मैंने कहा: "माफ़ कीजिए ताजमनी दीदी, आपसे कुछ बातें पूछनी थीं, इसीलिए तकलीफ़ दी। पढ़ा तो आपके बारे में बहुत कुछ है, लेकिन बहुत-सी बातें साफ़ नहीं हैं। आप अगर थोड़ी-सी मदद कर देतीं..."
सामने खड़ी ताम्र-मूर्ति जैसी ताजमनी ने पल्ला सिर पर ले लिया पवित्र, सुंदरता की साकार प्रतिमा, हुबहू जापानी गुड़िया। जितेन्द्रनाथ को भी तो ताजमनी का पहरावा देखकर जापानी गुड़िया की ही याद हो आती थी। माथे पर सींकी की रंग-बिरंगे फूलों की डाली, गले में तावीज़, चंपई रंग और बालिकासुलभ चेहरा। असली उम्र न पता हो तो सोलह की लगे, लेकिन सोलह से बीस साल बड़ी-मेघवर्ण कुंचित केश-पाश। सुडौल शरीर और सुघड़ बनावट। आँखों में परिपूर्ण-प्राण की गंभीर छाया। मेरी बात सुनकर ताम्र-मूर्ति के चेहरे पर वक्र मुसकराहट अंकित हो गई, ताजू की मुसकराहट। बोली, "परानपुर हवेली के बाहर जिससे पूछिए, वही मेरे बारे में बता देगा। और नहीं तो नट्टिन-टोली चले जाइए जहाँ मेरा घर है... गेंदाबाई, हिरिया; सोलकन्ह टोली की सामवत्ती-पीसी...कौन नहीं है जिसके पास ताजमनी की जन्म-पत्री न हो..."
मैंने चतुर पत्रकार की तरह पूछा, "ताजू दी, देखिए पत्रकारिता में हमें खबर और अफ़वाह में भेद करना सिखाया जाता है। अफ़वाहें तो आपके बारे में जितनी हैं, वे छिपी नहीं हैं; लेकिन मैं तो अपनी कुछ शंकाओं का जवाब आपसे ही..."
"माँगो। मैं क्या कहूँ अपने मुँह से? पढ़ी-लिखी भी खास नहीं हूँ। कोसी-कैंप की इरावती-दाय से पूछते तो एक बात भी थी।" ताजमनी लजा गई, "बताने में तो मुझे कोई एतराज नहीं है, लेकिन कभी..."
"यही तो मेरी भी शिकायत है ताजू दी कि आपको बोलने नहीं दिया गया।" मैं जल्दी से बोला, "आपके साथ न्याय नहीं किया गया। शरद की अच्छी-से-अच्छी पात्री की स्निग्ध सरलता, मधुर अभिभावकत्व भरा वात्सल्य, नारी-सुलभ गरिमा और मोहनी आपको दी गई; लेकिन आपको कुछ भी बोलने का अवसर नहीं दिया गया। आपके मन की शुभ्र गहराइयों और हिमानी ऊँचाइयों की सूचना-भर है और जहाँ भी इनसे परिचय की बात आई है, आपको फ़ौरन वहाँ से हटा लिया गया... आपके स्रष्टा ने..."
ताजमनी ने बात काट दी; "ओह, तो आप स्रष्टा की बात में हस्तक्षेप कर रहे..." सहज व्यंग्य से ताजू दी फिर मुसकराई-वही लगाम से कसी मुसकराहट ! "अपने अस्तित्व की जवाबदेही मुझ पर क्यों हो ? जैसी हूँ, हूँ।” उनकी इस बात ने पहले तो मुझे सहसा हतप्रभ कर दिया, लेकिन शीघ्र ही अपनेको समेटकर फिर बोला- "ताजू दी, में जानता हूँ आप एक हलकी-सी मुसकराहट में ही मुझे स्थगित और हतप्रभ कर सकती हैं, लेकिन आपके साथ सचमुच अत्याचार हुआ है, यह आप क्यों नहीं मानतीं? 'रेणु' ने आपका उपयोग अपनी कहानी में ठीक उसी तरह किया है, जैसे लोग सब्ज़ी में छौंक लगाते हैं। मैं जानता हूँ आप कहेंगी, 'उखड़े हुए लोग" में पद्मा का भी तो यही उपयोग है। लेकिन पद्मा एक बहुत बड़ी वैयक्तिक और सामाजिक समस्या बनकर आई है। काले पटल पर खींची गई, एक सुनहरी सजल रेखा-भर वह नहीं है। लेकिन आपके हृदय की गुरु-गंभीर उदारता, आपका पूजा-मंडित व्यक्तित्व, माँ तारा के प्रति आपकी एकांत भक्ति, आपके सौम्य-शालीन रूप की अलग-अलग कोणों से छवियां...और यह सब एक नट्टिन में है, इसलिए आपके प्रति एक स्वाभाविक सहानुभूति, महानता के प्रति श्रद्धा, पंच-चक्रों का रहस्य छिपाये आपने मालकिन माँ को कुछ वचन दिए हैं, इससे आपके लिए एक उत्सुक-जिज्ञासा, जित्तन और आपके संबंधों के बीच एक विचित्रताजन्य-कुतूहल, क्या यह सबकुछ इस तरह चित्रित नहीं किया गया, जैसे अलग-अलग कोणों से आपकी तसवीरें खींचकर यहाँ-वहाँ लगा दी गई हों?
