“कुश मारत, कस मारन। मारि कुश, मारन कस ।।” (लाल देद)
अर्थात “कौन मरता है, कौन मारता है। किसने मारा तुम्हें, कैसे मरे तुम।।”
इस वाक्य से लाल देद नाटक का आरंभ होता है, तब यह केवल एक वाक्य नहीं, बल्कि समूची सभ्यता से पूछा गया प्रश्न है। 2004 से लेकर अब तक, यानी पिछले 21 वर्षों से, मीता वशिष्ठ द्वारा निर्देशित और अभिनीत एकल नाटक लाल देद का मंचन एक प्रश्न के साथ लगातार होता आ रहा है।
पिछले 21 वर्षों से किसी एकल नाटक का मंचन करना और उस अनुभव को वर्षों तक जीवित रखना, न केवल तकनीकी दक्षता बल्कि आत्मिक समर्पण की मांग करता है। यह नाटक कश्मीरी कवियित्री और योगिनी लालेश्वरी या 'लल देद' के जीवन और दर्शन पर आधारित है, यह नाटक मात्र एक ऐतिहासिक या साहित्यिक चरित्र की पुनरावृत्ति नहीं है, बल्कि एक ऐसी स्त्री चेतना की पुनर्रचना है जो सात सौ वर्षों से भी अधिक समय से एक समावेशी सांस्कृतिक उत्तराधिकार का प्रतिनिधित्व करती है।
साथ ही स्त्री जीवन की पुनर्रचना से कहीं अधिक यह एक कलाकार के आत्म-बोध और नाट्य-विवेक का दस्तावेज़ बन जाता है और यह नाटक एक लगभग संपूर्ण या नियर-परफेरक्ट कला-कृति का उदाहरण बन जाता है। इस समीक्षात्मक आलेख में हम इसकी रचना-प्रक्रिया, संरचना और विषय-वस्तु के उस अद्भुत संतुलन को समझने का प्रयास करेंगे, जो इसे 'लगभग संपूर्ण' नाटक बनाता है।
लाल देद नाटक का आरंभ
मीता वशिष्ठ इस नाटक की शुरुआत के बार में बताती हैं- '2000 में जब मैं 40 साल की थी, तो मेरे भीतर यह इच्छा जागी कि मैं कोई ऐसा (नाटक) करूं जिससे मेरे होने का और एक औरत के अस्तित्व का जो अनुभव है, उसे मैं स्पष्ट कर सकूं। मैंने बहुत-से नाटक पढ़े, जैसे फ्रांका रामे के, जो इटली की एक प्रसिद्ध नारीवादी थीं। तब मैंने देखा कि फ्रांका रामे की 'वुमन अलोन' जैसी प्रस्तुतियाँ। जिसमें एक स्त्री पति को मार देती है या विद्रोह करती है। वो भी ज़रूरी हैं और हो सकता है, कई लोगों के लिए वो प्रेरणा बनें। लेकिन उनमें से हर एक में मुझे फिर उसी गुस्से को जीना पड़ता, वही गुस्सा जिससे मैं अपने निजी जीवन में पहले ही पीड़ित हूं। लेकिन मुझे उस समय यह लगने लगा कि मुझे इससे आगे जाना है।'
वहां से आगे बढ़ते हुए, मीता ने एक नया रास्ता अपनाया, वे मीरा, अक्का महादेवी, अंडाल और लाल देद को पढ़ने लगीं। इनमें से दो शैव थीं, दो वैष्णव। लेकिन फिर भी उनकी कविता में गहरा फर्क है। जैसे अक्का महादेवी कहती हैं 'ओ मर्द, तुम मुझे क्यों देख रहे हो? ये स्तन, यह शरीर, क्या पा रहे हो तुम इसमें?' फिर वह अपने आराध्य को पुकारती हैं 'चिन्ना मलिका अर्जुना, मेरे प्रभु! चन्नमल्लिकार्जुन, मेरे प्रभु, तुम ही मेरे सच्चे प्रेम हो।'
वह भी सुंदर था, लेकिन लाल देद कुछ और कहती हैं -'हे शिव! ओ डार्क ब्लू थाट यू हैव... तुम्हारी इंद्रियाँ हैं, मेरी भी हैं। तुम और मैं अलग नहीं हैं। फर्क बस इतना है कि तुम अपनी इंद्रियों को वश में रख सकते हो, और मेरी इंद्रियाँ मुझे बिखेर देती हैं।'
