स्वप्न ही सृजन का उत्प्रेरक स्रोत है। इस गैर बराबरी वाली पारिवारिक व्यवस्था में स्त्री-पुरूष संबंधों के बीच सामंती सोच की सालों पुरानी चली आ रही ऐसी गैर जरूरी निर्मितियां हैं, या सामाजिक व्यवस्था के सांचे ढांचे के आधार स्तंभों के मूल में पितृसत्तात्मक सोच की परंपरागत निर्मिति इतने गहरे धंसी है जिसके चलते एक स्वस्थ समरस पर आधारित लोकतांत्रिक सामाजिक या पारिवारिक व्यवस्था दूर दूर तक नजर नही आती, जिसका प्रतिरोध दर्ज करने के लिए मैंने कलम का साथ पकड़ा। स्वप्न के जरिए ही हम अपने जीवन को वांछित दिशा दे सकते हैं। साहित्य, संस्कृति, कला एवं ज्ञानार्जन की सभी नई राहें खोलने की अद्भुत क्षमता है हमारे सपनों में।
एक रचनाकार का क्या स्वप्न है, कैसी परिकल्पनाएं के जरिए वह अपने आसपास की दुनिया को सुंदर बनाना चाहता है, सोचती हूं तो मेरे सामने तमाम सफेद पन्नों पर उकेरने वाले स्वर्णिम अक्षर मुझे नई दिशा का संधान करने में मदद करते हैं। इन शानदार अक्षरों के जरिए मैं अपने आसपास की विरूपित दुनिया में मनचाहे रंग भरकर सुनहरी खूबसूरत दुनिया तैयार कर लेती हूं जिनके बीच विचरण करना मेरा पसंदीदा रूटीन है। जब भी अपने सपनों की बात शुरू करती हूं, मुझे 10वीं का वो निबंध अवश्य याद आता है, जब मुझसे पूछा गया था- योर ग्रेटेस्ट विश, क्या है तो सभी सहपाठियों ने डॉक्टर, इंजीनियर, प्राध्यापक, आईएएस, पीसीएस जैसी ख्वाहिशें लिखकर अच्छे नंबर बटोरने चाहे मगर मैंने उसी समय पहली बार लिखा था- मैं एक लेखक बनना चाहती हूं, क्योंकि मैं आम आदमी के दुख दर्दो या तकलीफों को देख सुन नही पाती, सो ऑपरेशन करके सीधे दुखों से रू ब रू होने की कल्पना ही मुझे डराती है, इसलिए डॉक्टर नही, गणित में कोई दिलचस्पी नही सो इंजीनियर नही बनना, छोटे बच्चों को पढ़ाने लायक धैर्य नही सो अध्यापकी नही हो सकती। बस, आसपास जो भी दुख दर्द, हिंसा या स्त्री जीवन में पक्षपात वगैरह देखती हूं, उसे बखूबी लिख सकती हूं। हमारे आसपास किसी भी घर में लड़की होने पर लोग दुखी क्यों होते हैं, सबके मुंह क्यों बन जाते हैं, आने वाली बच्ची का इतना निरादर क्यों, ऐसे ही कुछ सवाल लिखे थे निबंध में। जाहिर सी बात है, मुझे क्लास में सबसे अच्छे नंबर मिले थे।
तब से मेरे मन में लेखन के प्रति गहरी आश्वस्ति या सम्मान का भाव था। पुस्तकों से मिले जीवन अनुभवों को आत्मसात करते हुए अपने परिवेश में लोकतांत्रिकता को बनाए बचाए रखने की कोशिश करना मेरा पहला स्वप्न है। चूंकि मैंने अपने पीछे छूटी स्त्रियों की तीन पीढि़यों के आत्मसम्मान या निजी पहचान के जरिए आजादी पाने के सपनों को बार बार तिल तिल करते मरते देखा है, दादी, नानी के बाद अपनी मां और मैं, सो स्त्री जीवन में व्याप्त गैर बराबरी यानी पुरूषों द्वारा बरती गयी शाब्दिक हिंसा को प्रत्यक्षत: महसूस करना मेरे जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी रही है, जिसे मिटाकर एक स्वस्थ पारिवारिक संरचना में लोकतंत्र की बयार बहते देखना मेरा आज भी सबसे बड़ा सपना है।
मेरी पीढ़ी को यानी आजाद हिंदुस्तान के सैकड़ों गांवों या कस्बों में रहने वाली लड़कियों के लिए शिक्षा के जरिए स्वावलंबन पाने के लिए लंबा संघर्ष देखना पड़ा है, इस नाते आधी दुनिया को स्वालंबन के जरिए आत्मनिर्णय का मूलभूत अधिकार हासिल हो, ये मेरा सबसे बड़ा सपना रहा है। जब लड़कियां लड़कों की तरह अपने जीवन का हर निर्णय खुद ले सकें, जिसमें किसी पितृसत्ता का हस्तक्षेप न हो या कभी गलत निर्णय लेने के बावजूद वे इसे खुद सही करने का आत्मविश्वास हासिल कर सकें।
पारिवारिक व्यवस्था में तानाशाही, शारीरिक व मानसिक हिंसा, एकतरफा पक्षपातपूर्ण रवैया यानी गैर बराबरी भले ही आज उतना नजर नही आता, लेकिन इसके सूक्ष्म धागे इतने अलक्षित हैं जिन्हें हमारी ये आंखें नही देख पातीं। अपनी मर्जी से करियर चुनना हो या अपनी पसंद की नौकरी करके एकल रहने की आजादी पाने वाली लड़की को आज भी आवारा या बदचलन कहकर उसे प्रताडि़त करने में पुरूष के साथ खुद स्त्रियां ही पीछे नही रहती। सालों की कंडीशंनिंग के बाद हम इसका दुष्परिणाम देखने को अभिशप्त हैं कि जब कोई लड़का अपनी पत्नी से प्रताडि़त होने की वीडियो बनाकर समाज को दिखाकर सहानुभूति बटोरने की कोशिश करता है, तो यह समूचा परिवेश उस लड़की का पक्ष सुने वगैर ही लड़के के साथ खड़ा हो जाता है और उस लड़की को उल्टा सीधा जज करने की मुहिम में सारे लोग जुट जाते हैं।
पितृसत्ता इसे भी अपने हिस्से का आधा अधूरा सच न मान ले...
