दृश्यम: रात काफी हो चुकी- स्त्री जीवन, स्मृति और समाज का रंगमंचीय पुनर्पाठ

'रात काफ़ी हो चुकी’ एक साधारण नाट्य प्रस्तुति नहीं, बल्कि नयी कहानी की तीन महा-पुरोधाओं ऊषा प्रियम्वदा, कृष्णा सोबती और मन्नू भंडारी की कहानियों की एक सम्मिलित सह-प्रस्तुति है। ये तीनों कहानियाँ स्वतंत्र होकर भी एक-दूसरे से गहराई से जुड़ती हैं। एक गझिन अकेलापन है, जो इन कहानियों के मुख्य पात्रों के हिस्से है और इन्हें एक दूसरे से जोड़ता है। एक साझा भाव है यहां, स्त्री के आत्मसंघर्ष और उसके मौन प्रतिरोध का। रात यहां केवल एक प्रहर भर नहीं, बल्कि एक मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक परिस्थिति है, जिससे हर पात्र अपने-अपने ढंग से से जूझ रहा है। छले जाने का एक निर्मम भाव है जो इन कहानियों में सन्निहित है। इन्हें एक उजली सुबह का इंतजार है। एक नये दिन की प्रतीक्षा है। जिसके मद्देनजर किसी शायर की ये पंक्तियां बरबस याद आती हैं- 'अंधेरी रात नहीं नाम लेती ढलने का/ यही तो वक्त है सूरज तेरे निकलने का।'

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नाटक का एक दृश्य Photograph: (हंस राज)

हिंदी कथा-साहित्य की समृद्ध परंपरा में उषा प्रियंवदा, कृष्णा सोबती और मन्नू भंडारी जैसे नाम एक ऐसी त्रयी निर्मित करते हैं, जिनके लेखन ने स्त्री जीवन, आत्मबोध, सामाजिक असमानताओं और संबंधों की गहराइयों को अत्यंत सजीवता से प्रस्तुत किया है। पिछले दिनों कोलकाता में मंचित नाट्य प्रस्तुति ‘रात काफ़ी हो चुकी’ में इस त्रयी के लेखकों की तीन कहानियों ‘वापसी’ (उषा प्रियंवदा), ‘आज़ादी शम्मोजान की’ (कृष्णा सोबती) और ‘चश्मे’ (मन्नू भंडारी) का अभिनयात्मक पाठ इस तरह का अनुभव रहा, जिसकी स्मृति मन में महीनों मौजूद रहेंगी। पदातिक लिटल थिएटर द्वारा प्रस्तुत और अनुभा फतेहपुरिया के निर्देशन में मंचित इस नाटक में समकालीन समाज की बदलती चेतना और स्थायी विसंगतियों को मंच पर एक साथ उपस्थित करने वाले कलाकारों अनुभा फतेहपुरिया, कल्पना झा और कनिष्क तिवारी का अभिनय भी सम्मोहित करने वाला था।

तीन कहानियाँ, तीन अलग समय-खंड, लेकिन एक ही अंतर्निहित स्वर: स्त्री की अस्मिता, उसके संबंध, और उसकी चुप्पियाँ।

वापसी : घर की देहरी पर खड़ा अकेलापन

उषा प्रियंवदा की कहानी ‘वापसी’ एक सेवानिवृत्त रेल कर्मचारी गजाधर बाबू की कहानी है, जो वर्षों की सेवा के बाद अपने परिवार के पास लौटते हैं। इस लौटने के पीछे वर्षों की कल्पनाएँ, सहेजे गए स्नेह और एक साझा जीवन की लालसा है। लेकिन जिस घर को उन्होंने अपना माना, वहीं पर अब उनके लिए कोई ठौर नहीं। गजाधर बाबू का लौटना मानो एक ‘अतिथि’ के रूप में लौटना है, जहाँ चारपाई तक के लिए स्थायी जगह नहीं। यह वापसी उनके लिए अपनापन नहीं, बल्कि एक धीमे निष्कासन की प्रक्रिया बन जाती है।

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कनिष्क तिवारी ने गजाधर बाबू के किरदार को अत्यंत सूक्ष्मता और संयम के साथ जिया। उनकी चाल, चुप्पियाँ, और उदासी के क्षणों में आँखों की स्थिर दृष्टि दर्शकों को भीतर तक झकझोरता है। मंच पर उनकी उपस्थिति एक शांत, भीतर से टूटी हुई आकृति की तरह थी, जिसकी हँसी भी एक दीर्घ उदासी को ढँकने का प्रयास थी। परिवार की बदलती प्राथमिकताओं, रिश्तों की औपचारिकता और आत्मीयता के स्थान पर उपेक्षा के भाव ने इस प्रस्तुति को मार्मिक बना दिया। मंच पर गजाधर बाबू की उपस्थिति जैसे धीरे-धीरे लुप्त होती पहचान की प्रतीक हो- एक ऐसे व्यक्ति की, जो कभी घर का केंद्र था, अब एक गैरजरूरी वस्तु जैसा महसूस करता है।