यह बराबरी का संवाद कि हम दोनों में कोई अंतर नहीं, अगर मैं भी आत्मसंयम पा सकूं, यह लाल देद का विलक्षण बौद्धिक दृष्टिकोण है। इस गहराई ने मीता को बहुत आकर्षित किया। धीर-धीरे 2004 में इस नाटक की पहली प्रस्तुति हुई तो यह नाटक लाल देद के नाटक में बदल चुकी थी।
दृश्यात्मकता और प्रतीक का विस्तार
नाटक में एक दृश्य है, जिसमें नायिका अपने बच्चे से तटस्थता व्यक्त करती है- 'इस शिशु से मेरा क्या संबध है?' यह केवल एक संवाद नहीं, बल्कि एक जेस्चर है, एक ऐसा दृश्य संकेत जो दर्शक के भीतर अनकहे भावों को जन्म देता है। यह दृश्य लिओनार्दो दा विंची की ‘उद्घोषणा (Annunciation)’ पेंटिंग जैसा है, जिसमें मरियम के शरीर की मुद्रा, हाथ की झिझक और आंखों का डर एक ऐसे मौन का निर्माण करते हैं जो शब्दों से कहीं अधिक कह जाता है।
किसी ऐतिहासिक और आध्यात्मिक व्यक्तित्व की पुनर्रचना के लिए केवल अभिनय-कौशल पर्याप्त नहीं होता। इस नाटक पर रिसर्च करने में मीता को तीन साल लगें। मीता वशिष्ठ बताती हैं कि 'लाल देद' पर काम करने में उन्हें तीन वर्ष का शोध और लगभग दस महीने का शारीरिक रियाज़ लगा। दस महीनों तक फ्लोर पर निरंतर अभ्यास करते हुए उन्होंने लाल देद के वाक्यों को शरीर में उतारने की कोशिश की।
मीता स्वीकार करती हैं कि पहली बार जब उनकी एक मित्र को यह एकल नाटक पसंद नहीं आया, तब उन्होंने आत्ममंथन किया। उन्हें यह आलोचना मिली कि यह नाटक उनके 'तीजन बाई' जैसा प्रभावशाली नहीं है। मगर मीता के अनुसार 'लाल देद' जैसे चरित्र को मध्यभारत की रंग-भाषा से नहीं, बल्कि उत्तर की ठंडी घाटियों और बौद्ध/वेदिक मिलन-भूमि की रंग-भाषा से ही प्रकट किया जा सकता था।
किसी कला रूप की गतिकी उसके भौगोलिक और पर्यावरणीय संदर्भों से जुड़ी होती है। लद्दाख, कश्मीर जैसे पर्वतीय क्षेत्र में जहां ऑक्सीजन की कमी होती है, वहां के मूवमेंट धीमे और सूक्ष्म होते हैं, जबकि मध्य भारत की गर्म जलवायु में गति तीव्र और धरातलीय होती है। इस भौगोलिक अनुभव उन्होंने अपने नाटक की गति और लय को आकार देने में शामिल किया।
मीता ने इस नाटक के लिए नाट्य-रूपों की शारीरिक संरचनाओं का अध्ययन किया। जापानी 'नो थिएटर', दक्षिण भारतीय 'कुडियाट्टम', और विभिन्न भारतीय नृत्य शैलियों से उन्होंने दृश्यात्मकता के तत्व उठाए। उन्होंने उषा नांग्यार जैसी वरिष्ठ कुडियाट्टम कलाकार से सीखा कि कैसे शरीर के एक छोटे से अंग के माध्यम से सम्पूर्ण भाव संप्रेषित किया जा सकता है। उनका कहना है- 'कविता के वाक्य को मैं शरीर के द्वारा कैसे प्रस्तुत करूं, यह मेरी तलाश थी।'
एकल अभिनय की संरचना: बहु-चरित्रीय नाट्यविन्यास
नाटक की सबसे प्रभावशाली विशेषता इसकी बहु-चरित्रीय एकल अभिनय संरचना है। यह एक प्रकार का एकल प्रस्तुति है, जो पारंपरिक एकल नाटक की शैली में आते हुए भी उससे आगे निकलता है। मीता इस नाटक में नौ किरदार निभाती हैं। कभी वे युवा लाल देद बन जाती हैं, तो कभी एक वृद्धा का स्वरूप ले लेती हैं। चरित्रों में वाचक (नैरेटर), लल्ला, लल्ला की सास, लल्ला का पति, और एक कपड़े का व्यापारी आदि शामिल हैं।
