कथा प्रांतर: रहस्यलोक की यात्रा का हासिल

साहित्य की तमाम विधाओं के बीच कहानी की लोकप्रियता इस बात से समझी जा सकती है कि प्रति वर्ष अनुमानतः पाँच सौ से ज्यादा नई हिंदी कहानियां पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती हैं। नई कहानी के दौर में पहली बार कहानियों के विधिवत मूल्यांकन का जो सिलसिला शुरू हुआ था, आज वह एक सुदीर्घ परंपरा के रूप में विकसित हो चुका है। 'कथा प्रांतर' चुनिंदा कहानियों के मूल्यांकन की एक शृंखला है, जिसकी हर कड़ी में कहानीकार आलोचक राकेश बिहारी किसी समकालीन कहानी की विवेचना करेंगे। इस शृंखला की पहली कड़ी में प्रस्तुत है, वनमाली कथा (दिसंबर 2024) में प्रकाशित अवधेश प्रीत की कहानी 'मिनी' पर केंद्रित यह आलेख।

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“ ‘छोटे मुंह बड़ी बात’ कहने वाली कहानी के बारे में प्रायः ‘बड़े मुंह छोटी बात’ कही जाती है। कहानी का यह दुर्भाग्य कि वह मनोरंजन के रूप में पढ़ी जाती है और शिल्प के रूप में आलोचित होती है।”  
                                                                                                 

                                                                                                   (कहानी नयी कहानी; नामवर सिंह)

इक्कीसवीं सदी का एक चौथाई बीत जाने के बाद जब मनोरंजन के जाने कितने साधन उपलब्ध हैं, यह कहना बहुत मुश्किल है कि आज कितने लोग मनोरंजन के लिए कहानियाँ पढ़ते हैं। इस जिज्ञासा का समाधान एक स्वतंत्र शोध की मांग करता है, जो इस आलेख का उद्देश्य नहीं है। हो सकता है किसी साहसी शोधार्थी का ध्यान इस प्रश्न की तरफ भी कभी जाय। बहरहाल, मैं नामवर जी के उपर्युक्त कथन की तर्ज पर बात बड़ी हो कि नहीं, पर छोटे मुंह यह कहना चाहता हूँ कि आजकल प्रायः कहानियाँ ‘विषय’ या ‘संरचना’ की तरह लिखी और उसी तरह विवेचित की जाती हैं। यहाँ ‘संरचना’ शब्द का प्रयोग करते हुए मेरे अर्थबोध में कहानी के स्थापत्य और भाषा विन्यास दोनों के संदर्भ शामिल हैं। कहानी में आये बदलावों को संरचनागत परिवर्तनों या समय के आलोक में उपस्थित नए विषय-संदर्भों की दृष्टि से ही विवेचित करने का नतीजा यह होता है कि बिना संरचनात्मक या विषयगत प्रयोगों और परिवर्तनों का दावा किए, महज ‘कहानी’ की तरह लिखी गई वे कहानियाँ, चर्चा में आने से रह जाती हैं, जो अपनी बाह्य संरचना और प्रस्तुति में सामान्य और पारंपरिक दिखने के बावजूद, समय और समाज में हो रहे सूक्ष्म बदलावों को रेखांकित करती हैं, या उसकी प्रस्तावना करती हैं। कुछ लोगों द्वारा यदा कदा तो कुछ लोगों द्वारा सर्वदा कहानी के वर्तमान परिदृश्य को निराशाजनक घोषित करनेवाली ‘ज्ञान-रंजनीय’ मूल्यांकन प्रविधि से असहमत होते हुए, ऐसी उपेक्षित और चर्चावंचित कहानियों की एक ठीकठाक फेहरिस्त बनाई जा सकती है।

