पुस्तक समीक्षा: वे ईश्वर मुक्त अध्यात्म के कवि हैं

'परख' अशोक वाजपेयी जी के शब्दों में यह 'उनके जीवन का दिया गया सबसे लंबा साक्षात्कार है।' एक साक्षात्कार की पुस्तक होने के बावजूद इसकी संरचना कलात्मक है और जोखिम भरे प्रश्नों और उत्तरों से भरी भी। कवि पूनम अरोड़ा के द्वारा लिया गया यह साक्षात्कार अनवरतन तीन वर्षों तक चलता रहा था।‌ इस विशेष पुस्तक पर पढिये 'विमल कुमार' को-

Parakh

अंग्रेजी साहित्य में आपको बड़े-बड़े रचनाकारों के लंबे-लंबे और पुस्तकाकार इंटरव्यू पढ़ने को मिल जाएंगे, लेकिन हिंदी में लेखकों के लंबे एवम पुस्तकाकार इंटरव्यू का अभी भी अकाल है। आज़ादी से पहले प्रेमचन्द ,निराला, महादेवी आदि के इंटरव्यू जरूर पढ़ने को मिलते हैं पर वे लंबे इंटरव्यू नहीं हैं। तुलसीदास, कबीर, ग़ालिब के जमाने में इंटरव्यू की ऐसी सुविधा भी नहीं थी और चलन भी नहीं था। अगर होता तो हम उनसे उनके जीवन के बारे में, उनके रचनाकर्म के बारे में जान पाते। उनके समय में उनके स्टैंड, विचारों और दृष्टिकोण आदि से वाकिफ़ होते जो कई बार उनकी रचना को पढ़ते हुए पाठक नहीं जान पाता है। 

वैसे किसी रचनाकार को उसकी रचना के सही परिप्रेक्ष्य में जाना जाना चाहिए। इंटरव्यू से कई बार रचना को खोलने,‌ उसे विश्लेषित करने और रचनाकार को समझने में मदद मिलती है।

आजादी के बाद अज्ञेय, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा, नागार्जुन, निर्मल वर्मा, नामवर सिंह, राजेन्द्र यादव, शानी, विश्वनाथ त्रिपाठी जैसे लेखकों के कुछ महत्वपूर्ण इंटरव्यू जरुर प्रकाशित हुएहैं। हिंदी में कई लेखकों के इंटरव्यू से कई बार विवाद भी पैदा हुए हैं। पिछले दिनों ' संगत' के इंटरव्यू ने एक नई उत्तेजना पैदा की है। 'मेरे साक्षत्कार' सीरीज़ में कई लेखकों के इंटरव्यू पुस्तक के रूप में आये पर वे अलग अलग इंटरव्यूओं के संकलन हैं लेकिन वे भी बहुत लंबे इंटरव्यू नहीं हैं। अब तक हिंदी में ऐसा इंटरव्यू नहीं आया था जो एक पुस्तक के रूप में ही प्रकाशित हुआ हो यानी इंटरव्यू की किसी किताब में किसी एक लेखक के साथ संवाद किया गया हो।

हिंदी के प्रख्यात कवि संस्कृतिकर्मी और आलोचक अशोक वाजपेयी से पिछले दिनों हिंदी की युवा कवयित्री पूनम अरोड़ा ने एक लंबा इंटरव्यू लिया है जो 'परख' नाम से एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुआ है। अशोक जी इस समय हिंदी के सर्वाधिक सक्रिय एवम सफलतम लेखक हैं, जिन्हें अनेक पुरस्कार मिल चुके हैं, जिनकी कविताओं के सर्वाधिक भाषाओं में अनुवाद हो चके हैं, और वे एक लेखक के रूप में करीब 30 देशों की यात्रा कर चुके हैं। उनकी एक अंतरराष्ट्रीय छवि भी है। उनकी कीर्ति ऐसी है कि वे दुनिया के कई देशों में हिंदी के एक तरह से “राजदूत” बन गए हैं। वे हिंदी के गिने चुने नेतृत्वकर्ताओं में शामिल हैं और रज़ा फाउंडेशन के 'युवा कार्यक्रम' के माध्यम से आज उनके पीछे युवा लेखकों की एक फौज खड़ी है। किसी रचनाकार के जीवन काल मे हिंदी में सबसे अधिक लेख शायद उन पर ही लिखे गए हैं। लेकिन इतना कुछ होने के बाद शायद हिंदी समाज का एक वर्ग उनके कवि रूप को लेकर किंचित कम आश्वस्त है।

