अप्रैल की एक नमी भरी शाम, जब पदातिक लिटिल थिएटर के ऑडिटोरियम की बत्तियाँ मंद हुईं और मंच की रोशनी गहराने लगी, तब दर्शकों को यह अंदेशा नहीं था कि वे अगले दो घंटे किस भावनात्मक भूचल से गुज़रने वाले हैं। ‘काग़ज़ के गुब्बारे’ नामक इस नाट्य-प्रस्तुति में जैसे ही पहली कहानी ‘कुंवारी’ का संवाद मंच पर गूंजा, हॉल की हवा में एक ऐसा कंपन भर गया जो न केवल दृश्य-संवेदना का था बल्कि स्मृति और सोच का भी। वैसे भी जब इस्मत चुगताई की कहानियाँ रंगमंच पर उतरती हैं, तो केवल किरदार जीवित नहीं होते, एक पूरा समय, उसकी रूढ़ियाँ, उसकी विद्रूपताएँ और सबसे बढ़कर उसकी स्त्रियाँ साँस लेने लगती हैं।  

‘काग़ज़ के गुब्बारे’ के बहाने हिंदी रंगमंच में पदातिक थिएटर की भूमिका पर कुछ जरूरी बात 

हिंदी रंगमंच आज जिन संस्थाओं और समूहों की प्रतिबद्धता के कारण जीवित और सशक्त है, उनमें कोलकाता स्थित ‘पदातिक थिएटर’ का नाम विशिष्ट रूप से उल्लेखनीय है। नाटक ‘काग़ज़ के गुब्बारे’ का मंचन, इस संस्था की वैचारिक स्पष्टता, सौंदर्यबोध और स्त्री विमर्श के प्रति उसकी गहरी संवेदना का प्रमाण बनकर सामने आया है। यह प्रस्तुति सिर्फ एक नाटकीय प्रयोग नहीं थी, बल्कि इस्मत चुगताई जैसे प्रगतिशील लेखकों को आधुनिक मंचीय संरचना में पुनः प्रस्तुत करने की एक प्रतिबद्ध कोशिश भी है।

नाटक की निर्देशक अनुभा फतेहपुरिया, जो स्वयं रंगमंच की एक सशक्त स्त्री प्रतिनिधि हैं, ने मंच पर उन कथाओं को उकेरा जिन्हें अक्सर साहित्यिक गोष्ठियों तक सीमित समझा जाता है। उनकी दृष्टि में मंच केवल अभिनय की जगह नहीं, बल्कि विचार और संवेदना की प्रयोगशाला है। ‘काग़ज़ के गुब्बारे’ इस प्रयोगशाला की सफलतम कृति बनकर उभरा।

Anubha Fatehpuria
अनुभा फतेहपुरिया

‘काग़ज़ के गुब्बारे’ महज़ एक नाटक नहीं, बल्कि एक ऐसा अनुभव था, जिसमें इस्मत चुगताई की छह कहानियाँ— ‘कुंवारी’, ‘एक शौहर के खातिर’, ‘छुई-मुई’, ‘घरवाली’, ‘पेशा’ और ‘घूंघट’— मंच पर कुछ इस तरह उतारी गईं कि साहित्य के शब्द जीवन के स्पंदन बन गए। अनुभा फतेहपुरिया के निर्देशन में मंचित यह नाटक एक सांस्कृतिक आंदोलन की तरह उभरा। एक ऐसा आंदोलन जो मंच, साहित्य और स्त्री विमर्श के बीच एक जीवंत संवाद बनकर सामने आया। 