नाटक में “चादर” केवल एक वस्त्र नहीं है। यह एक प्रकार का सांकेतिक उपकरण है, जो हर बार दर्शक को यह बताता है कि मंच पर अब कौन उपस्थित है। चादर के इस रूपांतरण में हमें जापानी नोह (Noh) या काबुकी (Kabuki) रंगमंच की परंपरा की झलक मिलती है, जहाँ वस्त्र या मास्क से चरित्र पहचाने जाते हैं।
नाटक का निर्माण मुख्यतः 'शारीरिक रंगमंच' (Physical Theatre) की परंपरा में किया गया है। प्रत्येक पात्र के लिए ऊर्जा का स्रोत भिन्न है। युवा लल्ला में ऊर्जा का स्रोत ह्रदय है, वहीं सास में वह मस्तिष्क से निकलता है। पति की ऊर्जा कमर से ऊपर नहीं जाती, जबकि व्यापारी की ऊर्जा उसकी आँखों और हाथों में केंद्रित है।
‘लाल देद’ में मीता वशिष्ठ के अभिनय में अभिनेता (performer) और चरित्र (persona) के बीच की रेखा धुंधली हो जाती है। मीता वशिष्ठ का अभिनय एक प्रकार की देह का आध्यात्मिक अनुवाद सा है। यह एक 'वाचिक अभिनय' नहीं, एक 'शरीर का श्लोक' है।
भाषा और उसकी साक्षात अनुभूति
यदि थिएटर दृश्य अनुभवों का माध्यम है, तो "लाल देद" उन्हें तोड़कर ध्वनि, स्मृति, और अनुभव की अपारंपरिक संरचना रचता है। संवादों का उपयोग केवल नाटकीय प्रयोजन से नहीं किया गया है, बल्कि ये संवाद, विशेषकर “कस मार कस मारन मसत मारन कस” जैसे मंत्रवत उच्चारित वाक्यांश, समय और स्थान की रेखाओं को मिटा देते हैं।
नाटक में कश्मीरी, हिंदी, अंग्रेजी और पर्सियन भाषा का प्रयोग अनुवाद के बिना किया गया है, जो प्रस्तुति को एक सांस्कृतिक ईमानदारी प्रदान करता है। मीता का यह कहना कि "हर बात को समझना ज़रूरी नहीं, कभी सिर्फ़ उसकी ध्वनि भी काफी है", एक अत्यंत कलात्मक दृष्टिकोण है। वह कश्मीरी को इसलिए नहीं अनुवाद करतीं, क्योंकि वह जानती हैं, शब्द का अर्थ नहीं, उसकी अनुगूंज ही आत्मा में प्रवेश करती है। नाटक ध्वनि को "अनुभव" में बदल देता है और यही वह क्षण है जब दृश्य, ध्वनि में और ध्वनि, अस्तित्व की किसी और ही परत में बदल जाती है।
स्त्री और सन्यास — विरोध नहीं, समाहित चेतना
नाटक का मूल नारी चेतना है, पर यह चेतना न तो प्रतिक्रिया है, न ही पुरुष-विरोध। इस नाटक में ‘लाल देद’ का स्वर नहीं, यह समय की रेखा से बाहर खड़ी एक स्त्री की चेतना है। यह वह स्त्री है, जो विवाह, परंपरा, प्रेम, धर्म, तप सब पर प्रश्न करती है, लेकिन वह इनका विरोध नहीं करती, इन्हें जीकर, भेदकर, भीतर से जानकर उनसे ऊपर उठती है। नाटक में विवाह का प्रसंग है, जिसमें लाल देद कहती है कि "मैं ब्याह दी गई थी, मैंने तन से विरोध नहीं किया... पर प्रश्न उठे" एक ऐसी नारी की छवि रचता है जो खंडित नहीं, परिपक्व है।
यह नाटक एक स्त्री के 'योगिनी' बनने की कथा है। एक स्त्री जो विवाह करती है, अपमान सहती है, लेकिन अंततः अपनी साधना को नहीं छोड़ती। वह कहती है-
'गृहस्थी के कामों को भी साधना का हिस्सा बना लिया।'
