उड़िया लेखक और 'साहित्य अकादमी' प्राप्त 'तरुण कांति मिश्र' की यह कहानी प्रेमचंद की चर्चित कहानी 'बड़े भाई साहब' की सूक्ष्मतम स्मृति दिलाने के साथ-साथ बाल मनोविज्ञान और मानव मन की दुरुहताओं और कोमलताओं को भी बहुत घनिष्टता से बयान करती है।
इस कहानी की अनुवादक और युवा कथाकार 'आयशा आरफी़न' कम लिखकर भी बहुत जानी जानेवाली और अपनी खास पहचान रखनेवाली लेखिकाओं में से हैं। इसकी खास वजह है मनोविज्ञान और परिवेश दोनों पर उनकी मजबूत पकड़ और भाषा और शिल्प में उनकी सहज रवानी। अनुवाद के क्षेत्र में भी उनकी कलम बेहद सधी हुई और परिपक्व है, जिसका उदाहरण है प्रस्तुत उड़िया कहानी 'भाई' का यह अनुवाद, जिसकी सहजता और रवानी किसी मूल कथा पढ़ने का सा आस्वाद देती है।
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कहानी: तरुण कांति मिश्र
अनुवाद: आयशा आरफ़ीन
भाई
वो मुझसे बेपनाह मोहब्बत करता था।
वो मुझसे सात साल छोटा था। कहते हैं उसके जन्म के वक़्त माँ को बेहद तकलीफ़ से गुज़रना पड़ा था। शदीद तकलीफ़ थी, ऐसा लगा मानो माँ मर ही जाएगी। शुरू-शुरू में वो नवजात मुझे बड़ा ही गंदा मालूम हुआ। बेबी-पाउडर और ज़ैतून के तेल की मुश्क मुझे अच्छी नहीं लगती थी। उसके पेशाब, पाख़ाने और उल्टी की बदबू भी बेबी-पाउडर और ज़ैतून के तेल जैसी ही थी, जो मुझे और भी ज़्यादा नागवार गुज़रती थी।
माँ कहा करती, तेरा नन्हा सा भाई है न, थोड़ा बहुत दुलार कर ले इसे।
मैं सिर्फ़ माँ को ख़ुश करने के लिए उससे दुलार किया करता था।
वो बड़ा हो गया। इतनी जल्दी कि सोच भी नहीं सकते। उसने तीन साल गुज़ार लिए और मैं दस साल का हो गया।
ज़रा ग़ौर करें कि क्या पाँचवीं कक्षा में पढ़ने वाला लड़का, घर में मुसलसल शरारत करने वाले छोटे से बच्चे का, कभी दोस्त हो सकता है भला? मेरे कई दोस्त मेरे सहपाठी थे। दीपक, कमलेश, रिंटू। हम सब ख़ूब मस्ती किया करते थे। रिंटू के पास एक पुराना गिटार और कमलेश के पास काफ़ी पैसा था। हमारी छुट्टियों के दिन ख़ूब मज़े से कट जाते थे।
मेरा छोटा भाई, टिकुन, हमें बहुत परेशान करता था, ख़ास तौर पर मुझे। वो तो दिन भर मुझे परेशान करता ही रहता था। मैं स्कूल जाने के लिए जब जल्दी-जल्दी नाश्ता कर रहा होता और माँ से पानी माँगता, टिकुन जहाँ भी होता, ये कहते हुए दौड़ा चला आता, ‘मैं भैया को पानी दूँगा, मैं भैया को पानी दूँगा।’ वो ग्लास में पानी ला रहा होता। अचानक पैर फिसलने से गिरता और सारा पानी उछल कर मेरे ऊपर आ गिरता। मैं भीग जाता, स्कूल के कपड़े भीग जाते। उसके बाद हाथ पैर पोंछो, कपड़े बदलो, ये सब बेहद परेशानी का कारण बनता। मगर माँ उस वक़्त मेरी मदद नहीं करती थी। वो सिर्फ़ टिकुन के लिए परेशान होती थी, कहीं उसे चोट तो नहीं लगी। कभी-कभी वो अपना सर सहलाते हुए रोता तो माँ डर जाती, कहीं उसके सर में गहरा ज़ख़्म तो नहीं हो गया है।
