थोड़ी देर तक वह बिना किसी चेष्टा के बैठी रही, बुतज़दा, कोई हिल डुल नहीं; फिर यक-ब-यक रोने लगी जैसे कहीं कोई सोता फूटा हो। आंसू की दुर्निवार धारा बह निकली, प्रवाह तेज हो आया तो चेहरा हथेलियों से ढाँप लिया।
अवाक् की ऐसी विकट स्थिति उत्पन्न हो आई कि मैं असमंजस में पड़ गई, पश्चिमी तौर टिश्यू बढ़ा दूँ या देशज ढंग गले लगा लूँ? अनिर्णय की स्थिति, नामालूम सी दुविधा, समझ नहीं आ रहा था क्या करूँ, कैसे बरतूँ ?
पशोपेश में चुप-चाप देखती रही। अम्मा कहती थी रोना असल में दुखों के पहाड़ का पिघलना होता है!
रोती हुई यह स्त्री मेरे पड़ोस में रहती हैं बल्कि यह कहना अधिक उचित रहेगा कि मैं रोती हुई इस स्त्री के पड़ोस में रहती हूँ, तक़रीबन छह माह से। किंतु कभी दो शब्दों का व्यवहार नहीं हुआ। हाँ, तीन-चार मर्तबा सामना ज़रूर हुआ है, किंतु इनका चेहरा हमेशा ही सपाट मिला। तमाम तरह के आलोड़न से चुका निपट भावहीन। मेरे अभिवादन पर भी निश्चेष्ठ ही रहा करती। मेरी मौजूदगी से विमुख मेरा वजूद शून्य था इनके लिए।
किंतु आज इतवार की सुबह सरापा मेरे लिए अचरज का मौका बन आई!
सुबह अब दोपहर हो चली थी। दीवार घड़ी की छोटी सुई ग्यारह पर टिकी है और बड़ी सुई तेरह से खिसकती जा रही मालूम होती है। मैं बिस्तर पर अलसाई अधलेटी पड़ी हूँ कि जैसे किसी की राह देख रही। कोई दौड़ते भागते आए और निहोरा करते हुए कहे 'अमु ऐ अमु, उठ जल्दी, स्कूल के लिए देर हो रही है'! लेकिन आज इतवार है, आज स्कूल नहीं है। आज के दिन मैं यूँ ही सुस्त पड़ी रहती हूँ, गुजरे हुए वक़्त की दोहर ओढ़े, देर दोपहर तक करवटें बदलती लेकिन कॉल बेल की आवाज़ ने बिस्तर से खींच उठाया। आज इस वक़्त कौन हो सकता है, ना कोई दोस्त ना कोई मोही, कौन मेरे दरवाज़े की राह भटक आया है ?
संशय में त्रिशंकु सी दरवाज़ा खोलती हूँ और सामने वह खड़ी है। रात भर की जागी सूजी आँखें और पपड़ी पड़े सूखे होंठ, जैसे महीनों से बीमार हो या कोई भारी विपदा आन पड़ी हो।
मेरे भीतर करुणा की एक धार बह निकली और अगले ही पल मैं दया का कुंड बन गई।
आइये कहकर दरवाज़े के ओट हो गई। वह अनुयायी बच्चे की तरह खामोशी से सोफ़े पर आकर बैठ गई है।
आज उनके चेहरे एक साथ कई भाव हैं, मैंने गौर से देखा पश्चाताप, ग्लानि, दोष-स्वीकृति, तमाम भाव जैसे आपस में घुल-मिल एक कोलाज में ढल गये हैं। आज यह एक जुदा स्त्री हैं। उस दिन से नितांत अलग। बिलकुल भिन्न।
उस दिन पोहा की ऐसी तीव्र तलब हुई कि बग़ल के दरवाज़े का कॉल बेल दबा दिया। दरवाज़ा थोड़ी देर से सहायिका ने खोला और स्थानीय भाषा में कुछ कहा। जिसका अर्थ मैंने बाद के महीनों में जाना, किंतु उस वक़्त उसके औपचारिक अभिवादन से क़तई अज्ञान रहते हुए असहज हो उठी और फिर हड़बड़ाकर कर पूछा 'मैडम'...
