कवि महाप्राण निराला से काफी प्रभावित रहे थे जानकी वल्लभ शास्त्री। निराला के दिल में भी उनके लिए अथाह प्यार और सम्मान था। इसका प्रमाण है निराला द्वारा जानकीवल्लभ शास्त्री को लिखे गये पत्र। शास्त्री जी की एक प्रसिद्ध किताब है 'निराला के पत्र' जिसमें निराला द्वारा जानकी वल्लभ शास्त्री को लिखे सारे पत्र संकलित हैं।  
लेखन में छंदों पर आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री की पकड़ जबरदस्त थी और अर्थ इतने सहज ढंग से उनकी कविता में आते थे कि इस दृष्टि से पूरी सदी में केवल वे ही थे जो निराला की ऊँचाई को छू पाए। एक साक्षात्कार के दौरान जानकी वल्लभ ने बताया कि उन्होंने महज़ 18 साल की उम्र में आचार्य की डिग्री हासिल कर ली थी और जब यह खबर अख़बार में छपी, तो निराला जी बहुत प्रभावित हुए। इतना ही नहीं, जब निराला जी ने उनका संस्कृत कविताओं का संग्रह ‘काकली’ पढ़ा, तो वे खुद उन्हें ढूंढते-ढूंढते काशी पहुँचे और जानकी वल्लभ से मुलाकात की। उस समय के महान कवि निराला का ऐसा प्रेम देखकर वे भाव-विभोर हो उठे थे।  
कवि निराला के इस प्रेम और मोह में वे इतने विह्लल थे कि उन्होंने अपने घर का नाम ही उनके नाम पर 'निराला निकेतन' रख दिया। जिस घर के बरामदे में वे बैठकर लोगों से बातचीत करते थे, वहां सामने टंगी होती थी निराला जी की सुगढ़ तस्वीर। यह कोई छोटी बात नहीं कि अपने जीवन भर की कमाई, अपने श्रम और मेहनत से सिरजे घर को कोई किसी अन्य का नाम दे दे।‌ सोचिए तो अपने खून-पसीने से बनाये घर को किसी और के नाम समर्पित कर देना, यह जीवट के साथ-साथ अकूत श्रद्धा का भी उदाहरण है। यह कुछ वैसा ही है जैसे भरत का राम के खड़ाऊं को सिंहासन पर रखकर फिर राज-काज सम्भालना। जिसके भीतर जैसे यह भाव निहित है-,'मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर/ तेरा तुझको सौंपते, क्या लागत है मोर?'

शास्त्री जी दरबारी कवि भी रहे थें कभी

शास्त्रीजी रायगढ़ के राजा चक्रधर सिंह के दरबार में राजकवि भी रहे थे, लेकिन उनका स्वच्छंद कवि मन ज्यादा दिनों तक उस राज दरबार में टिक नहीं पाया। वे भाट-चारणों की परंपरा में स्वयं को रखना या देखना नहीं चाहते थे। फिर वे राज्य और राजा की इस नौकरी को  छोड़ गांव वापस आ गए। गांव से फिर मुजफ्फरपुर आकर वहां के 'संस्कृत महाविद्यालय' में नौकरी की। यहीं नौकरी करते हुए उन्होंने मुजफ्फरपुर में अपना यह आशियाना बनाया थाा,  जो तब के शहर के 'बदनाम गली' चतुर्मुभुज स्थान के बिलकुल निकट था। 

उनका निवास लेखकों-कलाकारों का सबसे बड़ा आश्रय-स्थल था

वे मुफ्फरपुर के रामदयालु सिंह कॉलेज में संस्कृत के साथ-साथ हिंदी के भी प्राध्यापक रहें। उन दिनों मुजफ्फरपुर के बाबू उमाशंकर प्रसाद कलाप्रेमी हुआ करते थे। जिनके यहां कलाप्रेमियों का उठना-बैठना लगा रहता था। जानकी वल्लभ शास्त्री भी आठ साल तक उनके इस साहित्य-दरबार में आते-जाते रहें।‌ इसी दौरान उन्होंने आठ पुस्तकों की रचना भी की। और वह कद हासिल की कि उन्हें किसी के यहां जाने, हाजिरी देने की कोई जरूरत नहीं रही। उनका स्वयं का घर लेखकों -कलाकारों का सबसे बड़ा आश्रय और गढ बन गया‌‌।शास्त्री जी के समय स्कूल-कौलेजों के छात्रों से लेकर, बड़े कलाकारों, कलाविदों का उनके इस आवास पर आना जाना होता था। 

