किसी कहानी का पूर्वाभास दिमाग़ पर दस्तक देता रहता है, तो कोई संगीन बीमारी के शुरुआती चिह्न की तरह, आंतों में कुलबुलाता रहता है। इस बीमारी की शिनाख्त के लिए डाक्टर के पास जाना बेमानी है।
मुझे याद है, एक बार जबरदस्त पेचिश से परेशान डाक्टर के पास गई थी तो उसने पूछा था, काम क्या करती हैं। ‘लेखक हूं’ सुनते ही उठ खड़ा हुआ था और बोला था, लेखकों का इलाज मैं नहीं कर सकता। आपको खुद करना होगा। कुछ लिख लिखा डालिए। (मृ. ग.)
कहानी
जब मैं पति संजय के साथ यूरोप गई तो मेरी उम्र पचास थी। तब तक समझ चुकी थी कि रोज़मर्रा के जीवन में मुझे संजय से कोई खास समस्या नहीं थी। समस्या पैदा तभी होती थी जब हम साथ कहीं घूमने निकलते, खासकर हिंदुस्तान से बाहर। बाहर पहुंचते ही वह ठेठ हिन्दुस्तानी बन जाता और मैं हिन्दुस्तानी तौर तरीकों से तंग आई कुछ सनकी औरत।
तो जब पचास साल की उम्र में यूरोप गई तो, मेरे भीतर की औरत वैसी ही थी जैसी तीस साल पहले। हां, जो-जो भोग सकती थी, उसे भोग चुकने की लालसा में, स्वभाव में कुछ जल्दबाज़ी ज़रूर जुड़ गई थी।
यूरोप में चाव था पेरिस देखने का और उसके बाद जाना चाहती थी, वेनिस। संजय ने यूरेल का टिकट कटवाया था, इसलिए यूरोप के भीतर, कहीं से कहीं तक का सफर किया जा सकता था; बिला अतिरिक्त पैसा लगाए।
दिक्कत थी मन की ललक के फ़र्क की, जो मेरी जवान थी और संजय की एकदम बूढ़ी या कहना चाहिए कुंद। दरअसल मन का ताल्लुक ज़िंदगी की उम्र से नहीं, अपनी ज़िंदादिली से होता है।
मन मार कर वह मेरे साथ वेनिस जाने को तैयार हो गया था। मैं अकेले भी जा सकती थी। पर वह उसके लिए इतना अकल्पनीय था, कि बेकार की बहस से बचने और मुंह का ज़ायका बनाए रखने के लिए, वह सुझाव जुबान पर लाई नहीं।
वहां पहुंच कर ही काफी हील हुज्जत हो गई। ठहरने की जगह को ले कर।
स्टेशन से उतर कर हम सभी यूरेल वाले, उस काउंटर पर पहुंचे, जहां पूरे वेनिस शहर के लिए यात्रियों की होटल बुकिंग की जा रही थी। वहां जमा तमाम हिन्दुस्तानी मय संजय, स्टेशन के पास सस्ते लॉज में ठहरना चाहते थे। कारण सस्ता होने के साथ, वहां हिंदुस्ताननुमा खाना मिल सकता था। आप जानते ही हैं, अरसे से यूरोप के हर इलाके में, एकाध हिन्दुस्तानी ढाबा होने लगा है।
पर मैं जिद पर अड़ी थी कि वेनिस की मुख्य केनाल के पास ही ठहरना है, चाहे जितना महंगा हो। सूची में ज़बरन घुसाए वे शहर छोड़ देंगे, जो पर्यटन के लिए हिन्दुस्तान में परिचितों ने सुझाए थे; सुन-सुना कर या ब्रोशर पढ़ कर।
काउंटर पर बैठे वेनेशियन के अलावा सब मुझे खरदिमाग़ बतला रहे थे। उस रोमानी दिखते युवक ने केनाल के पास ठहरने की पुरज़ोर हिमायत के साथ यह भी बतलाना ज़रूरी समझा कि नवंबर में गोंडोला नहीं चलते।
