ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता 'ठाकुर का कुआँ' के अंत में जब एक मजबूर आवाज पूछती है कि "अपना क्या? गाँव? शहर? देश?", तो स्मृति में उन्हीं विस्थापितों का चेहरा कौंधता है, जिनकी खून पसीने से सींची जमीनों पर आधुनिक भारत की इमारत खड़ी की गई मगर उनको अपने ही देश में बेघर कर दिया गया। ऐसा ही एक किस्सा रहा आज़ादी के बाद चंडीगढ़ शहर बसाने के लिए विस्थापित किए गए ग्रामीणों का।
यूं तो चंडीगढ़ शहर की उत्कृष्ट प्लानिंग के कसीदे हम सब सुनते ही रहते हैं लेकिन चंडीगढ़ बसाने के लिए उजाड़े गए तक़रीबन 58 'पुआधी' गांवों के इतिहास और वर्तमान की सुध कोई नहीं लेता। माझा, मालवा और दोआबा की ट्रिनिटी के अलावा भी पंजाब का एक और अहम हिस्सा रहा है, जिसका नाम है पुआध (पूर्व+आध), जिसका ज़िक्र अब सिर्फ तलाशने से ही मिलता है। 'पुआध' की बोली, संस्कृति, लोक-गीत और तीज-त्योहारों में हरियाणवी और पंजाबी का समागम मिलता है। चंडीगढ़ की शहरी इमारतों तले दबी पुआध की मिट्टी को अपने गाँवों की कुर्बानी आज भी याद है।
नेहरू का आधुनिक ख़्वाब: चंडीगढ़
पाकिस्तान से आए शरणार्थियों को बसाने के लिए पूर्वी पंजाब की नई राजधानी के रूप में चंडीगढ़ शहर बसाने की योजना बनाई गई थी। स्विस-फ्रांसीसी वास्तुकार ली कॉर्बुज़िए को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस नए शहर का खाका तैयार करने के लिए चुना था। नेहरू ने चंडीगढ़ शहर के लिए अपना स्पष्ट रुख रखा था। आज़ादी के बाद आधुनिकता के प्रतीक के रूप में चंडीगढ़ को एक ऐसा शहर बनाने की परिकल्पना नेहरू ने की थी, जो इतिहास के बोझ से मुक्त हो और पुराने रिवाज़ों से अलग हो।
गँवई नींव पर चमकते शहरी कंगूरे
मगर नेहरू के उद्घोष और लोकप्रिय धारणा के विपरीत, चंडीगढ़ की नींव किसी सपाट मैदान या निर्जन जगह पर नहीं रखी जा रही थी। चंडीगढ़ बसाने के लिए पहले चरण में 17 गांवों की 8500 एकड़ उपजाऊ भूमि का 1894 के भूमि अधिग्रहण अधिनियम के तहत एक बार में अधिग्रहण किया गया। आने वाले सालों में 24 और गाँवों की उपजाऊ ज़मीनें और आम के बगीचे सरकार द्वारा अधिग्रहित किए गए। कुल 50 से अधिक गाँव चंडीगढ़ शहर के लिए सलीब पर चढ़ाए गए।
आज का सेक्टर -17 मूल रूप से 800 एकड़ के खेतिहर गांव रुड़की पड़ाओ वाली से संबंधित है, जहाँ 17 कुएं हुआ करते थे। यहाँ मक्की, कपास और मूंगफली की फसलें होती थीं। आज सेक्टर -17 में स्थित बैंक स्कवेयर भी उसी गाँव पर बना है।
आज जहाँ सेक्टर 8 स्थित है, वह कभी कालीबाड़ गाँव हुआ करता था। आज पंजाब हरियाणा उच्च न्यायालय, असेंबली और सेक्रिटेरियट जिस कैपिटल कंप्लेक्स में बसाया गया है, वह कभी कंसल गाँव हुआ करता था।
मशहूर मेडिकल कॉलेज और अस्पताल पीजीआई को खुड्डा जस्सू और शहज़ादपुर गाँव उजाड़कर बसाया गया। पंजाब इंजीनियरिंग कॉलेज भी इसी ज़मीन पर बनाया गया। चंडीगढ़ की मशहूर सुखना झील को कैम्बवाला गाँव में बनाया गया।
विश्व विख्यात पंजाब विश्वविद्यालय को बसाने के लिए कंजीमाजरा और धनास गाँव उजाड़े गए। पीने के पानी के दो कुएँ इस विश्विद्यालय का हिस्सा बन गए।
