नीलेपन के बहाने :Blue

’के के’ के फिल्मों की सबसे खास बात यह भी है कि कोई भी निर्जीव वस्तु एकाएक जीवित हो उठती है।‌ या फिल्म के फ्रेम में आ रही सभी वस्तुएं सांस लेती हुई अपनी बारी, अपनी भूमिका की अंतहीन-सी प्रतीक्षा करती हैं। हवा, चाय के कप, किताबें, परदे, बल्ब,सड़क सभी फिल्म में निर्णायक की भूमिका में उतने ही लगते हैं, जितने इस फिल्म के पात्र। जिस पुल में नायिका नीलेपन के रंग वाले दुःख के साथ सघन अकेलेपन में तैरती है, उसकी लहरें भी उसी आवृति में खामोश और हमजुबां होती हैं।

ये सारी क्रियाएं संवेदना की अतिशय सघनता ही कर सकती हैं। दूजे वायवीय अर्थों में मुझे लगता है कि इसे कोई जादूगर ही संभव कर सकता है।एक नीला पन्ना, जो फिल्म में अंत तक अपनी भूमिका निभाता है। यहाँ तक कि सड़क पर निरुद्देश्य भाग रहा कोई आदमी भी, जिसका लौकिक रूप से तो फिल्म से कोई सम्बन्ध नहीं, पर पूरी कहानी की गति से सम्बन्ध जरूर है। क्या हम जिस संसार में रहते हैं, वहां के आस पास की निर्जीव चीजें भी हमसे हमजुबां रहती हैं? जैसे अगर किसी सुनहले से छरहरे दिन में हमने कोई चॉकलेट खाकर उसकी चमकीली पन्नी को सड़क पर फेंक दिया और अगली बरसात में जब हम तेजी से कहीं भाग रहे होतें हैं और वह हमें सड़क के किनारे मिट्टी में फंसी हुई मिल जाये, तब कितनी भी जल्दी हो हम ठहर जाते हैं। वह एक पन्नी हमें समय में कितनी दूर तक ले जाती है। तब उस पन्नी में अब तक साँस ले रही एक समय की निरर्थकता उस वक्त कितनी सार्थक और उजली और ऊष्मीय लगती है!

स्मृति का एक पतला-सा कवच तक, समय के आगे हमसे संभव नहीं हो पाता है। लेकिन शायद इस अतुल्य भार को चीजें ही वहन कर सकती हैं। उसे सक्षम ढंग से हम से कहीं ज्यादा अभिव्यक्त कर सकती हैं, .जिसे ‘केके’ पूरी समर्थता से फिल्माते हैं।

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मौलिकता के सन्दर्भ में केके बड़ी अनूठी बात कहते हैं। जो इस सन्दर्भ में मुझे अब तक की सबसे सर्वोपरि बात लगती है। फिल्म में एक बांसुरी वाला है, जो गली में एक बहुत उदास धुन बजा रहा है। यह धुन रेस्तरा में बैठे नायिका और एक पात्र के बातचीत के बीच पृष्ठभूमि में भी बजकर उन्हें अतीत में खिंच कर ले जाती है। यह धुन कभी खुद नायिका और उसके मर चुके पति की बनायी हुई होती है। बज रही धुन हू-ब-हू वही होती है। वह बातचीत के दौरान ही चौंकती है।

.नायिका गली से गुजरते हुए उस आदमी से पूछती है कि उसने वह धुन कहाँ से पायी है। आदमी कहता है कि वह उसकी है। खुद की बनायी हुई। और फिर वह मगन हो जता है। थोड़ी देर तक नायिका वहां रुकती है। कुछ सोचती है। फिर चली जाती है। इस आदमी की भूमिका भी बस इतनी ही है। और के के की शैली भी यही है।

 बाद में एक इंटरव्यू में केके कहते हैं कि हर आदमी कहीं-न-कहीं एक जगह मिलता है। हर धुन या विचार किसी के अपने नहीं होते। किसी जुड़वे की तरह उनका अस्तित्व रहता है। यह आदमी के बीच पाए जाने वाले एक किस्म की सार्वभौम एकता को दिखाता है।