बेशक आज का तथाकथित लोकतांत्रिक माहौल अभी उतना परिपक्व नही हो पाया है, जहां दो सुशिक्षित स्वावलंबी लोग आजादी से अपनी अपनी अस्मिता को बनाए बचाए रखें। अभी ये नई नई मिली आजादी वनाम अराजकता की अंधी दौड़ नजर आती है जिसके जरिए यथार्थ की वास्तविक तस्वीरें अभी धुंधली नजर आतीं हैं। अभी ये लंबी राहें किस दिशा में कहां आगे मुड़ेंगी, कहना मुश्किल है मगर अभिव्यक्ति की आजादी या मनमानेपन से जीने की आजादी के जरिए कुछ भी करने की अंधदौड़ जरूर देखने को मिलती है, जिसे सावधानी व विवेक से हैंडिल करने की सख्त आवश्यकता है वरना ये पितृसत्ता इसे भी अपने हिस्से का आधा अधूरा सच मानकर आधी दुनिया को सालों पीछे धकेलने से परहेज नही करेगी।
मेरे सपने तमाम अप्रासंगिक हो चुकी रूढि़यों, गैर जरूरी परंपराओं या कालातीत सामंती सोच से जकड़नों से मुक्ति की नई राह प्रशस्त करता है। मेरा सपना है, कि जो भी मैं रचूं, रचने में अभिव्यक्ति की आाजादी मिले। मन के अंधेरे में रोशनी भरने वाले शब्दों के जरिए सपनों को साकार करने की लंबी यात्रा में मेरे रचनाकार सहयात्री एक दूसरे के लेखन को समानता की आंख से देखें। ये याद रखना सबसे जरूरी है कि हर रचनाकार की अपनी जमीन, अपनी जड़ें, अपना निजी हवा पानी होता है जिनके जरिए वह अपने आसपास के जीवन की बखिया उधेड़कर नए सिरे से बुनना संवारना चाहता है। चूंकि हर रचनाकार का परिवेश अलग होता है, बचपन का माहौल अलग अलग होता है, जहां उसकी सोच समझ के दायरे बड़े होकर विकसित आकार प्रकार लेते हैं, ऐसे में किसी एक को बड़ा साबित करने की मुहिम में जुट जाना सिरे से गलत है।
मैं लेखन की दुनिया में किसी एक को बड़ा मानकर तूल देने या दूसरे को कमतर मानने की कुप्रथा के विरूद्ध हूं। अगर पाठक या शोधकर्ता किसी एक रचनाकार से कनेक्ट महसूस करता हो या कोई किसी और को पसंद करता है तो जरूर उसके भावनात्मक या संवेदना का धरातल उससे मिलता जुलता होगा, इसका मतलब ये कतई नही होता कि वह रचनाकार बड़ा या दूसरा छोटा हो गया। आज मैं कृष्णा सोबती को पसंद करती हूं तो सूर्यबाला जी एवं मन्नू भंडारी के लेखन को भी उतना ही पसंद करती हूं। पता नही ये परंपरा कैसे चली आई कि जिस आलोचक ने किसी एक की तरफ इशारा कर दिया कि वह बड़ा है तो बाकी दुनिया उसे पढ़े बिना ही उसे बड़ा या कमतर मानकर मूल्यांकन करने जुट जाएगी। ऐसे फतवे जारी करना या इस तरह के खेल रचे जाने से साहित्य संसार की विविधता पर घातक असर पड़ सकता है। यूं भी हर रचनाकार का सपना होता है कि उसे ठीक से पढ़ा, गुना या समझा जाए और ये सपना कोई बड़ा सपना नही। समकालीन रचनाकार एक दूसरे को पढ़कर समझें या अपना अभिमत दें, ताकि एक स्वस्थ लोकतांत्रिक साहित्य संसार तैयार हो सके जिससे आगामी पीढ़ी भी लाभान्वित हो सकेंगी।
प्रकाशकों एवं लेखकों के बीच बढ़ती दूरी