अशोक जी विवादों में अधिक रहे। लोगों का कहना है कि वे कुछ अपने बयानों के कारण, कुछ वाम विरोधी स्टैंड के कारण, तो कुछ अपनी अफसरी फितरत के कारण, विवाद में रहें पर उनके भीतर एक उदार, दयावान, संवेदनशील और लोकतांत्रिक मनुष्य भी रहता है।

कई लोग उनके सौंदर्यबोध से, वैचारिक दृष्टि से असहमत भी रहते हैं,पर कई लोग उनका विरोध वैचारिक आधार पर कम, निजी कारणों से अधिक करते रहे हैं। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो उनसे लाभ लेकर भी उनका साथ नहीं देते रहे हैं ,बल्कि निंदक भी हैं।

अशोक जी हिंदी के वाम समाज के लिए एक ग्रंथि बन चुके हैं और इसमें उनके वाम विरोध ने भी उत्प्रेरक का काम किया है। यद्यपि 2014 के बाद उनकी सत्ता विरोधी छवि सामने आई है और वे लगातार सांप्रदायिकता, फांसीवाद और हिंदुत्व तथा बाजार की संस्कृति के खिलाफ लिख बोल रहे हैं। इन दिनों उनका साहस अनुकरणीय है। इसलिए उनके इंटरव्यू में लोगों की दिलचस्पी रहती है। हिन्दी समाज जानना चाहता है कि वे साहित्य, समाज, राजनीति लोकतंत्र आदि के बारे में क्या सोचते समझते हैं।

करीब 250 प्रश्नों वाला इंटरव्यू

इस इंटरव्यू में पूनम अरोड़ा ने श्री वाजपेयी से करीब ढाई सौ प्रश्न पूछे हैं, और यह पूरा पूरा इंटरव्यू टुकड़ों टुकड़ों में कोविड काल में करीब 2 साल में लिया गया है। हिंदी साहित्य कि यह पहली घटना है जिसमें किसी युवा लेखक ने किसी वरिष्ठ लेखक से इतना लंबा इंटरव्यू लिया हो। इस इंटरव्यू का ब्लर्ब सुप्रसिद्ध आलोचक मदन सोनी ने लिखा है और उन्होंने उसमें कहा है कि -'अशोक वाजपेयी के अधिकांश साक्षात्कार विवादपरक यानी पॉलिमिकल हो जाते रहे हैं, उनमें से ज्यादातर उनके संस्कृतिकर्म को संबोधित है। इन वजह से इन साक्षात्कारों में एक कवि के रूप में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका प्राय: अलक्षित रही है। पूनम अरोड़ा की यह पुस्तक इस कमी को बहुत अच्छी तरह पूरा करती है।'

इस पुस्तक में अशोक जी के व्यक्तित्व के अलावा उनके जीवन प्रसंगों, रुचियों, अभिरुचियों, उनकी रचना यात्रा के अलावा साहित्य और संस्कृति के संदर्भ में उनके विचारों और दृष्टिकोण के बारे में भी प्रश्न पूछे गए हैं । इन सवालों का जवाब अलग-अलग इंटरव्यू में वे अलग-अलग समय पर भले देते रहे हैं, लेकिन चूंकि यह एक समग्र इंटरव्यू है, इसलिए उनके सारे विचार यहां पर एक जगह समाहित हैं और इससे उनके समग्र व्यक्तित्व के बारे में एक जगह ही पढकर जाना जा सकता है। जिन लोगों ने अशोक जी के सारे इंटरव्यू नहीं पढ़े हैं , जो समय-समय पर प्रकाशित होते रहे हैं, उन्हें इस किताब से उनके बारे में एक साथ सारी जानकारियां मिल सकती हैं। इस दृष्टि से इस किताब का बहुत महत्व है, हालांकि कुछ लोगों ने इसे दो लेखकों के बीच संवाद के रूप में देखने की कोशिश की है, लेकिन यह संवाद कम साक्षात्कार अधिक है। 