'थाली में पत्थर हो या चावल का ढेर, अच्छा हो या बुरा, होने दो.'..यह एक गृहस्थिन का नहीं, एक साध्वी का स्वर है। संवादों के माध्यम से लल्ला के चरित्र की यह स्पष्ट यात्रा दिखती है- घर की दहलीज़ से झील तक, रसोई के पत्थर से शिव तक। देह के पार जाती स्त्री। 'गुरु ने कहा बाहर से भीतर जा, छोड़ आवरण सारे, मैं नाची निर्वसन।'
यह निर्वसनता सामाजिक विद्रोह नहीं है, यह आत्मा के उस स्वरूप की स्वीकृति है, जहाँ कपड़ा, लज्जा और पहचान सब कुछ झूठा है। उनकी देह पर पत्थर फेंके जाते हैं, फिर भी वे निर्वस्त्र होकर घाटियों से गुजरती हैं। वह न दृश्य से डरती हैं, न दृष्टि से क्योंकि उन्होंने शरीर को साधना का पात्र नहीं, साधना का माध्यम माना है।
नाटक में उनके सिर पर पति द्वारा लाठी का वार होता है। उसकी सास कहती है 'मैंने अपने बेटे का ब्याह किससे कर दिया... ये कैसी लड़की है... ये योग करती है।' नाटक इन पंक्तियों के माध्यम से लाल देद के शरीर पर समाज की दृष्टि का पाठ रचता है। स्त्री का शरीर यहाँ सामाजिक निगरानी और अस्वीकार का स्थल है। लेकिन लल्ला इस निगरानी को तोड़ती है, वह निर्वस्त्र होकर चलती है, वह प्रेम में नहीं बल्कि परम की खोज में बहती है।
नाटक का यथार्थ या यथार्थ का नाटक
पुनर्जन्म, पानी पर चलना... इस नाटक में कई विज्ञान-विरोधी घटनाओं को पात्रों के अनुभव के रूप में प्रस्तुत किया गया है। तो क्या यह नाटक यथार्थविरोधी कहा जाएगा या वह यथार्थ के एक अन्य, आत्मिक संस्करण की रचना करता है?
'सात जन्म पहले भी मैं औरत थी...' से लेकर 'मैं घोड़ी बनी... मैं पिल्ला बनी...'तक लाल-देद का संवाद नाटक को पुनर्जन्म के मिथक से जोड़ता है। यहाँ पति और सास स्वयं लाल देद के चमत्कार के क्षण के साक्षी बनते हैं। उनके लिए यह अनुभव अलौकिक नहीं, अनुभवजन्य है। इसलिए यह नाटक इन चमत्कारों को य़थार्थ की तरह व्यक्त करता है।
परंतु क्या यह नाटक को प्रतिगामी बनाता है? शायद हाँ, और शायद नहीं।
पुनर्जन्म यहाँ आलंकारिक नहीं, बल्कि अस्तित्ववादी प्रश्न है। क्या स्त्री को बार-बार जन्म लेना पड़ेगा, तब तक जब तक वह अपनी 'स्व' सत्ता को खोज न ले?
संतुलन की खोज
'कस मार कस मारन मसत मारन कस?' यह प्रश्न इस आलेख का आरंभ था, और अब यह उत्तर है। नाटक के एक दृश्य में बिना वस्त्र की लाल देद कपड़ा चीरकर दोनों कंधों पर रखती है, सम्मान और अपमान होने पर अलग-अलग कंधे के कपड़े पर गांठें बांधती है। सम्मान और अपमान की गांठें बराबर हैं, लल देद कहती है 'इन्हें तौलो।'
इसी तरह यह नाटक भी शिल्प (form) और कथ्य (content) के संतुलन की सतत तलाश में चलता है, लेकिन यह संतुलन पारंपरिक नहीं है, यहाँ शिल्प और अभिनेता कथ्य से आगे की यात्रा करते हैं, जबकि कथ्य एक उत्तरगामी छाया की तरह पीछे चलता रहता है। यह संरचना एक प्रकार की कथा-विच्छेद को जन्म देती है। इस नाटक का प्रस्तुति-शिल्प इस तरह की रचना को संभव बनाता है, अभिनेता का शरीर कथ्य का वाहक नहीं, बल्कि एक स्वतंत्र सौंदर्य उपकरण बन जाता है। यही कारण है कि यह नाटक एक स्तर पर metatheatrical या अवास्तविक हो उठता है।