एक और सपना अक्सर दिमाग में आता है, साहित्य संसार में प्रकाशकों एवं लेखकों के बीच बढ़ती दूरी कम हो। दोनों के बीच दोस्ताना संबंध हों। जिनके लेखन के बल पर इनकी बड़ी बड़ी दकानें चल रहीं हैं, उनके प्रति उनका रवैया लोकतांत्रिक होना सबसे जरूरी है। आज के इस व्यावसायिक दौर में प्रकाशकों का पक्षपातपूर्ण रवैया लेखकों को खासा आहत करने वाला है। दरअसल इनके बीच के रिश्ते इतने बिगड़ चुके हैं, जिनके बारे में आए दिन सुनते समझते हुए विचलित होती हूं, तो यही है हमारे लेखन की दुकानदारी ? यानी महज लाभ पाना ही बड़े प्रकाशकों का मंतव्य है।
सचमुच, इन दिनों प्रकाशक केवल अपना हित या अपना लाभ पाने के लिए इतने लालायित हो उठे हैं कि जिस पुस्तक से लाखों की आय हो सके, बस उसे आनन फानन में छापकर लाभ कमाना ही उनका पसंदीदा खेल हो गया है जिसमें बड़े बड़े गायक, संगीतकार, फिल्मकार या तमाम नामचीन हस्तियों के नाम शामिल होते जा रहे हैं जिन्हें आम जन की तकलीफों से कोई लेना देना नही। वे बस अपनी लोकप्रियता को भुनाने इस लेखन की दुनिया में प्रवेश करते है। वे खुद लिखते हैं या नही, इस बात को परे धकेलकर मेरा ध्यान इस पर केंद्रित है कि प्रकाशकों को नए लेखकों को तबज्जो देना चाहिए।
लेखक की उम्र मायने नही रखती, मायने रखता है उसकी रची कल्पना की दुनिया जिसमें यथार्थ की आवाजादी कितनी है, जिसमें आज के समय की धड़कनें सुनाई दे रही हैं या नही, जिसमें युवा मन को पढ़ने समझने की क्षमता हो, जिसे पढ़कर नवयुवा किसी न किसी रूप में खुद को कनेक्ट कर सकें , जिस उपन्यास में उनके मन को समझा जाए, उनके अनकहे को शब्द मिलें, ये सबसे जरूरी है मगर आज की दुनिया में बस वही छपता है, जो बिकता है। ये काफी हताश करने वाली स्थितयां दिनोंदिन साहित्य का माहौल बर्बाद रही है। जिन शब्दों की दुकानदारी से वे प्रकाशक मालामाल होते जा रहे हैं, उनके प्रति उनका रवैया काफी निराशाजनक है, जिसे सबको जानना समझना जरूरी है। सब लेखकों को मिलकर इस समस्या के प्रति संवेदनशील रवैया अपनाना होगा, तभी एक साझा मंच बन सकता है जिसमें एक दूसरे के प्रति स्नेह एवं पारस्पिरक सम्मान भाव हो। मेरा सपना है कि लेखन की गुणवत्ता के आधार पर प्रकाशक केंद्रों पर रचनाएं छपें जिससे अच्छी कृतियां खुद ब खुद अच्छे प्रकाशकों से छपें । इससे उत्कृष्ट कोटि की रचनाओं से पाठक लाभान्वित होंगे।
कभी आत्मलिप्तता के आइने में तो कभी आत्ममुग्धता के नशे में चूर आत्मश्लाघा से भरी लोकप्रिय हस्ताक्षरों की रची पुस्तकें पढ़कर भला आम पाठक को क्या हासिल होगा, वो खुद कैसे जुड़ेगा ? ये तो सोचने की बात है।
मेरा सपना है कि जो भी लेखन की दुनिया में हैं, उनके बीच आपसी सम्मान एवं प्रेम की भावना हो, जो आज सिरे से नदारद है। आज तो जिस तरह की गुटबंदी देखती हूं, एक को सुपीरियर या दूसरे को औसत कहकर तिरस्कार से देखने का माहौल बनता दिख रहा है या जिस तरह के तमाम दबाबगुट बनते जा रहे हैं या जिस तरह की हड़बड़ी में लेखक घूमते फिर रहे हैं, रातोंरात प्रसिद्धि पाने की अंधदौड़ में लेखन की गुणवत्ता प्रभावित होगी ही, इसमें कोई संदेह नही।
तो क्या एक समरस सुंदर लेखक परिवार का सपना देखना क्या आज सबसे बड़ा गुनाह बन गया है ? ये सवाल अक्सर मेरे सपनों में खलल डालता रहता है।