जयशंकर प्रसाद के नाटकों में `ध्रुवस्वामिनी’ ऐसी रचना है जिसके काफी मंचन हुए हैं और अभी भी हो रहे हैं, वरना अक्सर प्रसाद के नाटकों पर आरोप लगता रहा है कि वे मंचीय नहीं हैं। हालांकि उनके `चंद्रगुप्त’ और `स्कंदगुप्त’ वैसे नाटक भी हैं जिनके मंचन हुए हैं। लेकिन इतने कम कि आरोप को मिथ्या साबित नहीं कर सके। जब नाटक लगातार मंचित न हों तो उनकी मंचीयता को लेकर उठे सवाल कभी शांत नहीं होते। संस्कृत नाटकों तक ही सीमित रहें तो भास, शूद्रक और कालिदास के नाटक लगातार होते रहते हैं। इसलिए कभी उनकी मंचीयता संदिग्ध नहीं रही। लेकिन प्रसाद के नाटकों को लेकर इस विवाद पर पूर्णविराम कभी लगा ही नहीं। इसके कई कारण रहे जिनमें एक भाषा भी है। उनके नाटकों की संस्कृतनिष्ठ पदावली दर्शकों को सुबोध नहीं लगती और वो उनसे जज्बाती स्तर पर जुड़ नहीं पाते। अभिनेता भी संवाद बोलते वक्त अपने को उससे जोड़ नहीं पाते।
बहस लंबी है और उसे यहीं छोड़ें तो इतना तो कहा ही जाएगा कि `ध्रुवस्वामिनी’ एक अपवाद है। हालांकि इसमें भी संस्कृतनिष्ठता है लेकिन इसका विषय कुछ ऐसा है कि आज का आदमी, खासकर औरतें इसे भावना के धरातल पर अपने करीब पाती हैं। वैसे भी प्रसाद हिंदी साहित्य में नारी भावनाओं और उससे जुड़े मूल्यों के समर्थक माने गए। अत: इसमें वो पहलू भी समाहित हैं जो आज ज्यादा मुखर हैं। साथ ही ये एक राजनैतिक नाटक भी है जो ये कहता है कि राजा यदि कर्तव्य नहीं निभा रहा है तो उसे हटा दो।
ये एक ऐतिहासिक नाटक है और इसका कालखंड प्राचीन भारत में चौथी सदी का है। सम्राट समुद्रगुप्त के समय का। रामगुप्त समुद्रगुप्त का बड़ा बेटा था लेकिन कायर था और वीरता के तत्कालीन मानदंड पर खरा नहीं उतरता था। आज भी नहीं उतरता। चंद्रगुप्त समुद्रगुप्त का छोटा बेटा था लेकिन साहसी था। उसकी वाग्दत्ता और प्रेमिका थी ध्रुवस्वामिनी जिससे छल से रामगुप्त शादी कर लेता है। रामगुप्त राजा भी बन जाता है। लेकिन जब राज्य पर शकों का आक्रमण होता है और शकराज द्वारा कई चीजों के अलावा उपहार में ध्रुवस्वामिनी की भी मांग होती है। रामगुप्त डर के मारे इसे स्वीकार कर लेता है। वो पत्नी को भी उपहार में देने को तैयार हो जाता है। पर चंद्रगुप्त कहता है कि ऐसा नहीं हो सकता है। वो शकराज के पास औरत के वेश में जाता है। ध्रुवस्वामिनी भी उसके साथ जाती है। दोनों मिलकर शकराज की हत्या कर देते हैं। पर इतना सब होने के बाद रामगुप्त फिर से अपने रंग दिखाता है और ध्रुवस्वामिनी पर अधिकार चाहता है। इस पर झगड़ा हो जाता है। रामगुप्त मारा जाता है और ध्रुवस्वामिनी चंद्रगुप्त से शादी कर लेती है।
प्रसाद का ये नाटक औरतें के स्वनिर्णय की वकालत करता है। जिस समय, यानी प्रसाद के समय, ये नाटक लिखा गया था उस समय भारत में औरत केंद्रित अधिकार की चर्चा उतनी नहीं होती थी जितनी आज हो रही है। फिर भी आजादी की लड़ाई का समय था औऱ उस दौरान स्त्री की स्वातंत्र्य चेतना भी विकसित हो रही थी। प्रसाद हिंदी साहित्य में उसके प्रवक्ताओं में एक रहे हैं। उनकी ध्रुवस्वामिनी एक ऐसी औरत के रूप में सामने आती है जो उस पति को मन से स्वीकार नहीं करती जिसने उसके साथ छल से शादी की थी। वो आत्महत्या की कोशिश करती है पर चंद्रगुप्त द्वारा बचा ली जाती है। स्वंतत्र-चेता ध्रुवस्वामनी राम गुप्त के चंगुल से निकलना चाहती है।
