गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर और शांतिनिकेतन आज लोगों के लिए जैसे पूरक नाम हैं। ऐसा होना जायज भी है क्योंकि शांतिनिकेतन बनाना टैगोर के जीवन का अभिन्न और सबसे बड़ा सपना था। अमूमन हमारे जीवन में कोई सपना या लक्ष्य तभी सबसे अहम हो पाता है जब उसकी बुनियाद से हमारे बचपन का कुछ जुड़ाव हो।शांति निकेतन और रवींद्रनाथ टैगोर के संबंध में भी कुछ यही कहा जा सकता है और सबसे दिलचस्प बात है कि शांतिनिकेतन की स्थापना के लिए मूल प्रेरणा बालक रवींद्रनाथ के कुछ भय थे। बचपन में भीतर बैठे हुये कुछ डर।

रवींद्रनाथ टैगोर की एक बहुप्रसिद्ध कविता की कुछ पंक्तियां हैं - बहुत दिनों से बहुत कोस दूर पर / देखने गया हूं पर्वत मालाएं / देखने गया हूं सागर / दो आंखें खोल नहीं देखा / घर से सिर्फ दो कदम की दूरी पर / एक ओस की बूंद को । एक धान को बाली पर'। प्रकृति को देखना और जीना बालपन से ही रवींद्रनाथ टैगोर के व्यक्तित्व का प्रमुख हिस्सा था, जो उनके लिए कविताएं रचने का सबब भी बना।

बालपन में भी रवींद्रनाथ सुबह उठते तो सीधे बगीचे की तरफ भागते, घंटों तक खिड़की पर खड़े होकर निस्सीम आकाश, चहकते पंछी, हरी-भरी धरती को निहारते रहते। उन्हें लगता था जैसे ये सब बाहें पसारे बस उन्हें पुकार रहे हों, पर जब रवींद्र को उस छोटी सी उम्र में एक स्कूल भेजा गया तो वह उन्हें कैदखाने के सिवाय और कुछ नहीं लगा। यहां इमारत में ऐसा खुलापन नहीं था कि वे जब चाहें तब प्रकृति को निहार पाएं। फिर सबक याद न होने पर उन्हें शिक्षकों की डांट-पिटाई भी झेलनी पड़ती थी। रवींद्रनाथ ने कुछ ही समय में वह स्कूल छोड़ दिया।रवींद्रनाथ टैगोर इस शिक्षा पद्धति के मकसद को बखूबी समझते थे।

 'अपने भीतर के प्रकाश से ओतप्रोत / जब वह सत्य खोज लेता है/ तो कोई उसे उससे वंचित नहीं रख सकता / वह साथ ही जाता है फिर उसके / उसके अंतिम प्रस्थान की तरह।' ये पंक्तियां रवींद्रनाथ टैगोर की अंतिम कविता की कुछ पंक्तियों का भावानुवाद है। हालांकि अच्छे से अच्छा अनुवादक भी उनकी कविताओं का समुचित अनुवाद नहीं कर सकता, फिर भी उनकी बात सामने रखने की खातिर यहां कुछ उद्धरणों का प्रयोग करना जरूरी है। दरअसल रवींद्रनाथ टैगोर के लिए शिक्षा का अंतिम मकसद आत्मविकास था और आत्मविकास का स्पष्ट अंतिम चिह्न क्या है यही बात उन्होंने इस कविता में भी कही है।

यह कहने की बात नहीं है कि रवींद्रनाथ टैगोर ने अपने जीवन-सत्यों की तलाश कर ली थी। और मूल सत्य यह था कि उनका भविष्य अपने देश में रहने, अपने लोगों की बेहतरी और जीवन विकास में निहित है। इसके लिए वे वर्तमान शिक्षा प्रणाली के तौर-तरीकों में अहम बदलाव की जरूरत समझते थे। इसी जिद और आग्रह के तहत उन्होंने शांतिनिकेतन की स्थापना की और अपने नोबेल पुरस्कार की सारी राशि शांतिनिकेतन की बेहतरी के लिए दे दिए।

