आचार्य रामचंद्र शुक्ल के हिंदी साहित्य का इतिहास का "पुनर्नवा संस्करण अंक" 95 वर्षों के बाद प्रकाशित हुआ है। काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने इस संस्करण को नए सिरे से प्रकाशित किया है।1929 में भी इसे सभा ने ही प्रकाशित किया था। पुनर्नवा संस्करण का प्रकाशन हिंदी साहित्य की एक घटना है। हिंदी की दुनिया में शुक्ल के इतिहास के बहाने एक बार फिर बहस छिड़ेगी।

1929 के बाद शुक्ल जी के इतिहास का यह पहला प्रमाणिक एवम परिवर्द्धित पाठ है, क्योंकि शुक्ल जी के निधन के 60 वर्ष बाद विभिन्न प्रकाशक इसे छाप कर पैसे कमाते रहें।

काशी नागरी प्रचारिणी सभा के प्रधानमंत्री व्योमेश शुक्ला ने बताया कि इस पुनर्नवा संस्करण में उन नुक़्तों और हाइफ़न को भी फिर से शामिल कर लिया गया है जो 1929 में प्रकाशित पहले संस्करण में थे, लेकिन 1940 के बाद के प्रकाशित संस्करण में हटा दिए गए थे।इतना ही नहीं शब्दों नामों की एकरूपता भी नहीं रही थी। वर्तनी भी गलत छापी गयी। शुक्ल जी 'ब्रज' नहीं बल्कि 'व्रज' लिखते थे तो हमने व्रज का ही इस्तेमाल किया। शुक्ल जी द्वारा लिखित अंग्रेजी के शब्दों की जगह हिंदी में शब्द लिख दिए गए थे।

व्योमेश ने भूमिका में लिखा है- 'यह किताब जनवरी 1929 में 'हिंदी शब्द सागर' की भूमिका के रूप में छपी ।बाद में 1929 के जुलाई में “हिंदी साहित्य का इतिहास” के रूप में छपी। फिर 1940 में संपादित प्रवर्धित संस्करण के रूप में, और उसके 9 माह बाद उनक़ा निधन हो गया।

श्री शुक्ल ने बताया कि इस संस्करण में पुस्तक के अंत में अनुक्रमणिका भी जोड़ दी गई है, जबकि पहले संस्करण में यह नहीं थी। उनका कहना है कि रामचंद्र शुक्ल ने 1929 में भले ही इतिहास लिखा था लेकिन वह लगातार इसे परिवर्तित संशोधित करते रहे तथा इसे अपडेट भी करते रहे। इस प्रामाणिक संस्करण को तैयार करने में 6 माह का समय लगा और 14 सहयोगियों ने इसे तैयार किया।'

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Photograph: (नितिन गुप्ता)

साहित्य अकादमी के सभागार में रामचंद्र शुक्ल के इस पुनर्नवा संस्करण पर एक गोष्ठी भी आयोजित की गई जिसकी अध्यक्षता हिंदी के प्रसिद्ध कवि एवं संस्कृति कर्मी 'अशोक वाजपेयी'  ने की जबकि मुख्य अतिथि हिंदी के वयोवृद्ध आलोचक 'विश्वनाथ त्रिपाठी' थे और प्रमुख वक्ताओं में 'पुरुषोत्तम अग्रवाल' तथा 'रामेश्वर राय' थे। सभा का संचालन प्रवीण कुमार ने किया।

संगोष्ठी से पहले रामचंद्र शुक्ल के निधन पर निकली शव यात्रा और और उससे जुड़ी तस्वीरों को लेकर बनी एक छोटी सी फिल्म भी दिखाई गई। 2 फरवरी 1941 को रामचंद्र शुक्ल का निधन हुआ था और उनके निधन के बाद उनकी सारी तस्वीरें एक लिफाफे में बंद थीं, जिसे कभी खोला ही नहीं गया।