उपरोक्त किताबों में केदारनाथ अग्रवाल और राम विलास शर्मा की किताब 'मित्र-संवाद' और 'कृष्णा सोबती-बलदेव वैद संवाद' काफी चर्चित और लोकप्रिय रहे हैं ।लेकिन यहां दोनों लेखक उपरोक्त लेखकों की तरह समान आयु के और समानधर्मा भी नहीं हैं, इसलिए यह पुस्तक संवाद कम साक्षात्कार अधिक है। यहां किताब में पहले प्रश्न से लेकर अंतिम प्रश्न तक अशोक जी के विभिन्न आयामों को जानने पहचान और परखने की कोशिश की गयी है, हालांकि यह भी सच है कि अगर यह इंटरव्यू पूनम अरोड़ा ने नहीं बल्कि किसी वामपंथी या विरोधी खेमे के लेखक ने लिया होता तो शायद इस किताब की प्रकृति और स्वरूप तथा आस्वाद भी भिन्न होता है।

Ashok Vajpeyi

दरअसल कोई भी इंटरव्यू इस बात पर निर्भर करता है कि इंटरव्यू लेने वाला किस तरह के सवाल करता है और इंटरव्यू देने वाला उन सवालों का किस तरह जवाब देता है। इसलिए यह भी संभव है कि एक ही व्यक्ति से लिया गया अलग-अलग इंटरव्यू अलग-अलग आस्वाद लिए हुए हो। बहरहाल, पूनम अरोड़ा ने काफी मेहनत से और पूरी निष्ठा के साथ अशोक जी से सवाल किए हैं और उन्होंने कई महत्वपूर्ण प्रश्नों को उठाया भी है। 

इस इंटरव्यू से पता चलता है कि अशोक जी की पहली कविता 9 बरस की उम्र में प्रभु दयाल गुप्त की पत्रिका “ छात्र निधि” में प्रकाशित हुई थी जो पहले गणतंत्र दिवस की अभ्यर्थना में लिखी गई थी। लेकिन एक जगह अशोक जी ने 8 वर्ष की आयु में “भारती पत्रिका” में अपनी एक कविता दिनकर की कविता के नीचे छपने का भी जिक्र किया है। उनकी आरंभिक कविताएं कल्पना ,वसुधा, राष्ट्र वाणी ,आजकल, युग चेतना, सुप्रभात जैसी तब की प्रतिष्ठित पत्रिका में प्रकाशित हुई थी लेकिन उन्होंने इन्हें 1966 में प्रकाशित अपने पहले कविता संग्रह 'शहर अब भी संभावना है' में शामिल नहीं किया था। (अशोक जी पहले यह बता चुके हैं कि इस संग्रह का नामकरण नामवर सिंह ने किया था।

अशोक जी ने इस इंटरव्यू में यह भी बताया है कि उनकी आरंभिक प्रकाशित कविताओं में से 12 कविताओं को, उन्होंने अपने पहले संग्रह के 20 साल बाद प्रकाशित संग्रह ,'अगर इतने से' में शामिल किया था लेकिन उनकी लगभग 100 कविताएं उनकी दृष्टि में किसी मसरफ़ की नहीं थी तो उन्होंने उन्हें किसी पुस्तक में संकलित नहीं किया।

शिक्षक ने किया था अशोक वाजपेयी साहित्य की तरफ प्रेरित

इस इंटरव्यू से यह भी पता चलता है कि उन्हें उनके शिक्षक लक्ष्मीधर आचार्य ने साहित्य की तरफ प्रेरित किया था और जब अशोक जी 9वीं कक्षा पास कर गए तो उन्हें आचार्य जी द्वारा टैगोर की “गीतांजलि “के अंग्रेजी अनुवाद ,अज्ञेय का कविता संग्रह “हरी घास पर क्षण भर “और उपन्यास “ शेखर एक जीवनी” तथा सुमित्रा पंत के दो कविता संग्रह” स्वर्णधूलि “ और “स्वर्ण शिखर “नामक किताबें उपहार स्वरूप मिली थीं, जिसने उनके जीवन और कविता दोनों की राह बदल दी। उन्होंने भी बताया है कि पुस्तकालय में “कल्पना “पत्रिका आती थी और वह नियमित रूप से उसे पढ़ते थे। इन सब के कारण उन्हें साहित्य और कला के प्रति प्रेम जगा। 

