नासिर काजमी: वो तेरी याद थी नासिर, अब याद आया

आज मशहूर हिन्दी शायर नासिर काजमी (1925-1972) की जयंती है। नासिर काजमी की जबान मीर और नजीर अकबराबादी की रवायत के करीब है। यह महज संयोग नहीं है कि मीर तकी मीर नासिर काजमी के प्रिय शायर थे।

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नासिर काजमी (1925-1972)। फोटोः इंस्टाग्राम (nasirkazmiofficial)

आज मशहूर हिन्दी शायर नासिर काजमी की जयंती है। पिछले साल हिन्दी-उर्दू की गलियों में गुजरते हुए नासिर काजमी से जुड़े कुछ वीडियो से गुजरना हुआ। उसी समय फिराक गोरखपुरी के बारे में भी थोड़ी जानकारी बढ़ा रहा था। यह जानकर हैरत हुई कि नासिर काजमी को भी फिराक बहुत पसन्द थे। यहाँ तक कि बकौल शमीम हनफी नासिर के एक करीबी दोस्त कहते थे कि नासिर जब भी मिलते थे तो फिराक का जिक्र किये बिना नहीं जाते थे। यहाँ तक कि उन दोनों की आखिरी मुलाकात में भी नासिर जाते-जाते कहते गये कि जा रहे तो तो फिराक का यह शेर सुनते जाओ।

जब मैं नासिर काजमी से जुड़ी चीजों को इंटरनेट पर खोज-खोज कर पढ़ रहा था उसी दौरान वरिष्ठ पत्रकार आनन्द स्वरूप वर्मा के घर जाना हुआ। वहाँ भी नासिर काजमी की बात निकल आयी तो वर्मा जी ने करीब 25 साल पहले हिन्दी में प्रकाशित नासिर काजमी संचयन मुझे पढ़ने के लिए दे दिया। जाहिर है कि वर्मा जी नासिर काजमी की रवायत के लोग हैं जो बहुमूल्य संग्रहणीय किताब से ज्यादा इस बात को तवज्जो देते हैं कि कोई नासिर काजमी को पढ़ना चाहता है।

नासिर काजमी में मैं क्यों अटका, इसके कई कारण हैं। एक कारण तो यही था कि कॉलेज लाइफ से हिन्दी-उर्दू शायरी में उलझे रहने के बावजूद नासिर काजमी मेरे लोकवृत्त से बाहर थे। पिछले कुछ समय से पेडागाजी (लोकशिक्षा) भी मेरी चिन्ता के दायरे में है तो नासिर काजमी के कद का अन्दाजा होते ही मेरे जहन में पहला सवाल यही आया कि क्या बात है कि हमारी पीढ़ी ने या तो मीर-गालिब-दाग को जाना या फिर फैज-फराज को। भारत की 2010 के बाद बालिग हुई पीढ़ी ने जॉन एलिया को हासिल किया। हमारी पीढ़ी में हिन्दी लोकवृत्त में जॉन एलिया का नाम भी कम से कम हिन्दी समाज में चर्चित नहीं था। नासिर काजमी का नाम जानते थे, मगर उनके अदबी कद का अन्दाज नहीं था। आप कह सकते हैं कि जब हिन्दी के प्रगतिशील दायरे में फिराक गोरखपुरी पर ही बहुत कम चर्चा होती है तो उनके आशिक नासिर काजमी को कोई क्यों पूछता! हो सकता है कि प्रगतिशील बौद्धिक दायरे में मार्क्सवादी विचारकों का बोलबाला रहा है तो यहाँ उन शायरों को ज्यादा जगह मिली जो या तो क्लासिक कहे जा सकते थे या फिर 'वामपंथी'। खैर, जो भी हो। मुझे नासिर काजमी की जिस चीज ने अपनी तरफ ज्यादा खींचा है वो है उनकी जबान।

नासिर काजमी की जबान मीर और नजीर अकबराबादी की रवायत के करीब है। यह महज संयोग नहीं है कि मीर तकी मीर नासिर काजमी के प्रिय शायर थे। हम से ज्यादातर लोग लिपियों से जबान के बारे में धोखा खा जाते हैं। Yeh kuchh aisa hi huaa jaise aap ise angreji samajh len. हमारे यहाँ हिन्दी (नागरी में लिखी) बनाम उर्दू (नस्तालिक में लिखी) पर काफी बहस दिखती है लेकिन नस्तालिक में लिखी हिन्दी बनाम नस्तालिक में लिखी उर्दू पर बहस, मैंने हिन्दी में  तो नहीं देखी। उर्दू शायरों के कहन में दो तरह के लहजे साफ नजर आते हैं। एक हिन्दी लहजा और दूसरा फारसी लहजा। उत्तर-भारत के सन्दर्भ में फारसी लहजे को ही उर्दू लहजा कह सकते हैं। यहाँ यह याद दिलाना जरूरी है कि जबान के तौर पर हिन्दी और फारसी एक ही गोद से निकले हैं। फारसी जबान ने भले ही अरबी लिपि अपना ली हो लेकिन फारसी जबान ऋग्वेद और जेंद अवेस्ता की जबान की कोख से ही निकली है। फारसी शायरों के कलाम पर आप गौर करेंगे तो पाएँगे कि उसका हिन्दीकरण बहुत आसान है। मसलन, बू अली शाह कलन्दर के शेर की पहली पँक्ति देखें- मनम महवे ख्याल वू नमी दानम कुजा रफ्तम'  (मुझे बस उसका ख्याल रहता है, नहीं जानता कहाँ आ गया हूँ मैं)