संस्कृत भाषा में पारंगत होना

अपनी पढ़ाई के दौरान ही शास्त्रीजी ने संस्कृत में कई नाटक और कविताएं लिखी थीं। उन्होंने संस्कृत को मातृभाषा की तरह ही अर्जित किया था। शास्त्री जी की पहली काव्य पुस्तक 'काकोली' भी संस्कत की रचना थी। वे न केवल संस्कृत के विद्वान् थे, बल्कि अपनी कवि-संवेदना से, उस भाषा के तार से, संगीत की धुनें निकाल सकते थे! 'किसने बांसुरी बजायी/ जनम जनम की पहचानी यह तान कहाँ से आयी?' इस सवाल को पूछने का हक, न केवल शास्त्री जी ने अपने लिए अर्जित किया बल्कि शहर भर में भी वितरित किया! शास्त्री जी इस समूचे शहर के लिए प्रेरणा स्रोत और मार्गदर्शक थे! आज भी मुजफ्फरपुर में होने वाले लगभग हर साहित्यिक कार्यक्रम में उनसे प्रेम व दीक्षा पाने वाले लोग उन्हें और उनके किस्से सविनय याद करते हैं!

 'पद्मश्री' के लिए इंकार 

 इस शहर की मिट्टी में रच बस कर उन्होंने साहित्य साधना की, और सत्ता अथवा किसी ताकत के पिछलग्गू नहीं हुए! शास्त्री जी वह प्रतिभा और शख्सियत थे जिन्होंने 'पद्मश्री' को दो-दो बार अस्वीकार किया था! उन्होंने 1994 व 2010 में केंद्र सरकार की ओर से दिया जाने वाला सम्मान 'पद्मश्री' लेने से इन्कार कर दिया था। इसके पीछे कारण यह था कि सरकार ने इनसे जीवनवृत्त यानी 'बायोडाटा' मांगा था। इस पर उन्होंने कहा था कि 'जिन्हें मेरे कृतित्व की जानकारी नहीं, उनके द्वारा दिया जाने वाला पुरस्कार मैं कैसे ग्रहण कर लूं? ऐसे पुरस्कार का मेरे लिए कोई मतलब नहीं।' वे अपने काम और कृतियों को जीवन का सबसे बड़ा पुरस्कार मानते थे। 2010 में जब उन्हें फिर से पुरस्कार देने की बात आई, उन्होंने कहा - 'अब उन्हें पुरस्कार की कोई जरूरत नहीं, नये लोगों को है और उन्हें ही यह पुरस्कार दिया जाये।' हालांकि उन्हें बहुत से सम्मानों से नवाज़ा गया, जिनमें दयावती पुरस्कार, राजेन्द्र शिखर सम्मान, भारत-भारती सम्मान, साधना-सम्मान, शिवपूजन सहाय सम्मान शामिल हैं। लेकिन जब उन्हें साहित्य में उनके योगदान के लिए बिहार का सबसे सर्वश्रेष्ठ और प्रतिष्ठित ‘राजेन्द्र शिखर सम्मान’ दिया गया, तो उस अवसर पर उन्होंने बेबाकी से कहा-
“मैं आया हूँ नहीं, लाया गया हूँ, 
खिलौना देके बहलाया गया हूँ।”
और सचमुच जानकी वल्लभ शास्त्री का कृतित्व इतना बड़ा था कि इनके सामने बड़े से बड़े पुरस्कार भी छोटे और नगण्य ही होते।

