ख़ासा संश्लिष्ट उपन्यास है ‘मतलब हिन्दू‘ - मौजूदा वक़्त के विचलन और स्खलन की थाह लेने के लिए एक सदी पुराने अतीत में उतरता हुआ, ताकि समय को रचने वाली बेहद जटिल और गड्डमड्ड समाज-मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं की बारीक पड़ताल की जा सके।
जिसे खतरों से बेपनाह मोहब्बत हो, जनून को सिर पर साफ़े की तरह बाँधने का हौसला हो, और हरहराते समंदर में कूद कर अपने से पार दूसरों को जानने की ललक हो - ऐसे व्यक्ति को आज के ठहरे हुए वक़्त में कौन नायक बनाता है? बना भी लिया तो शोध और रिपोर्टिंग के रेडीमेड फार्मूलों के बीच इतना धैर्य कहाँ कि सतह के नीचे लिपटी अंतहीन सतहों की शिनाख्त में पाताल की गहराइयों में उतरता चला जाए? हिंदुत्व की उग्रवादी हुंकारों से गुर्राते समय में जब सब फेंस के इधर-उधर पैर झुलाकर बैठे हों, तब हिंदुत्व के ड्रैगन को सीधे गर्दन से पकड़ना समय में एक सृजनात्मक हस्तक्षेप है।
अंबर पाण्डेय के लिए इतिहास जिये जा चुके काल-खंडों का कोलाज नहीं ; धड़कती साँसों का फेनिल समंदर है जहाँ एक तार्किक परिणति के साथ वर्तमान के सारे सवालों, संशयों, विचलनों और व्यवस्था के मकड़जालों को समझने का संवेदनशील विवेक मौजूद है। लेकिन अंबर मूलत: कवि हैं। सांकेतिकता और अर्थविचलन के सहारे छुपी हुई गझिन अर्थव्यंजनाओं को उजागर करने के क्रम में कवि न केवल अभीष्ट अर्थ की संश्लिष्ट तहों का विस्तार करता चलता है और इस प्रक्रिया में देशकालातीत हो जाता है, बल्कि कलात्मक सौंदर्य से पाठक को रसात्मक आस्वाद से भी भर देता है। इसलिए उनके उपन्यास को साहित्य-सिद्धांतों और काव्यशास्रीय प्रतिमानों की भरपूर जानकारी के बिना नहीं समझा जा सकता।
‘मतलब हिन्दू‘ उपन्यास की अद्भुत शिल्पगत संरचना कविता से वाग्विदग्धता, नाटक से गति और उपन्यास से घटनात्मक लेकर ऐसी कथा-शैली रचती है जहाँ अर्थ-विचलन की प्रक्रिया पाठक को रसात्मक आनंद देने की बजाए समय के भीतर दुबकी विडंबनाओं की चैतन्य पड़ताल का नागरिक बोध देती है। ‘अर्थ विचलन’ जैसे पारिभाषिक पदबंध में अंतर्निहित है अर्थ-ग्रहण की दो स्थितियां। पहली स्थिति अर्थ-विलोपन की प्रारंभिक स्थिति है जो मूल पाठ का अनुसरण करते हुए लेखक द्वारा दिए गए कथा-सूत्रों को हृदयंगम करती है, और फिर उन्हें उनकी स्थूलता से मुक्त कर प्रभाव अथवा ध्वनि के रूप में ग्रहण करती है। दूसरी स्थिति पाठक को सह-सर्जक की भूमिका में अवतरित करती है। यहाँ उसकी भूमिका रस-गृहीता की नहीं रह जाती, बल्कि लेखक के समानांतर पाठकीय दायित्वों का विस्तार कर उसे सह-अस्तित्व और स्वायत्तता के घालमेल से बुनी सह-सर्जक भूमिका में प्रतिष्ठित करती है। अब पाठक को कथा के मूल पाठ में हस्तक्षेप करते हुए अपना सब-टेक्स्ट तैयार करना है। यानी मूल पाठ की जिन स्थूल संरचनाओं को वह विलोपित अर्थ की ध्वनि-तरंगों के रूप में अपने साथ लाया था, उन्हें ज्ञानात्मक संवेदन द्वारा किन्हीं अन्य बृहत् संदर्भों, चरित्रों या उद्देश्य के साथ पुनः रचित करना है। तब ज़रूरी नहीं रहता कि मूल पाठ के भीतर साँस लेता रचना-समय पाठक द्वारा निर्मित सब-टेक्स्ट के समय के अनुरूप हो। वह बहुधा उसका विस्तार, व्याख्या या आलोचनात्मक पाठ होता है। पाठ को सब-टेक्स्ट में रूपांतरित करने की यह प्रक्रिया अर्थ-प्रतिस्थापन की सर्जनात्मक प्रविधि है जो अनुपस्थित काल खण्डों, मनोवृत्तियों, समाज व्यवस्थाओं और सांस्कृतिक दबावों आदि के समग्र प्रभाव से निष्पन्न ‘वर्तमान‘ की पड़ताल करती है।
मैं अर्थ-विचलन की इस प्रविधि को उपन्यास की रीडिंग का टूल बनाती हूँ। कथा में प्रवेश से पहले (और दौरान) लेखक ने पाठक को आगाह किया है कि वह तीन बातों का खास ख़्याल रखे। एक, ‘मतलब हिंदू’ परंपरागत ढंग का मुकम्मल उपन्यास नहीं, ‘हिन्दू त्रयी’ का पहला भाग है। इसलिए वह रससिद्धि कि लिए आदि-मध्य-अंत के पारंपरिक कथा-ढांचे की अपेक्षा न करे। यानी पाठक को धैर्यपूर्वक अगले उपन्यासों की प्रतीक्षा करनी होगी जहाँ कथा के अन्य अनेक गंभीर आयाम खुलेंगे। अतः उसे फिलहाल यहाँ जजमेंटल होने की भावना से बचना चाहिए। दो, उपन्यास में कथा का फलक 1893 से 1902 तक फैला है। यह संयोग ही है कि कथा के दोनों छोरों पर कथानायक के साथ बैरिस्टर गांधी नामक किसी सनकी गुजराती मध्यवर्गीय युवक का उल्लेख कर दिया गया है जो 1893 में साउथ अफ़्रीका की यात्रा पर रवाना होने की मानसिक तैयारी कर रहा है और 1902 में भारतीय राजनेताओं से मिलने कुछ समय के लिए बंबई आया है। लेकिन वह कथा का पात्र हरगिज़ नहीं है। यानी जब कथानायक उससे मिलने को उत्सुक नहीं, तो पाठक ही क्यों कोई तवज्जो दे? तीन, यह ऐतिहासिक उपन्यास न होकर एक हिन्दू ब्राह्मण युवक की जीवन-यात्रा और ग्रंथियों के साक्षात्कार का आख्यान है। यानी ध्वन्यार्थ यह कि इसमें न ऐतिहासिक वृत्तांतों को खोजा जाए, न अपने समय के साथ इसके अंतर्संबंधों की पड़ताल की जाए। लेकिन मैं लेखक की बात क्यों मानूँ? जानती हूँ, यह वचनविदग्धता नामक आलंकारिक युक्ति है जो कविता के मर्मगत सौन्दर्य को उद्भासित करने हेतु उपस्थित (तात्कालिक प्रत्यक्ष) का निषेध करते हुए पाठक को अनुपस्थित (अभीष्ट अप्रत्यक्ष) की अर्थगर्भित संवेदनशील यात्रा की ओर ले जाती है। तब उपन्यास न 19वीं सदी के अंतिम दशक की मामूली कथा रहता है, न गुजराती ब्राह्मण युवक गोवर्धन की जीवन-यात्रा का एक सामान्य पन्ना। बल्कि अपनी अर्थ-व्याप्ति में अंतर्विरोधों से भरे एक संक्रमणशील युग की कथा बन जाता है जो अपनी तमाम विडंबनाओं और विकृतियों के साथ चलकर हमारे अपने समय तक आन पहुँचा है। इस प्रकार यह उपन्यास रसास्वादन या विश्लेषण से आगे बढ़कर समय को गढ़ने की एक जरूरी चेतावनी और चुनौती बन जाता है।