समय के साथ कहानी में हुए बदलावों को रेखांकित करने के लिए सिर्फ इतना भर कह देना कि कहानी कहने की तकनीक, कितना और कैसे बदल गई है, पर्याप्त नहीं हो सकता। बहुत संभव है कि प्रस्तुति और संरचना में पर्याप्त नयेपन के बावजूद कोई कहानी जेंडर, जाति, संप्रदाय आदि की पुरातन, अवैज्ञानिक और मनुष्यविरोधी लीक को ही मजबूत करती हो। स्थिति ठीक इसके उलट भी हो सकती है। इसलिए मेरी राय में किसी कहानी में निहित ‘नयेपन’ या ‘बदलावों’ का रेखांकन तबतक पर्याप्त और मुकम्मल नहीं हो सकता जबतक कि उसके कथ्य में व्यंजित ‘नये’ को उद्घाटित न किया जाय। बल्कि इसे इस तरह कहा जाना चाहिए कि किसी कहानी में छुपे उन सूत्रों व संकेतों को ही ‘नयेपन’ की तरह रेखांकित किया जाना चाहिए, जिसमें समय-समाज में हो रहे सार्थक परिवर्तनों की अनुगूँजें सुनाई पड़ती हों।

पिछली सदी के अवसान के साथ ही कहानियों में वैचारिकता और राजनैतिक दृष्टि के अभाव की बात गाहे-बगाहे कही जाती रही है। जैसा कि मैंने पहले भी कहा है, और फिर दुहराना चाहता हूँ कि समकालीन कहानी पर ऐसा आरोप लगाते हुए अमूमन अस्मिता आंदोलन के प्रश्नों को विशुद्ध ‘सामाजिक’ के खांचे में डाल दिया जाता है, जबकि यह एक समानांतर राजनैतिक आंदोलन भी है। इसलिए मेरा आग्रह रहा है कि अस्मितामूलक कहानियों को ‘राजनैतिक’ की श्रेणी से अलग करके न देखा जाय। अस्मिता आंदोलन के अहाते में दलित, स्त्री, आदिवासी, अल्पसंख्यक आदि कई स्वर प्रमुखता से सुनाई पड़ते रहे हैं, जिन्हें पहचानने के क्रम में स्वानुभूति बनाम सहानुभूति और प्रामाणिक बनाम बनावटी के प्रश्न भी उठते रहे हैं। ये प्रश्न निश्चित तौर पर जरूरी हैं, लेकिन यह भी सच है कि ऐसे सभी आंदोलनों का उद्देश्य एक समरस और बहुलतावादी समाज की प्रस्तावना ही है। इसके लिए यह जरूरी है कि इन अस्मितामूलक विमर्शों के भीतरखाने में उपस्थित प्रतिपक्षी समुदाय मसलन पुरुष, गैर दलित/आदिवासी, बहुसंख्यक आदि अपने अवचेतन में कहीं गहरे धँसे अनुकूलन के अवगुंठनों से अभिमुक्त हों। यहाँ यह भी गौरतलब है कि ऐसे अनुकूलनों का  शिकार कई बार खुद स्त्रियाँ और दलित भी होते हैं। कतिपय स्त्री और दलित कहानियों में अभिलक्षित किंचित अंतर्विरोधों को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए।  अस्मिता विमर्श का उद्देश्य स्त्रियों को पुरुष या दलितों को सवर्ण बनाना  नहीं है। परूषों का थोड़ा सा स्त्री हो जाना और गैरदलितों या आदिवासियों  का दलितों-आदिवासियों के जूते में अपने पैर डालकर चलते हुए उनकी तकलीफों का अहसास करना सीख जाना ही इन विमर्शों का असली हासिल होगा। जबतक ऐसा नहीं होता, चिंता और सरोकारों की ईमानदारी के बावजूद सहानुभूति बनाम प्रामाणिकता के प्रश्न प्रासंगिक बने रहेंगे। 

