यह इक्कीसवीं सदी की शुरुआत के आसपास का वक़्त था जब इस बात को गंभीरता से महसूस किया गया कि सभ्यता की वर्चस्वशाली धारा की वैचारिक या संवेदनात्मक पूंजी में उन अस्मिताओं का हिस्सा नहीं है जो इस धारा से अलग, दूर या इनके द्वारा उत्पीड़ित हैं। उसके बाद ही हिंदी कविता ने नगाड़ों की गूंज और जंगल की पीड़ा को ठीक से पहचानना शुरू किया। निर्मला पुतुल, अनुज लुगुन, जसिंता केरकेट्टा, वंदना टेटे और पूनम वासम जैसे कवि एक अलग सी संवेदना के साथ हिंदी के परिदृश्य पर उभरे।
इस आदिवासी कविता ने अपनी ओर सबका ध्यान खींचा है। अब इस कड़ी में एक नया नाम पार्वती तिर्की का जुड़ गया है जो पिछले कुछ वर्षों से लगातार रचनारत हैं। बीते दिनों साहित्य अकादेमी ने उन्हें उनके संग्रह ‘फिर उगना’ के लिए साहित्य अकादेमी युवा पुरस्कार से सम्मानित किया है। यह सम्मान उस आदिवासी कविता की स्वीकृति पर एक मोहर है जो अरसे तक हिंदी साहित्य में अनुपस्थित और अदृश्य रही। हालांकि इसके पहले यह सम्मान एक और आदिवासी कवि अनुज लुगुन को उनके संग्रह ‘बाघ और सुगना मुंडा की बेटी’ पर मिल चुका है।
पार्वती तिर्की को पढ़ते हुए एहसास होता है कि यह वह आदिवासी चेतना है जो तरहृ-तरह से अपनी अभिव्यक्ति खोज रही है। वह अपने ढंग से एक नई कविता लिख रही है जो उतनी ही पुरानी है जितनी उसके पुरखों की पहली स्मृतियां, लेकिन हमारे लिए नई हैं क्योंकि हम उन्हें नहीं देखते या नहीं देखना चाहते हैं। पार्वती तिर्की कुड़ुख समुदाय से आने वाली कवयित्री हैं। कुड़ुख उन भाषाओं में है जिनकी पढ़ाई रांची विश्वविद्यालय के क्षेत्रीय भाषा विभाग में होती है। पार्वती की भाषा में यह कुड़ुख स्पर्श इतना गहरा है कि कई बार एक नई और अनूठी हिंदी पढ़ने की प्रतीति होती है।
लेकिन यह भाषा नहीं, वह सांस्कृतिक बोध है जिसे पार्वती तिर्की अपनी कविता में बड़ी सरलता से संभव करती हैं। वे जैसे सीधे-सीधे दृश्यों को रचती हैं, स्मृतियों को रचती हैं, कम से कम कविता करने की कोशिश करती हैं, पुराने गीतों को रचती हैं और यह रचना कुछ इस तरह होता है कि उसमें एक जनजातीय स्पर्श अपनी सोंधी ख़ुशबू के साथ मौजूद मिलता है। वे बहुत संकेतों और अभिप्रायों की मदद भी नहीं लेतीं।
यह बिल्कुल निराभरण वाली कविता है जिसमें प्रकृति और मनुष्य बिल्कुल एक साथ पाईका (एक आदिवासी नृत्य) करते लगते हैं। संग्रह की पहली कविता है ‘करम चंदो’, तीन छोटे-छोटे खंडों में बंटी हुई। पहले खंड में एक पुकार है और एक दृश्य है- ‘संगी / भादो के आसमान में / चांद फूल खिल रहे हैं / भादों के डांड़ खेत में / सरगुजा फूल रहे हैं।‘ अब पांच पंक्तियों की हाइकूनुमा इस कविता का मतलब क्या है? मतलब सपाट पंक्तियों में नहीं मिलेगा- इनके सांस्कृतिक आशय में उतरने पर मिलेगा।
यह जानने पर मिलेगा कि छोटानागपुर (झारखंड के एक हिस्से का पुराना नाम) में सितंबर महीने में करमा नाम का त्योहार मनाया जाता है और उस दौरान उगे चांद को करम चंदो कहते हैं। इस मौसम में सरगुजा से सुनहरे फूल खिलते हैं जिनसे ‘अखड़े’ को सजाया जाता है। अब समझ में आता है कि यह कविता एक इशारा है ‘अखड़ा’ की सज्जा की प्रतीक्षा का भी। लेकिन फिर आपको जानना होगा कि अखड़ा क्या है। अखड़ा आदिवासी युवाओं के सामूहिक मिलन के केंद्र को कहते हैं। तो पांच पंक्तियां आपसे अनुरोध करती हैं कि इनमें बन रहे एक पूरे सांस्कृतिक दृश्य को समझें। यही नहीं, इस बीच यह कल्पना भी ज़रूरी है कि भादो का आसमान कैसा होता है और उसमें खिला चांद कितना सुंदर दिखता है।
