"आदमी बात कर सकता है और चुप रह सकता है, एक ही वक्त में। इसे बहुत कम लोग समझते हैं।"
निर्मल वर्मा के इस संवाद की तरह ही नाटक डेढ़ इंच ऊपर एक ही वक्त में चुप भी है और बहुत कुछ कह भी रहा है। यह एक कठिन संतुलन है, जिसे परवेज़ अख्तर ने निर्मल वर्मा की कहानी डेढ़ इंच ऊपर के मंचन में साधा है । हाउस आफ वेरायटी, पटना में पहली बार मंचित यह नाटक निर्मल वर्मा की कहानी के ठहराव और संवेदना को रंगमंचीय स्वरूप में ढालने का प्रयास था। निर्मल वर्मा के इस संवाद में मौन और संवाद के जटिल संबंध को समझने की कुंजी है। यह केवल भाषाई अभिव्यक्ति का प्रश्न नहीं, बल्कि अस्तित्व की गहरी अनुभूति है। इसी भाव को परवेज़ अख्तर के निर्देशन में प्रस्तुत 'डेढ़ इंच ऊपर' नाटक ने अपने मंचन में आत्मसात किया। इस कहानी पर प्रस्तुति का रंगमंच में अपना इतिहास है, क्योंकि देवेंद्रराज अंकुर के डिप्लोमा प्रोडक्शन 'तीन एकांत' में एक कहानी यह भी शामिल थी। तब इस कहानी के मूक पात्र का अभिनय रतन थियाम ने किया था।
निर्मल वर्मा की इस कथा में कोई पारंपरिक कथानक नहीं है। एक वृद्ध पति है, जो एक अपरिचित और चुप आदमी को बता रहा है कि वह अपनी बिल्ली के साथ अकेला रहता है। बातचीत धीरे-धीरे बिल्ली से पत्नी तक पहुँचती है, और वह स्वीकार करता है कि वह अपनी पत्नी को कभी समझ नहीं पाया। उसका दांपत्य जीवन बिना किसी घटना के चल रहा था, लेकिन एक दिन अचानक पुलिस उसकी पत्नी को नक्सलवादी बताकर गिरफ्तार कर लेती है, मूल कहानी में वह जर्मनी और हिटलर का गेस्टापो है। वह अपनी पत्नी के घरेलू रूप से परिचित था, लेकिन उसकी राजनीतिक सक्रियता से अनजान था। इसके बाद उसकी पत्नी कभी वापस नहीं आई। संभवतः वह पुलिस के राजनीतिक नरसंहार की शिकार हो गई।
इस कहानी की मूल कथावस्तु जेम्स जॉयस की कहानी डेड से काफी समानता रखती है। दोनों कहानियाँ एक ऐसे पति को प्रस्तुत करती हैं जो अपनी पत्नी को उसके पूरे अस्तित्व में नहीं जान पाता। जेम्स जॉयस की The Dead में पति गेब्रियल को धीरे-धीरे यह अहसास होता है कि वह अपनी पत्नी ग्रेटा को वास्तव में नहीं जानता था। वर्षों तक साथ रहने के बावजूद, उसकी पत्नी की स्मृतियों में माइकल फ्यूरी नामक एक मृत प्रेमी का स्थान अधिक महत्वपूर्ण है। यह अहसास गेब्रियल के लिए न केवल अपने विवाह को लेकर बल्कि अपने पूरे अस्तित्व को लेकर एक गहरी बेचैनी और असहायता की स्थिति उत्पन्न करता है। निर्मल वर्मा की कहानी में भी पति को यह स्वीकार करना पड़ता है कि वह अपनी पत्नी को कभी जान नहीं पाया।
निर्मल वर्मा सुंदर पंक्तियों के रचनाकार हैं। उनकी लेखनी में एक विशिष्ट काव्यात्मकता है, जो न केवल उनके गद्य को विशेष बनाती है, बल्कि उनके पात्रों और स्थितियों में भी गहराई जोड़ती है। उनकी भाषा में जो काव्यात्मकता और सूक्ष्म संकेत होते हैं, वे अक्सर रंगमंच की स्पष्ट और संवाद-आधारित प्रकृति से मेल नहीं खाते। उनके वर्णनात्मक सौंदर्य को दृश्यात्मक रूप में बदलना कठिन होता है, क्योंकि उनके शब्दों में जो भीतर का संगीत है, वह मंच पर दृश्यात्मकता में खो सकता है। इसलिए उनके नाट्य रूपांतरण में उनकी सुंदर पंक्तियों की भावनात्मक और संवेदी सघनता को बनाए रखना एक बड़ी चुनौती है, जिसमें निर्देशक और अभिनेता दोनों की गहरी समझ और संवेदनशीलता की आवश्यकता होती है। यह समझ परवेज़ अख्तर के निर्देशन में दिखती है।
इस प्रस्तुति में निर्देशक परवेज़ अख्तर वह अदृश्य हाथ थे, जिन्होंने पूरा मंच अभिनेता के माध्यम से कहानीकार निर्मल वर्मा को समर्पित कर दिया। परवेज़ अख्तर का यह निर्देशन इस अर्थ में प्रशंसनीय है कि उन्होंने मंच को किसी बाहरी अलंकरण या दृश्त्मयात्मक चमत्कार से भरने के बजाय, पूरी तरह से अभिनेता के प्रदर्शन पर केंद्रित कर दिया। यह दृष्टिकोण निर्देशक की अदृश्य उपस्थिति को दर्शाता है, जहाँ उनकी भूमिका किसी बाहरी हस्तक्षेप की बजाय एक सूक्ष्म मार्गदर्शक के रूप में सामने आती है। उन्होंने मंच को एक ऐसे खाली कैनवास की तरह रखा, जिस पर अभिनेता की प्रस्तुति ही मुख्य चित्र बनाती है।
