सोशल मीडिया पर हिन्दी के जिन लेखकों की उपस्थिति से वैचारिक संवाद की जगह बनी रहती है, उनमें वरिष्ठ आलोचक और वागर्थ के संपादक शंभुनाथ का नाम प्रमुख है। इस वर्ष की शुरुआत में स्त्री रचनाकारों के साहित्य को केंद्र में रखते हुए उनके लिखे कुछ फ़ेसबुक पोस्ट ने साहित्य समाज में एक नई बहस को जन्म दिया है। उक्त बहस में समकालीन स्त्री रचनाकारों द्वारा बड़ी संख्या में हस्तक्षेप भी किया गया। इससे पहले कि उस बहस को मैं आगे बढ़ाऊँ, 02 जनवरी 2025 को लिखे गए शंभुनाथ जी के पहले पोस्ट को यहाँ उद्धृत करना मैं जरूरी समझता हूँ-

“आजकल स्त्री रचनाकार आमतौर पर सांप्रदायिक हिंसा को विषय क्यों नहीं बनाती हैं? आखिर  धार्मिक कट्टरता पर अधिकांश चुप क्यों हैं?”

शंभुनाथ जी ने अपनी फ़ेसबुक पोस्ट में प्रश्न के शिल्प में स्त्री रचनाशीलता पर जो दो आरोप लगाए उसका विरोध स्वाभाविक था। हमारे समय की दर्जनों स्त्री रचनाकारों ने शंभुनाथ जी की पोस्ट पर जाकर न सिर्फ अपनी आपत्ति जाहिर की बल्कि बड़ी संख्या में अपनी और अन्य साथी रचनाकारों की उन रचनाओं का उल्लेख भी किया जो सांप्रदायिकता की राजनीति और धार्मिक कट्टरता के प्रश्नों को केंद्र में रखकर पिछले दिनों लिखी गई हैं। शंभुनाथ जी के आरोपों को नकारते हुए उन पर स्त्री रचनाशीलता की उपेक्षा के आरोप भी लगाए गए। इस क्रम में सुपरिचित आलोचक और उपन्यासकार गरिमा श्रीवास्तव द्वारा की गई टिप्पणी थोड़ी तल्ख होने के बावजूद स्त्री लेखन के संदर्भ में सामान्य पुरुष दृष्टि का सच ही उजागर करती है- 

“आप हमलोगों का लिखा पढ़ते ही कहाँ हैं कि पता चले कि स्त्रियाँ क्या लिखे रही हैं। मुझे लगता है जितनी संवेदनशीलता से हमलोग सांप्रदायिकता और धार्मिक कट्टरता जैसे मुद्दों को डील कर रहे हैं, वे पुरुष संवेदना से आगे और इतर है। स्त्री लेखन पर ध्यान देने से कई लोगों को आँख की बीमारी उपट जाती है।” 

इस टिप्पणी का उद्देश्य शंभुनाथ जी के आरोपों के जवाब में स्त्री रचनाकारों द्वारा लिखी गई सांप्रदायिकता विरोधी रचनाओं की सूची बनाना नहीं है। यदि सिर्फ कहानी विधा की ही बात करें तो शिवरानी देवी से लेकर समकालीन स्त्री कथाकारों तक की सुदीर्घ परंपरा में सांप्रदायिकता विरोधी मजबूत कथा कृतियों की एक लंबी शृंखला मौजूद है। रचनात्मक सहमति-असहमति को कुछ देर के लिए अलग कर दें तो पिछले पच्चीस वर्षों में लिखी गई सर्वाधिक चर्चित सांप्रदायिकता विरोधी कहानियों की कोई सूची ‘परिंदे का इंतजार सा कुछ’ (नीलाक्षी सिंह) और ‘यूटोपिया’ (वंदना राग) के बिना पूरी नहीं हो सकती। मैं यह भी नहीं मानता कि शंभुनाथ जी जैसे वरिष्ठ और चैतन्य लेखक-संपादक इस परंपरा से परिचित नहीं हैं। इसलिए मैं यहाँ उनके द्वारा उठाए प्रश्नों की तह में जाकर पितृसत्ता के उन रेशों की तरफ इशारा करना चाहता हूँ, जो गाहे बगाहे स्त्री रचनाशीलता पर उठाए गए ऐसे प्रश्नों में कमोबेश मौजूद रहते ही हैं। क्या ही अच्छा होता कि उस पोस्ट पर आई प्रतिक्रियाएं सिर्फ नामावली या उपेक्षा के आरोपों तक ही सीमित नहीं रहतीं। ऐसा कहते हुए शायद फ़ेसबुक जैसे तुरंता माध्यम से मैं कुछ ज्यादा अपेक्षाएं कर रहा हूँ। 