कई विद्वानों ने इस बात को पूर्व में भी रेखांकित किया है कि हिन्दी की शुरुआती कहानी से लेकर नई कहानी तक के पुरुष कथाकार किंचित सीमाओं के बावजूद स्त्री संवेदना और प्रश्नों को संबोधित करने की कोशिश करते रहे। लेकिन प्रकारांतर में यह कोशिश न सिर्फ कम होती गई बल्कि मुख्य धारा के कई चर्चित-प्रशंसित-सम्मानित लेखकों की कहानियों में स्त्रीद्वेषी अभिलक्षण मुखर होकर अभिव्यक्त होते रहे। लेकिन यह सुखद है कि इक्कीसवी सदी की दहलीज पर रौशन भूमण्डलोत्तर समय में सक्रिय कुछ नए-पुराने कथाकारों ने हिन्दी कहानी की उस धारा के विपरीत नये सिरे से स्त्री संवेदी कहानियाँ रच रहे हैं। हृषीकेश सुलभ, अवधेश प्रीत, योगेंद्र आहूजा, प्रियदर्शन, तरुण भटनागर, राकेश दूबे, आशुतोष, शिवेंद्र आदि कथाकार इस शृंखला की मजबूत कड़ियाँ हैं। समकालीन कहानी, जिसमें स्त्री कथाकारों की ऐतिहासिक उपस्थिति है, में इन पुरुष कहानीकारों का होना (किंचित सीमाओं के बावजूद) आश्वस्तिदायक है। हिन्दी की प्रथम मुकम्मल स्त्रीवादी आलोचक रोहिणी अग्रवाल के कुछ आलेखों को छोड़ दें तो प्रायः पुरुष कथाकारों की स्त्री संवेदी कहानियों पर यथोचित विचार नहीं हुआ है। प्रचलनानुकूल इन कहानियों का शिल्पाग्रही या चौंकाऊ नहीं होना शायद इसकी एक वजह हो सकती है। वनमाली कथा के दिसंबर 2024 अंक में प्रकाशित अवधेश प्रीत की ‘मिनी’ एक ऐसी ही कहानी है, जो बिना शोर शराबे के छपी और चुप-चुप ही जैसे पत्रिका की वार्षिक फ़ाइल का हिस्सा हो गई। 

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इस सदी की शुरुआत में ‘लिव इन’ हिन्दी समाज और कहानी दोनों के लिए एक नया अनुभव था। जयंती रंगनाथन, पूनम सिंह, कविता और पंखुरी सिन्हा जैसी कथाकारों की कहानियों में जीवन जीने के इस नए ढब की शुरुआती छवियों ने आकार ग्रहण किया था। विवाह संस्था की असफलताओं और मुश्किलों के मद्देनजर ‘लिव इन’ में रह रही स्त्रियों के निजी, पारिवारिक और सामाजिक संघर्षों की कई छवियाँ उन लेखिकाओं की कहानियों में समाजेतिहास की महत्त्वपूर्ण सर्जनात्मक गवाहियों की तरह दर्ज हैं। स्त्री पुरुष साहचर्य की इस वैकल्पिक व्यवस्था की अपनी सहूलियतें और दिक्कतें हैं। यही कारण है कि अनेकानेक दुरभिसन्धियों के बावजूद दाम्पत्य और परिवार की संस्था का कोई मुकम्मल विकल्प आज भी तैयार नहीं हुआ है। नई-नई जीवन व्यवस्था होने के कारण लगभग ढाई दशक पूर्व आई उन कहानियों के केंद्र में मुख्यतः स्त्रियों का जीवन, यथा- सहजीवन में रहने वाली स्त्रियों का मनोविज्ञान, उनके प्रति समाज का निर्णयात्मक रुख आदि ही थे। मेरी सीमित पढ़त के कारण मेरे लिए अज्ञात अपवादों को छोड़ दें तो, सहजीवन से जन्मे बच्चों के जीवन यथार्थ उन कहानियों के केंद्र में नहीं थे। अवधेश प्रीत की कहानी ‘मिनी’, उन ‘लिव इन’ केंद्रित कहानियों का इन अर्थों में विस्तार है कि यहाँ, केंद्र में अपनी जिज्ञासाओं के साथ वह ‘मिनी’ है, जो ऐसे ही युगल ‘मिलन’ और ‘नीला’ की संतान है। मिनी के माता-पिता ने बिना किसी शर्त और दबाव के अपनी इच्छानुसार सहजीवन चुना और मिनी को जन्म दिया था। नीला समाजसेविका है और मिलन दास पत्रकार। मिनी के जन्म के दो वर्षों बाद मिलन अपनी बीमार माँ की देखभाल के लिए जो गया, लौटा नहीं। मिली के शब्दों में कहें तो उन्हें छोड़कर चला गया। सिंगल पैरेंट होने की किसी भी कुंठा से मुक्त खुदमुख्तार नीला की परवरिश में पली-बढ़ी मिनी हर तरह से अपनी माँ की प्रतिकृति है। जबतक वह बच्ची थी, माँ उसकी बालसुलभ जिज्ञासाओं का वात्सल्य भाव से शमन करती  रही लेकिन उम्र के इक्कीसवें पायदान पर पहुंचते-पहुंचते “हू वाज ही? क्या नाम था उनका?” की उसकी जिज्ञासा एक ठोस और अपरक्राम्य (‘नॉन-निगोशिएबल’) आकार ग्रहण कर लेती है- 

