पंजाब चाहे हिंदुस्तान का हो या पाकिस्तान वाला, 'जुगनी' का नाम लोकसंगीत में आज भी ज़ोर शोर से गूंजता है। 'जुगनी' पंजाब का एक प्रसिद्ध लोक गीत या गायन शैली है। इन गीतों में अक्सर 'जुगनी' नाम का संबोधन किया जाता है, जो अक्सर जीवन, संघर्ष, आध्यात्मिकता और स्वतंत्रता की भावना को व्यक्त करती है। इस लोकसंगीत में गायक जुगनी की कथात्मक शैली के माध्यम से विभिन्न स्थानों, घटनाओं या सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों पर टिप्पणी करते हैं। जुगनी एक पात्र के रूप में किसी शहर, बाजार, स्कूल या धार्मिक स्थान पर जाती है और वहाँ जो कुछ देखती है, उस पर अपनी टिप्पणी देती है।

जहां पारंपरिक चित्रों में पंजाबी महिलाएं अक्सर चरखा कातती, चूल्हे पर रोटियां सेंकती या गिद्दा डालती दिखाई जाती हैं, वहीं जुगनी एक ऐसी उन्मुक्त किरदार है, जो अलग-अलग शहरों और तजुर्बों से अकेले ही गुजरती है और अपनी आंखों-देखी के माध्यम से रूहानी फलसफे बयान करती है। इस उपमहाद्वीप में जहां इब्न बतूता, बाबा नानक और राहुल सांकृत्यायन जैसे पुरुष यात्रियों के वृतांत सराहे गए हों, वहां पितृसत्ता की लक्ष्मण-रेखा लांघ कर दुनिया घूमने वाली जुगनी के गीत गाया जाना भी किसी विद्रोह से कम नहीं है। 

कौन है ये जुगनी?

तो फिर आखिर कौन थी या कौन है जुगनी? हर औरत जैसी लगने वाली मगर एक रहस्यमई पहचान लिए आज़ाद जगह-जगह फिरने वाली ? ना हिन्दू, ना सिख, ना मुसलमान। ना ब्याहता, ना कुंवारी, ना रईस, ना फ़कीर। नाम अल्लाह का भी लेती है, साईं का भी, पीर, गुरु और हरि का भी ! कभी जालंधर, कभी कलकत्ता, कभी कश्मीर घूमघूम कर रूहानी फलसफे बटोरती हुई जुगनी! दाता दरबार में भी मिल जाएगी, मदीने में भी और टेनिस कोर्ट में भी! सरहद के इस पार भी और उस पार भी! आखिर कौन हुई जुगनी, जिसके किस्से के बिना पंजाबी लोकसंगीत अधूरा है?

यूं तो जुगनी (पु°जुगनू) चमकने वाला एक पतंगा होती है, मगर सूफ़ी जिस तस्बीह (माला) के मनके फेरते रहते हैं, उसे भी जुगनी ही कहते हैं। पंजाब में गले में पहने जाने वाले ताबीज़ को भी जुगनी ही कहते हैं । 

रावलपिंडी के आसपास, पोटोहर की लोककथाओं में भी एक जुगनी-रावल का किस्सा मिलता है, जिसमें नायक रहे रावल की हत्या होने के बाद जुगनी दीवानी होकर जगह-जगह भटकने लगी, जिसपर आगे चलकर लोकगीत लिखे गए। लेकिन यह दावा भी पक्का नहीं क्योंकि कुछ लोग कहते हैं कि 19वीं सदी के एक सूफ़ी संत, बाबा रोडे शाह फ़कीर जलाली ने जुगनी पर आधारित गीतों की रचना की। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि जुगनी शब्द 'योगिनी' का अप्रभ्रंश है और यह संज्ञा नाथ पंथ की जोगनियों को लेकर दी गई हैं, जो फकीरों की तरह भटकते हुए जीवनयापन किया करती थीं। 

"..जुगनी सोचां दे विच खोई 
ढूंढें किसे दे विच ओह कोई
ओ ईश्क़ विच कमली होई
बाहरों हंसी,अंदरों रोई,
पीर मेरेया जुगनी जी.."

एक और किस्सा है कि जुगनी दरअसल 'जुबिली' (jubilee) शब्द से निकला है। 1887 ई में जब ब्रिटिश हुकूमत की गोल्डन जुबिली मनाई जा रही थी, तब हिंदुस्तान के अलग-अलग प्रांतों में ब्रिटिश साम्राज्य के प्रतीक स्वरूप एक मशाल घुमाई गई, जिसके इस्तकबाल में लोकगीत और विरसे के प्रोग्राम होते थे। उस समय पंजाब में मांदा और बिष्णा नाम के दो लोकगायक हुए, जिन्होंने जुबिली मंच के आसपास ही अपना अलग मंच लगाकर लोकगीतों से अंग्रेजी हुकूमत की मज़म्मत करनी शुरू की, जिससे लोगों में आज़ादी को लेकर चेतना जगी। जुबिली मशाल जैसे जगह-जगह घूमी, वैसे वैसे अपभ्रंश बनकर 'जुगनी' के गीत भी उन्हीं जगहों का संदर्भ लेकर बुन दिए गए। जुगनी, इस तरह, आज़ादी का पहला प्रोटेस्ट गीत भी बनी। 

चिमटा बजाकर मदमस्त सूफियाना कलाम गाने वाले पाकिस्तान के लोकगायक आलम लोहार ने जुगनी को 1940 के दशक में पुनर्जीवित किया। साहीवाल में जन्मे पंजाबी गायक हज़ारा सिंह रमता ने भी अपने अलहदा अंदाज़ में जुगनी गाकर लोकपरम्परा में एक नया अध्याय जोड़ा। इसके बाद आसा सिंह मस्ताना, कुलदीप मानक, गुरदास मान, आरिफ लोहार और रब्बी शेरगिल जैसे पंजाबी गायकों ने अपने गीतों में जुगनी को ज़िंदा रखा, रवां रखा। 

लोकगायक हजारा सिंह रमता की जुगनी के बोल कुछ यूं हैं:

"जुगनी फैशन दी मतवाली,
थप्पे पाउडर लावे लाली,
टिड्डों भुक्खी जेबों खाली,
ओ वीर मेरेया वे जुगनी.."

जुगनी गीत पंजाबी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। इन्हें पीढ़ियों से गाया जा रहा है और ये लोक परंपरा का हिस्सा बन गए हैं। गायक इन गीतों के माध्यम से अपनी सांस्कृतिक विरासत को जीवित रखते हैं।

पॉप सिंगर रब्बी शेरगिल के गाए गीत में जुगनी कुछ यूं है:

"जुगनी देखन चली देश 
जित्थे जन्मे सी कदे वेद 
जित्थों कड़ेया सी अंग्रेज 
की बनेया ओसदा.."

जुगनी आज भी सफ़र पर है, एक दर्शनार्थी की तरह, एक चश्मदीद गवाह की तरह, समाज- सियासत - मज़हब और ज़िन्दगी को गौर से देखती हुई, अपनी सूफियाना तबीयत के मुताबिक निष्कर्ष निकालती हुई, सीखती सिखाती हुई, अनंत अनादि!