अशोक जी का जीवन शासकीय सेवा के दौरान कई शहरों मसलन रायपुर ,महासमुंद भोपाल सीधी ,अंबिकापुर,ग्वालियर और दिल्ली में बीता। इसलिए उनके पास भिन्न शहरों के अनुभव भी हैं और शायद यही कारण है कि उनकी कविता के इतने रंग दिखाई पड़ते हैं। 

अशोक जी ने इस इंटरव्यू में एक जगह यह भी बताया है कि सीधी में समाजवादी दल द्वारा परती पड़ी सरकारी जमीन को जबरदस्ती जोतने का अभियान चला था तो 'जबरजोत' नाम की कविता उन्होंने लिखी थी। भोपाल में पदस्थ होने पर एक कनिष्ठ अधिकारी के साथ उनके जो अनुभव थे, वह भी उनकी लिखी गई कविताओं में आए। इस बीच मां और पिता का निधन हुआ तो उन्होंने मर्माहत होकर कविताएं लिखी। 

भोपाल गैस ट्रेजेडी के बाद उन्होंने अपने छोटे से बंगले के अहाते में लगे अमरुद ,पलाश के पेड़ और अपनी बेटी के लिए कविताएं लिखीं। फिर उनके जीवन के अनेक निकट लोगों की मृत्यु ने उन्हें जब आक्रांत किया तो भोपाल और ग्वालियर में मृत्यु और अनुपस्थिति पर कविताएं लिखी जो 'कहीं नहीं वहीं' में शामिल है। ग्वालियर में रहते मल्लिकार्जुन मंसूर के अस्वस्थ होने की खबर पर उनके लिए शुभकामना स्वरूप तीन कविताएं लिखीं। ग्वालियर में पदस्थ रहते कुमार गंधर्व का देवास में निधन हुआ तो उन्होंने 21 कविताओं का एक समुच्चय के रूप में बहुरि अकेला शीर्षक' से लिखा था।

इसके अलावा पेरिस और क्राकोव में 'इबारत से गिरी मात्राएं'  उम्मीद का दूसरा नाम' ,'कुछ रफू कुछ थिगड़े' 'दुख चिट्ठी रसा है' जैसी कविताएं लिखीं। उनके कविता संग्रह 'आवन्वियो' का नाम फ्रांस के एक प्राचीन शहर पर है।

इस तरह उनकी कविताओं की पृष्ठभूमि का पता चलता है, जो उनकी कविताओं पर काम करनेवाले शोधार्थियों के लिए महत्वपूर्ण हो सकता है।

इस तरह अशोक जी ने इस इंटरव्यू में अपने जीवन के उन प्रसंगों और कविता के परिवेश को बताने की कोशिश की है, जिससे नई पीढ़ी लगभग अनजान है। अशोक जी का मानना है कि-' लिखना एक दूसरी दुनिया में दाखिल होना है।' 

उनका यह भी कहना है कि कविता में वर्ण लिंग जाति धर्म क्षेत्र सब होते आए हैं और सच्ची कविता उन्हें तरह-तरह से प्रश्नांकित और अतिक्रमित भी करती रही है।' वे कहते - 'मुझे लगता है कि यह याद रखा जाना चाहिए कि हम भक्ति काव्य को उसकी धार्मिकता के लिए नहीं बल्कि संघर्ष आस्था से लिखने वाली सुंदरता,भाषा ,नवाचार आदि के लिए पढ़ते हैं। महादेवी और कृष्ण सोबती को कोई इसलिए नहीं पढ़ता कि वे स्त्री हैं ,बल्कि इसलिए कि उन्होंने उत्कृष्ट कृति रची है। दूसरी ओर यह सही है कि कई कृतियों और लेखक में उदाहरण के लिए नागार्जुन, रेणु, विनोद कुमार शुक्ल आदि में उनका क्षेत्र मुखर होकर बोलता है और इसे अनसुना कर उसका स्वाद लेना संभव नहीं।'

आपका आदर्श कवि कौन है?