दो प्रतीकों के बीच चुनी हुई  कहानियां

‘काग़ज़ के गुब्बारे’ का शीर्षक ही नाटक का केंद्रीय प्रतीक है। ‘काग़ज़’ स्त्री की नाज़ुक स्थिति का संकेत है— समाज द्वारा गढ़ी गई सीमाओं, परिभाषाओं और भय से घिरा अस्तित्व। ‘गुब्बारे’ उसकी आकांक्षाओं, उड़ान और मुक्ति की इच्छा का प्रतीक है। और इस नाटक में इन दोनों प्रतीकों के बीच जूझती, फड़फड़ाती, मुस्कुराती और कभी-कभी टूटती औरतें बार-बार दर्शकों की आत्मा को छूती हैं। ‘काग़ज़’ जैसे नाज़ुक वजूद वाली औरतें जब ‘गुब्बारे’ की तरह उड़ने की हिम्मत करती हैं, तो वो सिर्फ पात्र नहीं रह जातीं, एक प्रतिरोध बन जाती हैं।

इस्मत की छह कहानियाँ: रंगमंच पर उतरते जीवन के सजीव अनुभव

जब किसी लेखिका की कहानियाँ पन्नों से निकलकर मंच पर आ जाएँ और दर्शकों की आँखों से होते हुए आत्मा तक पहुँच जाएँ, तो समझिए कि साहित्य ने अपने सबसे प्रभावशाली रूप को छू लिया है। पदातिक थिएटर ने नाटक ‘काग़ज़ के गुब्बारे’ में इस्मत चुगताई की छह कहानियों को कुछ इसी तरह मंचित किया।

कुंवारी: एकांत में खड़ी आत्मनिर्भरता

कहानी ‘कुंवारी’, एक स्त्री के सामाजिक संघर्ष की कथा है, जो विवाह के स्थापित ढाँचे से बाहर रहकर अपने आत्मसम्मान और स्वतंत्रता को जीना चाहती है। इस्मत इस कहानी में एकांत और आत्मबल के बीच के द्वंद्व को व्यक्त करती हैं, पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण और विवाह संस्था की कठोरताओं को चुनौती देती हैं। कहानी की नायिका ‘कुंवारी’ कहलाने के तमगे को बोझ नहीं बनने देती, बल्कि अपनी शर्तों पर जीवन जीती है। 

नाटक में कल्पना ठाकुर झा ने मंच पर मौन, देहभाषा और स्थिर दृष्टि से ऐसा स्वरूप दिया कि संवाद कम होते हुए भी कथा गहरी होती चली गई। मंच पर मदन जब थकी हुई, टूटी हुई, मगर फिर भी हँसी में लिपटी गालियों के साथ आती है, तो दर्शक पहले चौंकते हैं, फिर जुड़ जाते हैं। उसके प्रेम का पागलपन, उसकी व्यंग्यात्मक हँसी, और हर धोखे के बाद उसे फिर से प्यार की चाह में लौटता देखना—एक अजीब किस्म की आत्मीयता जगाता है। 

नाटक में मदन का अभिनय दर्शकों को हँसाता है, रुलाता है और सबसे ज़्यादा उन्हें असहज करता है, क्योंकि वह उस ‘स्त्री’ को सामने लाता है जिसे समाज देखना नहीं चाहता। यही इस प्रस्तुति की सबसे बड़ी सफलता है।

एक शौहर के खातिर: प्रेम, समर्पण और पहचान की कथा

इस्मत की यह कहानी उस स्त्री की कथा कहती है, जो अपने ‘शौहर’ की खातिर अपने अस्तित्व को दांव पर लगा देती है। वो अपने प्रेम में इतनी तल्लीन है कि अपनी पहचान तक भुला बैठती है। लेकिन अंत में वही स्त्री अपने आत्मसम्मान की ओर लौटती है। इस्मत चुगताई की लेखनी में यहाँ भी स्त्री की आंतरिक शक्ति और उसके मनोवैज्ञानिक द्वंद्व की सूक्ष्म परतें खुलती हैं।