यह नाटक मध्यकालीन जीवन-दृष्टियों को वर्तमान में पुनःस्थापित करने का प्रयास करता है, विशेषकर उस समय के आध्यात्मिक-धार्मिक विमर्शों को, जो उस युग की सामाजिक विडंबनाओं से बचने की आत्मगत युक्ति थी। उस समय का अध्यात्म, जीवन के कठोर यथार्थ से एक अंतर्मुखी पलायन का एकमात्र रास्ता था, मगर वो भी सीमित, वर्गीय और बहुधा स्त्री-विरोधी था।
इसके बाद भी इस नाटक को धार्मिक नाटक के तौर पर खारिज नहीं किया जा सकता है। यह नाटक धार्मिक स्त्री के जीवन को सामने रखता है, मगर कबीर की तरह-'मंदिर में मूरत पत्थर की... ऊपर से नीचे तक सब पत्थर का ढेर... पंडित तू क्या है?' यह संवाद धार्मिक कट्टरता पर सीधी चोट है। यह प्रस्तुति किसी 'धार्मिक सत्य' को नहीं, बल्कि 'अंतर्ज्ञानात्मक सत्य' को प्रतिष्ठित करती है।
कश्मीरियत और सांझा संस्कृति की खोज
लाल देद के शब्दों में: 'एक चित्त की आग में जलकर, जो बचता है, वही सत्य है।'
नाटक के एक दृश्य में कबीर की तरह लाल देद के मृत्यु के बाद अंतिम संस्कार कौन करेगा के प्रश्न को लेकर हिंदू-मुस्लिम में झगड़ा होता है। लेकिन लाल देद का शरीर प्रकाश बनकर विलीन हो जाता है, जैसे कबीर का शरीर फूल बन जाता है। यह केवल मृत्यु की मुक्ति नहीं, यह साम्प्रदायिकता की अस्वीकृति है और यही कश्मीरियत है।
लाल देद ने न कभी शिष्य बनाए, न कोई पंथ चलाया। फिर भी नूरुद्दीन नूरानी जैसे सूफी संत उन्हें गुरु मानते थे। यह उनकी आत्मनिर्भर चेतना का प्रमाण है। एक समाज जिसमें न कोई लीडर हो, न कोई अनुयायी—लल का यही समाज है और यही कश्मीर है। कश्मीर में बहुत सारी रिलीजन होनेके बावजूद एक शेड कल्चर है, लाल देद उसी संक्रमणशील संस्कृति की प्रतिनिधि है और कश्मीरियत की भी।
नाटक का एक प्रमुख संवाद है: ,'तुमने हरि को कहा, दूर हटो, और दुनिया को समेट लिया।' यह संवाद केवल धार्मिक आलोचना नहीं, बल्कि लौकिक मोह की तीव्र आलोचना है। जब लाल-देद अपनी सास के द्वारा थाली में सिलबट्टा रखे जाने पर भी चावल खाने और साधना करने की बात कहती हैं, तो यह दृश्य शारीरिक श्रम और आत्मिक साधना के बीच एक अद्भुत संतुलन की स्थापना करता है- 'मैंने कपड़े में बदल जाने से पहले खुद को चरखे पर काता, फिर काटा, फिर सी लिया…' इस नाटक में लाल देद की आत्मा एक कथा नहीं कहती, एक मिथक रचती है। वह घोड़ी बनती है, पिल्ला बनती है, और कहती है कि यह मेरा सातवां जन्म है- नहीं, यह पुनर्जन्म का आख्यान नहीं है, यह आत्मा के 'कर्म-चक्र' को समझने का विनम्र प्रयास है।
इसलिए नाटक में वर्णित चमत्कार को यदि हम केवल ‘वास्तविक घटना’ मानें तो हम उसकी नाट्य-संभावना खो देंगे। नाटक में चमत्कार वह नहीं है जो वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हो, बल्कि वह है जो दर्शक के अंतर्मन को प्रभावित कर सके। रंगमंच यथार्थ का अनुकरण नहीं करता, वह यथार्थ को पुनर्सृजित करता है। यह पुनर्सृजन तब अधिक जटिल हो जाता है जब मंच पर “सत्य” की बजाय “व्यक्तिगत सत्य” प्रकट होता है, ऐसा सत्य जो अनुभवों, स्मृतियों, विश्वासों और आंतरिक यत्नों से उत्पन्न होता है।