“ “ऐसे उलझन भरे मौकों पर मिनी का ध्यान बँटाने के लिये नीला मुस्कुराकर पूछती, तुमने सोचा फ्यूचर में क्या करना चाहती हो?” 

“हाँ सोचा है।” मिनी के भीतर गुदगुदी सी उठती और चेहरे का रंग गुलाबी हो उठता- “डांस, डांस करना चाहती हूँ। नाचते हुए दुनिया बहुत अच्छी लगती है।” 

“तो डांस क्लास ज्वाइन कर लो।” नीला उत्साहित करती। 
“अभी नहीं, अभी कुछ और सोचने दो!” मिनी हमेशा की तरह बात टालती दिखती। 

“मिनी, मुझे लगता है, तुम खुद को लेकर श्योर नहीं हो। क्या करना चाहती हो, खुद पता नहीं।” नीला छेड़ती। 

तो तुम बताओ न, मैं क्या करूँ? क्या करना चाहिए मुझे?” नीला की आँखों में झाँकते हुए मिनी पूछती। 

“ये फैसला तो तुम्हें खुद ही करना होगा।”

“ओके, मैं अपने पापा को तलाशना चाहती हूँ। उनके बारे में जानना चाहती हूँ। फ़ैसलाकुन लहजे में बोलते हुए मिनी पहली बार किसी असमंजस में नहीं थी।” 

उपर्युक्त उद्धरण, मुख्यतः पाँच हिस्सों में विभाजित इस कहानी के पहले हिस्से (जिसमें नीला और मिनी के बीच इक्कीस वर्षों में विकसित हुए दोस्ताना संबंध का चित्रण है) का आखिरी प्रसंग है, जहाँ तक पहुंचते-पँहुचते नीला यह समझ जाती है कि अब मिनी को उसके पिता के बारे में बता दिया जाना चाहिए। कहानी के दूसरे हिस्से में नीला मिनी से उसके पिता के बारे में, यानी अपने और मिलन के संबंधों के बारे में बताती है। कहानी का तीसरा हिस्सा जहाँ पिता की तलाश में मिनी की यात्रा है, वहीं चौथे हिस्से में मिनी और मिलन की मुलाकात होती है। कहानी का पाँचवाँ और अंतिम हिस्सा इस सुदीर्घ कहानी का अत्यंत छोटा हिस्सा है, जिसमें मिनी अपनी यात्रा के हासिल के साथ अपने घर की ओर लौट जाती है।

यूं तो हर अच्छी कहानी अवश्यमेव अपने पाठकों को किसी यात्रा पर लेकर जाती है। पर इस कहानी में सचमुच की एक भौतिक यात्रा भी शामिल है। पिता के संधान में की गई मिनी की यह यात्रा और इस यात्रा का हासिल ही, अंततः कहानी के असली हासिल की तरह उद्भासित होते हैं, या कहिये इस कहानी को ‘कहानी’ बनाते हैं। मिनी बरास्ता मिलन के अखबार के दफ्तर, पहले एक युवा पत्रकार जय पात्रा, फिर वरिष्ठ पत्रकार प्रभात पटनायक और अंत में अपने पिता मिलन दास, उनकी बेटी मुक्ति और मुक्ति की माँ से मिलती है। इस क्रम में पिता के संधान की यात्रा के पहले पड़ाव पर मिनी को एक अपरिचित की तरह मिला जय पात्रा जिस खामोशी से उसका दोस्त बन जाता है, वह इस कहानी की संवेदना में एक और परत जोड़ता है। 