रेल में अकेली सफर कर रही एक युवती जब एक काल्पनिक पति की कहानियाँ बुनती है, तो वह मनोरंजन का नहीं, बल्कि सामाजिक विवशता का दृश्य बन जाती है। मंच पर इस कहानी की प्रस्तुति चुलबुलेपन और करुणा का ऐसा संयोजन थी कि दर्शक हँसते-हँसते चुप हो जाते हैं। 

Ek Sauhar Ki Khatir
'एक शौहर की खातिर' का एक दृश्य

 करुणा ठाकुर की अदाकारी में जब नायिका का हर झूठ-कभी पति का नाम, कभी बच्चों की संख्या, कभी उसका पेशा- जब मंच पर एक-एक कर सामने आता है, तो वह एक मनोरंजक दृश्य जरूर बनता है, लेकिन उस दृश्य में दर्द, असुरक्षा और सामाजिक दबाव की कई परतें खुलती जाती हैं।

छुई-मुई: देह की पीड़ा, समाज की चुप्पी

‘छुई-मुई’ कहानी देह और सामाजिक दृष्टि के द्वंद्व की कथा है। इस्मत इस कहानी में स्त्री शरीर को लेकर समाज में व्याप्त मिथकों, वर्जनाओं और हिंसक दृष्टिकोणों को उघाड़ती हैं। नाटक में ‘छुई-मुई’ की मंचीय प्रस्तुति गहरे प्रतीकों और साहसी अभिनय से संपन्न रही। कहानी की नायिका एक बलात्कार पीड़िता है, जिसे समाज लगातार एक दोष के रूप में देखता है। लेकिन इस्मत की दृष्टि उसे कमज़ोर नहीं, बल्कि चेतना-सम्पन्न और जूझने वाली स्त्री के रूप में रेखांकित करती है। 

इस प्रस्तुति में मंच, अंधेरे और रौशनी के बीच लड़खड़ाता है— जैसे पीड़िता समाज की संवेदनशीलता और हिंसा के बीच झूल रही हो। मंच पर एक ओर भाभी जान जैसी नाजुक, संभाल-संभाल कर पाली गई, प्रतीक्षारत स्त्री है, जो ज़िंदगी से रुठी हुई प्रतीक्षा में घुल रही है। वहीं दूसरी ओर, चलती रेलगाड़ी में अचानक प्रवेश करती है, एक अनाम, अल्हड़ और निर्धन युवती, जो अकेले अपने बच्चे को जन्म देती है, उसे खुद साफ करती है, नाल काटती है, और गाड़ी रुकते ही हँसती हुई भीड़ में गुम हो जाती है।

कल्पना ठाकुर झा द्वारा अभिनीत नायिका के मुख पर संघर्ष, पीड़ा, शर्म और फिर मुस्कान की यात्रा— एक संपूर्ण जीवन की अभिव्यक्ति बन जाती है। दर्शक चकित होकर उसे देखते हैं— वह औरत जो जीवन की सबसे पीड़ादायक प्रक्रिया को बिना शोर-शराबे, बिना किसी सहारे, और बिना ‘बेकसी’ के पार कर जाती है।

Chuui Mui
'छुईमुई' का एक दृश्य

 घरवाली: हास्य में छुपी विडंबना

‘घरवाली’ इस्मत चुगताई की व्यंग्य और यथार्थ के मेल से रची गई एक उल्लेखनीय कहानी है। यह एक पुरुष की दृष्टि से कही गई कथा है, जो एक महिला को केवल ‘सुविधा’ के रूप में देखता है— एक बिना शादी की पत्नी। यह इस्मत की व्यंग्यात्मक लेखनी का भी शानदार उदाहरण है। ‘लाजो’ का किरदार मंच पर जैसे ही आता है, दर्शकों के बीच हँसी की लहर दौड़ जाती है। लेकिन जैसे-जैसे कथा आगे बढ़ती है, यह हँसी एक तल्ख़ मुस्कान में बदल जाती है। मंच पर हास्य और विडंबना के संयोजन ने इस प्रस्तुति को विशिष्ट बनाया। 