प्रेम के बारे में : A Short Note About Love

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केके की फिल्मों में एक शब्द की व्याख्या कुछ अधिक ही होती है। वह शब्द है ‘नथिंग।' भारतीय दर्शन के सन्दर्भों में भी यह प्रासंगिक है। प्रेम के बारे में वे देह की उपस्थिति को नकारते भी हैं। और उनकी फिल्मों में प्रेम और उसके उलट अकलेपन की शुरुआत नथिंगनेस से होती है। प्रेम की उत्पत्ति भी हमेशा नथिंग से ही होती है। नथिंग से पैदा होने वाली नायाब वरदानों में से यह एक है। और प्रेम की मांग भी नथिंग ही होती है। इस सन्दर्भ में 'ए शॉर्ट फिल्म अबाउट लव' प्रासंगिक है, जब नायक अपनी प्रौढ़ नायिका से कहता है कि वह उससे कुछ भी नहीं चाहता है। वहां वह कई बार नथिंग शब्द का प्रयोग करता है। फ़िल्म 'ब्लू' में भी इसका प्रयोग है, पर वह किसी दूसरे अर्थों में हैं। वहां की पृष्ठभूमि अकेलापन और संत्रास है और उससे उपजता नथिंगनेस है। 'नथिंग' वह कोरा जगह या स्थान है, जहाँ सब कुछ होना बाकी रहता है। विनोद कुमार शुक्ल के पंक्ति में कहूँ तो नहीं होने में सब कुछ होना बचा रहेगा।

 प्रेम के बारे में और : Red

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के के की अधिकतर फ़िल्में हमारी निजता में एक निरपेक्ष हस्तक्षेप करती हैं। निजता में हस्तक्षेप का अधिकार किसी को नहीं होना चाहिए। पर इस धरती पर जिसे भी यह अधिकार मिलना चाहिए, उसे लेखक या कलाकार होना चाहिए। हमारा अकेलापान, संत्रास, घुटन ,बेचैनी, कुंठा और कभी-कभी असामान्य से दिखते व्यवहार, हमारी निजता की देन हैं। उत्पाद हैं। इस निजता को के के शानदार तरीके से फिल्माते हैं। एक लेखक या फिल्मकार या कलाकार होने के नाते यह हमारी मूल आवश्यकता हैं कि किसी की निजता में एक मासूम,सार्थक, गोपनीय और सकारात्मक हस्तक्षेप करें।या छूट लें। के के के फिल्मों के पात्र कभी टेलीफोन से कई लोगों की बातें सुनते हैं। तो कभी दूरबीन से हमारी अंतरंगता को देखते हैं। वे हमारे निजता के भी निर्देशक हैं। दूसरे अर्थों में वे हमारी निजता की सार्वजनिकता के निर्देशक हैं। वैसे यह निजता वाली बात बहसतलब सिद्ध होनी चाहिए। पर कलाकार इसका इस्तेमाल जरुर करते हैं। एक फिल्म का बहुत अच्छा संवाद याद आता है जिसमे यह कहा गया है कि 'राजनेता झूठ का इस्तेमाल करते हैं सच छिपाने के लिए, और एक कलाकार झूठ का इस्तेमाल करता है, सच बताने के लिए।' कलाकारों के संदर्भ में यह सच हमारी निजता है और झूठ उस सच के आधार पर रची गयी हमारी सार्वजनिकता है। 

 प्रेम को परिभाषित करते हुए वे उम्र को दरकिनार कर देते हैं। और देह को नकार देते हैं। (हांलाकि देह की महत्ता को वे व्हाइट में अलग से दिखाते हैं) उनकी नायिका प्रेम में नहीं, कभी कुंठा और तनाव दूर करने के उद्देश्य में सम्बन्ध बनाती हुई दिखती है। उनकी फिल्मों में एक बूढा अपनी बेटी के बराबर उम्र वाली लड़की से कहता है कि तुम्हें मैं सपने में देखता हूँ और तुम पचास साल की हो। यह मेरा अब तक के देखे गए सपने में से सबसे प्यारा सपना है। नायिका कहती है कि क्या यह सपना सचमुच सच होगा? फिर एक ख़ामोशी-सी पसर जाती है। यह ख़ामोशी और स्पेस हम दर्शकों के लिए होती है, जिसे केवल के के और शायद के के ही दे सकते हैं। उनकी फिल्मों में नायिका जार जार रो रही है।