कहानी के अलग-लग हिस्से और इस दौरान सामने आए पात्रों के परिचय भर से इस कहानी के घटनाक्रम का जो ढांचा तैयार होता है, वह ऊपर से अति सामान्य दिखाता है-  ‘लिव इन’ में रहते युगल, बच्चे के जन्म के दो साल बाद पुरुष का दूर चला जाना, इक्कीस वर्षों के बाद माँ से प्राप्त जानकारी के आधार पर बेटी का पिता की तलाश में निकलना, एक पुरुष साथी के सहयोग से की गई इस तलाश यात्रा के दौरान पिता के संघर्षपूर्ण और नैतिक पत्रकारीय जीवन की जानकारी, उनसे मुलाकात और अंत में किसी रहस्य के खुलने की तरह पिता की पत्नी और उससे जन्मी संतान के बारे में जानकर उसका चुपचाप घर लौट जाना। सरसरी तौर पर देखें तो यह एक अति साधारण कहानी का लगभग फार्मूलाबद्ध स्थापत्य लग सकता है।  लेकिन जैसे ही आपका ध्यान इस यात्रा के दौरान घटित मिनी के व्यक्तित्वान्तरण की तरफ जाता है, सामान्य सी दिखनेवाली इस कहानी की कुछ ऐसी विशशिष्ट अर्थ छवियाँ खुल उठती हैं, जो सामान्यतया पुरुष लेखकों की कहानियों में नहीं दिखाई पड़ती रही हैं। 

गौर किया जाना चाहिए कि कहानीकार ने जिस तरह मिनी के चरित्र को गढ़ा और विकसित किया है, उसमें प्रश्नों की बड़ी भूमिका है। ये प्रश्न किसी और के नहीं, खुद मिनी के हैं। “हू वाज ही? क्या नाम था उनका?” की टेक से शुरू प्रश्नों की इस शृंखला में लगभग उनतीस कड़ियाँ शामिल हैं। इन उनतीस प्रश्नों में सर्वाधिक पंद्रह प्रश्न मिनी ने अपनी माँ से किए हैं। पाँच प्रश्न वरिष्ठ पत्रकार और मिलन के संपादक रह चुके प्रभात पटनायक से, तीन प्रश्न जय पात्रा से एक प्रश्न मिलन से और कोई पाँच प्रश्न स्वगत के शिल्प में खुद उसके समक्ष उठ खड़े हुए हैं। 