जवाब में उसने दरवाज़ा सटा दिया। कुण्डी लगाने की आवाज़ नहीं आई अतः मैं वहीं खड़ी रही। थोड़ी देर बाद दरवाजा पुनः एक अधेड़ स्त्री ने खोला। रात के कपड़ों में लापरवाही से समेटे बाल। रूखा चेहरा और उजाड़ आँखें।
नमस्ते, पखवाड़ा बीते मैं आपकी पड़ोसी बनकर आई हूँ।
वह खामोशी से मुझ अनाहूत को बिना किसी विशेष- भाव देखती रही। उसकी सूनी आँखों में ना कोई कौतुक था, न कोई आग्रह।
जैसे उनके पड़ोस में 'मेरा होना' कोई मायने नहीं रखता। और इस वक़्त उनके दरवाज़े पर मेरी उपस्थिति बस उनके एकांत में उपद्रव है। मुझे अपने यूँ बेखटके आने पर क्षोभ हुआ, किंतु उसे छुपाते हुए मैंने नम्रता से पूछा- 'एक्स्ट्रा करी लीव्स होगा आपके पास?'
उन्होंने गर्दन घुमाकर सहायिका को स्थानीय भाषा में कुछ निर्देश दिया और मेरी ओर दुबारा देखे बग़ैर, कुछ कहे बग़ैर धीमे कदमों से चलती चली गई। दरवाज़ा खुला रहा। मैंने देखा हॉल पार कर वह बायीं ओर के एक कमरे में घुस गई।
करी लीव्स से भरा प्लास्टिक पाउच मुझे थमाकर सहायिका ने दरवाज़ा बंद कर लिया था। कुण्डी चढ़ाने की आवाज़ मैंने साफ़ सुनी।
यूँ ब्रोकर ने कई फ़्लैट्स दिखाए, लेकिन पड़ोसी दरवाज़े के मालिकाना तख़्ती पर एक भारतीय नाम पढ़कर मैंने इस घर के लिए तुरंत ही हाँ कर दिया था- 'पड़ोसी से मेलज़ोल रखना चाहिए, संकट के समय सबसे पहले वही काम आते हैं।' अम्मा की बातें जैसे जहन में गाँठ बंधी है। लेकिन मुझे तनिक भी अंदेशा नहीं था उसकी स्वामिनी इस कदर उदासीन होंगी।
उनकी रुखाई से आहत हो मैंने पोहा भी अनमने ही खाया, तिरस्कृत मन को पोहे के साथ इलायची के साथ खूब उबालकर बनाई गई चाय भी बेमज़ा लगी!
जिम की गपोड़ स्त्रियों ने मेरी मालूमात में इज़ाफ़ा करते हुए कहा- ' बेटी की आत्महत्या के बाद वह ऐसी हो गईं है। यूँ खड़ूस पहले भी कम नहीं थी।'
' मुझे उनसे कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिये!'
अपनी कैफ़ियत में जुदा-जुदा होने के बावजूद दुख हमें जोड़ता है, सहसा उनके साथ जैसे पीड़ा का एक संबंध सध गया। मैं एक अलग सा खिंचाव महसूसती उनके लिए। आठों पहर एक चुप पुकार। मैं खिंची चली जा रही थी।
कितनी ही दफ़े डोर आई से आँख लगाकर देखने का विफल प्रयास, रातों को उठ-उठ कर सिरहाने की दीवार पर कान लगाती। किंतु कोईअनसुनी आवाज़ सुनने की मेरी चेष्टा जाया ही जाती।
कभी-कभी लगता दीवार तोड़ निधड़क उनके कमरे में घुस जाऊँ और 'ठक' से पूछूँ 'क्यूं' बुलाया है मुझे...?
किंतु उनकी बेरुख़ी की स्मृति से मेरी दिलेरी, ज़हन के किसी तंग कोने में भयभीत मेमने सी दुबक जाती!
उनका रोना मंद पड़ा तो मैंने पानी का गिलास उनकी तरफ़ बढ़ा दिया- ' रोने से सिर भारी हो आया होगा?'
'और मन हल्का...'उन्होंने जोड़ा।
'अपने सीने में एक ग़म ढोते-ढोते थक गई हूँ। अब बोझ उठाये चला नहीं जाता।'
'समझती हूँ।'
'आप बाँट सकती हैं... सुना है बांटने से कमता है...'
उन्होंने घुटनों से ऊपर चढ़ आई स्कर्ट को व्यवस्थित किया। चेहरे पर उड़ आती लटों को कान के पीछे खोंस, पहले नज़रें नीचे की फिर उठाकर मेरी आँखों में टाँक गहन भेद खोलने की शैली में धीमे से कहा- 'उसने आत्महत्या नहीं की थी, कुछ साँस ठहरकर फिर कहा 'मैंने उसकी हत्या की है'...