संक्षेप में कहा जाए, तो रचना और प्रस्तुति के मध्य का यह विचलन, इस नाटक को एक नियर-परफेरक्ट शिल्प तो बनाता है, लेकिन एक सुचिंतित विचारपूर्ण नाट्य अनुभव नहीं। लेकिन जैसा कि निर्देशक मीता वशिष्ठ ने कहा था कि लेकिन उनमें (समकालिन यथार्थ के नाटक) से हर एक में मुझे फिर उसी गुस्से को जीना पड़ता, वही गुस्सा जिससे मैं अपने निजी जीवन में पहले से ही पीड़ित हूं और मुझे इससे आगे जाना है। इसलिए अभिनेता और निर्देशक का ध्यान आंतरिक अवस्था के मंचन पर है, जो उन्हें बाह्य यथार्थ से विमुख करता है। यह शिल्प-कथ्य-द्वंद का असंतुलन है, जहाँ शिल्प कथ्य से आगे निकल गया है, और कथ्य पीछे से उसका अनुसरण करने की चेष्टा कर रहा है।
मध्यकाल, अपने धार्मिक संरचनाओं और सामंती आस्थाओं के बावजूद, एक धार्मिक समरसता का दौर रहा हो सकता है, लेकिन नाटक उस युग के या इस युग के सामाजिक-राजनीतिक अंतर्विरोधों को मंचित नहीं करता। वह उस युग को एक पौराणिक शरणस्थली की तरह प्रस्तुत करता है, ऐसा स्थल जहाँ आज का गुस्सा, असंतोष और संघर्ष धुंधला पड़ जाता है। नाटक जिस प्रकार मध्यकालीन तत्वों पुनर्जन्म, साधना, भक्ति, और चमत्कार को मंच पर लाता है, उसमें कालभ्रम का खतरा उपस्थित रहता है। यह अतीत से संवाद नहीं, बल्कि नोस्टालजिक श्रद्धा लगता है।
अगर निर्देशक का उद्देश्य जीवन के प्रत्यक्ष यथार्थ से आगे जाकर एक नव-यथार्थ की रचना करना था, एक ऐसा यथार्थ जो अनुभव, स्मृति, स्वप्न, आत्मबोध और आध्यात्मिकता से निर्मित हो, तो यह नाटक निस्संदेह रूप से सफल कहा जा सकता है। मीता वशिष्ठ का ‘लाल देद’ दृश्य माध्यम के भीतर एक ऐसी दुनिया गढ़ती हैं, जो न तो पूर्णतः ऐतिहासिक है, न ही समकालीन, बल्कि एक कालातीत अनुभव की तरह उपस्थित होती है।
यह नव-यथार्थ मिथकीय संरचना, गूढ़ प्रतीकों, और अंतर्मुखी संवाद से बना है, जो भारतीय रंगपरंपरा में ‘अनुभावनुभूति’ या रसानुभूति की परंपरा से जुड़ता है। यह अनुभव किसी सामाजिक यथार्थ को प्रस्तुत नहीं करता, बल्कि उसे अतिक्रमित करता है। यहाँ मंच केवल जीवन का प्रतिबिंब नहीं, जीवन की संभावना बन जाता है।
यह नाटक मंच पर "presence of presence" रचता है, जिसमें कोई वस्तु, कोई भाव, कोई शब्द अपने होने से अधिक हो जाता है। मीता वशिष्ठ द्वारा अभिनीत यह नाटक भी दृश्य-काव्य की एक परिपक्व मिसाल है, जहाँ नाटक दृश्य-कविता की तरह बहता है। लेकिन, जब हम आलोचना के धरातल पर उतरते हैं, तो यह दृश्य-कविता अधूरी लगती है, एक ऐसी कड़ी जिसमें आत्मा है, लेकिन वह आत्मा किसी ऐतिहासिक या समकालीन दिशा में प्रस्थान नहीं करती। जैसे ओडिपस की त्रासदी केवल उसकी दृष्टिहीनता की कथा नहीं, बल्कि उस समाज के सत्य-बोध की भी कथा थी, वैसे ही यदि यह नाटक भी अपनी आत्मा की रोशनी को इतिहास और वर्तमान की संवेदनाओं पर डालता, तो वह अधिक पूर्ण संवाद रच सकता था। इसलिए इस नाटक में जो यथार्थ निर्मित होता है, वह अस्तित्वगत यथार्थ है, न कि ज्ञानात्मक-सामाजिक यथार्थ।