मुख्य किरदार लाजो एक ऐसी स्त्री है जो मिर्ज़ा के घर में कामवाली के रूप में आती है, फिर जीवन की हलचलों में उसकी ‘घरवाली’ बन जाती है—पर एक दिन जब वह ‘बेगम’ के रूप में जीवन जीने लगती है, तो उसके भीतर का विद्रोही स्वभाव उस बंधन को तोड़ देता है। मंच पर लाजो का किरदार जैसे-जैसे खुलता है, दर्शकों की हँसी व्यंग्य में बदलती है। प्रतिज्ञा घोष ने इस भूमिका में ऐसा जीवन भरा कि लाजो हमारे आसपास की स्त्रियों की प्रतिनिधि बन गईं—जो प्यार भी करती हैं, विरोध भी, और सबसे बढ़कर—स्वयं को खोने नहीं देतीं।

प्रतिज्ञा घोष की संवाद अदायगी में जो बिंदासपन और अनगढ़ मस्ती है, वह इस्मत की लेखनी का जीवंत विस्तार लगता है। नाटक में लाजो के दो रूप— एक ‘कामवाली’ और एक ‘बेगम’— जब टकराते हैं, तो मंच केवल अभिनय का माध्यम नहीं रहता, वह जीवन का आईना बन जाता है। ‘घरवाली’ आधुनिक सहजीवन की विडंबनाओं को जिस तरह से सामने लाती है, वह आज के संदर्भ में भी बेहद प्रासंगिक है।

पेशा: नैतिकता के मुखौटे पर तमाचा

‘पेशा’ कहानी देह व्यापार में लिप्त एक स्त्री की आत्मस्वीकृति और गरिमा की कहानी है। स्त्री जो अपने फैसले से शर्मिंदा नहीं, बल्कि आत्मनिर्भर है। मंच पर जब वह कहती है— “हम बेचे और तुमने खरीदा, तो गंदे हम कैसे हो गए?” — तो पूरा सभागार जैसे एक ही प्रश्न में ठहर जाता है। इस्मत इस कहानी में नैतिकता के सामाजिक द्वंद्व और स्त्री की स्वायत्तता को उठाती हैं। यह कहानी एक स्त्री की आत्मसम्मानपूर्ण दृष्टि और समाज की खोखली नैतिकता के बीच की खाई को दर्शाती है।
 
अभिनय की गंभीरता, संवादों की सादगी और प्रकाश संयोजन ने मिलकर इस कहानी को ऐसा रूप दिया कि यह प्रस्तुति कहानी नहीं, सवाल बन गई- नैतिकता पर, समाज पर, और हमारे अपने निर्णयों पर। नाटक में यह प्रस्तुति साहस और संवेदनशीलता के अद्भुत संतुलन के साथ आई। मंच पर रोशनी जब सिर्फ उसके चेहरे पर टिकती है और वह अपने अतीत की परतों को पलकों की झपकियों में खोलती जाती है; तो संवाद नहीं, उसकी मौन स्थिरता बोलने लगती है।

घूंघट- जब चुप्पी घूँघट बनकर दर्शकों के मन में उतरती है

‘घूंघट’ कहानी प्रतीकों में कही गई स्त्री की उस मूक पीड़ा को दर्शाती है, जो समाज द्वारा थोपी गई चुप्पी के पीछे दबी रहती है। नाटक में इस कहानी की प्रस्तुति बेहद सूक्ष्म और प्रभावशाली थी। मंच पर लंबे मौन, धीमी चाल, मंद रोशनी और भारी संगीत ने इस्मत के लेखन को एक दृश्य कविता में बदल दिया। रंगमंच पर गोरी बी का चरित्र एक अलौकिक सौंदर्य से भरी, अनछुई, मगर आहत स्त्री का है। जैसे वो अपने घूँघट के पीछे न केवल चेहरा, बल्कि एक संपूर्ण जीवन छिपाए बैठी थी।