जी, वह नवंबर का महीना था। अपनी खुशी से मैंने उसे नहीं चुना था। अपनी खुशी से तो मैंने कुछ भी नहीं चुना था।
किस्मत की मार थी कि संजय को उसी महीने, इटली के मिलान शहर में कुछ काम था। चूंकि उसके साथ वह पेरिस और स्पेन में एकाध जगह जाने के लिए तैयार हो गया था, इसलिए मैं साथ टंग ली थी। सोचा था, अपनी ज़िद के भरोसे कुछ और शहर देख ही लेंगे।
तो अब हम वेनिस की चौखट पर अटके हुए थे।
“न सही गोंडोला, हम नाव से काम चला लेंगे।” कह कर जल्दी से मैंने जोड़ा, “मैं अकेले चली जाऊंगी।”
संजय के फक चेहरे को नजरअंदाज़ करना लाज़िमी था। वह बेफक तो क्या होता, फक को बिसरा, मैने युवक के हाथ से फार्म खींच, भर दिया और लीरा में भुगतान भी कर दिया। यह अक्लमंदी मैंने कर रखी थी। इटली पहुंचते ही अपने कुछ रुपए रोम हवाई अड्डे पर लीरा में बदलवा लिए थे।
अब सुनिए, एक मज़े की बात! तीन दिन के लिए अचानक इटली में रेल हड़ताल हो गई। हिंदुस्तान की तरह इटली में भी कहीं भी, कभी भी, कोई भी हड़ताल हो सकती थी।
तो अब कहीं आना-जाना नामुमकिन था। तो रहिए तीन दिन इतालवी खाना खाते वेनिस में। मां कहती थीं न, ख़ुदा अपने गधों को हलवा खिलाता है। बड़ी हसीन लगीं मां उस पल।
ख़ुदा के फज़ल से यूरोप में शाम को खाना जल्दी खाते हैं। मयनोशी उसके बाद चलती है।
तो रात में संजय ने खाना क्या खाया, एकदम नींद ने धर दबोचा।
उसे बेखबर जान मैंने अपने लिए शैम्पेन मंगवाई। ज़ाहिर है बैरा दो फ्ल्यूट लाया। कमरे में हम दो जो थे, हालांकि संजय शराब नहीं पीता था। अब शैम्पेन को कोई शराब कहे तो दूसरा बंदा हंसे या रोए। मेरे हिसाब से न रोए, न हंसे बस उसके हिस्से से भी धीमे-धीमे अपना गला तर कर ले।
अभी तो उनमें से एक फ्ल्यूट थाम मैं बालकनी पर चली गई। तीसरी मंज़िल की बालकनी पर अकेली मैं और नीचे सिमटी वेनिस की विख्यात पतली इकहरी गलियां। वही मशहूर गलियां,जहां से देर रात, गा-बजा कर युवा, अपनी पसंदीदा सुंदरियों को सेरेनेड करते गुज़रा करते थे।
ऐसा मैने शेक्सपियर समेत अनेक अंग्रेज़ी के लेखकों और कवियों की रचनाओं में पढ़ रखा था।
आपसे क्या छिपाना। खाना शुरू करने के साथ ही मेरे मन में यह सेरेनेड पूरी लय ताल में बजनी शुरू हो गई थी।
संजय सोने गया नहीं कि कमरे में सजे फूलों से तीन नारंगी गुलाब निकाल, शैम्पेन के साथ हाथ में थाम, मैं बालकनी पर आ गई।
दो चार घूंट भरे थे कि देह की हर शिरा से कामना कर उठी कि ज़रा देर में एक कमनीय युवा गिटार बजाता और मोहक धुन गाता, सेरेनेड पर निकले और मैं ये नारंगी गुलाब उस पर बरसा दूं। वह भी….वह भी…
शैम्पेन खत्म हो गई।