मैं सुकून से पढ़ रहा होता तो भी मुझे वो पढ़ने नहीं देता, मेरे हाथ से क़लम छीन कर उसे निहारने लग जाता, मेरी किताब-कापियाँ उलट-पुलट देता, कभी ज़रा-सी फाड़ भी देता, मेरे जूते पहन कर ये देखता कि उसे वो फ़िट हो रहे हैं या नहीं। कभी कहता, “ये देखो भैया के जूते मुझे आ गए, अच्छे से आ गए।”
नये कपड़े पहनने के मुक़ाबले उसे मेरे छोटे हो चुके पुराने कपड़े पहनने में ज़्यादा लुत्फ़ आता। मेरी तमाम व्यस्तता, तमाम काम, वो बड़े ग़ौर से देखा करता। अक्सर ताली बजा कर नाचने लगता, एक दफ़ा बोला, “वाह! वाह! भैया ने बंदर की कितनी अच्छी तस्वीर बनाई, वाह! वाह!” मैं चिढ़ गया, “अरे बेवक़ूफ़! तुझे ये बंदर की तस्वीर लगती है? ये तो आइन्स्टाइन की तस्वीर है, दुनिया के सबसे अक़्लमंद इंसान की। बेहद अच्छे इंसान।”
टिकुन, जो अपनी उम्र के लड़कों में शायद सबसे बुद्धू था, तस्वीर को दोबारा देखता। ताली बजाता, वाह! वाह! वाह! भैया ने कितना अच्छा बनाया है!
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अपने साथ टिकुन को कहीं ले जाने में मुझे वाकई बड़ी शर्म आती। ख़ास तौर पर अपने दोस्तों के दरमियान। हम दोस्त कई तरह की बातें करते: पढ़ाई की, खेल की, अपने शिक्षकों की। वो थोड़ी बहुत बातें सुनता, फिर दौड़ने भागने लगता, उछलने-कूदने और नाचने लगता। थोड़ी देर बाद मेरे पास आकर कहता: भैया क्या तुम पेशाब करने नहीं जाओगे? मुझे भी पेशाब करने जाना है। रिंटू हँसने लगता, कमलेश और भी ज़ोर से हँसता। मुझे शर्म आ जाती।
मेरी माँ ग्रामीण बैंक में और बाबा तहसील ऑफिस में काम करते हैं। बाबा ऑफिस से किसी भी वक़्त घर आ सकते थे, मगर माँ नहीं। क्योंकि माँ की ज़रूरत बैंक में कभी भी पड़ सकती थी। माँ को बैंक से लौटते हुए शाम हो जाती। वो मेरे स्कूल से घर आने के काफ़ी देर बाद घर लौटतीं। उनके घर आते ही मैं टिकुन के खिलाफ़ अपनी सारी शिकायतें शुरू कर देता। छोटी मासी, जो हमारे घर में दिन भर रहतीं, को गवाह बनाता। माँ मान लेती कि मेरी सारी शिकायतों में दम है मगर माँ टिकुन पर ज़्यादा ग़ुस्सा नहीं करतीं, अलबत्ता समझा ज़रूर देतीं मगर मेरे लिए इसकी कोई अहमियत नहीं थी। माँ मुझे दुलार करती, ममता भरी बातें करतीं, जो कुछ भी मैं मांगता मुझे देतीं मगर फिर भी मुझे लगता कि टिकुन को सज़ा तो मिलनी ही चाहिए थी।
कुछ देर बाद टिकुन मेरे पास फिर आ जाता, “भैया! अब मैं वो सब नहीं करूँगा। तुम्हारी पेंसिल दाँत से नहीं काटूँगा, तुम्हारी क्रिकेट बॉल को हाथ नहीं लगाऊँगा, सच, सच, सच, भैया! तुम अमरूद खा रहे हो। किसने दिया तुम्हें, माँ ने?”