हमारे आज के समय से अलग नहीं है उन्नीसवीं सदी का आख़िरी दशक। वहाँ जड़ता भी है और नई आहटों के स्वीकार-अस्वीकार के बीच द्वंद्वात्मक टकराहट से बनती नई सोच भी।
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धर्म की आड़ में लड़कियों का यौन-शोषण करके भी समाज में परम पूजनीय बने रहने वाले वल्लभ संप्रदाय के व्यभिचारी जदुनाथजी महाराज हैं तो सबूत जुटा कर उनकी तथाकथित ईश्वरीय आभा को ध्वस्त करता युवा पत्रकार करसन मूलजी भी। उल्लेखनीय है कि 1862 में महारानी विक्टोरिया के सर्वोच्च न्यायालय में लड़े जाने वाले इस मुकदमे का ऐतिहासिक फ़ैसला आज भी धर्म और विवेकहीन धर्मांधता के नशे में गारत एक पूरी पीढ़ी की आँख खोल सकता है। ‘हिंदुत्व’ में तमाम शुचितावादी कट्टरता और महिमामंडन गूंथने वाले तिलक हैं तो दलित अधिकारों के समर्थन में उठे जोतिबा फुले और शाहू जी महाराज भी। आत्मान्वेषण के जीवट और अनुशासन से भरी प्रक्रिया से गुज़रते हुए बैरिस्टर गांधी हैं तो परम्परागत घेरों का अतिक्रमण करने के लिए नई लीक बनाती बुआऔर लीलावती जैसी स्त्रियाँ भी जो अपनी मूल संरचना में सावित्रीबाई फुले, पंडिता रमाबाई, रख्माबाई जैसी एक्टिविस्ट स्त्रियों का अक्स हैं। यानी समय के भीतर समय को बहाव देने वाली
सकारात्मक-नकारात्मक ताकतें जुगलबंदी में तैरती चलती हैं। मुख्य सवाल प्राथमिकताओं के चयन का है जिनसे व्यक्ति, समाज और संस्कृति का चरित्र बनता है।
अम्बर पाण्डेय समय के इस दायित्व को समझते हैं। इसलिए अंतर्विरोधों से बुनी इन सब सरसराहटों के सघन प्रभाव को गूंथ कर जिस गोवर्धनदास को रचते हैं, वह रूढ़ि-जर्जर समय का प्रवक्ता भी है, और प्रतिरोध का स्वर भी। अपने पूर्वाग्रहों के सुरक्षित घेरे में बैठकर स्वयं को मांज भी रहा है और वर्जनाओं को तोड़ कर सर्वसमावेशी समाज का स्वप्न भी देखता है। वह बैरिस्टर गांधी की तरह सत्य के प्रयोग भी कर रहा है और ‘मत्स्य-न्याय‘ को ताकतवर का हथियार मानने वाली कूटनीति से फायदे भी बटोरना चाहता है। वह बोहेमियन भी है और कट्टरपंथी भी। वह अपने पर शर्मसार भी है और हिंदुत्व की श्रेष्ठता-ग्रंथि के कारण इतना अधिक सनकी कि न स्थितियों को स्वीकारना चाहता है, न बदलना। पितृसत्ता के दबदबे ने उसे ऐसा उग्र मर्दवादी पुरुष बनाया बनाया है कि मां के स्वायत्त स्पेस को भी स्वीकार नहीं कर पाता। बैरिस्टर गांधी का रसोइया मां का सखा-बंधु-चाकर सब कुछ है। चलत-फिरता अखबार भी जो देश और राजनीति की खबरों से अपडेट करता है। गोवर्द्धन को मां का यह बेतकल्लुफ़ आचरण चरित्रहीनता जान पड़ता है। फलतः वह इतनी कटूक्तियां सुनाता है कि प्रतिरोध और स्वाभिमान की रक्षा