मैं मानता हूँ, छाया-प्रकाश का ऐसा अद्भुत संतुलन, प्रतिनिधि कोणों का ऐसा दक्ष चुनाव और मनोभावों के सूक्ष्म-से-सूक्ष्म प्रतिबिम्बों का ऐसा कुशल अंकन-इससे अधिक सधे ढंग से मैंने नहीं देखा। लेकिन चित्र आखिर चित्र हैं। वहाँ तो चेहरे पर आई झलक को ही दिखाया जा सकता है, अंतर के विभिन्न स्तरों, उतार-चढ़ावों में उतर पाना तो वहाँ संभव नहीं है। और इतनी सुंदर छवियों को देख-देखकर तो आदमी की प्यास और भी बढ़ जाती है कि काश, इनके मन प्रदेश पर भी 'प्रवेश-निषेध' की पट्टियाँ न लगी होतीं।"
ताजमनी चुपचाप सुनती रहीं, और फिर इस तरह मुसकरा दीं, मानो इसमें भी कहीं उनकी सार्थकता हो, "अपने स्रष्टा की ओर से एक बात कहने की अनुमति देंगे? इसे आप उपन्यास की इस विशेष शैली की मज़बूरी नहीं मानेंगे? जो शैली रेणुजी ने अपनाई है, उसमें मेरे लिए ही क्या, किसी भी पात्र के मन में उतरने की गुंजाइश नहीं है।"
"मगर यह शैली की कमज़ोरी है न? सिनेरियो लेखन और कागज़ पर फ़िल्म बनाने की कतरब्योंत में अगर रेणुजी न पड़े होते तो सचमुच कितनी सुंदर चीज़ हो जाती यह...तब शायद इस शिकायत का भी मौक़ा न आता कि कैमरे का व्यू-फाइंडर कथा-कलक्टर भवेशनाथ की आँख नहीं, फणीश्वरनाथ 'रेणु' की अपनी आँख है, असली आँख है।"
"देखिए, मैं ज़्यादा तो नहीं समझती, लेकिन जिसकी बात आप कह रहे हैं वह ठहरे हुए यथार्थ के चित्रण में तो शायद संभव है, लेकिन जहाँ हर चीज़ रोज़ बदलती हो वहाँ यह रिपोर्ताज शैली..." बात अधूरी छोड़कर सहसा ताजमनी सचेत हो गईं। उन्हें लगा जैसे वे किसी की रटाई बातें बोल रही हैं। बात बदलकर कहा, "रही आपकी शिकायत, सो इससे मुक्ति तो शायद ही किसी लेखक को मिले...किसी रचना में क्या नहीं है और अगर वह होता तो कैसा और क्या-क्या होता, इन सवालों को लेकर आप लोग जितनी माथा-पच्ची करते हैं, उसका एक चौथाई भी यदि इस बात पर विचार कर डालते कि रचना में जो है वह कैसा है तो रचनाकारों का कल्याण होता..."
इस बार मैं मुसकराया। ताजू दी बड़ी वाक्पटु हैं। जैसी कुशलता से जितेन से अपनी बात कहती थीं, ठीक उसी ढंग से मुझे सुझा रही हैं कि इधर-उधर न बहककर मैं जैसी हूँ उस बारे में जो जानना चाहते हो जानो। मैं काग़ज़ पेंसिल लेकर सँभल गया; "अच्छा तो जो हैं; उसी संबंध में दो-एक बातें हों..."