मैं जानता हूँ कि उसका दिल अमरूद खाने के लिए मचल रहा है, पर मैं वो उसे नहीं देता। वहाँ से उठकर मैं दूसरी तरफ चला जाता हूँ।
वो मुंतज़िर रहता है। मैं जब भी घर से कहीं जाने के लिए निकलता हूँ, वो मेरे पीछे-पीछे चल देता है। मैं उसे धमकाता हूँ, डराता हूँ, मगर वो मेरे पीछे ऐसे चलता है जैसे उसने कुछ सुना ही नहीं। कुछ दूर जाने के बाद, वो मेरा हाथ पकड़ने की कोशिश करता है। मैं उसका हाथ झटकता हूँ, तेज़ क़दम बढ़ाता हूँ, वो कुछ पीछे रह जाता है, फिर दौड़ते हुए मेरे क़रीब आता है और मेरा हाथ पकड़ने की दोबारा कोशिश करता है।
जब कभी मेरी तबीयत ख़राब होती है, वो मुझे छोड़ कर कहीं नहीं जाता, मेरे बिस्तर पर, मेरे सिरहाने ही बैठा रहता। माँ उसे मना करती, रोकती, ग़ुस्सा करती, कहती, चल भाग यहाँ से, भैया का बुखार तुझ पर कूद जाएगा, फिर मेरी जान खा जाएगा तू, चल भाग...
वो राजा बेटे की तरह उठ कर चला जाता, बिना कुछ कहे। जब माँ काम में व्यस्त रहती या ऑफिस चली जाती, तब वो मेरे पास फिर से आकर बैठ जाता। भैया, तुम्हारा सर सहला दूँ, ओ भैया, तुम्हारे पैर दबा दूँ?
मेरे जवाब को सुने बग़ैर वो मेरे पैर दबाने लगता, मेरे गाल चूम लेता। पूछता, भैया! क्या तुमको ज़्यादा दर्द हो रहा है?
उफ़्फ़! चल भाग यहाँ से। गंदा कहीं का...
मैं अपने गाल से उसका राल भरा बोसा पोंछने लगता।
वो मेरे पास से हट जाता और दूर खड़ा हो जाता।
गर्मियों की छुट्टियों में हम ख़ूब मस्ती करते। हमसे मेरा मतलब है, मैं ,कमलेश और रिंटू। दीपक अपनी मासी के यहाँ पुरी गया हुआ था। क्रिकेट खेलना, वीडियो गेम, काग़ज़ के हवाई जहाज़, डींग-डोंग बेल प्रोजेक्ट।
डींग-डोंग बेल बनाते वक़्त रिंटू ने कहा: जानते हो, कोचिला के जंगल में एक झरना है। उसमें एक दमकता याक़ूत पत्थर मिलता है।
फेंकू, फेंकू!
कमलेश बोल पड़ा। मैंने मालूम किया था, ये सच है।
हाँ सच है, भवानी ने देखा है। वो एक बार अपने मामा के साथ वहाँ गया था, मुझे लाकर दिखाया भी था उसने । तीन याक़ूत के पत्थर।
याक़ूत की एक ख़ास बात होती है। अगर तुम्हारे पास याक़ूत है तो वो तुम्हारी तीन मुरादें पूरी करेगा। फिर वो काला पड़ जाएगा। काला पड़ जाने के बाद उसे अपने पास रखना ख़तरनाक होता है।
इस बात ने मुझे बहुत हैरान किया। मैंने याक़ूत पत्थर कभी नहीं देखा था।
एक बार कोचिला जंगल चलते हैं। सभी सहमत थे। कोचिला वन हमारे शहर से कुल दो किलोमीटर दूर है, झरी पहाड़ के क़रीब। ये जंगल इतना भयानक भी नहीं है। यहाँ शेर या भालू नहीं हैं, साँप-वांप ज़रूर हैं।
एक मुनासिब दिन देख कर हम वहाँ गए। साइकिल से जाना मुश्किल होता, लिहाज़ा पैदल ही चल पड़े।
माँ और बाबा को मेरे इस प्लान की कोई ख़बर न थी। मगर टिकुन जानता था। मुझे याद नहीं रहा कि डींग-डोंग प्रोजेक्ट बनाने के दौरान टिकुन हमारे पास ही मौजूद था। वो हैरानी भरी नज़रों से देख रहा था कि हमारी बनाई मशीनों से किस तरह की आवाज़ें निकाल रही हैं और किस तरह की बत्तियाँ जल रही हैं। वो ज़रा भी हमें परेशान नहीं कर रहा था, बल्कि थोड़ी बहुत मदद ही कर रहा था।
मैं जब जूते पहन रहा था, वो मेरे पास आया। बोला, भैया मैं तुम्हारे साथ जाऊंगा।
चल भाग!