कारण बस नथिंग। उनके फिल्मों में एक किशोर एक प्रौढ़ नायिका से कहता है- 'मैं तुमसे प्रेम करता हूँ।नायिका कहती है कि चाहते क्या हो -'सोना, घुमाना, कॉफी पीना ....लड़का कहता है नथिंग ....फिर सघन खामोशी ..इस खामोशी में नथिंग की प्रतिध्वनि बहुत दूर तक जाती है। वहां तक जहाँ से लड़के के अन्दर प्रेम आ रहा होगा। लड़का उस वैक्यूम हुए दृश्य में गायब-सा हो जाता है। फिर भाग जाता है। भागना हम उस सघन वक्त में नहीं देख पाते। नथिंग के घनत्व को देख लेते हैं।

उदास धुन में डूबे रंग का दर्शन

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केके हमेशा अपनी फिल्मों में एक बेहद उदास किस्म का संगीत चुनते हैं। यह कुछ ऐसे है, जैसे कि निर्जीव वस्तुओं से निकालकर धुन गढ़ दी गयी हो। जीवन से बहुत दूर उसकी रहनवारी होती होगी।एक अधूरी किस्म की ....निष्प्राण, निस्पंद, बहुत दुखद ...और बेचैन इतनी कि जैसे कुछ तलाश कर रही हो।शायद यह उनके बीते जीवन की निरर्थकताबोध से उपजा हो। एक साक्षात्कार में वे बताते हैं कि मैंने हमेशा थके, पीड़ित और बोझिल लोगों को देखा है। पोलैंड की सड़कों पर घूमते हुए उनका कैमरा ऐसे ही लोगों पर फोकस होता है। उनकी चेतना की आँख ऐसे ही लोगों को देखती है। एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म उन्होंने बनायी जो लोगों के सामने कुछ प्रश्न रखती थी। ये प्रश्न उनके जीवन के बारे होते थे। के के कहते हैं कि किसी ने अपने खुश होने के बारे में नहीं बताया। केवल एक शराबी को छोड़कर, जिसने कहा मैं इस दुनिया में खुश हूँ। के के आगे कहते हैं कि यह दुनिया दुखों से भरी है। एकदम श्वेत–श्याम। फिर एक सटीक नाम चुनते हैं - ग्रे। यह दुनिया ग्रे हैं। रंगों का चुनाव वे अद्भुत करते हैं। शायद इसीलिए उनकी फिल्में एक ख़ास रंग में डूबकर चलती हैं। यहाँ तक कि 'ए शॉर्ट फिल्म अबाउट कीलिंग’ में भी वे बेहद हलके धूसर पीलेपन का अन्धेरा रखते हैं। शायद उनके हिसाब से यह मृत्यु का रंग हो। एक चीज जो अक्सर उनके होठों से लगी दिखती है---वह है सफ़ेद जलती हुई सिगरेट। मै सोचता हूँ कि इस धुंवे से उनका लगाव लाजवाब ही रहा होगा, तभी जब उनके पात्र को फांसी दी जा रही होती है;  तब उसे एक सिगरेट की तलब होती है। उस वक्त क्या कहना चाहते हैं के के? वहां वे किसी के पक्ष में खड़े नहीं होते हैं पर यह सिगरेट हमें बहुत कुछ याद दिलाती है। सिगरेट और केके का संबंध बहुत गहरा है। केके के डॉक्टर उनके सिगरेट पीने से लगातार चिंतित हैं। साक्षात्कार में वे उनके लंग्स का एक्स रे लहराते रहते हैं।  उनके साक्षात्कार में शब्द और धुंवे एक साथ एक दूसरे पर चढ़ते हुए निकलते हैं। एक गति में बोलते हैं वे।उनकी बातों में एक चमक है। उनका चेहरा जिज्ञासा की अंतिम परिपक्वता लिए हुए होता है।और हम जानते हैं कि जिज्ञासा कभी किसी को बूढ़ा नहीं होने देती। इसलिए अपने खो चुके बालों और चेहरे पर बैठी एक मुश्त उम्र के बाद भी वे एकदम युवा और ऊर्जस्वित दिखते हैं।