मैने मेज़ से संजय का भरा पड़ा शैम्पेन का फ्ल्यूट उठाया; फूलों पर पकड़ सख्त की और कामरंजित कल्पना के साथ, वापस बालकनी पर आ गई।
तभी वह खुशनुमा वाक़या हुआ, जिसकी मैने कामना ज़रूर की थी पर उम्मीद नहीं। नीचे गलियारे में गिटार बज उठा। तीन-चार युवाओं का समूह, गिटार पर ऊंचे सुर में रसिक गीत गाता आ निकला।
अब तो सन्निपात की तरह कामुकता ने मेरे दिमाग़ और देह को अपनी कैद में ले लिया।
मैं शुद्ध इच्छा शक्ति में तब्दील हो गई। बस अब वह नज़रें ऊपर करेगा। मुझ से आंखे दो-चार होंगी। मैं निशाना साध कर एक गुलाब का फूल उस पर नीचे फेंकूगी। वह…. ऊपर देख कर गाता रहा तो दूसरा। पर…मुझे यकीन था…
मैंने एक फूल नीचे फेंका। पर इससे पहले कि वह उस पर गिरता, एक शोख चटख लाल गुलाब ने उछल कर मेरी छाती को चूमा। मैंने उसे पकड़ा कि उसने एक हवाई चुम्बन मेरी तरफ़ उछाल दिया। गुलाब ने नहीं, नीचे खड़े बंदे ने।
मैंने दूसरा गुलाब भी तीन मंज़िल नीचे ऐसे गिराया जैसे तोहफे में कायनात दे रही हूं।
वे आगे नहीं बढ़े। कुछ देर वहीं खड़े गाते रहे। गाना इतालवी में था। मुझे सिर्फ़ एक शब्द, जो बार बार दोहराया जा रहा था, बेलेज़्ज़ा, समझ आ रहा था। मतलब सुंदर। मेरा मन, मेरी आत्मा, मेरा जिगर, मेरी देह, सब एक साथ, ज्वार में उछलते वासना के समंदर की गिरफ्त में आ गए।
यह परमानंद का लम्हा था; कामुक का कायनात में विलय।
मैं जानती थी इस बाहोश समागम का अंत बेहोशी में होगा। फिर सालोंसाल से छकाती नींद गहरा कर मुझे आग़ोश में ले लेगी। यकीन था मुझे कि वह ऐसा विरेचन होगा, जिसकी याद ताउम्र रहेगी।
तभी संजय आंखे मलता पास आया और मुझसे बिस्तर पर चलने की मांग करने लगा।
नहीं! कायनात सा नफ़ीस वासना का वह समंदर बिस्तर में नहीं समा सकता !
उसे जिस्म नहीं माशूक़ चाहिए, वह भी हाड़ मांस का नहीं। नज़दीक भी नहीं। कामेच्छा में डूबा ज़रूर, पर तीन मंज़िल नीचे या तीन मंज़िल ऊपर!
मैं ओंठो पर उंगली रख फुसफुसाई, भीतर जाओ। वे मर्द को देख भड़क सकते हैं।
वह एकदम मुड़ गया फिर तनिक ठिठक कर बोला,”पर तुम?”
“औरतों को इतालवी कुछ नहीं कहते।” मैं और धीमे से फुसफुसाई। वह चला गया। उसका ख्याल था यूरोप के बारे में मैं उससे ज़्यादा जानती हूं।
मैंने गाने की लय से लय मिला कर शैम्पेन की चुस्कियां लीं।
दूसरे हाथ में गुलाब का आखिरी फूल उठाया पर नीचे फेंका नहीं। गाना क्लाइमेक्स पर पहुंच रहा था। मैं आसमान की तरफ उठे हाथ में गुलाब पकड़े, मूर्ति की मानिंद जड़ खड़ी रही।
उसने भी एक शोख गुलाब उठाया पर ऊपर उछाला नहीं। उठी नजरें मुझ पर टिकाए रखीं, गुलाब अपनी छाती से सटाया, फिर झुक कर पृथ्वी को स्पर्श करते हुए,अभिवादन किया और आगे बढ़ गया।
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