पृथ्वीराज कपूर से निकटता

ख्यात नाटककार-फिल्मकार पृथ्वीराज कपूर का निराला निकेतन में न केवल आगमन हुआ था बल्कि वे वहीं ठहरे भी थे, सारा शहर इस बात पर फख्र करता है! किस्सा यूंकि कि जब शास्त्री जी का गीत' किसने बांसुरी बजाई...' प्रसिद्ध हुआ, पृथ्वीराज कपूर स्वयं उनसे मिलने आयें और उन्होंने उनसे यह गीत सुनाने को कहा। जहां उन्होंने उनसे यह गीत सुना आचार्य उस कमरे को 'पृथ्वीराज कमरा' कहते थे। हाल ही में, वाणी प्रकाशन से आई शास्त्री जी की किताबों में उनके द्वारा पृथ्वीराज कपूर पर लिखित एक पुस्तक भी है। साथ ही‌उनकी अन्य पुस्तकें जो आउट ऑफ़ प्रिंट हो गई थी, नए कलेवर में आई हैं।
 उनके नाम पर हाल ही में बने ट्रस्ट के प्रमुख डॉ गोपेश्वर सिंह जी के तत्वावधान में ऐसी और सार्थक उपलब्धियां हासिल हो रही हैं। शहर के कवियों को 'निराला निकेतन' के आयोजनों से जोड़कर एक नई साहित्यिक सक्रियता और ऊर्जा से शहर को परिचित कराया जा रहा है! हालांकि, इससे पहले डॉ संजय पंकज महीने की हर 7 तारीख को एक कवि गोष्ठी शास्त्री जी की स्मृति में  करवाते रहे थे।
हाल फिलहाल ट्रस्ट के एक कार्यक्रम में, जिसमें डॉ राम वचन राय भी आए थे, मेरी मुलाकात शास्त्री जी की नातिन डॉ रश्मि मिश्र जी से हुई। शास्त्री जी के पहले संग्रह, जो कि संस्कृत की एक काव्य पुस्तिका थी, को याद करते हुए डॉ रश्मि जी ने एक इतना सुन्दर गीत प्रस्तुत किया जो तत्काल तो मन को मोहने वाला था ही, बीते युगों में भी ले जाने वाला था! उस कार्यक्रम में शास्त्री जी की बेटी शैल जी भी मौजूद थीं और बड़े ही स्नेह से मिली भी। इन दोनों से समय ले कर मिलने पर बीते दिनों और इस घर की कितनी यादें-बातें सामने आईं! रश्मि जी ने सबसे पहले याद की वह निष्ठा जिससे शास्त्री जी हर छोटी बड़ी पत्रिका पढ़ा करते थे। साथ ही, वह स्नेह जिससे सबसे मिला करते थे।
जानकी वल्लभ शास्त्री, जानकी वल्लभ शास्त्री का 'निराला निकेतन', हिंदी लेखक जानकी वल्लभ शास्त्री का घर