वो बिना कुछ बोले अपने जूते पहनने की कोशिश करने लगा।
ख़बरदार! तू मेरे साथ नहीं जा सकता।
वो अपने एक पैर में जूता पहन चुका था, दूसरा जूता पहनने में उसे परेशानी हो रही थी।
तुझे मैं हरगिज़ नहीं ले जाऊंगा। जा, छोटी मासी के साथ बैठकर लूडो खेल। जा...
घर पर माँ और बाबा नहीं थे। दोनों ऑफिस में थे। घर पर सिर्फ़ छोटी मासी थी। उनसे कोई बहाना बना कर घर से बाहर जाना मुश्किल न था।
रास्ते में जाते वक़्त मैंने देखा, टिकुन मेरे पीछे-पीछे हौले-हौले चला आ रहा है। पहले मैं उसे देख नहीं पाया था। तारिणी मंदिर के चौराहे से रास्ता बदलते वक़्त मेरी नज़र उस पर जा पड़ी। वो जल्दी-जल्दी चलने लगा। उसके एक पैर में जूता था और दूसरा पैर ख़ाली था। दूसरे पैर का जूता उसने अपने हाथ में थाम रखा था। मेरी नज़रों से जब उसकी नज़रें मिलीं, तो वो मुझे पुकारने लगा, भैया भैया...
मैंने नज़रें फेर लीं और तेज़ी से चलने लगा। मैंने ज़ोर से चीख़ कर कहा, जा भाग, जा चला जा कहता हूँ। मैंने फिर मुड़कर नहीं देखा, सोचा उसको नज़रअंदाज़ करूँगा तो ख़ुद ही घर लौट जाएगा।
उसके बाद वो कहीं दिखाई नहीं दिया।
नाका-चेक गेट के पास, रिंटू और कमलेश मेरा इंतज़ार कर रहे थे। वहाँ से कोचिला जंगल मज़ीद डेढ़ किलोमीटर और दूर है। कमलेश ने अपना काला चश्मा मुझे पहना दिया। उसके प्लास्टिक के डिब्बे में केक, क्रीम बिस्कुट और च्युंगम थे। रिंटू के बैग में पानी की बोतल, आलू-चिप्स और कुछ केले थे। मेरे हाथ में कैमरा और माउथ-ऑर्गन थे। आख़िर वन भोज के लिए और क्या चाहिए!
काला चश्मा पहने, चारों तरफ़ देखते हुए, मैं अपने दोस्तों के साथ आगे बढ़ता गया। चश्मा पहन कर वाक़ई दुनिया कितनी अलग नज़र आती है। कायनात का पूरा रंग ही तब्दील हो जाता है।
मुझे लगा पीछे से टिकुन मुझे पुकार रहा है, भैया, भैया।
मैंने पीछे पलट कर देखा, कहीं कोई नहीं था, सड़क सुनसान थी। मेरा वहम है शायद, वरना रिंटू या कमलेश में से किसी को तो उसकी आवाज़ सुनाई देती!
भैया, भैया, मैं साथ चलूँगा। चारों ओर सन्नाटा था। मैंने रिंटू से पूछा, पीछे से कोई आवाज़ दे रहा है क्या?
नहीं, कोई भी तो नहीं है।
वो दिन बहुत अच्छा गुज़रा। हमने ख़ूब मज़े किए। जंगल से आँवले तोड़ कर खाये, अंजाने फूलों की कलियाँ और बीज तोड़े, झरने के पानी में पैर डुबो कर काफ़ी देर तक बैठे केक और केले खाते रहे।
याक़ूत पत्थर भी साथ लाये थे। पाँच पत्थर थे। मेरे हिस्से में दो पत्थर आए।
घर पहुँचते-पहुँचते शाम हो गई। माँ और बाबा घर नहीं लौटे थे। छोटी मासी ने पूछा, टिकुन कहाँ है?
टिकुन?
