चट्टानों को चीरती हुई नदी की दूधिया धाराएँ पहाड़ रूपी तीर्थों का वो प्रसाद है जिसके लिए दर्शनार्थी, मीलों-मील सफर तय किया करते हैं। सिक्किम में लेप्चा जैसे आदिवासी समुदाय तो पहाड़ी नदियों को ईष्ट की तरह पूजते हैं । लेकिन सभ्यता के विकास के साथ-साथ नदियाँ 'ईष्ट' से 'उत्पाद' में बदलने लगीं हैं और सरकारी फाइलों में इन्हें 'सफेद-सोना' जैसी उपमाएँ देते हुए इनके दोहन के लाभ गिनाए जाने लगे हैं।
ऐसे में चट्टानों की छाँव में से छिपती-छुपाती पहाड़ी नदी, मैदानों से होती हुई बहती है सागर की ओर मगर रास्ते में आने वाली इंसानी बस्तियाँ उसके आँचल में डाल देती है पूजा की थालियाँ, प्लास्टिक की थैलियाँ और गंदे पानी की नालियाँ। दबंग इमारतें, अल्हड़ नदियों का रास्ता रोकती हैं और उन्हें अपनी राह और गति बदलने के लिए मजबूर करती हैं। उन्मुक्त नदियों की रवानी डैमनुमा रुकावटें लगा कर रोक दी जाती हैं। बेलगाम नदियों को पालतू बनाने की नृशंस साज़िश हर बार कहलाती है ‘विकास’।
इंसानी खुराफ़ात के चलते सियासतदां बना लेते हैं नदियों को राजनीतिक हथकंडा और घोल देते हैं इनके पानियों में ज़हरीले सियासी रंग। तेरी-मेरी करते-करते कुरेदे जाते हैं नदियों के किनारे और तटों के सीनों पर भी घोप दिए जाते हैं टूरिस्टों के लिए टेंट। अब किनारों पर चमचमाती रेत नहीं, फड़फड़ाते हुए रंग-बिरंगे पॉलीथिन मिला करते हैं, सभ्यता के परचम की तरह लहराते हुए। लिफ़्ट करके नदियों का पानी सप्लाई किया जाता है ऊँचे पहाड़ों पर जमी बस्तियों तक और ऊंचाइयों से गिरते पानी पर लगाए जाते हैं डैमनुमा पहरे और बताया जाता है इसे 'सस्टेनेबल-डेवलपमेन्ट'।
दुःखद है कि डुबो दिए गए हैं अगणित गांव-शहर कृत्रिम झीलों के अन्तः में और उन ख़ामोश कब्रों पर काबिज़ हो गए हैं कॉरपोरेट आकाओं के अड्डे। जो वेगशील नदियाँ काट दिया करती थीं चट्टानों के कड़क सीने, आज वही नदियाँ मानव के विरुद्ध ये जंग हार रही हैं। बेतहाशा दोहन के चलते नदियों का लंबा-चौड़ा दायरा सूखा पड़ा है और जहां पहले पानी था, वहां अब धूल उड़ रही है। नदियों के सूखने से कुंड भी सूख चले हैं और भूजल का स्तर भी घटता चला जा रहा है। कहीं-कहीं पहाड़ी नदियां उफान पर हैं, जिससे नदियों के किनारों से सटी बस्तियाँ सैलाब की चपेट में आ गई हैं। बेशर्मी से होते खनन से लुटती है नदियों की अस्मत और दिन-रात पीले-पंजे और टिप्पर भरते हैं रेत और बजरी से अपना पेट।
हर दूसरे मोड़ पर होटल और इंडस्ट्री का मटमैला पानी घुलता रहता है नदी की बची-कुची धारा में मगर आस्था के अंधे भक्त फिर भी लगाते हैं उसी मलिन पानी में डुबकियाँ, परलोक सुधारने की ललक में।
नदियों के अस्तित्व के लिए उठाई गई आवाज़ें बार-बार दबा दी जाती हैं विकास के शोर में। और कभी-कभी जब दम तोड़ती हुई असहाय नदियाँ करती हैं चीत्कार, तो केदारनाथ जैसी भयानक त्रासदी से आने वाली बाढ़ और तबाही ही तोड़ती है हमारी गहरी नींद। आज जब नदियों की जवानी पर लगने लगे हैं पहरे, इन्हें किया जा रहा है दूषित और लुट रही है इनकी अस्मत हर रोज़, ऐसे में किनारों से अपना विस्तार समेट कर रह जाने के सिवा चारा भी क्या बचता है पहाड़ी नदियों के पास। कुछ नदियाँ तो अपना मुर्दा शरीर ढोती हैं सागर तक और कुछ नदियाँ तोड़ देती हैं रास्ते में ही दम और हो जाती हैं विलुप्त।
नदियों का दुर्भाग्यपूर्ण भविष्य हमारे सामने खड़ा है और हम अब भी कर रहे हैं किसी मिथकीय भगीरथ का इंतज़ार, जो इन लुप्त होती नदियों को मना कर वापिस ले आये इस लोक में, हमारे पाप धोने के लिए। लेकिन मिथक बनने की कगार पर तो हैं ये नदियाँ और लगता है कि आने वाले समयों में केवल साहित्य में गोता लगा कर ही सुन सकेंगे हम पहाड़ी नदी की कल-कल करती आवाज़।