(उर्दू साहित्य की वेबसाइट रेख्ता पर 'जमाले वू' है लेकिन कुछ गायकों ने 'ख्याले-वू' गाया है और मुझे ख्याले-वू पसन्द है इसलिए यही लिखा है।)

आप खुद देख सकते हैं कि महज नागरी लिपि में लिख भर देने से फारसी हिन्दी से कितने करीब आ गयी। ये दीगर बात है कि फारसी और हिन्दी एक कोख से निकलकर भी करीब दो हजार साल बाद फिर से दिल्ली में मिलीं। ऐसे में यह सवाल भी उठता है कि इतनी करीब होते हुए भी हिन्दी और फारसी इतनी दूर क्यों दिखती हैं? केवल लिप्यंतरण कर देने से फारसी का हिन्दी नहीं हो जाता। बात केवल शब्दार्थ कर देने से भी नहीं बनती। मनम - मैं, वू- वो, कुजा-कहाँ, रफ्त-रास्ते पर चलना जैसे शब्दार्थ के बाद भी फारसी का वाक्य-विन्यास हिन्दी से अलग दिखता है। मेरी समझ से यह फर्क मूलतः विभक्तियों के प्रयोग से आता है।   जैसे, फारसी में 'दर्दे-दिल' कहेंगे तो हिन्दी में 'दिल का दर्द'। ऊपर वाले मिस्रे में ख्याल-वू को हिन्दी में 'उस का ख्याल' लिखेंगे।

जाहिर है कि वाक्य-विन्यास और विभक्ति एक फर्क है। हिन्दी और फारसी कविता के बीच दूसरा बड़ा फर्क दोनों में प्रयुक्त होने वाले रूपकों (मेटॉफर) का है। वाक्य-विन्यास के नियमों को खोलना आसान है, रूपकों को खोलना मुश्किल है। मसलन, कोहे-तूर (तूर की कोह) की विभक्ति का हिन्दीकरण से उसका मानी हासिल नहीं होता। कोहे-तूर का अर्थ तभी पता चलेगा जब यहूदी-ईसाई-इस्लामी धार्मिक साहित्य से आपका परिचय हो। मान्यता है कि सिनाई के पहाड़ पर पैगम्बर मूसा को ईश्वर ने रोशनी के रूप में दर्शन  दिया था। यहूदी जिन 10 धर्मोपदेश को मूसा का धर्मोपदेश मानते हैं, उन्हें वो इसी पहाड़ से लेकर उतरे थे।

वाक्य-विन्यास की कई बन्दिशें लिपि के साथ आती हैं। किसी भाषा को उसकी लिपि की बन्दिश से पूरी तरह मुक्त नहीं कराया जा सकता। अरबी-फारसी लिपि में लिखे जाने के कारण उर्दू शायरों के लिए हरदम हिन्दी के नियमों के अनुसार विभक्ति-प्रयोग सम्भव नहीं होता फिर भी हम देख सकते हैं कि किस शायर ने उर्दू लिपि में लिखने के बावजूद किस भाषा की विभक्ति का कम-ज्यादा इस्तेमाल किया है। दूसरी बात, हम यह भी देख सकते हैं कि शायर ने किस ऐतिहासिक परम्परा के मुहावरों, रूपकों और प्रतीकों को अपनी शायरी में ज्यादा जगह दी है। लिपि से भाषा की देह बनती है मगर उसके अन्दर की आत्मा का पता मुहावरों, रूपकों और प्रतीकों से मिलता है। मुहावरों, रूपकों और प्रतीकों अगर यह फर्क देखना है तो नजीर अकबराबादी और गालिब की शायरी में प्रयुक्त मुहावरों की तुलना की जा सकती है। मेरी राय में मीर और नजीर की तरह नासिर की शायरी की आत्मा भी हिन्दी है। इसीलिए वे हिन्दी शायर हैं।

कहना न होगा, इस लेख का शीर्षक नासिर से उधार है। नासिर का शेर है,

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वो तेरी याद थी अब याद आया

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