व्योमेश ने बताया कि 'आचार्य रामचंद्र शुक्ल सन् 1908 में मिर्ज़ापुर के मिशन हाई स्कूल से बनारस में नागरीप्रचारिणी सभा आये। मिर्ज़ापुर में वह अध्यापन करते थे। सभा की महत्त्वाकांक्षी ‘हिंदी शब्दसागर’ परियोजना के लिये उन्हें सहायक संपाद‌क के रूप में नियुक्त किया गया। इस कार्य में उन्होंने असाधारण संसक्ति और मेधा का परिचय दिया – ‘शब्दसागर’ के संपादन के सिलसिले में कुछ दिनों तक शुक्लजी को जम्मू में रह कर भी काम करना पड़ा था, जहाँ तरह-तरह की कठिनाइयाँ सामने आयीं; लेकिन वह दृढ़ता के साथ तत्पर रहे। ‘शब्द‌सागर’ का संपादन मुख्यत: उनके परिश्रम और प्रतिभा के कारण ही इतने उत्तम तरीके से सम्पन्न हो सका। कहा जाता है कि शुक्लजी ने कोश को बनाया और कोश ने उन्हें।'

'सन् 1909 में वे ‘नागरीप्रचारिणी पत्रिका’ के संपादक नियुक्त हुए। उनके संपादन में पत्रिका की बड़ी उन्नति हुई। इस पद पर रह कर आठ-नौ वर्ष तक वे ‘सभा’ की सेवा करते रहे। आचार्य शुक्ल ने बहुत से प्राचीन ग्रंथों का संपादन, अन्य भाषाओं के ग्रंथों का अनुवाद तथा बहुत सी मौलिक रचनाएँ पद्य और गद्य में की हैं। शुक्लजी की जो रचनाएँ सभा से प्रकाशित हुई हैं उनमें संपादित ग्रंथों में ‘वीरसिंहदेव चरित’, ‘जायसी ग्रंथावली’, ‘तुलसी ग्रंथावली’, अनूदित ग्रंथों में ‘राज्य प्रबंध शिक्षा’, ‘शशांक’, ‘विश्वप्रपंच’ और ‘बुद्ध-चरित’ तथा मौलिक ग्रंथों में ‘गोस्वामी तुलसीदास’, ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’, ‘रसमीमांसा’ और ‘त्रिवेणी’ (तुलसी, सूर और जायसी की आलोचनाओं से संकलित अंश) प्रमुख हैं । ‘आदर्श जीवन’ अंग्रेज़ी-पुस्तक ‘प्लेन लिविंग एंड हाई थिंकिंग’ की छाया में लिखा गया प्रायः स्वतंत्र ग्रंथ है। 

वे सन 1940 में ‘सभा’ के सभापति चुने गये थे। उसके पूर्व दो वर्ष तक वे ‘सभा’ वे उपसभापति पद पर भी रह चुके थे।'

 जब अदालत के फैसले के बाद स्तिथियाँ बदलीं तो युवा कवि व्योमेश शुक्ल इसके प्रधानमंत्री बने, तब इस लिफाफे को खोला गया और उन में बंद तस्वीरों को सार्वजनिक किया गया जिससे पता चलता है कि शुक्ला जी के निधन पर किस तरह की शव यात्रा वाराणसी में निकली थी और "आज" अखबार के मुख्य पृष्ठ पर खबर छपी थी जबकि वह समय द्वितीय विश्व युद्ध का था और अखबार उसकी खबरों से पटे रहते थे।

साहित्य अकादमी के सभागार में गोष्ठी में पहली बार इतनी भीड़ देखी गयी। कई दशकों के बाद ऐसी भीड़ वहां देखी गई। यह शायद रामचंद्र शुक्ल का विश्वविद्यालय की दुनिया में प्रभाव का नतीजा है क्योंकि शुक्ला जी ने भी इस इतिहास को विश्वविद्यालय के छात्रों और शिक्षकों के लिए लिखा था।

यूं तो यह किताब 'हिंदी शब्द सागर' की भूमिका थी और 'काशी नागरी प्रचारिणी' की पत्रिका में इसके अंश भी छपे थे, लेकिन आज 95 वर्ष बाद भी सर्वाधिक महत्वपूर्ण हिंदी साहित्य का इतिहास इसे ही माना गया क्योंकि रामचंद्र शुक्ल के बाद कायदे से किसी ने हिंदी साहित्य का नया इतिहास नहीं लिखा। दरअसल मूल इतिहास का ढांचा शुक्ला जी का ही बनाया हुआ है। लक्ष्मी शंकर वार्ष्णेय,  डॉक्टर रामस्वरूप चतुर्वेदी, डा. नगेंद्रर, बच्चन सिंह,  रमाशंकर रसाल जैसे लोगों ने हिंदी साहित्य का इतिहास बाद में जरुर लिखा लेकिन उनके सामने भी शुक्ल जी का इतिहास ही मूल इतिहास है। 