इस्मत इस कहानी के जरिए एक स्त्री की प्रतीक्षा, मौन और आत्मसम्मान की कहानी कहती हैं। नाटक में 'गोरी बी' के रूप में एक ऐसी स्त्री दिखाई गई जो विवाह के बाद भी ‘अनछुई’ रह गई, क्योंकि पति ने उसके घूंघट को नहीं उठाया। वर्षों बाद, जब वही दृश्य दोहराया जाता है, तो नायिका के काँपते हाथ घूंघट तक जाकर रुक जाते हैं—और वह क्षण, जब वह घूंघट नहीं उठाती, संपूर्ण प्रस्तुति का सबसे मार्मिक बिंदु बन जाता है। यहाँ नाटक मौन से बोलता है, और वह बोल दर्शकों की आत्मा में उतर जाता है।

काले मियाँ के किरदार में अशोक सिंह पहली बार घूँघट उठाने से इंकार करते हैं, तो मंच पर फैला सन्नाटा दर्शकों की रूह तक उतरता है। और जब वर्षों बाद वही दृश्य दोहराया जाता है— गोरी बी उम्मीद, प्रेम और पीड़ा से सजी सेज पर फिर उसी हुक्म को सुनती हैं— 'घूँघट उठाओ'— और उनके हाथ काँपते हैं, मगर नहीं उठते, तो पूरा मंच एक स्त्री की आत्मा में उठते तूफ़ान की तरह काँपने लगता है।

‘काग़ज़ के गुब्बारे’ में स्त्रियों की वेदना, आकांक्षा, भय और विद्रोह को जीवंत करती इन कहानियों की प्रस्तुति ने साबित किया कि इस्मत का लेखन आज भी उतना ही प्रासंगिक, सशक्त और ज़रूरी है जितना वह उस समय था जब वह लिखा गया। इस नाटक ने साहित्य और रंगमंच को मिलाकर नारी चेतना की एक सशक्त तस्वीर दर्शकों के सामने प्रस्तुत की, जो न केवल देखी, बल्कि महसूस भी की गई।

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कोलकाता जैसे शहर में, जहाँ बंगाली रंगमंच की गहरी जड़ें हैं, वहाँ हिंदी रंगमंच को जीवित और सक्रिय रखना एक सांस्कृतिक चुनौती है। इस चुनौती को पदातिक ने न केवल स्वीकार किया, बल्कि हिंदी रंगकर्म को एक नई ऊँचाई पर पहुँचाया है।

अनुभा फतेहपुरिया के निर्देशन में यह प्रस्तुति न केवल साहित्यिक दृष्टि से समृद्ध थी, बल्कि रंगमंचीय दृष्टि से भी प्रभावशाली रही। कलाकारों—अशोक सिंह, कल्पना ठाकुर झा, करुणा ठाकुर, अनुभा फतेहपुरिया, प्रमित प्रतिम घोष, प्रतिज्ञा घोष ने अपने पात्रों को इस तरह जिया कि दर्शक उन्हें कहानियों से निकल कर सामने बैठा अनुभव करने लगे। वहीं हिंडोल हाज़रा ने नाट्य-कथ्य को संगीत में ऐसे पिरोया कि वह मात्र ध्वनि नहीं रहा, बल्कि भावों की अभिव्यक्ति बन गया। कभी शहनाई की मद्धम सुरों में तो कभी तबले की थापों पर, उनका संगीत पात्रों की मनःस्थिति का प्रतिबिंब बनकर उभरा। जेम्बे, डुगडुगी जैसे विविध वाद्ययंत्रों का प्रयोग न केवल श्रवणानंद प्रदान करता था, बल्कि कथा के प्रवाह से आत्मिक रूप से जुड़ा हुआ प्रतीत होता था।