"एक बात पूछूं?" ताजमनी ने अप्रतिहत भाव से कहा, "सुन्नरि नैका और दन्ता राकसवाली रग्धू रामायनी की सारंगी के साथ गूँजती वह चित्रात्मक लोक-कथा, पूर्णमासी की खिलखिलाती रात में वह लोक-संगीत और नृत्य की गंगा-जमुनी हिलोरें, मेरे और मलारी के कंठों का जादू, आनन्दोल्लास में विस्मृत-नृत्यरत कुमारियों के दलों की प्रतियोगिताएँ, हिमालय के शिखरों से उतरते पक्षियों की किलकारियाँ, पूजा का श्यामा-संकीर्तन और बसंत पंचमी का शरदोत्सव... इन सबको आप परती पर बने हुए पंच-चक्रों से अलग करके देखेंगे? लोक-जीवन पर कुहासे की तरह छाई परती के इन जीवित पंच-चक्रों का रूपक आपको स्वीकार नहीं है ?"
मैं थोड़ी देर ताजमनी के तेज को मुग्ध-भाव से देखता रहा। बिलकुल वही मुद्रा थी जब उन्होंने जाकर जित्तन से कहा था, "जिद्दा, तुम्हारी जमीदारी में क्या होता है तुम्हें क्या मालूम ? ऐसा कुकर्म न मालकिन माँ के समय हुआ न उनसे पहले।"... सहसा सचेत होकर मैं बोला, "लेकिन ताजमनी दी, आपका और उपन्यास के बड़े कैनवास को दिए गए इस रूपक का ऐसा अभिन्न संबंध तो नहीं है ?"
ताजमनी के चेहरे पर बड़प्पन की चाँदनी-धुली मुसकराती गंभीरता झलक आई। नाक की कील का पत्थर झलमलाया। वे मौन पूजा में उतर गई "हाँऽऽ, अभिन्न संबंध तो नहीं है... शायद नहीं ही है... बस एक पिटारी दी थी मालकिन माँ ने, सो बारह साल तक उसे कलेजे से सटाकर अपने जिद्दा की मंगल कामना करती रही... सपनों में पंडुकी की तरह उसे जगाती रही...उठ जितू...! सींक की बनी हुई छोटी-सी पिटारी थी... उसके अंदर भोज-पत्र पर एक मंत्र लिखा था... दूसरे पत्र पर पाँच चक्र अंकित थे श्रीचक्र 1, श्रीचक 2... एक गोमुखी रुद्राक्ष का दाना, सिंदूर की डिबिया में। और चाँदी का एक सिक्का जिस पर टेढ़ी-मेढ़ी अरबी लिपी में लिखा था-अलिफ़... लाम... मीम... मालकिन माँ की पिटारी उसके बेटे को सौंपने गई थी मैं... पहली बार चरण छुए थे अपने जिद्दा के, सत तोड़कर। घुप्प अँधेरा था। तुलसी-चौरा के पास माथा टेके-टेके आँखें बरस पड़ी थीं। झड़ी शुरू हो गई थी... सावन-भादों की। तुलसी-चौरा सूख गया था, कोई दीपक जलानेवाला नहीं था। लगा, जैसे अपनी कोठरी में बैठी मालकिन माँ रोज़ की तरह रामायण-महाभारत पढ़ रही हैं। खटके से चौंकीं, कौन? तू? तू आई है ताजू ? दे आ पिटारी पहले जित्तन को...फिर आकर मेरे पास बैठना। पिटारी लेकर जित्तन ने अपने सिर से छुला ली थी-माँ का विश्वास, निर्मल गंगाजल। मन-ही-मन दुर्ग-दुर्गे कहकर मालकिन-माँ के शब्द दुहरा दिए थे मैंने- 'कहना, इसे जादू-टोना नहीं समझें। हँसी-खेल में न उड़ावें। बड़े पढ़-लिखकर विद्यासागर हो गए हैं। आप भोज-पत्र पर लिखे पंच-चक्र श्री-चक्रों के पास लिखे मंत्रों का अर्थ निकालिए, यही कुलगुरु ने कहा है। देख ताजू, दिल को बाँधकर मेरी तरह कहना। समझी...? बाप ने उसका मतलब नहीं समझा। बड़े-बड़े जतन किए। मुझे भरोसा है, मेरा बेटा इसका कोई सही अर्थ निकाल लेगा... ढूँढ़कर। और उसी दिन मिश्रवंश की पाँच पीढ़ियों के प्यासे पितरों को पहली बार पानी मिलेगा, मेरे बेटे के हाथ से' सुनकर जिद्दा को लगा जैसे मेरे मुँह से मालकिन माँ ही बोल रही हैं-वही मुद्रा, वही ठुड्डी में गड्ढा... जित्तन की परती में मघवा जंगल को देखकर नील-अमलतास के पागल डा. रायचौधरी उच्छ्वसित हो उठे थे तुमी पारवे जित्तन, तुमी पारवे। सचमुच, चक्रों के अर्थ कर रहा था जित्तन... परती साध रहा था मालकिन माँ का बेटा... पिता. शिवेन्द्र मिश्र ने ब्रह्मपिशाच को जीतकर डेढ़-डेढ़ सौ एकड़ के पाँच चक्र लिए थे, उसी अधूरी कहानी का सपना देखता, पण्डुकी का, सोया जित्तू उठ गया था..."