शुक्ल जी से पहले गार्सा द तासी, शिवसिंह सेंगर, ग्रियर्सन आदि इस क्षेत्र में कुछ प्रयास कर चुके थे। नागरी प्रचारिणी सभा ने 1900 से 1913 ई. तक पुस्तकों की खोज का कार्य व्यापक पैमाने पर किया था। इस कार्य से अनेक ज्ञात-अज्ञात रचनाओं और रचनाकारों का पता चला था। इस सामग्री का उपयोग कर मिश्रबन्धुओं ने 'मिश्रबंधु-विनोद' तैयार किया था। रीतिकालीन कवियों के परिचयात्मक विवरण देने में शुक्ल जी ने मिश्र बन्धुविनोद का भरपूर उपयोग किया था। एक तरह से देखा जाये तो आचार्य शुक्ल के साहित्येतिहास लेखन से पूर्व दो प्रकार के साहित्यिक स्रोत मौजूद थे। एक तो खुद शुक्लजी द्वारा तैयार की गई नोट और भूमिका तथा दूसरे, अन्य विद्वानों द्वारा लिखी गई पुस्तकें थीं।

पिछले दिनों प्रसिद्ध आलोचक राजाराम भादू ने बताया कि डॉक्टर नगेन्द्र के इतिहास को अब फिर से अपडेट किया जा रहा है। कुछ साल पहले डॉक्टर हरदयाल ने इसे अपडेट किया था। अब 2000 के बाद के साहित्यिक इतिहास को भी इसमें शामिल किया जा रहा है।

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Photograph: (नितिन गुप्ता)

संगोष्ठी में विद्वानों ने शुक्ल जी के योगदान की चर्चा की लेकिन उन्होंने उनकी कमियों और खामियों की तरफ भी ध्यान दिलाया चाहे भक्ति आंदोलन, रीतिकाल और छायावाद के बारे में उनकी राय हो या स्त्री रचनाकारों को उचित स्थान न मिलने की बात। वक्ताओं ने बताया कि शुक्ल जी में किस तरह मुस्लिम विरोधी मानसिकता भी काम कर रही थी। वरिष्ठ आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल ने कहा कि 1924 तक तो रामचंद्र शुक्ल जी 'जायसी' के माध्यम से हिंदू-मुस्लिम की एक साझी संस्कृति को चित्रित कर रहे थे, लेकिन 1929 में आकर उनकी राय क्यों बदल गई, इस पर अध्ययन किये जाने की जरूरत है?

शुक्ल जी ने नाथों सिद्धों की परंपरा को और कबीर को कवि नहीं माना था लेकिन बाद में हजार प्रसाद द्विवेदी ने जब "हिंदी साहित्य की भूमिका" लिखी तो उन्होंने नाथ और सिद्धों की परंपरा को 'दूसरी परंपरा' बताया और 'कबीर' को स्थापित किया। उसके बाद से हिंदी में एक नई बहस खड़ी हुई।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के 'डॉक्टर ओमप्रकाश सिंह' ने जब रामचंद्र शुक्ल की रचनावली संपादित की थी तब शुक्ल जी को लेकर हिंदी में काफी बहस हुई थी। कई लेखकों का कहना था कि शुक्ल जी ब्राह्मणवादी आलोचक है और उनमें मुस्लिम विरोध के भी पुट हैं।

बाद में कई स्त्री विमर्शकारों ने भी शुक्ल जी के इतिहास में लेखिकाओं के साथ हुई नाइंसाफी का भी जिक्र किया।

इस संगोष्ठी में किसी एक महिला आलोचक को रखा जाना चाहिए था ताकि उनका भी पक्ष सामने आए लेकिन इस संगोष्ठी के सभी वक्ता पुरुष लेखक ही थे और जब संचालक महोदय ने सभी वक्ताओं को 'गौरव पुरुष' बताया तो वरिष्ठ कवयित्री सुमन केशरी ने छूटते ही टोका - 'क्या कोई गौरव स्त्री नहीं होती है?'