स्त्री रचनाशीलता पर सवाल

बहरहाल एक बार पुनः हम शंभुनाथ जी के ऊपर उद्धृत पोस्ट की तरफ आते हैं। उक्त पोस्ट में स्त्री रचनाशीलता पर लगाए गए दोनों आरोपों पर बारीक निगाह डालें तो उससे स्वयमेव यह निष्कर्ष निकलता है कि आजकल पुरुष रचनाकार आमतौर पर सांप्रदायिक हिंसा को रचना का विषय बनाते हैं और अधिकांश पुरुष रचनाकार धार्मिक कट्टरता के विरुद्ध मुखर हैं। शायद शंभुनाथ जी की पोस्ट के नेपथ्य में नियोजित ऐसे ही निष्कर्षों को भाँप कर कथाकार कविता ने उन्हीं दिनों फ़ेसबुक के माध्यम से ही पुरुष रचनाकारों द्वारा लिखी गई सांप्रदायिकता विरोधी रचनाओं के नाम आमंत्रित किए। गौरतलब है कि उक्त पोस्ट पर उद्धृत रचनाओं में अधिकांश महत्त्वपूर्ण रचनाएं पिछली सदी की थीं। इन दो पोस्टों पर प्रतिक्रिया स्वरूप आई स्त्री और पुरुष रचनाकारों की रचनाओं की संख्या के आधार पर कोई निष्कर्ष निकालना चर्चा को गलत दिशा में ले जाना ही होगा। लेकिन यहाँ यह प्रश्न तो उठता ही है कि ऐसे प्रश्नों को जेंडर से जोड़ कर देखा ही क्यों जाय? जेंडर विशेष के संबंध में इन प्रश्नों को उठाने के कारण ही ये प्रश्न, प्रश्न न होकर बेबुनियाद आरोप में बदल गए, जिसके पार्श्व में पितृसत्ता से अनुकूलित वह सूक्ष्म जेंडर बायसनेस काम कर रहा था जो सामान्यतया पुरुषों को स्त्रियों से बेहतर ही मानता है। पितृसता से अनुकूलित उस दृष्टि को समझने के लिये शंभुनाथ जी की दूसरी पोस्ट की तरफ भी ध्यान दिया जाना चाहिए- 

“मेरे पिछले पोस्ट पर इतनी सूचनाएं आईं कि मुझे अपनी अज्ञानता का बोध हो रहा है। सांप्रदायिक हिंसा और धार्मिक कट्टरवाद पर अधिकांश स्त्री रचनाकारों ने इतना अधिक लिखा है, यह जानकर मेरे कुछ भ्रम दूर हुए। पर कुछ भ्रम अभी भी बने हुए हैं। 

21 वीं सदी में सांप्रदायिकता और धार्मिक कट्टरवाद पर स्त्री रचनाकारों द्वारा इतना कुछ लिखा गया है और मेरी तरह सैकड़ों लोग इससे अनजान हैं। इसका एक अर्थ यह है कि स्त्री रचनाकारों का सांप्रदायिकता और धार्मिक कट्टरवाद–विरोध अभी अधिक प्रभावोत्पादक और संगठित रूप से सामने आना बाकी है।” 

ऊपर उद्धृत शंभुनाथ जी के दोनों पोस्ट एक ही दिन लिखे गए हैं। एक ही पोस्ट में पहले स्त्री लेखन के संदर्भ में अज्ञानता का बोध और फिर उसके प्रभावोत्पादक नहीं होने का मूल्य निर्णय, लैंगिक शक्ति संरचना की बिसात पर पितृसत्ता की दूसरी चाल है, जो ‘नहीं लिखा गया है’ यानी उपेक्षा और अस्वीकार के मोहरे के पिटने के बाद ‘प्रभावोत्पादक नहीं लिखा गया है’ यानी मूल्य निर्णय की शक्ल में सामने आया है। बड़ी संख्या में स्त्री रचनाकारों द्वारा किए गए प्रतिरोध से शंभुनाथ जी यहाँ इतने विचलित हैं कि उन्हें अज्ञानताबोध से मूल्य निर्णय तक पहुंचेन के लिए जरूरी समयान्तराल तक का ध्यान भी नहीं रहता। 

अपनी दूसरी पोस्ट में शंभुनाथ जी स्त्री रचनाशीलता को लेकर एक और निर्णय देते हैं कि स्त्री रचनाकारों का सांप्रदायिकता विरोध अभी संगठित रूप से सामने आना बाकी है। यह पूछा जाना चाहिए कि क्या सांप्रदायिकता का सांगठनिक विरोध स्त्री और पुरुष अलग-अलग करेंगे? यदि हाँ, तो क्या यह सांप्रदायिकता के विरुद्ध समाज के संघर्ष को कमजोर नहीं करेगा? शंभुनाथ जी उसी पोस्ट में आगे कहते हैं- 