मिनी द्वारा जय पात्रा से पूछे गए प्रश्न “कविता कैसे लिख लेते हो? आई मीन ये तो गॉड  गिफ्ट होता है न?” को छोड़ दें तो माँ सहित अन्य पात्रों से पूछे गए मिनी के अधिकांश प्रश्न अपने पिता की पहचान से जुड़े हैं तो कुछ अपने जीवन और करिअर में निर्णय लेने की स्वतंत्रता से संबंधित हैं। यूं तो पिता के संदर्भ में पूछे गए सभी प्रश्न नीला यानी मिनी की माँ को कमोबेश असहज करते ही हैं, लेकिन उनमें सबसे ज्यादा मारक या बेधक प्रश्न हैं— तुमने जाने दिया? तुमने रोका नहीं? अपने लिए नहीं, मेरे लिए तो रोक सकती थी? अपने पिता के संदर्भ में एक युवा बेटी के ऐसे प्रश्न सामान्य स्थिति में किसी माँ को सहज ही विचलित कर सकते हैं। लेकिन मिट्टी के बजाय मिजाज से बनी नीला इन प्रश्नों के उत्तर में शांत और संयत स्वरों में मिनी की तरफ एक छोटा सा प्रश्न बढ़ा देती है- “यह तो उसे सोचना चाहिए था न?” पितृसत्ता से अनुकूलित लेखकीय दृष्टि बहुत आसानी से कहानी के इस दृश्य में मिनी और नीला को आमने-सामने खड़ा कर, उन्हें परस्पर शत्रु की तरह चित्रित कर सकती थी। लेकिन यह कहानी ऐसा नहीं करती, बल्कि माँ-बेटी को परस्पर मित्र और सहयोगी की तरह साथ खड़ा कर देती है- “मॉम मैं समझ सकती हूँ। आपका स्वाभिमान। आई प्राउड ऑफ यू मॉम।” एक बेटी के रूप में अपने पिता को जानने और उनसे मिलने की मिनी की जिज्ञासा व उत्कंठा यहाँ जितनी सहज और जायज है, एक स्त्री के रूप में अपनी माँ के निर्णय के साथ खड़ा होना उतना ही जरूरी और आश्वस्तिदायक भी। मिनी के व्यक्तित्व की यह द्विआधारिता उसके व्यक्तित्व को एक खास तरह की उदात्तता प्रदान करती है। 

उल्लेखनीय है कि मिलन से मिलने तक अलग-अलग पात्रों से उनके बारे में लगातार प्रश्न पूछती रहनेवाली मिनी अप्रत्याशित रूप से अपने पिता की पत्नी और उनकी संतान मुक्ति को देख एकदम चुप सी हो जाती है। मिलन से कोई प्रश्न करने की बात तो दूर, उसे यह तक नहीं बताती कि वह उसकी बेटी मिनी है, जिसे उन्नीस साल पहले छोड़कर वह चला आया था। कहानी के इस मोड़ तक आते-आते वह स्वयं को ही कुछ प्रश्नों के भंवर में पाती है- 

“मिनी की आँखें फैल गयीं, एक के बाद एक सामने आते आश्चर्यों से वह खुद को जैसे किसी रहस्यलोक में पा रही थी। बाहर बैठे उसके पिता मिलन दास। यहाँ सामने ह्वील चेयर पर बैठी उनकी योद्धा पत्नी और इन दोनों की ये मासूम बेटी मुक्ति। इनमें वह कहाँ है? वह यहाँ क्यों है? उसकी यह यात्रा कैसी है, जिसमें उसे जो मिला वह उसकी कामना नहीं थी और जिसकी तलाश थी, वह मिल कर भी कहाँ मिला?”

कुछ आगे बढ़ने के बाद कहानी में पंक्तियाँ आती हैं-   

“यह मिनी की यात्रा थी। तलाश की यात्रा, अन्वेषण की यात्रा, रहस्यलोक की यात्रा, लौटती की यात्रा। मॉम पूछेगी, इस यात्रा का हासिल क्या रहा, क्या जवाब देगी वह?” 

हर नियोजित यात्रा का एक गंतव्य होता है। सामान्यतया गंतव्य को प्राप्त कर पाने में ही यात्रा की सफलता देखी जाती है। पूर्वनियोजित गंतव्य ने मिनी को भले निराश किया हो, लेकिन मिनी की यह यात्रा इन अर्थों में ज्यादा बड़ी और सार्थक है कि इस क्रम में हुआ उसका व्यक्तित्वांतरण उसे और ज्यादा परिपक्व, संवेदनशील और उदार बनाता है। मिनी ने एक बेटी के रूप में यात्रा शुरू की थी पर अपने ही जैसी एक अन्य बेटी और अपनी माँ जैसी एक और माँ को देखेने का अनुभव उसके भीतर की बेटी को एक संवेदनशील और उदार स्त्री के रूप में परिवर्तित कर देता है। नतीजतन वह बिना किसी प्रश्न या शिकायत के लौट आती है। यहाँ मिनी की मौन वापसी के दुहरे अर्थ हैं। एक बेटी के रूप में वह अपने पिता को किसी अन्य स्त्री के पति की तरह तो नहीं स्वीकार कर सकती है, लेकिन अपनी ही तरह किसी अन्य बेटी और अपनी माँ की तरह ही किसी अन्य माँ की संवेदना को भी क्षतिग्रस्त नहीं कर सकती।