शास्त्री जी का जगतविदित पशु-पक्षी प्रेम

शास्त्री जी का सचमुच व्यक्तित्व ही अनूठा था। उनसे जब मिली लगा-
'जिन्होंने हो तुम्हें देखा, नयन वे और होते हैं
जो बनते वंदना के क्षण, क्षण वे और होते हैं!’
आज फिर 'निराला निकेतन' शास्त्री जी के आवास पर पहुँचते ही ये पंक्तियाँ जैसे साकार होकर गूँज उठी थीं! सच, ये पंक्तियाँ जितनी लागू होती हैं वृहत्तर दुनिया पर, उतनी ही स्वयं शास्त्री जी के व्यक्तित्व पर! जितने बड़े वह विद्वान और कवि थे, उतने ही स्नेही इंसान, जिनके दरवाज़े हर किसी अर्थात, व्यक्ति ही नहीं जानवरों के लिए भी खुले रहते थे! सिर्फ खुला रहना ही नहीं बल्कि वे उनके वृहत्तर परिवार का एक जरूरी हिस्सा थे। उनके बिछावन पर, पलंग के नीचे, सोफे-कुर्सियों पर हर जगह इनका राज चलता था। दरवाजे पर हमेशा बंधी होती थीं गायें और विचरते रहतेेेे थे।्दर्जनों कुत्ते। शास्त्री जी इन सबको नाम से पुकारते थे। ! उनके खाने-पीने का, रख-रखाव का खयाल रहता था उन्हें। उनका यह जीव जंतु प्रेम, मुझे अपनी आँखों से देखने का सौभाग्य प्राप्त है।जानकी वल्लभ को जितना प्यार अपनी लेखनी से था, उतना ही उनको पशु पालल का शौक भी था। वे एक महान पशुपालक भी रहें।
मेरी माँ मुझे शास्त्री जी के पास पहली बार ले गयीं थीं जब मैं दिल्ली विश्वविद्यालय में द्वितीय वर्ष की छात्रा थी और कॉलेज में हुई प्रतियोगिता में मुझे 'गिरिजा कुमार माथुर' सम्मान मिला था! उसी समय, अनेक कैम्पस साहित्योत्सवों में भी मैंने ख़िताब जीते थे। शास्त्री जी ने बड़े ही प्यार से मुझे प्रोत्साहित करते हुए, मेरे कवि नाना रामजीवन शर्मा जीवन का हवाला देते कहा था- 'कविता तुम्हें विरासत में मिली है, निभाना बखूबी!' काश! कि आज वो होते, और उनके पास अपनी पोथियों की लड़ाई और साहित्य का संघर्ष लिए पहुँचती मैं!
जानकी वल्लभ शास्त्री, जानकी वल्लभ शास्त्री का 'निराला निकेतन', हिंदी लेखक जानकी वल्लभ शास्त्री का घर
आज जब उनकी नातिन अपनी सुशिक्षित, सुमधुर, संगीत पगी आवाज़ में सुनातीं हैं, 'काकोली' पुस्तक से एक गीत, तो एक दिव्य एहसास उतर आता है। केवल मेरे ही नहीं निराला निकेतन में बरगद की छाँव में बैठे तमाम लोगों पर! 
शाम ढले जब उनके घर से और उनके गैरमौजूदगी में भी उनके होने के अहसास को साथ लेकर निकलती हूं।‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌लगभग रात  हो चली है। दरवाजे के बाहर मुस्कुराता चांद मेरी प्रतीक्षा में खड़ा है। मुझे पुन: शास्त्री जी याद आते हैं। उनका एक गीत याद आता है-
'चांद का फूल खिला ताल में गगन के।
दर्द की सर्द हवा, गम की नमी में डूबी,
कसमसाहट की कसम, है जमी़ ऊबी-ऊबी,
रक्त का रंग लिए सांस की उमंग लिए,
प्राण का फूल खिला, ताल में मरण के।'
आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री के प्राणों का फूल भले ही 'मरण के ताल' में मिलकर समाप्त हो चला हो। पर उनकी किताबें, कविताएं, स्मृतियां, उनका घर सब अभी जीवित है। सांसे ले रहा। उनके आवास के साथ साथ, उनकी समृद्ध विरासत को बचाने की भरपूर कोशिश हो रही है। 
लेकिन फिर भी, उनका विराट आहाता मुहल्ले के बच्चों समेत तमाम तरह के लोगों की क्रीड़ा, उत्पात और आकर्षण का केन्द्रबिंदु बना रहता है। और इसके विपरीत, उनके रचे श्रेष्ठ साहित्य के प्रेमी, शोधार्धी गिने चुने ही आते हैं बस! ज़रूरत इस धरोहर को बेहतर तरीके से संजोने की है। 
यूरोप अमेरिका में  चलती आ रही लेखकों के घरों के सरकारी की देख रेख में हाऊस म्यूज़ियम बनाने की प्रथा का अपने देश में भी चलन होना चाहिए। यह देश की सांस्कृतिक सम्पदा के प्रति असल न्याय होगा!