यह सवाल पूछा जा सकता है कि कविता में ऐसे अपरिचित शब्द और संदर्भ डालने का क्या मतलब है कि लोग समझ ही न पाएं और कविता उनकी पकड़ में न आए? इसका पहला और सपाट जवाब तो यही हो सकता है कि कविता के साथ फुटनोट्स में इनके अर्थ दिए गए हैं। लेकिन बात इससे आगे जाती है। कविता एक आमंत्रण देती है कि आप अपरिचय की यह दीवार तोड़ें। इन शब्दों को जानें, इनके अर्थों को महसूस करें और तब एक नई सांस्कृतिक दुनिया से जुड़ें जिसे अब तक आप कुछ हेय दृष्टि से देखते रहे हैं। एक नया शब्द जानना एक पूरे संसार से परिचित होना भी है। पार्वती तिर्की बार-बार अपनी कविताओं में यह आमंत्रण देती है।
दूसरी बात यह कि इन कविताओं में एक सहज उल्लास दिखता है। यह नज़र आता है कि विस्थापन, बेदखली, सांस्कृतिक आक्रमण की प्रक्रिया ने एक बड़े आदिवासी समाज को भले ही बुरी तरह छलनी किया हो, लेकिन वह उनसे उनकी स्मृति और उसका उल्लास नहीं छीन पाया है। नगाड़ों पर उसके गीत अब भी गूंजते हैं, कविताओं में वह अकुंठ भाव अब तक नज़र आता है।
पार्वती तिर्की का तो पूरा कविता संसार इसी अकुंठ आदिवासी लय में बंधा हुआ है। बारिश के गीत, पंछियों के गीत, बाघ से बातचीत- जैसे एक पुराना खोया हुआ जंगल इन कविताओं में उतर आया है और सबसे संवादरत है। एक पुरानी सभ्यता अपना पता बता रही है, बता रही है कि उसने कैसे भाषा सीखी, कैसे बाघ को अपना भाई बनाया, कैसे चांद के साथ नृत्य किया, कैसे चीज़ों और भावनाओं को उनके नाम दिए।
एक कविता है ‘ख़ेख़ेल’ जिसमें कवयित्री एक पुरानी कथा कहती है। कथा के मुताबिक जलचर मनुष्य के अगुवा हैं- सबसे पहले कछुए ने समुद्र के अंतस्तल तक जाकर मिट्टी लाने का काम किया, फिर केकड़े ने आठ हाथों से मिट्टी उठाई और फिर जोंक ने मिट्टी अपने पेट में भरी और उसे ऊपर लाकर उगल दिया। ऐसे बनी ज़मीन और ऐसे बने पहाड़।
कहा जा सकता है कि ये अवैज्ञानिक कहानियां हैं। लेकिन इनमें जो मानवीय कविता छिपी है, धरती के विकास में मनुष्य के अलावा दूसरे- बिल्कुल मामूली जीवों- की भूमिका को पहचानने की जो मार्मिकता है, वह एक पूरी सभ्यता दृष्टि का पता देती है। इन कविताओं में देवता भी हैं ‘दइत’- यानी दैत्य भी, इन कविताओं में भूत भी आकर खेलते हैं, बाघ भी बात करता है, मेंढक भी नाचता है, तरह-तरह के फूल मिलते हैं, खुशबू मिलती है, और वह पूरा संसार मिलता है जिस पर हमला हो रहा है।
ऐसा नहीं कि कवयित्री इस हमले से अनजान है। बस इसकी खरोंच को वह अपनी कविता तक आने नहीं देना चाहती। हालांकि तब भी वह चला ही आता है- मगर नृत्य और गीत से परे नहीं। एक छोटी सी कविता है- उनके विद्रोह की भाषा- ‘धुमकुड़िया में / तीर-कमान बनाने के तरीक़े सिखाए जा रहे थे / हथियारों में धार डाली जा रही थी / कुछ लोग विद्रोह के गीत बुन रहे थे / वे नृत्य की भाषा में युद्ध करना चाहते थे / वे पाईका खेल रहे थे / गीत और नृत्य की भाषा में / वे अंततः बराबर हो जाना चाहते थे।‘
एक बात हालांकि कहनी चाहिए। पार्वती की कलम में अभी कच्ची मिट्टी वाला सोंधापन है। उनकी कविताएं अच्छी लगती हैं, एक नए संसार से परिचित कराती हैं, हिंदी के शब्दकोश में बहुत सारे नए शब्द जोड़े जाने का इसरार करती हैं, लेकिन उनको पकना बाक़ी है। वे कई बार दृश्यों में अटकी रह जाती हैं, वे कहीं-कहीं सपाट भी होती लगती हैं, लेकिन फिर भी उनको पढ़ने का अपना सुख है- जिसका वास्ता एक समाज को उसके अंतरंग उल्लास की घड़ियों में जानने से है।