इस सवाल का जवाब कोई नहीं दे पा रहा था, न तारिणी मंदिर का पुजारी, न नाका-गेट का चौकीदार, न ही रास्ते से आने जाने वाला कोई शख़्स। साढ़े-तीन साल का बच्चा, जिसने नीली और ख़ाकी रंग की क़मीज़ और काले रंग की हाफ़ पेंट पहन रखी थी, जिसके एक पैर में जूता और दूसरा पैर ख़ाली था, कोई ऐसे किसी बच्चे के बारे में नहीं बता पाया।
कोचिला जंगल कोई घना जंगल नहीं है, हमारा शहर भी एक छोटा शहर है, फिर टिकुन कहाँ ग़ायब हो गया?
टिकुन नहीं मिला। हम सब उसे सारी रात सड़कों पर, जंगल में, झरने के किनारे तलाश करते रहे। वो कहीं नहीं था। उसकी आवाज़ कहीं नहीं सुनाई दी: भैया, मैं यहाँ हूँ, बाबा मैं यहाँ हूँ।
रात के अंधेरे में झरने का किनारा भयानक लग रहा था। यही झरना दिन की रोशनी में, सूरज की चमकती किरणों में कितना ख़ूबसूरत लग रहा था। जंगल में एक डरावना सन्नाटा सनसना रहा था। ये सन्नाटा माँ की बेचैन पुकार से बीच-बीच में टूट जाता था। मैं भी उसे पुकार रहा था। हरी मौसा, बाबा, रिंटू, सभी उसे पुकार रहे थे।
जो कहीं भी होता मेरे एक बार बुलाने से दौड़ा चला आता, मेरे गले से झूल जाता, मेरी आवाज़ सुनकर भी वो क्यूँ ख़ामोश है। आख़िर कैसी नाराज़गी है? ये सच है कि मैं उससे हमेशा चिढ़ता था, डाँटता भी था। मगर क्या ये वो नहीं जानता कि मैं उसे बेपनाह चाहता भी हूँ, दो अमरूदों में से अच्छा अमरूद उसे छांट कर देता, जाड़े की रातों में मोटी गरम चादर उसे ओढ़ा देता। उसके लिए मैंने चोरी भी की है: चावल और नारियल से बनी मिठाई, क्रीम-बिस्कुट,
काजू-बर्फ़ी।
जंगल में रात को मैंने वो दो छोटे-बड़े याक़ूत के पत्थर निकाले। पेशानी से उन्हें लगा कर कहा, हे भगवान! मुझे और कुछ नहीं चाहिए, मुझे तीन मुरादें नहीं पूरी करनी, मेरी सिर्फ़ एक ही मुराद पूरी कर दे, सिर्फ़ एक, टिकुन को लौटा दे। तुझसे अपनी सारी उम्र और कभी कुछ नहीं मांगूँगा।
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लेखक:
उड़िया कथाकार, तरुण कांति मिश्र, का जन्म 1950 में ओडिशा के केंदुझर ज़िले में हुआ. स्नातक उत्कल विश्वविधालय से किया और परास्नातक यू॰के॰ से. 1975 में भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयनित हुए. 2010 से 2015 के दरमियान वो ओडिशा राज्य के चीफ़ सेक्रेटरी रहे.
मिश्र ने लगभग 250 कहानियाँ और एक उपन्यास लिखा है. उनके कहानी संग्रह “भास्वती” को 2019 में केंद्रीय साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा गया. उड़िया साहित्य में योगदान के लिए उन्हें 2001 में सरला देवी सम्मान से सम्मानित किया गया. उन्हें महाराजा श्रीरामचंद्र भंज देव विश्वविद्यालय से डी. लिट. की उपाधि भी प्राप्त है.
अनुवादक: आयशा आरफ़ीन
वनस्पति विज्ञान में स्नातक, जे.एन.यू., नई दिल्ली से समाज शास्त्र में एम.ए., एम.फिल., पी.एच.डी.
जनवरी 2020 में पहली कहानी प्रकाशित. अब तक बारह कहानियाँ प्रकाशित.
परिकथा, अकार, वागर्थ, पक्षधर, उद्भावना, वर्तमान साहित्य, वनमाली कथा, दोआबा, समालोचन आदि पत्रिकाओं में कहानियाँ प्रकाशित. अंग्रेज़ी, उर्दू, और ओड़िया भाषाओँ से हिंदी में अनुवाद. संस्कृति, साहित्य और सिनेमा से सम्बंधित कई शोध-पत्र प्रकाशित.
E-mail: [email protected]