इस निर्देशन में मंच पर अभिनेता को छुपाने के लिए कोई प्रकाश योजना या सेट नहीं था। कहा जाए तो अभिनेता दर्शकों की माइक्रोस्कोपिक दृष्टि के सामने एकदम नग्न या कवच-कुंडल रहित छोड़ दिया गया था। ऐसा करना साहस का कार्य होता है।
यह दृष्टिकोण निर्मल वर्मा की कथा-दृष्टि से भी मेल खाता है। उनकी कहानियाँ बाहरी घटनाओं के बजाय आंतरिक संघर्षों और मौन के भीतर के संवादों को उभारती हैं। निर्मल वर्मा की कहानियों में अतीत और वर्तमान के बीच एक धुंधलापन होता है, जो Marcel Proust और Virginia Woolf की लेखनी की याद दिलाता है। उनकी कहानियाँ अक्सर स्मृतियों में घूमती हैं, जहाँ पात्र वर्तमान में रहते हुए भी अतीत की छायाओं से घिरे होते हैं। निर्मल वर्मा की कहानियाँ अक्सर आंतरिक तनाव, अनकहे संवादों और अस्पष्ट स्मृतियों के इर्द-गिर्द घूमती हैं। इसी को ध्यान में रखते हुए, परवेज़ अख्तर ने मंच पर किसी बाहरी सजावट की बजाय अंतर्मन के नग्न यथार्थ को प्रस्तुत किया, जहाँ अभिनेता अपनी देहभाषा, संवादों और मौन से ही चरित्र की आंतरिक यात्रा ओर अंतर्मन व्यक्त करने के लिए स्वतंत्र था।
यह स्थिति अभिनेता की कठिनतम परीक्षा लेती है, और इस परीक्षा में रवि कुमार ने अपना सर्वश्रेष्ठ दिया है। पिछले नाटक ताजमहल का टेंडर में पुंज प्रकाश के निर्देशन में गुप्ता जी की भूमिका में उनका प्रदर्शन औसत था। मगर इस नाटक में उनमें एक स्पष्ट विकास दिखता है और यह संभावना भी कि वे भविष्य में एक बेहतर अभिनेता बन सकते हैं।
इस प्रस्तुति में उन्होंने अपनी वास्तविक उम्र से अधिक उम्रदराज़ व्यक्ति की भूमिका निभाई, जिसके लिए उन्होंने शारीरिक रूपांतरण किया—एक बुजुर्ग की तरह चलना, शरीर को झुकाकर मंथर गति से चलना, और भारी आवाज़ में बोलना। यह उनकी बाहरी तैयारी को दर्शाता है। लेकिन इससे भी कठिन कार्य था कि निर्मल वर्मा के कोमल शब्दों का सही भावनात्मक भार उठाना, जिसे उन्होंने एक अभिनेता के रूप में बखूबी निभाया।
हालांकि, उनकी भारी और गाढ़ी आवाज़ कृत्रिम लगी। यदि रवि कुमार अपनी स्वाभाविक आवाज़ को थोड़ा बूढ़ा करके बोलें या उस भारी आवाज़ को और स्वाभाविक बना सकें, तो वे अभिनय के अगले स्तर पर पहुँच सकते हैं। इस कृत्रिमता के कारण छोटे-छोटे भावनात्मक क्षणों की पंक्तियाँ आवश्यक उतार-चढ़ाव से वंचित रह गईं, जबकि बड़े भावनात्मक दृश्यों—जैसे रोने या हँसने—में वे प्रभावी थे। प्रकाश पर राजीव राय का संचालन था, जो अभिनेता को ध्यान में रख कर किया गया था।
मगर एक प्रश्न यह है कि नाटक मूलतः एक दृश्यात्मक कला माध्यम है, तो इसे केवल निष्क्रिय दृश्यबंध और शब्दों तक ही सीमित क्यों रखा जाए? क्या यह नाटक की मूल दृश्यात्मकता पर अविश्वास नहीं है? दृश्य-सरलता प्रशंसनीय अवश्य है, मगर सरलता के साथ दृश्य की बहुअर्थिता को साधा जा सकता है, जो नाटक को कविता और संगीत के समकक्ष ले जाने में सक्षम बनाती है। यह दृश्य-बहुलता अभिनेता के सरल आंगिक अभिनय से भी प्राप्त की जा सकती है। अभिनेता का शरीर नाटक का सबसे महत्वपूर्ण और दृश्य उपकरण है। यदि कोई नाटक दृश्य-बहुलता के बजाय केवल संवादों पर निर्भर करता है, तो अभिनेता की आंगिक भाषा कमज़ोर पड़ सकती है। इस नाटक में भी यह समस्या थी कि दृश्यात्मकता का अभाव था और आंगिक अभिनय का पूरा उपयोग नहीं किया गया, जिससे यह केवल संवादों का मंचन बनकर रह गया और परिणामस्वरूप यह शब्द-बहुल नाटक या कथा के दृश्यात्मक पाठ की तरह रह गया।
एंटोनिन आर्तो अपने 'थिएटर ऑफ क्रुएल्टी' (Theatre of Cruelty, 1938.) के सिद्धांत में इस बात पर जोर देते हैं कि नाटक केवल शब्दों का माध्यम नहीं है, बल्कि दृश्यात्मकता, ध्वनियों, आंगिकता और प्रतीकों का संगम है। वे कहते हैं:
"Words are an insufficient vehicle for expressing the totality of human experience. The body, movement, and visuals must be equally significant."