बहरहाल गोष्टी बहुत अच्छी हुई। विश्वनाथ त्रिपाठी,  रामेश्वर राय, पुरुषोत्तम अग्रवाल और अशोक वाजपेयी ने अपनी बातें विस्तार से रखीं। 

श्री त्रिपाठी ने बताया कि किस तरह नागरी प्रचारिणी सभा को विकसित किया गया और किस तरह शुक्ल जी ने इतिहास लिखा। उन्होंने पहले लिखे गए सभी ग्रंथों को ध्यान में रखते हुए इसे लिखा, क्योंकि तब तक कोई इतिहास कायदे का नहीं था। उन्होंने कहा कि शुक्ल जी की मान्यताओं से आज लोगों को भले ही सहमति न हो पर शुक्ल जी बेईमान आलोचक नहीं थे। उन्होंने इसे ईमानदारी से लिखा और एक बहुत बड़ा काम किया लेकिन वे स्वभाव से आलसी थे।

रामेश्वर राय ने शुक्ल जी के इस कथन से असहमति जताई कि 'साहित्य जनता की चित्तवृत्ति का प्रतिबिंब है।' उनक़ा कहना था कि अगर यह जनता की चित्तवृत्ति का प्रतिबिंब है तो फिर रचनाकार की क्या भूमिका है? लेकिन उन्होंने शुक्ल जी के महत्व और योगदान को भी बताया और कहा कि जिस तरह बिना हिमालय के भारत की कल्पना नहीं की जा सकती शुक्ल जी की साहित्य में वैसी ही स्थिति है।

श्री अशोक जी का कहना था कि यह पहला आधुनिक इतिहास ही नहीं बल्कि हिंदी का पहला आलोचना ग्रंथ भी है। शुक्ल जी में एक रसिकता भी थी। उनमें परम्परा बोध के साथ साथ आधुनिकता बोध भी था।

इससे पहले श्री अग्रवाल ने सुझाव दिया कि हिंदी साहित्य का नया इतिहास लिखा जाना चाहिए। उनके इस सुझाव का स्वागत श्री वाजपेयी ने किया और कहा कि 'अगर कोई विद्वान इस काम को पूरा करने के लिए आगे आये तो रज़ा फाउंडेशन उस प्रोजेक्ट को आर्थिक सहयोग भी देगा।'

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Photograph: (नितिन गुप्ता)

शुक्ल जी के इतिहास को लेकर डॉक्टर नामवर सिंह और रामविलास शर्मा में भी बहसें हुई हैं। नामवर जी ने 'दूसरी परम्परा की खोज' में शुक्ल जी के परम्परा बोध को ख़ारिज किया, जिसके जवाब में रामविलास जी ने रामचन्द्र शुक्ल पर एक किताब ही लिख डाली।

रामचन्द्र शुक्ल का इतिहास जब छपा था तब भी उसकी कमियों-खामियों-सीमाओं पर बात की गयी थी लेकिन शुक्ल जी का इतना दबदबा था कि कोई उनको सार्वजनिक रूप से चुनौती देने की स्थिति में नहीं था।लेकिन शिवपूजन सहाय ने 'गंगा' पत्रिका में एक समीक्षा लिखी थी मगर छद्म नाम भट्टनायक से और  उसमें उन्होंने बिहार के लेखकों की उपेक्षा की जाने की भी बात लिखी थी।

शुक्ल जी ने 'अयोध्या प्रसाद खत्री' के साथ न्याय नहीं किया था। आरा के 'जैनेंद्र किशोर' नामक नाटककार का जिक्र नहीं किया था जो भारतेंदु के समकालीन थे। यहाँ तक कि 'शिवपूजन' बाबू का भी जिक्र नहीं किया और पत्रकारिता से जुड़े लेखकों का भी जिक्र नहीं किया।उन्होंने राजबाला घोष, महादेवी सुभद्रा कुमारी चौहान आदि का जिक्र किया पर नवजागरणकाल की अनेक महिलाओं का जिक्र नहीं किया। अब उनके बारे में नए अध्येता सामग्री खोजकर पेश कर रहे हैं फिर भी शुक्ल जी का इतिहास आज भी एक चुनौती बना हुआ है।

2029 में इसके सौ साल पूरे हो जाएंगे। इस मौके पर हिंदी साहित्य का एक नया इतिहास जरूर लिखा जाना चाहिए।