“वर्तमान दौर में धार्मिक कट्टरवाद और पाखंड का प्रबल विरोध किए बिना पितृसत्ता का विरोध  निरर्थक है, क्योंकि धर्मांधता पितृसत्ता का सबसे बड़ा स्रोत है।”  

शंभुनाथ जी की उपर्युक्त बात से असहमत होने का कोई कारण नहीं है, लेकिन यहाँ इस बात को भी समझा जाना चाहिए कि पितृसत्ता की संरचना में धर्म, राजनीति, व्यापार, साहित्य आदि सब शामिल हैं। इसलिए स्त्रियों का संघर्ष तभी अपनी मंजिल तक पहुंचेगा जब उसके निशाने पर पूरी पितृसत्ता होगी। स्त्रियों के समग्र संघर्ष को किसी एक सेगमेंट पर फ़ोकस करने का सुझाव अंततः पितृसत्ता को मजबूत ही करेगा। 

सांप्रदायिक पक्षधरता पर असहमति 

अपनी पोस्ट में शंभुनाथ जी यह तो कहते हैं कि “मेरा यह भ्रम भी टूटना चाहिए कि स्त्री रचनाकारों में जो कई अन्य बड़े नाम यहां नहीं आए हैं, क्या उन्होंने  धार्मिक कट्टरवाद के खिलाफ कभी आवाज उठाई है?” लेकिन वरिष्ठ आलोचक वीरेंद्र यादव द्वारा स्पष्ट सांप्रदायिक पक्षधरता दिखाने वाली किसी लेखिका विशेष को अपने वार्षिक आयोजन में बुलाए जाने के प्रश्न का कोई माकूल जवाब नहीं देते। इस संदर्भ एनसंवाद और असहमति के सम्मान का उनका तर्क उचित है, लेकिन क्या उनकी ही शैली में यह प्रश्न नहीं पूछा जाना चाहिए कि उन्होंने अपने आयोजन में किसी लेखक विशेष से उसकी स्पष्ट सांप्रदायिक पक्षधरता के प्रति अपनी असहमति जाहिर की? ऐसे प्रश्न और प्रतिप्रश्न सिर्फ तर्क करने के लिए तो किए जा सकते हैं, लेकिन अंततः ये सही मुद्दों की तरफ से ध्यान भटकाने का ही काम करते हैं। 

अपनी तीसरी और आखिरी पोस्ट में शंभुनाथ जी कहते हैं- 

“स्त्री रचनाकारों से संबंधित मेरे पहले पोस्ट का लक्ष्य स्त्री रचनाकारों का ध्यान बढ़ती धर्मांधता की ओर आकर्षित करना था। वे इस विषय पर, थोड़ा उत्तेजित होकर ही सही, चर्चा तो कर रही हैं।” 

निर्देशक और उद्धारक होने का जो भाव इन पंक्तियों में निहित है, उसकी जड़ों में व्याप्त पितृसत्ता के रेशों को समझे बिना स्त्री रचनाशीलता और स्त्रीवाद के महत उद्देश्यों को नहीं प्राप्त किया जा सकता है। इस बात को भी समझा जाना चाहिए कि हमारी मांस मज्जा की तहों में पितृसत्ता की जड़ें इतनी गहरे धँसी है कि कई बार उनका पता हमें खुद भी नहीं चलता। यही कारण है कि अलग-अलग पॉकेट में लिखती, रचती स्त्रियों की उपस्थिति तो कुछ लोगों को भली लगती है, लेकिन ‘स्त्रीवाद’ और पितृसत्ता का संगठित प्रतिरोध उन्हें विचलित करता है। सत्ता और शक्ति संरचना की बागडोर के हाथ से छूट जाने का भय उन्हें लगातार असहज और असुरक्षित बनाए रखता है। स्त्री रचनाशीलता के संदर्भ में उठाए गए प्रश्नों को इस दृष्टि से भी देखा जाना चाहिए। 

हाँ, इस क्रम में स्त्री लेखकों के सम्मेलन के आयोजन का जो प्रस्ताव शंभुनाथ जी ने रखा है उस पर अवश्य ध्यान दिया जाना चाहिए। लेकिन वह भी तभी सार्थक होगा जब उसके केंद्र में वृहत्तर अर्थों वाला स्त्री लेखन और पितृसत्ता के विरुद्ध उसका समग्र संघर्ष हो। अलग-अलग घटकों में संघर्ष का विकेन्द्रीकरण अंततः स्त्रीवाद को उसके उद्देश्यों से दूर ही ले जाएगा। पितृसता तो यही चाहती है।