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निर्देशक अनुभा फतेहपुरिया ने इस खंड में जिन प्रतीकों का उपयोग किया- सोफा, बक्से, दीवार के सहारे टँगे कपड़े, रेडियो, टेबल लैंप- वह न केवल दृश्यात्मक रूप से प्रभावी थे, बल्कि गजाधर बाबू के भीतर के अकेलेपन और बेगानगी को भी दर्शाते हैं। इस खंड में जो सबसे प्रभावशाली था, वह था संवादों का विरल उपयोग और नायक की चुप्पियों को संवाद की तरह प्रस्तुत करना। यह चुप्पियाँ दर्शकों के भीतर गूँजती रहती है। मंच पर फैली चुप्पी, रोशनी की गिरती छाया और संवादों का धीमा प्रवाह, सब मिलकर उस ‘वापसी’ को एक अंतहीन दूरी में बदल रहे थे। 

आज़ादी शम्मोजान की: देह की दीवारों में बसी स्वतंत्रता की विडंबना

कृष्णा सोबती की कहानी ‘आज़ादी शम्मोजान की’, स्वतंत्रता दिवस की पृष्ठभूमि में एक कोठेवाली स्त्री के जीवन की अनदेखी परतों को उजागर करती है। बाहर देश तिरंगों से सजा है, लेकिन भीतर स्त्री की आज़ादी अब भी प्रश्नों में जकड़ी है। शम्मोजान, जो वर्षों से अपने को ‘बेच’ रही है, देखती है कि स्वतंत्रता दिवस के दिन भी उसका कोठा रौशनी से सजाया जा रहा है, जैसे वह इस राष्ट्रीय उल्लास का हिस्सा हो। लेकिन यह सजावट भी उसी पुराने व्यापार का हिस्सा है, जहाँ एक स्त्री की पहचान सिर्फ देह तक सीमित है।

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कल्पना झा ने शम्मोजान की भूमिका में गहरे आत्मबोध, पीड़ा, शारीरिक थकान, स्वर की टूटन और भीतर की चीख को दृश्य रूप में रूपांतरित किया, वह अभिनय नहीं बल्कि आत्मा का मंच पर अवतरित होना था। उन्होंने कोठे की दीवारों से परे जाकर दर्शकों को उस सन्नाटे में खींचा, जहाँ हर चुप्पी एक पुकार बन जाती है। उनकी देहभाषा, स्वर की थकावट, और भावनाओं का संचरण इतना गहरा था कि दर्शक मानो उसी कोठे की सीढ़ियों पर खड़े होकर शम्मो की खामोश लड़ाई देख रहे हों। भूरे के साथ संवाद, तिरंगों की झिलमिलाहट, और बाहर की रोशनी के बीच शम्मो के भीतर की रात, ये सब एक साथ मंच पर उपस्थित थे। शम्मोजान का चेहरा जैसे एक ऐसा नक़्शा बन गया था, जिसमें हर रेखा इतिहास की पीड़ा से बनी थी।

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सुदीप सान्याल की रोशनी और अंधेरे के बीच का संतुलन यहाँ अत्यंत प्रभावशाली था। बाहर की रोशनी और भीतर के अंधेरे के बीच का विरोधाभास ही इस खंड की मूल संवेदना बन जाता है। शम्मो जब कोठे से झाँकती है और नीचे से तिरंगों की झिलमिलाहट देखती है, तो यह दृश्य भारतीय स्वतंत्रता के विमर्श पर एक मूक, लेकिन तीखा प्रश्नचिन्ह लगा देता है। ‘आज़ादी’ किसके लिए है और किसके लिए अब भी नहीं, यही इस खंड का सार है। 

चश्मे: स्मृति की धुंध में गुम प्रेम

तीसरी और सबसे जटिल प्रस्तुति थी मन्नू भंडारी की कहानी ‘चश्मे’, जो स्मृति, अपराधबोध और मोहभंग का त्रिकोण रचती है। यहाँ एक विवाहिता लेखिका अपने पति के साथ शांत रात में अपनी नई कहानी पढ़ रही है। वह कहानी, जो एक अतीत का पुनरावर्तन है। इस पुनरावर्तन में निर्मल और शैल का प्रेम है, टी.बी. जैसी बीमारी का भय है, और एक युवा पुरुष की वह कायरता है, जो प्रेम को रोग से बचाना चाहता है।

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नाटक में चश्मा एक प्रतीक बनकर उभरता है। देखने की सामर्थ्य और न देख पाने की विवशता दोनों का। निर्मल का खोया हुआ प्रेम, जो टी.बी. की बीमारी के सामने अपने आदर्श और प्रेम को त्याग देता है, वह एक पुरुष की उस कमजोरी की ओर संकेत करता है जो केवल सपनों में साहसी होता है। कल्पना झा का अभिनय इस खंड में अत्यंत बहुआयामी था। मंच पर बार-बार प्रकाश के मंद पड़ने और फिर लौटने की लय दर्शकों को अतीत और वर्तमान के बीच झुलाती है। यह खंड दर्शकों को बेचैन कर देने वाला था।