केके कहते हैं कि आदमी यह नहीं चाहता कि कोई उसे नियमो में बांधे। चाहे वह धर्म हीींक्यों न हो। वे उस समय के चर्च के नियमों को भी नापसंद करते थे। वे बताते हैं कि.जिन तीन चीजों की बुनियाद पर किसी समाज का नीव पड़ती है वह है --- भाईचारा, समानता और न्याय। वे बताते हैं कि ये सभी चीजें हमारे समाज में एक सिरे से गायब हैं। यहाँ वे ‘’none of these thing existed’’ जैसे बेहद भारी शब्द का इस्तेमाल करते हैं। वे एक बंधनमुक्त समाज की बात करते हैं। हरेक अपनी नियति का नियंता खुद है। उसे अपनी तरह जीने का अधिकार है। जाहिर-सी बात है के के की फ़िल्में भी इन्ही सद्गुणों के आस-पास बसेरा करती है।

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कभी कभी मैं सोचता हूँ कि क्या के के नियतिवादी हैं? भाग्यवादी कहना तो उनके लिए निरर्थक है। या फिर फिल्म में उनके किये गए इशारे सम्प्रेषण के तहत महज एक संयोग भर होते हैं। लगता है की यह उनकी शैली है जो पूरी फिल्म के ऊपर बारिश की तरह छाई होती है।फिल्म ब्लू की शुरुआत में ही एक लडके के हाथ वाले खेल के द्वारा वे घटित होने जा रही दुर्घटना का इशारा करते हैं। जैसे ही वह लड़का अपने खेल में सफल होता है, वैसे ही कार एक पेड़ से जाकर लड़ती है। जहाँ से नायिका के अकेलेपन और कठिन संत्रास से भरे जीवन की शुरुआत होती है। बस लड़के की भूमिका यहीं ख़त्म हो जाती है। लड़का कौन है, क्या हैै? फिल्म में यह नहीं बताया गया है। वह स्वतंत्र और निरपेक्ष चरित्र है। फिल्म के बीच के हिस्से में वह फिर मिलता है। वह नायिका को उसका एक क्रास चिन्ह लौटाना चाहता है, जो दुर्घटना के समय कार के बाहर गिरा हुआ मिला होता है। नायिका उससे मिलती जरुर है, पर वह चिन्ह नहीं लेती है। यह उस घटना के प्रति, क्रॉस की सत्ता के प्रति निषेध है। एक प्रश्न चिन्ह! उस पवित्र चिन्ह के प्रति एक गुस्सा। ऐसा गुस्सा जिसके शिकार फिल्म में कई लोग होते हैं। नायिका खुद भी होती है। उसी के बरक्स एक चुहिया उसके लिए गए अपार्टमेंट में एक कोने में बिखरे पड़े सामानों के बीच में रहती है। चुहिया के बच्चे जैसे अभी-अभी जन्मे होते है। और कई रहते हैं। नायिका उन्हें हटाना चाहती है पर वह अपने हिस्से में बचे एक करुण कोने की वजह से उन्हें हटा नहीं सकती है। उन्हें हटा देना भी एक प्रकार से मार देना ही होता। इसलिए वह उन्हें नहीं हटाती। बगल के कमरे में रहने वाले पड़ोसी ने एक बिल्ली पाल रखी होती है। एक दिन जब नायिका घर आ रही होती है तब पता नहीं किस आवेग में वह बिल्ली को पड़ोसी से मांग कर लाती है और उस जगह पर छोड़ देती है जहाँ उसके चुहिया और उनके बच्चे रह रहे होते हैं।