रैलियों और धरनों के लिए मशहूर सेक्टर 25 को सैनी माजरा गाँव पर बसाया गया, और इस गाँव के रहवासियों को विस्थापित कर मोहाली के पास बसे मनौली गाँव में बसाया गया। इसी मनौली गांव को बाद में पंजाब अर्बन एंड डेवलपमेंट अथॉरिटी (PUDA) द्वारा एयरो सिटी और आईटी पार्क बनाने के लिए अधिग्रहित कर लिया गया।
अधिग्रहण और धक्काशाही
त्रासदी देखिये, कि पचास से ज़्यादा गाँवों का भूमि अधिग्रहण और किसानों का विस्थापन इस योजनाबद्ध शहर के इतिहास और प्रमुख आख्यानों का हिस्सा तक नहीं बन पाया है। स्थानीयों के हकूक को रौंदकर देशहित में ली गई ग्रामीणों की कुर्बानी के कारण 6000 परिवार अपने ही देश में अपनी ही जमीन से विस्थापित कर दिए गए। सरकार ने 1894 के भूमि अधिग्रहण अधिनियम के तहत एक बार में सारी भूमि खरीदी, जिससे स्थानीय निवासियों को 'सरकार के किरायेदारों' के रूप में बने रहने की अनुमति तो मिली, लेकिन केवल तब तक जब तक कि निर्माण के लिए भूमि की आवश्यकता नहीं पड़ती।
50 के दशक की शुरुआत में, सरकार ने कुछ मामलों में 56 रुपये प्रति एकड़ के रूप में बेहद कम मुआवजे की पेशकश की। जिन लोगों को अपने गांव और खेत छोड़ने पड़े थे, उन्हें प्रोत्साहन के रूप में नौकरी तक नहीं दी गई। शिक्षा संस्थानों में उनके बच्चों के लिए कोई सीट आरक्षित नहीं की गई। न ही ग्रामीणों को रहने के लिए वैकल्पिक भूमि दी गई, जिसके चलते आज भी उनमें से ज्यादातर परिवार आसपास के ही इलाकों में दयनीय परिस्थितियों में रहने को मजबूर हैं।
मूलनिवासियों का संघर्ष
विस्थापितों के प्रति नेहरू का रुख अस्पष्ट था, क्योंकि एक तरफ उनपर बतौर प्रधानमंत्री पंजाब को एक नई राजधानी देने का दबाव था, तो दूसरी तरफ़ ग्रामीणों को पुनः स्थापित करने की नैतिक ज़िम्मेदारी भी उन्हीं के कंधों पर थी।
इससे पहले, नेहरू ने अपने अधिकारियों को चंडीगढ़ शहर परियोजना को जल्द से जल्द मुकम्मल करने के साफ निर्देश दिए थे, ताकि विभाजन के बाद पश्चिमी पंजाब से आने वाले शरणार्थियों को स्थाई रिहायश दी जा सके। लेकिन शरणार्थियों और पंजाब की नई सरकार को बसाने के लिए पुआध के 58 गांवों को जड़ से उखाड़कर ग्रामीणों का जबरी विस्थापन करवाना भी 50 के दशक की एक अनसुनी रूदाद है।
ज़ाहिर है, विद्रोह और आंदोलन की धरती रहे पुआध के इन गांवों से विरोध के स्वर भी उठे। इन हज़ारों लोगों ने जबरी विस्थापन का विरोध करने के लिए लाल झंडे के नीचे "सत्याग्राह" किया और अधिग्रहण अधिकारी के सामने महीनों तक प्रदर्शन भी किए। इन आंदोलनरत मूलनिवासियों पर कई बार पुलिसिया लाठीचार्ज किया गया और कइयों को गिरफ्तारी भी देनी पड़ी।
उजड़े हुए लोगों की दास्तान
चंडीगढ़ शहर को आधुनिक भारत का नया मुजस्सिमा बनाकर नेताओं, वास्तुकारों और अफसरों ने खूब वाह-वाही बटोरी लेकिन जिन ग्रामीणों को उनकी पैतृक भूमि से विस्थापित कर दिया गया, उन्होंने अपनी स्थानीयता के साथ-साथ अपनी संस्कृति और कुछ मायनों में, अपनी (पुआधि) मातृभाषा भी खो दी। समाजशास्त्रियों ने दशकों तक बने रहने वाले जिस 'मूल आघात' (Root Shock) के बारे में बताया है, वही सांस्कृतिक आघात पुआध के इन विस्थापित ग्रामीणों ने दशकों तक झेला है। आज भी अपनी मिट्टी से धकेल बाहर किए जाने की टीस दिल में लिए यह विस्थापित मूलनिवासी चंडीगढ़ बसाए जाने वाले दौर को अपना 'सैंतालिस' बताते हैं।