सीनोग्राफी (दृश्य संरचना)नाटक की आत्मा होती हैं। दृश्य संरचना केवल पृष्ठभूमि नहीं होती, बल्कि वह नाटकीय अनुभव को आकार देती है। इसलिए नाटक की दृश्यात्मकता को बढ़ाने के लिए शब्दों के साथ-साथ अभिनेता के आंगिक अभिनय, मंच संरचना, प्रकाश व्यवस्था, और ध्वनि का बेहतर समायोजन किया जाना चाहिए। तभी नाटक केवल 'बोले गए शब्दों का मंचन' न होकर, एक संपूर्ण नाटकीय अनुभव बन सकता है।
'डेढ़ इंच ऊपर' का यह मंचन निर्मल वर्मा की गहन संवेदनशीलता और मौन की जटिलताओं को रंगमंच पर उकेरने का एक प्रयास था। परवेज़ अख्तर ने संवादों की मितव्ययिता और मौन की सघनता को मंच पर उतारकर कथा की मूल आत्मा को बनाए रखा, लेकिन दृश्यात्मकता की संभावनाओं को पूरी तरह नहीं खोजा।
परवेज़ अख्तर उन सीमित निर्देशकों में हैं, जिनकी अपनी एक निश्चित निर्देशकीय दृष्टि है—जो देवेंद्रराज अंकुर के 'कहानी के रंगमंच' की तरह है, मगर अपेक्षाकृत अधिक नाटकीय स्वरूप की ओर उन्मुख है। यह नाटक भी उनकी इस शैली का सशक्त उदाहरण है, जिसमें संवाद के शब्दों और अभिनेता की प्रमुखता को बरतने की कला को मास्टरक्लास की तरह सीखा जा सकता है।
परवेज़ अख्तर की इस शैली को उनके पूर्व निर्देशित नाटकों—साला मैं तो साहब बन गया, अर्थ दंश, अमृतसर आ गया है आदि में पहचाना जा सकता है। लेकिन बतौर कलाकार स्वयं को एक शैली तक सीमित रखना और इसे अपनी व्यक्तिगत आवाज़ या पहचान मान लेना, क्या अपनी अन्य रचनात्मक संभावनाओं को छोड़ देने जैसा नहीं है? परवेज़ अख्तर की निर्देशन शैली मेरे जैसे नए निर्देशकों के लिए भाषा और अभिनय को साधने का एक मूल्यवान पाठ हो सकती है, मगर लंबे समय से उनके निर्देशन में एक स्थिरता या ठहराव महसूस होता है। यदि वे अपनी इस कुशलता के साथ दृश्यात्मक प्रयोगों को भी शामिल करें, तो वे एक असाधारण निर्देशक बन सकते हैं, मगर लंबे समय से एक शैली पर ठहर कर स्वयं को दोहरा रहे हैं, जो उनके विभिन्न नाटकों में एकरसता के रुप में व्यक्त होती है।
संभवतः यह शैली निर्देशक परवेज़ अख्तर का सचेतन चुनाव है, जिसकी पैरवी कहानी के रंगमंचीय प्रस्तुतीकरण में देवेंद्रराज अंकुर भी करते हैं। और जिस चीज़ का निषेध निर्देशक ने अपने नाटक में किया है, उसे खोजना आलोचनात्मक त्रुटि हो सकती है। इस दृष्टिकोण से इस प्रस्तुति को आदर्श मंचन की संज्ञा दी जा सकती है।
इस प्रस्तुति में निर्देशक ने मंच को किसी बाहरी अलंकरण से भरने के बजाय पूरी तरह से अभिनेताओं के प्रदर्शन पर केंद्रित कर दिया। उनकी उपस्थिति किसी प्रत्यक्ष हस्तक्षेप की बजाय एक सूक्ष्म मार्गदर्शक की तरह रही, जिससे मंच पर निर्मल वर्मा की कथा-दृष्टि और चरित्र का अंतर्मन स्वतः आकार लेती गई।