लेकिन इस दृश्य को देखने से कुछ देर पहले हम वह दृश्य देख चुके होतें हैं, जिसमे चुहिया अपने बच्चों को वहां से हटा रही है।और यह दृश्य लगभग हम भूल चुके होते हैं।पर जैसे ही वह बिल्ली उस कमरे में ले जाकर छोड़ती है।वे सारे सीन अवचेतन से निकलकर हमारे सामने आ जाते हैं। नायिका को कमरे में बस बिल्ली छोड़ते हुए दिखाया जाता है। कमरे के अन्दर चुहिया है या नही , वह बिल्ली उसके बच्चो को खाती है अथवा नहीं, यह नहीं दिखाया जाता है। क्या कहना चाहते है के के कि नियति को हम नियंत्रित नही कर सकते है! हम बस उसके भागी है।‌सब कुछ घटित होना तय है। या कुछ और कहना चाहते हैं? और वह लड़का जिसका खेल सफल होने के बाद कार दुर्घटना होती है। वह अंत तक अपने को दोषी मानता-सा दिखता है। शायद वह सोच रहा होता है कि उन घटनाओं का जिसमे नायिका अपने पति और बेटे को खो चुकी है,का जिम्मेदार खुद वह है। अगर उस रोज वह खेलने में सफल नहीं हुआ होता शायद वह दुर्घटना न हुई होती। वह हमेशा इसी मनोग्रंथि में सोचता हुआ दिखता है। और वह क्रॉस उसे ही क्यों मिला ??? और उसने उस क्रॉस को ही क्यों उठाया, जबकि कार से एक गेंद भी लुढ़ककर बाहर आ रही होती है। फिल्म में उस लड़के को भी बेहद तनाव ग्रस्त दिखाया गया है। गिनकर चार पांच ही दृश्य होंगे  उसके पर सभी निर्णायक हैं। 

 चलिए, अपनी बात को मैं एक और उदहारण देकर स्पष्ट करने की कोशिश करता हूँ। फिल्म ‘ए शॉर्ट फिल्म अबाउट कीलिंग' में जिस कार वाले ड्राइवर की हत्या होनी है। वह अपनी तीन सवारी को छोड़कर उसे ही क्यों बैठाता है, जो आगे चलकर उसका हत्यारा निकलता है। एकदम सुबह का दृश्य जब कार साफ़ कर रहे उस ड्राईवर के पास एक युगल आता है और कहीं चलने के लिए कहता है। कार वाला कहता है कि अभी वह सफाई कर रहा है। जोड़े में से पुरुष कहता है कि कोई बात नहीं वह इन्तजार करेगा। लेकिन इन्तजार करने के बाद भी वह कार लेकर चला जाता है। युगल ताकते रह जाते है। फिर दोपहर का समय, शहर बीच में सड़क पर दो आदमी, जिसमे से एक शायद बीमार या शराबी, दूसरे के कंधे पर लुढ़का हुआ। वह आती हुई कार को रोकता है। वो गाड़ी रोकते-रोकते नहीं रोकता है। अब शाम का वक्त अपने हत्यारे को जैसे ही वह बैठाने वाला है, ठीक उसी समय दो आदमी आते हैं और किसी जगह जाने के लिए कहते हैं। कुछ सेकण्ड ड्राइवर सोचता है, लेकिन वो उन्हें न बैठाकर हत्यारे को बैठा लेता है। फिर सूरज ढलने का समय, बेहद सुनसान इलाका, रास्ते में ड्राइवर की हत्या। अब बताइये क्या कहना चाहते है के के? यह नियतिवाद नहीं है? अगर नहीं तो यह क्या है?शायद के के रहते तो फोन करके पूछा जाता ...

जीवन और मृत्यु का दुहराव: रेड और डबल लाइफ ऑफ वेरोनिका

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केके की फ़िल्में मृत्यु के आगत और जीवन के पुनश्च का आख्यान भी रचती हैं। वे अकेलेपन के रिक्त विन्यास को चीजों की उपस्थिति से भरते हैं। मानवीय सम्बन्धों के अतुल्य वितान को वे घटनाओं के संयोग पर रचने वाले निर्देशक हैं। उनकी फिल्मों में इन सब विशेषताओं की पकड़, एक उद्दात किस्म का रहस्य और जादू रचती हैं, जो बार बार दर्शक को पुनश्च अपनी और लौटा लाती हैं। 