कहीं टन्न की ध्वनि सा कुछ गूंजा। स्मृति के बीहड़ में भयंकर अंधड़ उठा। दरख़्त-दर-दरख़्त गिरने लगे। मेरी आँखों के आगे अंधेरा छाने लगा। मैं विगत के ब्लैक होल में औंधे मुँह जा गिरी। 'उसे ट्यूमर ने नहीं, मेरे संताप ने मारा है'। कान के पटल पर दिन-रात घंटे की तरह प्रहार करता यह वाक्यांश, मेरे मस्तिष्क में टन-टन की ध्वनि करता है। मैं अपनी ही आवाज़ की प्रतिध्वनि से दूर भागती। छुपती-छुपाती, ख़ुद को कमरे में बंद कर लेती। लेकिन किसी प्रेत की भाँति यह गूंज वहाँ भी पहुँच जाती। मैं अबस, असहाय रोती कलपती। फिर थक कर सो जाती। मेरे अधिकार में कुछ और नहीं था!
वह अपनी हथेलियाँ मल रही है, जैसे साबुन मलते हैं। मैंने देखा उनके हाथ की जिल्द छीज गई है। वही अज़ाब वही बेचारगी जो वर्षों पहले दर्ज हुई थी। मैं अपने होंठ चबाने लगी।
'कुछ पछतावों का कोई इलाज नहीं', उनके चकत्तों पर ऑइंटमनेट लगाते हुए धीरे से कह जाती हूँ कि जैसे अपने आप से कह रही हूँ।
'तुम अपने होठों पर बोरोलीन लगा लो, खून निकल आया है।' मैं बगले झांकने लगती हूँ।
'क्या करती हो तुम?" भीतर की दशा से अनभिज्ञता प्रकट करने में माहिर मैं इस अप्रिय स्थिति से फ़ौरन ही खुद कोज्ञबाहर खींच लाती हूं-'मैं इण्डियन स्कूल में हिंदी पढ़ाती हूँ।'
'तुम हमेशा से हिन्दी पढ़ाना चाहती थी?' उन्होंने ऐसे पूछा जैसे सद्यः ही किसी ने मेरी चुग़ली की है।
बिस्तर पर फैले दोहर का ख़याल मेरे भीतर रस्सियाँ कस रहा है, एक अकुलाहट, व्याकुलता चीखें मारती है। मैंने अपने होंठ भींच लिए।'हाँ,शुरू से ही।' मेरी आवाज़ मेरे मन भर भारी है!
मुझे हिन्दी निबंध में फर्स्ट प्राइज मिला है। खाने की टेबल पर चहकते हुए पापा के सामने इनाम में मिला ज्योमेट्री बॉक्स रख दिया।
'बताया क्यों नहीं बिट्टो, लड्डू मँगवा देती।' प्लेट में रोटी रखती माँ ने शिकवा किया।
मुझे तो पापा से चॉकलेट चाहिए। मैं पापा के तवोज्जह के लिये यत्न करती, माँ के प्रयासों को बड़ी निष्ठुरता से नज़रअंदाज़ करती, बेतरह तंगदिल हो जाया करती।
'हिन्दी में फर्स्ट प्राइज़ लाकर अपनी माँ की तरह गंवार बननाा' खड़ाक की आवाज़ के साथ उधर दूर कोने में कंपास, चाँद और त्रिभुज बिखर गये थे...
'पापा को काम की बहुत परेशानियाँ रहती हैं।' कहकर माँ ने मुझे भींचना चाहा।
' मुझे आपके जैसी नहीं बनना...' मैंने उनकी पकड़ से छूटते हुए कहा है!
'तुम बिलकुल अपनी माँ जैसी हो।' उन्होंने कॉर्नर टेबल पर रखी तस्वीर हाथ में उठाकर देखते हुए कहा!
हॉस्टल में रूममेट ने भी कहा था -तुम ठीक अपनी माँ जैसी हो।'ख़ुशी के अतिरेक में मैं उससे लिपट गई थी।
वे कहती हैं-' यूँ तो उसके नैन-नक़्श ठीक मुझ से थे, लेकिन चुप्पा एकदम तनिल जैसी। सामने जो रख दिया, चुपचाप खा लेती। वह भी जो नापसंद हो।कोई शिकायत नहीं।'
'मशीन बन गई थी वह, मैं जैसा चाहती बिना नानुकर करती चली जाती।मुझे ख़ुश करने की क़वायद में हज़ार दुख सहती।'
फिर एक गहरी साँस लेकर कहती हैं- ' वह लॉ पढ़ना चाहती थी। लेकिन हर बार मुझसे हार जाती बिना किसी मुख़ालफत के, बिना किसी जिरह के'...