मिनी जिस पिता की तलाश में गई थी, वे मिलकर भी उसे नहीं मिले। बहुत संभव है ऐसे में प्रतिक्रिया स्वरूप उसे पिता या पुरुष जाति से ही नफरत हो जाती, पर ऐसा कुछ नहीं होता। बल्कि इसके उलट वह जय पात्रा के साथ को ही अपनी यात्रा का हासिल मानती है- 

“विदा की सुबह जय पात्रा ने मिनी से कहा, “मुझे नहीं पता, तुम्हें इस यात्रा से क्या मिला, लेकिन मुझे पता है कि तुम्हारी यात्रा में मेरा होना शामिल है।”

मिनी मुस्कुरायी और स्वयं पात्रा से हाथ मिलाते हुए बोली, “यही इस यात्रा का हासिल है। तुम बहुत याद आओगे।””

मिनी हो या कि उसकी माँ नीला, या फिर मुक्ति या उसकी योद्धा माँ, यह कहानी किसी भी स्त्री के अस्तित्व और अस्मिता को क्षतिग्रस्त नहीं होने देती । पिता मिलन दास के जीवन-यथार्थ और संबंध-सत्यों को देखने के बावजूद वह जिस तरह अपने जीवन में एक मित्र पुरुष के आमद का स्वागत करती है, उससे यह पता चलता है कि उसने इस बात को भी समझ लिया है कि संबंधों के व्याकरण का सौन्दर्य उसकी जटिलता में ही निहित होता है, जिसे किसी एकरैखिक सूत्र से डिकोड नहीं किया जा सकता। 

कथा के दूसरे और तीसरे हिस्से में कारपोरेट में तब्दील होती पत्रकारिता की दुरभिसंधियों की कई प्रामाणिक और भयावह तस्वीरें भी दिखाई पड़ती हैं, जो हाल के वर्षों में आई कहानियों में अन्यत्र भी देखी जा सकती हैं। पर इस पूरी कहानी में जो एक बात खटकती है, वह है- मिलन दास के मन में मिनी के प्रति स्नेह, चिंता या अपराधबोध के भाव का लेशमात्र भी नहीं होना। यह ठीक है कि उसने और नीला ने अपनी मर्जी से बिना किसी बाह्य या आंतरिक दबाव के सहजीवन में होने और उससे निकलने का निर्णय लिया था।  लेकिन इस प्रक्रिया में मिनी की आमद और दो साल तक उसके साथ होने की कोई धुंधली याद भी उसे कभी क्यों नहीं आती? क्या यह संभव है? इस प्रश्न का सामान्य उत्तर ‘ना’ हो कि असामान्य उत्तर ‘हाँ’, दोनों ही परिस्थितियों में मिलन से नहीं, अवधेश प्रीत से यह प्रश्न पूछा जाना तो बनता ही है कि उन्होंने इस प्रश्न से किनारा क्यों कर लिया?  स्त्री पात्रों के प्रति तमाम संवेदनाओं के बावजूद पुरुष चरित्र को प्रश्नांकित नहीं करने के पीछे उसे बचा ले जाने का कोई प्रच्छन्न भाव तो यहाँ  नहीं काम कर रहा था? मिलन के आदर्श और नैतिक पत्रकारीय जीवन की विशद चर्चा भी इस प्रश्न के औचित्य को रेखांकित करती है। कहीं ऐसा तो नहीं कि कहानीकार ने इस समस्या का हल अभिव्यक्ति की बजाय रिक्ति की तकनीक से निकालने की कोशिश की है? कहानी के सार्थक अंत के बावजूद, पाठक के मन में मिलन के इस व्यवहार पर प्रश्न खड़ा हो उठना क्या रिक्ति की उस युक्ति की सफलता नहीं है? बहुत संभव है मेरे इस तर्क को भी एक पुरुष लेखक के बचाव की तरकीब की तरह देखा जाय। शायद यह अनुचित भी नहीं होगा। 