अशोक जी से जब यह पूछा गया कि आपका आदर्श कवि कौन रहे हैं तो उन्होंने इसका जवाब इस तरह दिया है- ‘आदर्श कई तरह के हो सकते हैं। एक तो वह जिन्हें आप आदर्श तो मानते हैं पर जिनसे सीखी कविता लिखना आपका लक्ष्य नहीं होता है और दूसरे वह जो आपकी कविता को प्रभावित करते हैं और उसे दिशा देते हैं ।शुरू में सागर के शुरुआती माहौल में मैं भवानी प्रसाद मिश्र से प्रभावित था और” सुनो !कमल के फूल न तोड़ो” जैसी कविताएं हैं जो उनके प्रभाव में हैं पर बाद में अज्ञेय शमशेर का प्रभाव भी पड़ना शुरू हुआ।अज्ञेय से तत्सम का महत्व समझा और शमशेर से एक तरह की तरल इंद्रियता ली जिसे बाद में रघुवीर सहाय के प्रभाव ने भी सघन बनाया। मुक्तिबोध की कविता का मैं शुरू से प्रशंसक था पर यह भी जल्दी ही समझ में आ गया था कि उन जैसी कविता लिखना मेरे बस की बात नहीं हो सकती। वह आदर्श तो हैं पर अनुकरणीय नहीं है। अपने जीवन को अपनी कविता में इतना झोंक देना ना सिर्फ मेरे बल्कि उनके प्रशंसक दूसरे कवियों के लिए भी संभव नहीं हुआ। उतना बीहड़ होना हमारी आकांक्षा से दूर की बात थी। “

जहां तक विदेशी कवियों के प्रभाव की बात है, अशोक जी पर आरंभ में रिल्के और पाब्लो नेरुदा दो बहुत भिन्न कवियों का प्रभाव भी पड़ा। पहले संग्रह की कविता 'एक आदिम कवि का प्रत्यावर्ततन' में नेरूदा के स्पर्श की छाया है लेकिन कुछ रिल्के तत्व भी उनकी कविताओं में है।

अशोक जी येट्स, इलियट और वालेस स्टीवेंस से भी प्रभावित रहे है। उनक़ा कहना है कि एम ए के बाद अगर मैं पीएचडी करता तो शायद स्टीवेन्स की कविता पर करता।

अशोक जी ने कबीर-गालिब अज्ञेय ,मुक्तिबोध और शमशेर की पंक्तियों को शीर्षक बनाकर कविताएं लिखी हैं। उन्हें कई बार यह लगता है कि प्रसाद हिंदी में वह शीर्ष स्थान नहीं ले पाये जबकि वह अपनी महाकाव्यात्मक कल्पना और प्रखर चिंतन के आधार पर सर्वप्रथम सुपात्र थे। उन्हें श्रीकांत वर्मा का क्रोध कविता में बहुत सच्चा लगता है जैसा कि उनका विफलता बोध भी। पुस्तक में उन्होंने अनेक विदेशी कवियों विचारकों के नाम गिनाए हैं जिनका प्रभाव उन पर पड़ा। इस तरह अशोक जी एक ग्लोबल कवि हैं, वे त्रिलोचन की तरह जनपद के कवि नहीं हैं।

अशोक जी मानते हैं कि कविता अदृश्य को देखती है, अकथ को कहती है, वह एक तरह रहस्य में निवास करती है ,वह लेखक के अनुभव से पुनराविष्कार करती है। वह आपके अनुभव और देखे गए दृश्यों में कुछ नया जोड़ती है। उनक़ा यह भी मानना है कि कविता शब्द के साथ-साथ ध्वनि का भी संयोजन है और उसमें अन्तर्ध्वनियाँ भी होती हैं। उसमें ध्वनि चित्रलिखित या बिंबलिखित भी हो सकती हैं। अच्छा कवि शब्द के साथ-साथ ध्वनि और रंग को भी साधता है। कविता से आत्मिक संतुष्टि कभी कभी मिलती है। बेचैनी के बिना कविता संभव ही नहीं होती है।

