दिल्ली शहर की परतदार तारीख को बड़ी नज़ाकत के साथ फ़रोलना पड़ता है ताकि बकाया निशानियों को बाइज्ज़त सामने लाया जा सके। सबूतों और तारीखी गवाहों के मद्देनजर तो मुग़लिया हुकूमत से पहले भी यह दश्त-ए-दिल्ली आबाद हुआ करती थी। बेशक आम आदमी का यही मानना है क पुरानी दिल्ली को मुगल बादशाह शाहजहाँ ने 1639 में 'शाहजहाँनाबाद' के नाम से बसाया था। लेकिन दिल्ली शहर के मशहूर इतिहासकार आर वी स्मिथ का कहना था कि शाहजहाँ ने पुरानी दिल्ली की बुनियाद यहां मौजूद इससे भी पुरानी आबादियों की कब्र पर रखी थी।
यूँ तो आज की पुरानी दिल्ली में मिलने वाली सल्तनत दौर की निशानियों से यहां गैर मुगलिया हुकूमत के काबिज़ होने के निशान मिलते हैं। पहाड़गंज, जो शाहजहाँ के दौर का एक अहम बाज़ार था, तुग़लक़ और लोदी दौर में भी आबाद इलाक़ा था। क़ुतुब रोड पर स्थित तुग़लक़ काल की बारादरी और लोदी दौर की मस्जिद, जो नई दिल्ली स्टेशन तक पहुँचने वाले रास्तों में से एक पर बसी है, इस बात का सबूत हैं कि उस समय भी वहाँ आबादियां थीं।
इल्तुतमिश के दौर में हज़रत तुर्कमान बयाबानी की ख़ानक़ाह वहीं हुआ करती थी, जहाँ 17वीं सदी में शाहजहाँ का तुर्कमान गेट बना। हज़रत की दरगाह के क़रीब ही इल्तुतमिश की बेटियों, रज़िया सुल्तान और शाज़िया (रज्जी सज्जी) को बुलबुलीख़ाना इलाके में दफ़नाया गया था। हर बसंत पंचमी पर दरगाह पर पतंगबाज़ी होती और एक बड़ा मेला लगता।
हालांकि कहते हैं कि हज़रत बयाबानी की असल मज़ार मोहल्ला क़ब्रिस्तान में है, जिसे दादा पीर वाली दरगाह के नाम से भी जाना जाता है। 14वीं सदी में, जब सुल्तान फिरोज़ शाह तुग़लक़ ने अपनी राजधानी फिरोज़ शाह कोटला को बनवाया, तो उस किले की दीवारों के बाहर बयाबान जंगल होता था जिसमें शाही मुर्दों को दफ़नाया जाता था। धीरे धीरे जब पुरानी दिल्ली की आबादी बढ़ने लगी तो लोग इसी जंगल और कब्रिस्तान में घर बनाने लगे और यूं बसा आज का मोहल्ला क़ब्रिस्तान।
फिरोज़ तुग़लक़ के बड़े बेटे फ़तह ख़ान को एक मक़बरे में दफ़नाया गया, जिसके चारों तरफ़ बाद में क़ुतुब रोड बसा। यह मक़बरा ‘क़दम शरीफ़’ के नाम से जाना गया, क्योंकि फ़तह ख़ान की क़ब्र के ऊपर हज़रत पैग़म्बर साहब के नक़्श-ए-क़दम वाला पत्थर रखा गया था। फिरोज़शाही दौर में ही यहाँ हर साल उर्स भी मनाया जाता था।
फ़िरोज़ शाह ने अपना कोटला जिस जगह बनवाया, वही दरवाज़ा बाद में ख़ूनी दरवाज़ा भी, जो असल में कभी शेरशाह सूरी का लाल (काबुली) दरवाज़ा होता था। मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र द्वितीय के बेटे मिर्ज़ा मुग़ल, मिर्ज़ा ख़िज़र सुल्तान और पोते मिर्ज़ा अबू बख़्त को 1857 की क्रान्ति में शामिल होने के लिए अंग्रेज़ अफसर मेजर विलियम हॉडसन ने इसी दरवाज़े के सामने बेहद क़रीब से गोली मारकर क़त्ल कर दिया था, तभी से सूर साम्राज्य के लाल (काबुली) दरवाज़े का नाम खूनी दरवाज़ा पड़ा।
