुप्रसिद्ध साहित्यकार रणेन्द्र ने मुक्तिबोध की सृजन कला के तीन क्षणों एवं फैंटेसी के बारे में चर्चा करते हुए बताया कि, सृजन कला में लीन होने की वजह से मुक्तिबोध, जीवन भर बहुत ही अव्यावहारिक रहे। अभाव ग्रस्त जीवन जीते रहे। उन्होंने, उनके सृजन के तीन क्षणों का जिक्र करते हुए बताया कि, पहला क्षण उनके अभावग्रस्त जीवन से आया तो दूसरा क्षण, भोक्ता भाव, द्रष्टा भाव और उससे मुक्त होने की छटपटाहट है तो तीसरा क्षण, अभिव्यक्ति है। उन्होंने ब्रह्मराक्षस और फैंटेसी पर भी प्रकाश डाला।
इस तीन दिवसीय काव्य शिविर का उद्देश्य था कि, जिन वट-वृक्षों का हम हिस्सा होना चाहते हैं, उनकी ऊँचाई और जड़ों को जानें। तीन दिवसीय इस कविता शिविर में देश के एवं रांची शहर के कई साहित्यकार उपस्थित रहे।