प्रसाद इस मामले में ध्रुवस्वामिनी के साथ हैं। हालांकि रामगुप्त के मरने के बाद ध्रुवस्वामिनी की चंद्रगुप्त के साथ शादी की बात राज पुरोहित मान जाते हैं और ये शादी धर्मसम्मत करार दी जाती है। फिर भी पारंपरिक हिंदू समाज में इसे लेकर असमंजस तो था। लेकिन जयशंकर प्रसाद ने परंपरा के साथ रहते हुए भी परंपरा- विरुद्ध राह पकड़ी। कह सकते हैं कि ये दूसरी परंपरा की खोज या स्थापना थी, क्योंकि पति के निधन के बाद स्त्री का पुनर्विवाह कराना सोच के धरातल पर भी जोखिम मोल लेना था। किंतु तब ईश्वर चंद विद्यासागर जैसे लोग विधवा विवाह के लिए आंदोलन चला रहे थे। जयशंकर प्रसाद को शायद वहां से वैचारिक संबल मिला हो।
`ध्रुवस्वामिनी’ आज भी रंगकर्मियों को अपनी ओर खींचता है। और यही कारण है कि युवा रंगकर्मी प्रियंका शर्मा ने पिछले दिनों दिल्ली के श्रीराम सेंटर में इसे खेला। हालांकि `ध्रुवस्वामिनी’ की ये उनकी पहली प्रस्तुति नहीं थी। कुछ साल पहले भी उन्होंने इसे निर्देशित किया था। एक अंतराल के बाद इसका पुन: मंचन ये भी संकेत करता है कि निर्देशक के दिल में ये नाटक बसा हुआ है। हालांकि पहले की प्रस्तुति की तुलना में इस बार कई किरदार बदले हुए थे लेकिन मुख्य भूमिका यानी ध्रुवस्वामनी के रूप में इस बार भी प्रियंका खुद ही थी। वे एक अच्छी अभिनेत्री हैं और उन्होंने अपने किरदार को बहुत संयमित ढंग से पेश किया।
प्रसाद की ध्रुवस्वामिनी दुखी है, मगर अपने दुख में भी अपनी गरिमा को नहीं छोड़ती। जब चंद्रगुप्त अकेले शकराज के पास जाने को तैयार होता है तो वो कहती है कि साथ में वो भी चलेगी। वो खुद भी खतरा उठाने या जान की बाजी लगाने को तैयार हो जाती है। प्रियंका ने अभिमानिनी और जाबांज ध्रुवस्वामिनी को जिस तरह मंच पर पेश किया उसमें उदात्तता भी थी और विद्रोहीपन भी। वो विद्रोही इसलिए भी है कि वो रामगुप्त को मन से कभी स्वीकार नहीं करती और उसे लगातार क्लीव कहती रहती है। उसे डर नहीं कि ऐसा करने पर रामगुप्त क्या करेगा। आखिर वो राजा है, कुछ भी कर सकता है। लेकिन ध्रुवस्वामिनी निर्भीक है और सामने ही उसे चुनौती देती रहती है। उसका तेज मंच पर भी प्रकट होता रहता है।
शकराज की भूमिका में गिरीश बदलानी ने भी प्रभावशाली अभिनय किया। वे दिल्ली रंगमंच के एक पुराने अभिनेता रहे हैं। मगर वे एक लम्बे अंतराल के बाद फिर से बतौर अभिनेता आए। उनके लिए दोहरी चुनौती थी। एक तो लंबे समय के बाद एक बड़ा किरदार निभाना दूसरे शक राजा की भूमिका निभाना। शक बाहरी थे। आक्रमणकारी थे। हालांकि आगे चलकर वो भारत में सांस्कृतिक रूप से समा गए। लेकिन जिस दौर की ये कथा है उसमें शक विदेशी आक्रांता और आततायी थे। उनकी छवि लड़ाकू और निर्दयी की थी। इस नाटक में गिरीश का चरित्र भी एक लड़ाकू और आततायी का है। जो आततायी होता है वो सिर्फ दूसरों को यातना नहीं देता बल्कि अपनों के साथ भी दुर्व्यवहार करता है। इसीलिए शकराज अपनी होनेवाली पत्नी कोमा के साथ भी बदसलूकी करता है और अपने गुरु, जो कोमा के पालक रहे हैं, के साथ भी। गिरीश ने शकराज के व्यक्तित्व के इस पहलू को तो उभारा ही है साथ ही उसे थोड़ी गंभीरता भी दी है।