शांति निकेतन की स्थापना रवींद्रनाथ टैगोर के लिए कोई स्वप्न या फिर फंतासी भर नहीं थी। यह उनके लिए जिद और जूनून जैसा कुछ था और उससे भी आगे बढ़कर कहीं जीवन-लक्ष्य। तभी तो शांति निकेतन के बनने के दौरान एक-एक करके पहले पत्नी, फिर पुत्री, फिर पिता और फिर पुत्र को खो बैठने के बावजूद भी वे काम से डिगे नहीं। कोई आम इंसान होता तो वह इन घटनाओं से हिम्मत हार जाता पर ऐसा नहीं हुआ और शांतिनिकेतन अकेला उनके जीने का सबब बना रहा तो इसलिए कि उनका परिवार भी वह था और समाज भी वही। अपने परिवार को खोने के बाद वे परिवार की कल्पना को विस्तृत कर सबसे खुद को जोड़कर देखने लगे थे- 'मेरा घर सभी जगह है/हरेक घर में मेरे निकट संबंधी हैं और मैं उन्हें हर स्थान पर तलाश करता हूं।' ये पंक्तियां लिखने वाले रवींद्रनाथ के लिए ये परिस्थितियां आत्मनिर्वासन भी थीं और आत्मविस्तार भी.

जैसे कहानी वाले राजा की जान हमेशा तोते में बसती है, रवींद्रनाथ टैगोर के लिए उनका वह तोता शांतिनिकेतन हो गया था। यह कहे तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। टैगोर का एक पत्र इसकी सबसे अच्छी गवाही देता है। यह1930 की बात है। टैगोर मॉस्को के पास के किसी शहर में थे। उस समय उन्होंने अपनी पोती श्रीनंदिनी को एक चिट्ठी लिखी। इसमें वे लिखते हैं- 'मैं जहां हूं वहां की बात तुम सोच भी नहीं सकती। आज शाम मोटर से मॉस्को जाऊंगा, यहां शानदार बाग़ है। दूर तक जहां ही नजर जाती है, बड़े-बड़े पेड़ों वाले जंगल हैं। आसमान पर बादल छाए हैं, हवा में ऊंचे-ऊंचे पेड़ों की फुनगियां झूल रही हैं। घड़ी नहीं है, पर अंदाजे से यह लग रहा है, सुबह का आठ बजनेवाला होगा पर खिड़की से अभी चांद तारा दिखाई दे रहा है...' टैगोर पत्र में यहां तो उस रूसी नगर की खूब तारीफ कर रहे हैं लेकिन फिर आगे लिखते हैं, '... मेरा जी यह चाहता है कि शांतिनिकेतन चला आऊं और इस बार अगर लौटूं तो लाख हिलाने से से न हिलूं। वहां बैठा-बैठा बस चित्रकारी करूंगा... सुबह रोज अपने लाल बजरी वाले बाग़ में टहलने निकल जाया करूंगा, हाथ में छड़ी लेकर।' शांतिनिकेतन के प्रति यह उनका लगाव ही था कि बंगाल से हजारों किलोमीटर दूर रूस के एक खूबसूरत से नगर में भी उन्हें अचानक शांतिनिकेतन की याद आ जाती है और वे हमेशा के लिए यहां आकर यहीं‌ रह जाने की बात करते हैं।