धर्म, कला, कविता, लोकतंत्र, राज्य, सत्ता, समाज, संस्कृति पर राय

इस किताब से पाठक अशोक जी की धर्म, कला, कविता, लोकतंत्र, राज्य, सत्ता, समाज, संस्कृति आदि के बारे में राय से वाकिफ होते हैं। उन्होंने इस इंटरव्यू में कहा है - 'मुझे धार्मिक आस्था का वरदान नहीं मिला। धर्म के जो पारिवारिक संस्कार थे वे 17 18 वर्ष की उम्र होते-होते शिथिल पढ़ते गए और जल्द ही पूरी तरह से गायब हो गए। इसलिए ऐसी आस्था कविता का आधार नहीं बन पाई- 'कभी-कभी मैंने इसे ईश्वर विहीन अध्यात्म की संज्ञा दी थी। मेरी यह समझ बनती है और गहरी होती गई है कि साहित्य और कलाएं हमारे समय में अध्यात्म की भी विधाएं हैं, जो धर्मों से बहिष्कृत हैं। धर्म मुक्त अध्यात्म संभव है। इस विचार ने मुझे प्रभावित किया है, .भला ऐसा मानने में व्यापक रूप से हिचक है पर मैं तो कविता को सामाजिक संस्कार ही मानता हूँ। उसका आत्म जनित होकर भी संबोधित होना इसका स्पष्ट और अकाट्य साक्ष्य है।'

अशोक जी साहित्य को केवल बहिरंग की वस्तु नहीं मानते, वे उसे अंतरंग की भी वस्तु मानते हैं। इसलिए आत्म पर, निजता पर, एकांत पर भी जोर देते हैं। वे मानते हैं कि कविता केवल यथार्थ का  बखान नहीं है, बल्कि वह एक तरह की पुनर्रचना है, इसलिए कवि एक प्रतिसंसार बनाता है जो समाज में दिख रहे यथार्थ को संबोधित होते हुए भी उसकी अनुकृति भर नहीं होता है।यानी रचना का सत्य हमेशा समाज और जीवन के सत्य से बड़ा सत्य होता है।'

अशोक जी साहित्य की स्वायत्तता के पक्षधर हैं।  एक पृथक डिसिप्लीन की तरह। यह केवल भाषा का मामला नहीं, बल्कि उसकी अलग इयत्ता है,स्वायत्तता है , स्वतंत्र अस्तित्व है। यह इतिहास ,राजनीति दर्शन की तरह एक अलग विधा है जो स्वतंत्र इकाई भी है।वह किसी की पिछलग्गू नहीं इसलिए वे साहित्य को विचारधारा का उपनिवेश नहीं मानते।

अशोक जी समय-समय पर अपने भाषणों में इन बातों को कहते रहे हैं। जो लोग गत तीन चार दशकों से उन्हें फॉलो करते रहे हैं, वे उनकी इन स्थापनाओं से परिचित हैं। लेकिन उन सारी स्थापनाओं को एक साथ देखने-पढ़ने से एक समग्र अशोक वाजपेयी को देखा समझा जा सकता है।

क्या अशोक जी की अनुपस्थिति में उनका एक और मूल्यांकन होगा जो तटस्थ होगा? हिंदी में लेखकों का सम्यक मूल्यांकन उनके नहीं रहने पर ही होता है। हिंदी की यही परम्परा और प्रकृति रही है। किसी लेखक के जीते जी बहुत तरह के आग्रह और पूर्वग्रह भी काम करते हैं।

फिलहाल ,यह किताब उन पर लगे धुंध को मिटाने का काम जरूर करती नजर आती है। इस इंटरव्यू के आलोक में उनके कवि रूप पर नए सिरे से बात हो सकती है,भले ही आलोचक उन्हें खारिज करना चाहते हों पर उन्हें पहले इस इंटरव्यू के आलोक में कवि को समझना परखना होगा।

किताब :परख
विषय-साक्षात्कार
साक्षात्कार-कर्ता- पूनम अरोड़ा
प्रकाशक : सेतु प्रकाशन
,पेज - 196
कीमत - 295
प्रकाशन वर्ष- 2025

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