इस खंड की सबसे बड़ी विशेषता है उसका ‘धुंधलापन’। अनुभा फतेहपुरिया ने इस खंड को लाइट और शैडो के अत्यंत सटीक संतुलन से रचा है। अभिनय के साथ-साथ निर्देशन यानी एक साथ दो भूमिकाओं का बखूबी निर्वहण किया है। मंच पर कहीं भी दृश्य-स्मृति और वर्तमान जीवन की रेखाएँ उलझती नहीं, बल्कि सहजीविता से बहती हैं।

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दर्शक यह मानते हैं कि यह प्रस्तुति केवल एक प्रेम कहानी नहीं है, बल्कि उस पुरुष चेतना का भी उद्घाटन है, जो प्रेम तो करता है, पर उसे निभाने की जिम्मेदारी से डरता है। 

प्रस्तुति की विशेषताएँ और निर्देशक की दृष्टि: एक आत्मीय पुनर्रचना

‘रात काफ़ी हो चुकी’ एक साधारण नाट्य प्रस्तुति नहीं, बल्कि हिंदी कथा-साहित्य की स्मृति और संवेदना को मंच पर जीने और दोबारा महसूस करने की एक अद्वितीय कोशिश है। इसके सबसे सशक्त स्तंभ के रूप में निर्देशक अनुभा फतेहपुरिया का दृष्टिकोण सामने आता है, जिन्होंने तीनों कहानियों को किसी कृत्रिम सूत्र में बाँधने की बजाय, उनके मूल स्वभाव, भावभूमि और भाषिक गतिकता को बरकरार रखते हुए उन्हें एक साझा रंगमंचीय अनुभव में ढाल दिया। तीनों कहानियाँ अपनी स्वतंत्रता बनाए रखते हुए भी एक-दूसरे से गहराई से जुड़ती प्रतीत होती हैं।

इन कहानियों की पृष्ठभूमियाँ, सामाजिक-सांस्कृतिक स्थितियाँ, और पात्र भिन्न हैं, लेकिन उन्हें जोड़ता है एक साझा भाव: स्त्री का आत्मसंघर्ष, उसका मौन प्रतिरोध, और स्मृति की वह नमी जो वर्षों बाद भी भीतर से भिगो देती है। 

मंच पर यह संबंध एक बेहद प्रभावशाली प्रतीक के माध्यम से उभरता है यानी ‘रात’। यह रात केवल समय का संकेत नहीं है, बल्कि एक मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक परिस्थिति है, जिसमें हर पात्र अपने-अपने ढंग से अंधकार से जूझता है। यह वही रात है, जिसमें गजाधर बाबू की उपेक्षा, शम्मोजान की अस्मिता और शैल की बिखरती उम्मीदें धीरे-धीरे आकार लेती हैं। 

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सुदीप सान्याल ने प्रकाश को केवल सौंदर्यबोध का माध्यम नहीं, बल्कि अर्थ रचने का उपकरण बनाया। शम्मोजान के कोठे की रोशनी केवल सजावट नहीं, उसकी विडंबना का विस्तार बन जाती है। गजाधर बाबू की चारपाई पर पड़ती फीकी रौशनी उनके अकेलेपन का बिंब बनती है। संगीत का प्रयोग भी सीमित, लेकिन अत्यंत प्रभावी था। मंच पर संवादों की विरलता को संगीत की मौन रेखाएँ अर्थ देती हैं। विशेष रूप से ‘आज़ादी शम्मोजान की’ में बाहर गूँजता जश्न और भीतर की चुप्पी के बीच का विरोधाभास ध्वनि संयोजन से और अधिक तीव्र हो जाता है।

‘रात काफ़ी हो चुकी’ उन स्त्रियों की रात है, जिन्हें या तो बेच दिया गया, या जिनकी भावनाएँ अनसुनी छोड़ दी गईं। इस रात में मंच से उठती आवाज़ें धीरे-धीरे दर्शकों की स्मृति में उतरती हैं और वहीं बस जाती हैं। जब मंच पर अंतिम प्रकाश बुझता है और पात्र मंच से उतर जाते हैं, तब भी एक आवाज़ दर्शकों के भीतर रह जाती है- रात काफ़ी हो चुकी लेकिन कहानी अभी बाकी है…

प्रस्तुति: पदातिक लिटल थिएटर
निर्देशन: अनुभा फतेहपुरिया
कलाकार: अनुभा फतेहपुरिया, कल्पना झा और कनिष्क तिवारी
लाइट डिजाइन: सुदीप सान्याल
मंच व्यवस्था: प्रतिज्ञा घोष, दिनेश हलधर उत्तम कुमार
(सभी तस्वीरें लेखक हंस राज द्वारा ली गई हैं)
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