शांतिनिकेतन की स्थापना के पीछे टैगोर का एक मकसद यह भी था कि वे किसानों-काश्तकारों के जीवन में फैले अशिक्षा के अंधकार को इस संस्थान से दूर करें। गांव के जीवन को उन्होंने बहुत करीब से देखा था और तब उन्होंने यह महसूस किया कि देश के विकास के लिए पहले इन गरीब किसानों का विकास बहुत जरूरी है। यही सोचकर उन्होंने तय किया था कि शांतिनिकेतन (कोलकाता से 160 किमी दूर उत्तर में स्थित शहर) में जो उनकी थोड़ी-बहुत जमीन है, उसपर वे इनकी शिक्षा के लिए एक स्कूल खोलेंगे‌ पत्नी से वे जब यह मशविरा करने पहुंचे तो स्कूल खोलने के उनके इस विचार पर वे तुरंत हंस पड़ी थीं। उन्हें आश्चर्य यह था कि स्कूली शिक्षा से कभी हद दर्जे तक भागनेवाला एक बच्चा आज स्कूल की स्थापना की बात कर रहा था। टैगोर ने उनकी इस जिज्ञासा और हंसी को शांत करने के लिए यह कहा कि वे उन स्कूलों जैसा स्कूल नहीं खोलनेवाले जहां बंद कोठरियों और कमरों में छड़ी के दम पर बच्चों को सबक रटाएं जाते हैं, शांतिनिकेतन वृक्षों के साए तले खुले में व्यवहारिक शिक्षा देनेवाला पहला स्कूल होगा। ऐसा हुआ भी।

1907 म जब शाति निकतन की स्थापना हुई तो टैगोर के मन में यह सजग इच्छा थी कि यहां का माहौल ऐसा हो जिसमें शिक्षक विद्यार्थी के बीच कोई दीवार न हो। उम्र और पदवी को भूलकर सब एक साथ मिलकर काम कर सकें। जहां शिक्षा का मतलब किताबों में सिमटना कहीं से भी न हो‌। शांतिनिकेतन के माध्यम से उन्होंने इस विचार को अमली जामा भी पहना दिया था। यही शांतिनिकेतन 1921 में विश्वभारती बन गया। शांतिनिकेतन से रवींद्रनाथ टैगोर के इसी लगाव के कारण महात्मा गांधी ने उन्हें 'गुरुदेव' यानी गुरुओं के गुरु या आराध्य की उपाधि दी थी।

वैसे रवींद्रनाथ टैगोर अपने आप में एक पूरे संस्थान जैसे थे। चित्रकारी, कुश्ती, व्यायाम, विज्ञान से लेकर कविता और संगीत सब उनके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग रहें। इसके साथ ही उनका अपनी मातृभाषा के लिए लगाव अविस्मरणीय था। इसके पक्ष में उनके आग्रह और तर्क भी बहुत गहरे और समुचित थे 'जिस प्रकार मां की दूध पर पलनेवाला बच्चा अधिक स्वस्थ होता है, उसी तरह मातृभाषा के प्रयोग से लेखन अधिक स्फूर्त और मजबूत होता है।' इसीलिए उन्होंने अपना लेखन हमेशा बांग्ला में ही किया। लेकिन इसके बाद भी उनकी ख्याति देश-विदेश सभी में खुशबू की तरह फैली। उन्हें सर (1915) और नाइटहुड की उपाधियां मिलीं और सम्मानों के मामले में सर्वोच्च कहा जाने वाला नोबेल पुरस्कार भी।

नोबेल पानेवाले रवींद्रनाथ टैगोर पहले भारतीय ही नहीं बल्कि पहले एशियाई भी थे। उनके प्रशंसकों में यीट्स और आन्द्रेजीद जैसे बड़े नाम रहे। यीट्स ने न सिर्फ 'गीतांजलि' की भूमिका लिखी बल्कि वे यह तक मानते थे कि उनकी अपनी भाषा में टैगोर की टक्कर का कोई एक भी कवि नहीं है। यीट्स ने एक जगह कहा है कि गीतांजलि की भूमिका लिखने से पहले वे उसे साथ लेकर लगातार घूमते रहे, कारण यह कि उसे एक सांस में या फिर एक साथ पढ़ जाना उनके लिए बिलकुल असंभव जैसा था। और इसे पढ़ते हुए वे सार्वजनिक स्थलों पर भी रो पड़ते थे। यदि हम देशकाल के संदर्भ को किनारे भी कर दें तो एक बड़े कवि की एक नए कवि की प्रशंसा में इससे बड़े शब्द भला क्या हो सकते हैं।