/bole-bharat/media/media_files/2025/04/11/TqpZy0uimwNfP1EN0WTG.jpg)
ताजमनी ने जरा-सी साँस ली तो मैंने टोका, "इस सबसे आपकी जित्तन और मिश्र-खानदान के प्रति भक्ति ज़रूर प्रकट होती है लेकिन..."
"सिर्फ भक्ति? यह विराट रूपक और परिकल्पना सिर्फ़ एक श्रद्धा-भर है ?" ताजमनी ने सीधे मेरी आँखों में देखकर पूछा, "जिस दिन इस तिलिस्म की कुंजी, वह पिटारी मैंने जिद्दा को सौंपी थी, उसी दिन तो अपना सत तोड़ा था। अपने जित्तन को शरीर-स्पर्श दिया था, बारह साल वाद... उस दिन क्या रत्नों से भरी परती को ही सार्थकता मिली, ताजमनी का परती जीवन सार्थक नहीं हुआ ?... आपको 'कछुआ-पीठ' परती के एक ओर बहती कोसी, और दूसरी ओर जाती दुलारी राय दो निर्जीव नदियाँ ही लगती हैं? लोक-कथा में जीवित नारियों, बहनों की तरह न जाने कब से अनियंत्रित बहती उपेक्षिता नारीत्व की बन्ध्या धारा नहीं? अपने मुँह से ही कहूँ ? ऐसा नहीं लगता जैसे उन दो नदियों को मेरे और मोची-कन्या मलारी के रूप में नई दिशा दी गई है... बाँध बाँधे गए हैं... और जन-मानस की 'कछुआ-पीठ' धरती नई-नई वनस्पतियों से लहलहाने को आतुर हो उठी है? भटकते नए पंखोंवाले पंछियों को सहारा मिला है। सपनों की रानी को पाने के लिए धरती को बदलने की अधूरी कहानी को पूरा करने के लिए दन्ताराकस का बेटा फिर से विज्ञान का सिंघा उठाके फूँक रहा है..."
"ताजन दी" मैंने कुछ अधीरता से कहा, "मैं रूपक की विराटता से इनकार नहीं करता और न ही जिन अनगिनत महीन लय-पूर्ण रेखाओं से इसे सजीव रंग दिए गए हैं, उनके चुनाव और प्रयोग के महत्त्व को कम कर रहा हूँ; लेकिन इस सारो भावात्मक अरूपता के अतिरिक्त आपका अपना भी तो कुछ जीवन और व्यक्तित्व है न? मैं ...
"वह जीवन...?" मुझे लगा जैसे ताजमनी अपने उस पक्ष को बचा रही थीं, अब हलके दर्द से बोलीं; "एक नट्टिन-पुत्री का जीवन ? आप खुद कल्पना कीजिए न...लोगों से, पास-पड़ौस से क्या-क्या नहीं सुनना पड़ा? हवेली में आने के बाद मैंने औरों को सलाह दी-मेले में कमाई करने मत जाओ। क्या-क्या नहीं सुनना पड़ा उस पर ? मुहल्ले के सिर पर खड़े होकर गालियाँ सुनाई हैं चुनचुन बाई ने- 'बड़ी आई जात की सरदारिन बनने। चुराकर नथिया उत्तरवाई। नट्टिन-टोली के परेवा-पंखी तक को नहीं मालूम ! हम मेला में कमाकर नहीं खाएँगी तो कहाँ खाएँगी? डिब्बा की मिठाई और सुडावाटर हमें भी मिले तब तो ! हवेली का डर दिखाती है'।" ताजमनी ने फिर कृतज्ञ-भाव से गहरी साँस लेकर कहा, "अदालत में सुचित-मड़र ने ज़िद करके पूछा था- 'ताजमनी आपकी कौन लगती हैं ?' वह तो कहिए मेरे जिद्दा ने मुसकरा कर कहा था- 'ताजमनी मेरी रक्षिता है। इसकी माँ मेरे पिताजी के गुरुभाई की रक्षिता थी...'"