तमाम खूबियों और किंचित किन्तु-परंतु के बीच यह कहानी जिस तरह किसी भी पात्र (खासकर मिलन) के प्रति तिक्तता का कोई भाव नहीं रखती, उसे देखते हुए मुझे दो अन्य महत्त्वपूर्ण कहानियों की स्मृति हो आती है। एक रेणु की ‘रसप्रिया’ और दूसरी प्रियंवद की ‘कैकट्स की नावदेह’। रसप्रिया में पंचकौड़ी मिरदंगिया रमपतिया को गर्भवती छोड़कर रातोंरात चला गया था। इस तथ्य के प्रत्यक्ष होने के बावजूद रेणु इस कहानी में उसे खल की तरह चित्रित नहीं करते, बल्कि पंचकौड़ी के भीतर एक अनकहे पश्चाताप और सहज वात्सल्य भाव की सृष्टि कर पाठकों के मन में उसके लिए भी रमपतिया के बराबर की करुणा पैदा कर देते हैं। ‘कैकट्स की नावदेह’ में वनी और कथानायक मैं के बीच का प्रेम सफल नहीं होता। एक उम्र बीत जाने के बाद जीवन की दूसरी पारी में वनी की बेटी म्रदिमा अपनी माँ की सहमति से गर्मी की छुट्टियों में उसके पूर्व प्रेमी के पास जाती है। इस कहानी में जिस तरह म्रदिमा के प्रश्नों के माध्यम से प्रियंवद एक प्रेमी (पुरुष) तक उसकी प्रेमिका (स्त्री) के प्रश्नों को पहुंचाते हैं उस पर विचार किया जाना चाहिए–

“एक बात पूछूँ? म्रदिमा ने मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया। वह काफी गंभीर लग रही थी। बिलकुल रोने के पहले जैसी उसकी आँखें हो गई थीं।

‘ऐसा क्यों हुआ? मैं आपकी बेटी क्यों नहीं बन पाई?’ मेरा हाथ काँप गया। म्रदिमा ने मेरा हाथ और कसकर पकड़ लिया।

‘यह क्यों पूछा तुमने?’

‘माँ ने कहा था।’”

कथानायक के लिए म्रदिमा के प्रश्नों के जवाब शब्दों में देना आसान नहीं था। लेकिन प्रियंवद इस प्रश्न को अनुत्तरित नहीं छोड़ते। दरअसल म्रदिमा के प्रश्न का जवाब उसकी माँ के प्रेमी का हाथ कांपने में निहित है, जो उसके अपराधबोध के स्वीकार का ही प्रतीक है। ‘

‘रसप्रिया’ हो कि ‘कैक्टस की नावदेह’ बिना वाचाल हुए बहुत सूक्ष्मता से असहज करनेवाले ऐसे प्रश्नों का स्त्री-संवेदी उत्तर खोज लेती हैं। यही कारण है कि पाठक के मन में उन पुरुष पात्रों के प्रति भी करुणा का भाव ही पैदा होता है। मिनी के प्रति मिलन के व्यवहार का प्रश्न यदि इस कहानी में उन्हीं काव्यात्मक संवेदनाओं के साथ संबोधित हुआ होता तो ‘मिनी’ महत्त्वपूर्ण नहीं, बड़ी कहानी हो सकती थी। प्रश्नों, संवादों और विवरणों से निर्मित इस कहानी में अवधेश प्रीत भले स्त्री पात्रों के मनोविज्ञान में बहुत गहरे नहीं उतरते हों, लेकिन स्त्री संवेदना के प्रति सोलिडेरिटी का भाव, उनके निर्णय लेने के अधिकार का सम्मान और स्त्रियों के बीच परस्पर बहनापे का भाव जिस सूक्ष्मता और दृढ़ता के साथ इस कहानी में आधुनिक स्त्री की छवि को मजबूत करते हैं, उन्हें रेखांकित किया जाना चाहिए।  

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