इतिहास को अगर मुड़कर देखें तो दोनों विश्व युद्धों में भारतीय सैनिकों की बढ़-चढ़कर शिरकत दिखाई देती है। विश्व युद्धों के दौरान भारत ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा था। गांधी समेत शीर्ष भारतीय नेतृत्व को यह यकीन था कि अंग्रेजों के पक्ष से लड़ने के बाद ब्रितानवी हुकूमत भारतीयों को स्वायत्तता देगी। इसी क्रम में गांधी के आह्वान पर भारत के किसानों ने हल त्यागकर राइफलें थामी और बतौर सैनिक विश्व युद्ध में शामिल होने को तैयार हो गए। सैन्य सेवा की परम्परा और सामाजिक सम्मान की भावना से प्रेरित होकर भी कई भारतीयों ने विश्व युद्ध में भाग लिया।

प्रथम विश्व युद्ध के दौरान लगभग 15 लाख भारतीय सैनिकों ने ब्रिटिश भारतीय सेना में सेवा दी। उन्होंने पश्चिमी मोर्चे, गैलीपोली, पूर्वी अफ्रीका, मेसोपोटामिया, मिस्र और फिलिस्तीन सहित अलग अलग मोर्चों पर लड़ाई लड़ी। इस युद्ध में 74,000 से अधिक भारतीय सैनिक मारे गए। द्वितीय विश्व युद्ध के अंत तक 25 लाख से अधिक सैनिकों के साथ ब्रिटिश भारतीय सेना इतिहास की सबसे बड़ी सेना बन गई। उन्होंने यूरोप, अफ्रीका और एशिया में अभियानों में सेवा दी और 87,000 से अधिक भारतीय सैनिकों ने अपनी शहादत भी दी।

जंग से जुड़े ऐतिहासिक प्रसंग यही दोहराते आए हैं कि जंग जीतने वाला पक्ष लोकप्रियता, ज़मीन और सत्ता पाता है और हारने वाले अपना कब्ज़ा और प्रतिष्ठा गंवाते हैं। साथ ही दोनों पक्षों में होने वाली जंग में आहूति देती हैं कई जानें। लेकिन जंग की यादगार के रूप में और भी कई निशानियाँ होती हैं, जो फौजियों को बहादुरी के फलस्वरूप मिलती आई हैं, जो इतिहास के एक गोशे के रूप में उनके पास अमर रहती हैं। विश्व युद्ध में लड़ने वाले भारतीय सैनिकों को ब्रिटिश और भारतीय सरकार की तरफ से ईनामस्वरूप मेडल, वज़ीफे, ईनाम और जागीरें मिलीं, जो आज भी विश्व युद्ध के धरोहर के रूप में मौजूद हैं। 

मेडल : इतिहास की आँख में रुका हुआ आँसू 

मेडल सिर्फ धातु के चमचमाते टुकड़े ही नहीं हुआ करते बल्कि जुझारू सैनिकों के बहने वाले खून पसीने और आंसुओं का एक पुख़्ता सबूत होते हैं। विश्व युद्ध में शामिल होने वाले भारतीय सैनिकों में से ज़्यादातर ऐसे लड़ाके थे, जिन्होंने शायद कभी अपने गांव की दहलीज़ भी नहीं लांघी थी लेकिन नियति जिन्हें सात समन्दर पार लड़ने जूझने ले आई थी। जिन फौजियों ने विश्व युद्धों में अपना श्रमदान और प्राण दिए, उनके नाम आज भी उनके गाँव के मुहाने पर बड़े सम्मान से लिखे जाते हैं। साथ ही इन फौजियों को इनकी सेवा के लिए ब्रिटिश सरकार ने जिन तगमों से नवाज़ा, वे आज भी इनके घरों की दीवारों पर टंगे या संदूकों में किसी ख़ज़ाने की तरह सहेजे हुए मिल जाएंगे।

इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट नामक पदक ब्रिटिश भारत में सैनिकों और नागरिकों को उनकी बहादुरी, कर्तव्य के प्रति समर्पण और विशिष्ट सेवाओं के लिए दिया जाने वाला इनाम होता था। बाद में भारतीयों को विक्टोरिया क्रॉस आदि पदक दिए जाने लगे।

प्रथम विश्व युद्ध के दौरान मिलने वाले पदकों में से एक था विक्टोरिया क्रॉस। यह ब्रिटिश और राष्ट्रमंडल सेनाओं का सर्वोच्च वीरता पुरस्कार था, जो दुश्मन के सामने अद्वितीय बहादुरी के लिए दिया जाता था। प्रथम विश्व युद्ध में 11 भारतीय सैनिकों को यह सम्मान मिला। 

इंडियन डिस्टिंग्विश्ड सर्विस मेडल भी भारतीय सेना के गैर-कमीशन अधिकारियों और अन्य रैंकों को विशिष्ट बहादुरी या कर्तव्य के प्रति समर्पण के लिए दिया जाता था।

ब्रिटिश युद्ध पदक उन सभी ब्रिटिश और राष्ट्रमंडल सैनिकों को दिया गया था जिन्होंने किसी भी युद्ध में भाग लिया था।

विजय पदक यानी विक्ट्री मेडल प्रथम विश्व युद्ध में मित्र देशों की जीत के उपलक्ष्य में जारी किया गया था और उन सभी को दिया गया था जिन्होंने युद्ध में सेवा दी थी।

द्वितीय विश्व युद्ध में भारतीय सैनिकों को विक्टोरिया क्रॉस दिया गया। लगभग 18 विक्टोरिया क्रॉस भारतीय सैनिकों को प्रदान किए गए।

वीरता का दूसरा सबसे बड़ा ब्रिटिश पुरस्कार जॉर्ज क्रॉस था, जो दुश्मन की उपस्थिति में न होने पर भी अत्यधिक बहादुरी के लिए दिया जाता था। कुछ भारतीय सैनिकों को यह सम्मान भी मिला।
 
डिस्टिंग्विश्ड सर्विस ऑर्डर सक्रिय अभियानों के दौरान उत्कृष्ट नेतृत्व के लिए अधिकारियों को दिया जाता था।

मिलिट्री क्रॉस मेडल दुश्मन के सामने बहादुरी के लिए जूनियर अधिकारियों को दिया जाता था।

डिस्टिंग्विश्ड कंडक्ट मेडल विशिष्ट वीरता के लिए गैर-कमीशन अधिकारियों और अन्य रैंकों को दिया जाता था।

1939- 1945 स्टार मेडल उन लोगों को दिया गया जिन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध में सक्रिय सैन्य सेवा दी थी।

विभिन्न युद्धों और अभियानों के लिए कई अन्य सितारे और पदक जारी किए गए, जैसे कि बर्मा स्टार, इटली स्टार, अफ्रीका स्टार, आदि, जो उन भारतीय सैनिकों को मिले जिन्होंने इन क्षेत्रों में सैन्य सेवा दी।

जंगी ईनाम: युद्ध का बही-खाता 

जंगी जागीर एक विशेष प्रकार का भूमि अधिकार था जो मुख्य रूप से सैन्य सेवा के बदले में दिया जाता था। इस ईनाम की शुरुआत मुगलकाल से हुई लेकिन अंग्रेज़ों ने भी इस सैन्य रिवायत को थोड़े परिवर्तन के साथ आगे बढ़ाया। प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध में भारतीय सैनिकों की सेवाओं और वीरता को सम्मानित करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने विभिन्न प्रकार के भूमि अनुदान और वित्तीय पुरस्कार प्रदान किए। इन पुरस्कारों का उद्देश्य सैनिकों और उनके परिवारों को उनकी सेवाओं के लिए मान्यता और कुछ हद तक आर्थिक सहायता प्रदान करना था। पंजाब जैसे क्षेत्रों में, जहां से बड़ी संख्या में सैनिक भर्ती हुए थे, युद्ध में उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वाले सैनिकों या शहीद हुए सैनिकों के परिवारों को भूमि के टुकड़े आवंटित किए गए थे ताकि युद्ध के बाद सैनिकों और उनके परिवारों के पुनर्वास में मदद हो सके। 