जीवन अपनी उपस्थिति को बार बार ठीक करता है।‌ वहीँ मृत्यु और उसी से मिलता-जुलता अवसाद बार-बार उसका अनुगामी होता है। फिल्म 'रेड' जिसमे एक जज है और उसकी जीवन कथा इतनी अकेलेपन में डूबी है जैसे लगता है कि कोई लिखी जा रही स्क्रिप्ट बीच में अधूरी छूट गयी है। जिसे हू-ब-हू पूरा करने के लिए नायिका आती है। हम जिन रास्तों और जगहों से छूट चुके होतें है वहां पर हमारी अनुपस्थिति कभी-कभी एक नया जीवन बचा कर रखती है। हमारा वहां लौटना कभी-कभी निर्णायक सिद्ध होता है। वे जीवन के दो पहलू को एक साथ देखते हैं।

इस बात को ऐसे समझिये कि मृत्यु के पश्चात् भी हमारे जीवन का हिस्सा कई सारी जगहों पर बिखरा पड़ हुआ मिल जाएगा और कहीं न कहीं हम भी एक दूसरे किस्म का या फिर अपना ही जीवन जीते मिल जायेंगे। जीवन के मौलिकता पर वे प्रश्नचिन्ह उठाते हैं।उनकी फिल्म में नायिका अपनी मृत्यु के पश्चात् एक और जीवन जीती हुई दिखती है। यह जीवन की प्रतिलिपि है।वहीँ एक बूढ़े नायक के जीवन की अधूरी प्रेम कहानी को जीवन फिर ठीक करता है। मूलतः यहाँ जीवन ही ऐसा मुख्य नायक है जो बार-बार अपने अस्तित्व को बचाने चला आता है। हमेशा नए रूप में।‌ रेडफिल्म के अंत में बूढ़े जज का संतुष्टि भरा चेहरा इतना आश्वस्तदायी होता है कि फिल्म ख़त्म होने का सबसे सही वक्त मान लिया जाता है। अपनी बेटी के उम्र के नायिका से उसका लगाव उसे एक नए किस्म के जीवन राग से भर देता है। पर वास्तविकता में यह संभव नहीं हो पाता। लेकिन संवाद के आभासों से यह मालूम होता है कि नायिका खुद उसे चाहने लगी है। वह बार-बार उस मकान से जाती है पर एक अबूझ किस्म के सम्बन्धों के चलते संयोग उन्हें बार-बार मिलाता है।‌ और एक दिन जब वह शहर छोड़ कर जा रही होती है, तब वह समुद्री तूफ़ान का शिकार हो जाती है। बचे सात लोगो में नायिका के साथ साथ एक युवा जज भी रहता है। जिसकी कथा फिल्म में समान्तर चलती है। उस युवा जज में बूढा जज अपना जीवन खोज लेता है। फिल्म में भी कमोबेश युवा जज का जीवन, बूढ़े के काफी करीब होता है। इस तरह से उस बूढ़े जज की संतुष्टि,नायिका को पाने की संतुष्टि की तरह दिखती है। युवा जज का जीवन बूढ़े जज का प्रति- आख्यान है। एक तरह से जीवन का यह प्रतिस्थापन्न है।या कहें तो यहाँ जीवन ही वह कारक होता है,जो अपने स्क्रिप्ट को फिर से दुरुस्त करता है। जीवन का यह दुहराव उनकी फिल्म में बार-बार आता है। फ़िल्म 'डबल लाइफ ऑफ़ वेरोनिका' में दो नायिकाएं अलग-अलग है। हमशक्ल। एक फिल्म में दस मिनट के बाद ही मर जाती है। दूसरी के जीवन का साम्य फिल्म में अंत तक चलता है। बाद में एक कठपुतली-वाचक द्वारा इस फिल्म की व्याख्या होती है। वह कहता है कि मैं हमेशा दो कठपुतली एक साथ बनाता हूँ। इन्हें नचाते हुए कभी कभी एक टूट जाती है तो मैं दूसरी का इस्तेमाल कर लेता हूँ। यहाँ ‘दूसरा’ शब्द एक दुहराव है। जीवन और उसके नियमों का दुहराव!!

क्रमशः ....