14वीं सदी में फिरोज़ शाह तुग़लक़ की शिकारगाह उसी जगह बनी थी जहाँ बाद में भूली भटियारी का महल बना, जो आज के करोल बाग़ के पास रिज इलाके़ में स्थित है। किंवदंतियां कहती हैं कि इसका नाम यहां राह भटक गई किसी औरत के नाम पर पड़ा जो शायद राजस्थान से यहां आई थी। कुछ का मानना है कि एक सूफ़ी पीर बू अलि भट्टी के नाम पर इस जगह का नाम हुआ जो समय के साथ बिगड़कर भूली भटियारी बन गया।
फ़िरोज़ शाह का साम्राज्य उत्तर दिल्ली तक फैला हुआ था, जहाँ उसकी बनाई हुई एक वेधशाला (observatory) भी मौजूद थी। तुर्कमान गेट के पास काली या कलां मस्जिद भी उसी के दौर में बनाई गई थी।
इसी तरह, आज जहां जामा मस्जिद बनाई गई वह इलाका कभी भोजला पहाड़ी का हिस्सा था जहां स्थानीय गुज्जरों की बसावट हुआ करती थी। इसी भोजला पहाड़ी का एक हिस्सा काटकर और स्थानीय डकैत समूहों को खदेड़कर शाहजहां के दौर में यहां आलीशान जामा मस्जिद बनाई गई। कुछ लोगों का यह भी दावा है कि वहीं कहीं पास में एक विष्णु मंदिर भी हुआ करता था।
चांदनी चौक में स्थित आपा गंगाधर शिवाला, जिसे अब गौरी शंकर मंदिर कहा जाता है, एक मराठा सैनिक गंगाधर ने तब बनवाया था जब वह दक्षिण भारत में ब्रिटिश फौज के लिए लड़ रहा था। लेकिन लोककथा इसे एक पहले से मौजूद प्राचीन शिवाले से जोड़ती है, जहाँ भक्तजन दर्शन के लिए आते थे और जिसकी देखरेख शायद किसी पुजारी द्वारा की जाती थी।
पहाड़गंज के पार झंडेवालान मंदिर उस क्षेत्र में स्थित है जहाँ सल्तनत काल से भी पहले के मंदिर मौजूद थे। कहा जाता है कि इनमें से एक मंदिर पृथ्वीराज चौहान की बेटी बेला ने बनवाया था, जो आज झंडेवालान एक्सटेंशन में स्थित है। जब युद्ध में बेला के पति की मृत्यु हो गई, तो बेला ने अपनी दासियों के साथ झंडेवालान की पहाड़ी पर सती हो जाना स्वीकार किया। उसी पहाड़ी के नीचे पंचकुइयां रोड का श्मशान घाट है, जिसे बेला सिद्धि की समाधि भी कहा जाता है। इसका मतलब यह भी निकलता है कि तराइन की दूसरी लड़ाई के बाद चौहानों ने महरौली से आगे बढ़कर रिज क्षेत्र यानी आज के करोल बाग की ओर रुख किया था।
शेर शाह सूरी के काल में उसके बेटे सलीम ने सलीमगढ़ किले का निर्माण करवाया था जो आज की पुरानी दिल्ली में अब लाल किले के परिसर का हिस्सा है। यह शाहजहाँ के जन्म से पहले की बात है, जब मुग़ल काल में शहंशाह जहाँगीर दिल्ली से होकर लाहौर या कश्मीर की ओर जाया करता था, तो वह अक्सर यहीं सलीमगढ़ किले या यमुना किनारे पर ही डेरा डाला करता था।
अफ़ग़ान शासकों द्वारा बनवाए गए सलीमगढ़ किले के खंडहरों पर ही आगे चलकर बाद में लाल किला बनवाया गया; ठीक वैसे ही जैसे आगरा का किला भी एक पुराने पठान शासित किले बादलगढ़ के अवशेषों पर खड़ा किया गया, जो मूलतः कभी एक राजपूत दुर्ग हुआ करता था।
पुरानी दिल्ली के साथ जुड़ा मुग़लकाल और अंग्रेज़ी हुकूमत का इतिहास तो सबकी ज़ुबान पर है लेकिन इस इलाके के मूलनिवासियों का आख्यान मुख्यधारा से नदारद मिलता है। यहाँ कई यात्रियों, शासकों और सिद्धों पीरों के पांव पड़े और उनकी दास्तान इसी ज़मीन तले दबी रह गई। आज भी पुरानी दिल्ली की चकाचौंध तले कई पुरानी दिल्लियाँ अपनी कब्र में आराम फरमा रही हैं, जिन्हें पुरानी दिल्ली का इतिहास समझने के लिए दोबारा मुड़कर देखे जाने की ज़रूरत है।