जिस एक और शख्स का किरदार असरदार ढंग से उभरता है वो है रामगुप्त का। वैसे तो नाटक के चरित्र के रूप में रामगुप्त एक बेहद डरपोक शख्स है। कुटिल भी। वो अपने छोटे भाई चंद्रगुप्त को शकराज के शिविर में जाने की अनुमति देता है और साथ में ध्रुवस्वामिनी को भी। लेकिन ये सब वो कुटिलता की वजह से करता है। उसे लगता है कि शकराज के हाथों चंद्रगुप्त मारा जाएगा और उसके राह की बाधा समाप्त हो जाएगी। जाहिर है कि ऐसे चरित्र को मंच पर निभाने की अपनी चुनौतियां हैं। लेकिन अभिनय की यही ताकत है कि वो खलनायक को भी इस तरह पेश कर देता है कि दर्शक एक स्तर पर उसका मुरीद हो जाए। और रामगुप्त का चरित्र निभानेवाले भानुप्रताप सिंह ने यही किया। उन्होंने रामगुप्त की क्लीवता में भी चमत्कार ला दिया है। उनकी वजह से रामगुप्त का चरित्र एक अलग स्तर पर चला गया है।
बतौर निर्देशक प्रियंका शर्मा ने मंच को साधारण ही रखा है। मंचसज्जा में किसी तरह की भव्यता नहीं है। मंच के पीछे और ऊपर की ओर गोलाकार शिल्प टंगा था जो प्राचीन कथा का भ्रम पैदा करता था मगर राज दरबार जैसा कोई दृश्य नहीं है। एक बेंच है जिससे कभी राज सिंहासन का काम लिया गया है तो कभी किसी और प्रयोजन के लिए उसका इस्तेमाल होता है। हां, नाटक की वस्त्रसज्जा ऐतिहासिक समय के अनुरूप है। संगीत भी असरदार है। कुल मिलाकर ऐसी प्रस्तुति जो भारतीय इतिहास के एक अध्याय को भी सामने लाती है और स्त्री- चेतना के नए और समकालीन दौर से भी जुड़ती है।
यहां ये स्मरण करना भी जरूरी है प्रसाद के `ध्रुवस्वामिनी’ की प्रेरणा के पीछे संस्कृत के नाटककार विशाख दत्त का नाटक `देवीचंद्रगुप्त’ है। हालांकि ये भी तथ्य है कि `देवीचंद्रगुप्त’ अभी तक अपने समग्र रूप में अप्राप्य ही रहा है और उसके अंश ही मिले हैं। फिर भी संस्कृत नाटकों के इतिहास में उसका उल्लेख होता है।
वैसे विशाख दत्त की प्रतिष्ठा उनके प्रसिद्ध नाटक `मुद्राराक्षस’ की वजह से है, जिसे संस्कृत नाटकों में सर्वाधिक राजनैतिक माना जाता है। भारतीय मानस में चाणक्य की जो छवि बनी है उसके पीछे बड़ी भूमिका इस नाटक की भी है। जयशंकर प्रसाद के नाटक `चंद्रगुप्त’ पर भी इसकी छाप है। विशाखदत्त के माध्यम से प्राचीन काल के भारत के बारे में बहुत कुछ जाना जा सकता है। ये स्मरणीय है कि `ध्रुवस्वामिनी’ नाटक में जिस चंद्रगुप्त का उल्लेख है वो आगे चलकर चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के नाम से मशहूर हुआ। वो चाणक्य वाला चंद्रगुप्त मौर्य नहीं है।
पर ये सब अवांतर प्रसंग है।। फिलहाल तो मंचित नाटक `ध्रुवस्वामिनी’ के बारे में इतना तो कहा जाना चाहिए कि इसके माध्मय से हम भारतीय इतिहास के एक कालखंड के बारे में भी जानते हैं और उसमें निहित स्त्री-विमर्श और परपरा-विमर्श की कई तरह की व्याख्याएं कर सकते हैं। वैसे आजकल उत्तर-आधुनिक विमर्श के सिलसिले में पुराने नाटकों के ऐसे मंचन का सिलसिला भी चला है जिसमें पहले लिखे नाटकों में कुछ जोड़घटाकर या उनको तोड़मरोड़ कर नई वैचारिकता के आलोक में प्रस्तुत किया जाता है। उसे 'विखंडन' कहते हैं। `ध्रुवस्वामिनी’ में भी इस तरह की संभावनाएं हैं। इसमें जो राजनैतिक आशय है उसे भी नए आलोक में पहचाना और विश्लेषित किया जा सकता है।