'मैंने वर्षों एक ढाँचे को मरा हुआ मन ढोते देखा है।'
मेरी संतप्त आवाज़ से बेचैन हो वह उठकर खिड़की के पास चली गई हैं। पर्दे हटाकर एक तरफ़ हुक में खोंस दिया है औरजाने देर तक क्या सोचती रही।
खिड़की से लौट वे पुनः टूटे हुए तंतु जोड़ती हैं-'इसकी नाक और होंठ तुम्हारे जैसी है लेकिन आँखें मुझ जैसी भूरी।' तनिल बेहद खुश थे। लेकिन मेरे भीतर प्रेम नहीं उमड़ता था। ना उसकी तरफ़ देखने का मन होता। ना उसे छूने का भाव जनमता। कहने वाले कहते अपनी संतान के लिए ऐसी विरक्त माँ उन्होंने नहीं देखी।
उनकी डूबती आवाज़ मुझे भी डुबो रही है, मैं बचने की कोशिश करती हूँ।
'चाय पियेंगी?'
'रहने दो, तुम्हें तकलीफ़ होगी।'
'नहीं, मुझे ख़ुशी होगी।'
चाय के लिए इलायची कूटती मैं अतीत के रसातल में धंसती गई, गहरे, और गहरे। मैंने जाना मेरे बच निकलने के तमाम रास्ते-मुहाने-बंद हैं। मै काले भीत वाली एक पहचानी गुफा में क़ैद हो गई हूँ। टन-टन की प्रतिध्वनि गूंज रही हैं। मैंने अपने कानों पर हाथ धर लिए।
उस दिन मैथ्स की टीचर आकस्मिक छुट्टी पर थी। ख़ाली पीरियड में पीटी सर ने फ़ौरी खोज-खबर ली। मेरी पारी आई तो मैंने झट से कहा- 'मैं अपने पापा जैसी बनना चाहती हूँ।'
मैं पापा जैसी बन रही थी। माँ के निरादर में पारंगत होती जा रही थी।
"मैया लोरी सुनावे, आजा रे निंदिया..." माँ बालों में उँगलियाँ फिराती, गुनगुनाती हैं।
'मम्मी गाँव वाले गीत मत गाया करो प्लीज़, मैं ऐसे ही सो जाऊँगी' कहकर मैं सोने का अभिनय करती।
'जब हमें नींद नहीं आती थी तब हमारी अम्मा हमें ये लोरी गाकर सुलाती थीं।'
'आप ये हम-हम करना कब बंद करेंगी? मैं कहना क्यों नहीं सीखतीं?'
'अपनी बिटिया के लिए सीखेंगे हम' कहकर माँ मेरे माथे का बोसा ले लेती और मैं ठुनक जाती। 'देखिए मेरे कान में फिर कुछ रेंगने लगा।'
'यही बात आप कितनों वर्षों से कह रही हैं।'
'पुरानी लत है, धीरे-धीरे जाएगी' कहकर माँ मुझे चिपटा लेती।
मैं ख़ुद को अपनी बाहों में लपेट लेती हूँ!
अनायास ही मेरे हाथ माथा सहलाते हैं और कान में खुजली होती है।
'उसे मरे हुए जानवर से घिन आती और कैमिकल की बू से उल्टी।' बापूजी कहते थे समस्या का हल समस्या में ही छुपा होती है, मैं उसे मॉर्ज ले गई। कई-कई दिनों तक वह बुरे सपनों की जद में जागती रही लेकिन मुझे दया नहीं आई। मैं हर-हाल, हर-सूरत उसे डॉक्टर बनाना चाहती थी।
वे फिर से हाथ मलने लगी थीं।
फिर थोड़ा रुक कर वे कहती हैं- ' मैंने सुना उसकी सहेली ने उससे पूछा था- 'क्या मैं उसकी सौतेली माँ हूँ?' उनकी आवाज़ के कंपन से मैं सिहर जाती हूँ।
अम्मा ने उस दिन सीधे सपाट, बगैर किसी भूमिका के पूछा था- 'तुम अपनी माँ से प्यार नहीं करती?'