मैंने पूछा, "जित्तन बाबू, आपको बहुत प्यार करते हैं न? दंगों के तूफ़ान में बहकर आई हुई इरावती से आपको ईर्ष्या नहीं हुई ?"
"जी हाँ, जब कोसी प्रोजैक्ट की दस नंबर की पार्टी के साथ जित्तन बाबू की पुरानी परिचिता इरावती आई थी तो शोर हो गया था कि अब हवेली की मालकिन कम्पू की मेम होगी... बेचारी ताजमनी न घर की रही न घाट की; दोनों तरफ़ से गई। लेकिन आपको पता है, मैं अपने जिद्दा को कब से जानती हूँ? जव से वह मेरे भांजे सुधना के बराबर था... रेशमी कुर्ता और लाल धोती पहने सम्पनी गाड़ी पर बैठकर मेरी ओर देख रहा था मेले में। मैं भी बच्ची थी। माँ ने पहली बार रंगीन घाघरीवाला कुर्ता खरीद दिया था... मैं अपनी सम्पनी गाड़ी में गई थी... वैलगाड़ियों की दौड़ में मेरे बैल जीत गए, तो जीत रोने लगा था। मैं हँस पड़ी थी 'इतना बड़ा होकर रोता है? बैलों को कुछ खिलाया-पिलाया करो।' फ़ौरन रामपखारन सिंह ने मिठाई लाकर दी तो अपने हाथ से बैलों को खिलाया। फिर मैंने जान-बूझकर अपनी गाड़ी हार जाने दी। गाड़ीवान कारू मियाँ ने कहा था-'दुलहा पसंद आया?' मैंने माँ से शिकायत कर दी-'मेले में रोनेवाले लड़के को मेरा दुलहा कहता है कारूमियाँ...' तब से जानती हूँ मैं इन्हें। यह भी जानती हूँ कि कितने ज़िद्दी हैं ये। कुबेरसिंह ने उन दिनों जादू कर दिया था। शिक्षा पूरी करके आए थे। घर छोड़कर जाने की हठ करने लगे। माँ ने बहुत समझाया, उनके साथ चुपचाप खड़ी थी मैं। जब माँ रोने लगी तो मेरे भी होंठ फड़कने लगे। अँधेरी रात के तीसरे पहर मैंने उनके दरवाज़े पर धक्का दिया। उस दिन पहली बार माँ की सौगंध काटकर मिलने पहुँची थी एकान्त में। मैंने माँ के पाँव छूकर सत किया था, जिद्दा से कभी एकांत में नहीं मिलूँगी, कभी आँखें चार नहीं करूँगी, नज़र उठाकर उनको देखूँगी भी नहीं। लेकिन उस दिन सत से बेसत हुई थी। मुझे देखकर जित्तन जल उठे थे। माँ ने इस लड़की की बुद्धि हर ली है। बोले; 'देखो ताजू, माँ को समझाओ। मैं कल ही जाऊँगा। नाराज़ हो जाते हैं आज भी, तो फलाहार करते हैं। मालकिन माँ को देखने को आखिरी वक़्त तक नहीं आ पाए थे, क्योंकि माफ़ी माँगकर (जेल से) छूट आना मंजूर नहीं था। काशी में माँ कहती रही; 'ताजू बेटी, नहीं आया न ? मैं जानती थी। अब क्या देखती है ? चंद्रवान व्रत का ओरियावन करो...." मैंने देखा मालकिन माँ की बातें करते-करते ताजमनी की आँखों से आँसू बहने लगे।
मैं थोड़ी देर चुपचाप सोचता रहा, फिर बोला, "ताजमनी दीदी, ग़लत मत समझना। जित्तन बाबू में आपने अपने को जितना समा दिया है, 'भक्ति का जो समर्पण आपका उनके प्रति है, उसने सचमुच मुझे गहराई तक भिगोया है। बचपन में आप जो माँ-श्यामा के सामने कीर्तन मुग्ध-भाव से गाती थीं, वह आज भी जित्तन बाबू के रोम-रोम में बजता होगा। आपकी गुनगुनाहट के साथ-साथ खोल और मंजीरा की ध्वनि भी जित्तन के मन में गूंजने लगती है आपके कंठ की तन्मय-माधुरी में बड़े-बूढ़े डूब जाते हैं, जितेंद्र भीग-भीग उठता है। जितना 'कारन' आप देती हैं, जित्तन उतना ही पीता है, दुश्मनों से घिरकर माँ की याद आती है तो आपकी छाया में ही सांत्वना पाता है वह, लेकिन..."