के लिए मां घर से लापता हो जाती है। दूसरा उदाहरण गोवर्द्धन के हांगकांग प्रवास का है। वहां वह खान-पान, वेशभूषा, नैतिकता और सदाचार के तमाम हिंदू संस्कारों से पल्ला झाड़ कर आत्मकामी, व्यभिचारी, भ्रष्ट पुरुष में रूपांतरित होता दिखाई देता है। मृत बहन के पति की दूसरी जापानी पत्नी को भगा कर अपने साथ भारत भी लाता है। कहीं ग्लानि का बोध नहीं। देखता है, उसकी अनुपस्थिति में ईसाई मिशनरियों ने उसके पुत्र यज्ञदत्त का बपतिस्मा करा कर उसकी शिक्षा का समुचित प्रबंध न किया होता तो वह यतीम की तरह जी रहा होता। लेकिन कृतज्ञता की जगह वह धर्म-भ्रष्ट होने की ग्लानि से भर जाता है और तुरंत प्रायश्चित-यज्ञ और यज्ञोपवीत धारण करवा वह उसे पुनः हिंदू बना लेता है। ठीक यहीं मानो कथा में पहली बार लेखक गोवर्द्धन-गांधी युग्म को बाइनरी में बांध कर अपने सुनियोजित लेखकीय स्टैंड को पाठक के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। ठीक यहीं गांधी से मुलाकात न करने के गोवर्द्धन के ऊहापोह में मुझे भविष्य के युवक की दो छवियां दिखाई देती हैं। पहली छवि गांधी की नैतिक दृढ़ता और सर्वधर्म-समभाव के वैचारिक औदार्य के कारण हीनता-ग्रंथि से तिलमिलाई पीढ़ी है जो हिंदुत्व की आड़ में अपने बौद्धिक बौनेपन को छुपाने के प्रयास में अंततः गोडसे बन जाती है। दूसरी छवि हिंदुत्व को हिंदू दर्शन की समृद्ध परंपरा में न देख कर कर्मकांड और शुचितावाद की सरल प्रतीकात्मकता में रिड्यूस कर देती है जहाँ नैतिक स्खलन, पश्चिमी संस्कृति का अंधानुकरण और हिंदू होने पर अभिमान बिना किसी परेशानी के साथ-साथ चलते हैं।
असमंज और संघर्ष हर युग के दो पहिए हैं। यही गोवर्धन के दो पैर हैं , और हमारे समय को विघटन या सृजन की ओर ले जाने वाले दो विकल्प भी।
समय निरंतर बह रहा है। तेज प्रवाह के साथ अपनी ही मलिन-रुग्ण अंतर्लहरियों को निरंतर झटक कर स्वच्छ स्वस्थ और ताज़ा होता हुआ। ‘मतलब हिन्दू’ निरंतरता की इसी स्वच्छ उन्मुक्तता में राष्ट्र की निर्माण-प्रक्रिया को देखता है। ऐसी निर्माण-प्रक्रिया जिसमें ‘मैं’ और ‘हिंदुत्व’ का दर्प नहीं है। ‘मैं कौन हूँ’ की पहचान से शुरू हुई विचार-यात्रा में ‘दूसरे’ की स्वायत्त अस्मिता को स्वीकारने का भाव है। यह चेतना का वैचारिक संघर्ष है जहाँ गोवर्धन न अकेला है, न अपवाद। यहाँ हर स्खलन एक ठोकर है, और हर ठोकर एक नई शुरुआत। गोवर्धनदास की इस विचार-यात्रा में शामिल हैं रसोइया महाराज, माँ, नक़टी बुआ और लीलावती। हाशिये की आवाज़ों से बुनी एक मानव-श्रृंखला जो उजालों के लिए बाहर नहीं भटकती; अपने ही अंतर्लोक को प्रकाशित करती चलती है। यानी ‘हिन्दू’ होने का मतलब है - मनुष्य! और ‘मनुष्य’ बने रहने का मतलब है निरंतर अपनी निस्संग जाँच करते रहने की ईमानदार व्यग्रता।