पंजाब में आज भी सैनिकों के माता-पिता को, जो पंजाब के निवासी हैं और जिनके अकेले पुत्र या 2 से 3 पुत्रों ने दूसरे विश्व युद्ध, राष्ट्रीय संकट 1962 और राष्ट्रीय संकट 1971 दौरान भारतीय फौज में सेवा की, पंजाब सरकार की तरफ से सम्मान के तौर पर सालाना (वित्तीय) 'जंगी जागीर' अदा की जाती है। केंद्र सरकार द्वारा आज भी विश्व युद्ध में लड़ने वाले सैनिकों के परिवारों 1000 रूपये मासिक के तौर पर जंगी ईनाम दिया जाता है। 

विश्व युद्ध के इतिहास का अदृश्य भारतीय पन्ना 

खाकी वर्दी, टिन हेलमेट, टोपियाँ और पगड़ी पहने ये भारतीय सैनिक, विश्व युद्धों में अफ़्रीका, जर्मनी और बर्मा जैसे मोर्चों पर कीचड़ भरी खाइयों, सूखे रेगिस्तानों और घने जंगलों में डटे रहे लेकिन फिर भी उनकी कुर्बानियों को विश्व पटल पर सम्मानजनक रूप से पहचान नहीं मिली। भारतीय सैनिकों की कहानी बहादुरी के साथ साथ जंग के दौरान उनके द्वारा भुगते गए नस्ली शोषण का भी लेखाजोखा है।

ब्रिटिश सैन्य इतिहासकार टोनी मैक्लेनाघन कहते हैं कि विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सेना में सेवारत भारतीय सैनिकों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है, लेकिन युद्ध व्याख्यानों में भारतीय सैनिकों की भागीदारी को महज़ एक फुटनोट के रूप में खारिज कर दिया जाता है।

साथ ही भारत में भी अंग्रेज़ी सेना में लड़ने वाले इन फौजियों से ज़्यादा तरजीह स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े नामों को दी गई है। कई बार तो विश्व युद्ध के सैनिकों के परिवारों को आज़ाद भारत में अंग्रेज़ी राज का गुलाम कहकर भी दुत्कारा गया जबकि औपनिवेशी इतिहास कभी इतना सीधा सपाट नहीं रहा कि किसी को उस दौर की पेचीदगियों के चलते आज के समय में अंग्रेज़ी गुलाम या भारतीय विद्रोही कह दिया जाए।

लेकिन अब इस मई में दूसरे विश्व युद्ध की 80वीं वर्षगांठ पर ब्रिटेन ने भारतीय सैनिकों के सैन्य योगदान का ब्रिटेन में और प्रचार प्रसार करने का निर्णय लिया है। गी बोमैन जैसे इतिहासकारों ने भी अपने शोध के आधार पर अनसुने भारतीय सैनिकों के नामोनिशान और कहानियाँ खोजनी शुरू की हैं। 

विश्व युद्ध के साए में परदेसी मोर्चों पर बहादुरी से डटे हुए भारतीय सिपाही, नायक, हवलदार, जमादार, सूबेदार वह गुमनाम ताकत थे, जिसने अपनी पीठों पर जंगी वार सहे और दुनिया के आम नागरिकों को एक ढाल की तरह बचाए रखा, बिना उनकी नागरिकता की परवाह किए। आज इनकी ऐतिहासिक स्मृति को सहेजना एक धरोहर को सहेजने जैसा ही ज़रूरी काम है।