"यहाँ कोई लेकिन मत लगाइए..." ताजमनी विवश-विनती से करुण होकर बोलीं।
"नहीं ताजू दी, यही 'लेकिन' सबसे बड़ा है।" मैं दृढ़ता से बोला, "आपने कभी क्यों शंका नहीं की कि आपके स्रष्टा ने आपको क्यों भावुकता और भक्ति ही थोक में दी, क्यों उसने तर्क और विवेक से हर जगह बचाया, सोचा है आपने कभी? सुनिए, क्योंकि उसने आपकी इतनी सुंदर प्रतिमा का उपयोग जालसाज़, डकैत, चरित्रहीन पत्नीदार शिवेन्द्र मिश्र के शराबी कबाबी, सनकी अधपगले बेटे की चॅवर डुलानेवाली दासी के रूप में किया है। आप शायद इसे अपना सौभाग्य मानें, कृतार्थ हों कि जितेन्द्र ने भरी अदालत में आपको अपनी रखैल घोषित कर दिया, नट्टिन-टोले से उठाकर खानदानी हवेली के भण्डारघर की चाबी और तुलसी-चौरे पर दीपक जलाने का काम सौंप दिया। वह कीर्तन सुनता और आपकी गोद में सिर रखकर देवी के निमित्त दी जानेवाली शराब, 'कारन' पीता रहा। ताजू दी, मैं पूछता हूँ कि शरचन्द्र की राजलक्ष्मी और चन्द्रमुखी से अलग आप किस अर्थ में हैं? इसी अर्थ में न कि जित्तन, श्रीकान्त और देवदास की तरह आवारा नहीं? निकम्मा नहीं है? मन-ही-मन सब उसको पूजते हैं या उस पर आपकी भावना, माँ-श्यामा की श्रद्धा-भक्ति का मुलम्मा चढ़ा दिया गया है ? लेकिन आपने यह भी कभी सोचा कि बाक़ी सारी जनता को परती और जित्तन को पंखिराज घोड़े पर चढ़कर अमृतघट लानेवाला राजकुमार बनाकर लेखक इतिहास को किधर मोड़ रहा है ? किस वर्ग को प्रतिष्ठित करने के लिए आपको खाद की तरह इस्तेमाल कर रहा है ? आपके इस प्रकार के निर्माण के प्रति उसकी कौन-सी ज़हनियत है ? और ताजू दी, यह भी मत भूलिए कि एक को सही बताने के लिए उसने हर विचारधारा को खोखला बताया है। वह भगवतीचरण वर्मा के 'टेढ़े-मेढ़े रास्ते' के राजा तिवारीजी से किस प्रकार अलग चरित्र का वारिस है ?..." ताजमनी विस्फारित नेत्रों से व्यथित-सी देखती रहीं। कठिनाई से बोलीं, "मेरी जिद्दा को कुछ मत कहिए..."
मैं उठ खड़ा हुआ- "ताजू दी, मैं जानता हूँ आप यह सब नहीं सुन सकेंगी, क्योंकि आप जित्तन को ही नहीं उसकी हर बुराई को प्यार करती हैं। हर तरह उसे देवता मनवा देना चाहती हैं। दीदी, अंग्रेज़ी में एक कहावत है- 'मुझे प्यार करो, मेरे कुत्ते को प्यार करो।' सो आप जित्तन को ही नहीं, उसके कुत्ते मीत को उससे ज़्यादा प्यार करती थीं। वह तो मर गया, वर्ना इस वक्त सारी हवेली उसकी 'बॉख-बॉख' की अंग्रेज़ी भौंक से गूँजती होती और उसे गोद में बिठाकर आप या तो उसकी कंघी करती होतीं या खीर खिला रही होतीं..."
और अपनी बात अधूरी छोड़कर मैं बाहर चला आया। उस समय ताजमनी दीदी रो रही थीं... पता नहीं, जित्तन के प्रति मेरे प्रहार से घायल होकर, मालकिन माँ को याद करके, मीत की मृत देह का ध्यान करके या अपने स्रष्टा की नीयत और अपनी मजबूर-बेज़बानी पर...
(राजेन्द्र यादव की पुस्तक ‘अठारह उपन्यास’ से साभार)