'करती हूँ, लेकिन मेरी माँ को किसी बात का शऊर नहीं। ना बोलने का, ना साड़ी पहनने का। और सिंदूर कैसे लगाती है, यहाँ से वहाँ तक।' मैं सिंदूर लगाने का अभिनय करते हुए चुटकी माँग में आगे से पीछे तक खींचती हूँ।
'तुम अपने बाप की भाषा बोल रही हो लाडो', अम्मा की आवाज़ सख़्त थी।
'पापा ग़लत तो नहीं अम्मा।' आप ठीक से हिन्दी भी नहीं बोल सकतीं, लेकिन मेरी दोस्तों के सामने अंग्रेज़ी बोलने की कोशिश करने लगती है।' मुझे माँ पर शर्म आती है।
'ये सब वो तुम्हारे लिए करती है।' किसी ने कहा।
'मेरे लिये वो चुप रहें तो बेहतर होगा', रुखाई से कहकर मैंने बात ख़त्म की।
'जो उसकी अम्मा को नहीं बूझता, वह भला बिटिया को क्या जानेगा?' अम्मा बुदबुदाई, मैंने साफ़ सुन, अनसुना किया।
'तुम सिगरेट पीती हो?' उन्होंने एकदम से पूछा। मन हो रहा।
'आँ-हाँ,कभी-कभी' मैं अचकचा गई। जैसे किसी ने नींद से जगाया हो।
उन दिनों जब दर्द के गिर्दाब उठते, मैं सिगरेट दर सिगरेट फूँकती। एक के बाद एक। तीन-चार-पाँच, या उससे भी अधिक। लेकिन मेरा अज़ाब न कमना था, ना कमता था।
पापा ने मुझे सिगरेट फूंकते देख लिया था, मोटे तल्ले वाली जूते की चोट दिनों तक पीठ दुखाती रही।
'तनिल ने अपनी सिगरेट मेरे होंठों से लगा दी थी। कहा था-' उसे सिगरेट पीती लड़कियाँ लुभाती है।' कहकर वे हंस पड़ी। छूछी हंसी, जैसी कभी-कभी माँ हंसती थी, मेरे अनादर पर।
'पापा आज प्री बोर्ड का रिजल्ट है।' मुझे दूसरे ज़रूरी काम है, उन्होंने अख़बार पढ़ते हुए लापरवाही से कहा।
'मैंने टॉप किया है।'
'अपनी माँ को साथ ले जाओ।' मैं चाहती थी पापा प्राउड फील करें लेकिन वे पहले की तरह तटस्थ रहें।
'आज हम चूड़ी भी कम पहने हैं और सिंदूर भी कम लगायें हैं। तुम्हारी सहेली की मम्मी जैसा साड़ी भी उल्टा पल्ला पहने। देखो बिट्टो!' माँ खूब उल्लासित थी।
'लेकिन मुँह खोलते ही सब सत्यानाश हो जाएगा।' मैंने विष उगल दिया, वही जिसे थोड़ी देर पहले बमुश्किल गटका था।
मैं हमेशा पापा की चिढ़ माँ पर उतार देती। मुझे लगता था जैसे सबके पीछे माँ ज़िम्मेदार है।
'माँ हंसने लगी- 'हाँ हमको उनके जैसा अंग्रेज़ी नहीं आता, सच वे तो हीरोइन लगती हैं, हम तुम्हारे मन की माँ नहीं।' कह फिर हंसती है।
माँ इतना हंसती क्यों है? मुझे माँ का बात-बेबात हँसना बेतरह खलता।
बाद में समझी माँ हंसी में दर्द छुपाती थी!
'वह पहले सेमेस्टर में फेल हो गई। उसके दोस्तों के सामने मैंने उसे खूब बुरा भला कहा।' बोलते-बोलते वे कोने में रखे मनी प्लांट के पौधों से पीले पत्ते तोड़ने लगी। ' इसमें पानी कम डालो।
' और इसे धूप चाहिये।' कहकर ठूंठ होते जेड प्लांट का पॉट उठाकर बाहर बालकनी में रख आई "इन्हें मरने मत देना।" उनकी आवाज़ में उतरी तरलता मुझे पिघला रही थी।
मैं बह रही थी, एक अनजानी बहाव में, इस बात से अनभिज्ञ कि नियति किस किनारे लगाएगी!
'मुझे याद करोगी बिट्टो?' आखों में प्रश्न की प्याजी डोरियाँ हैं।
'माँ,' मैंने घबराकर हाथ पकड़ लिया।
'जानती हो कल रात यमदूत देखे, उसकी मूँछें बहुत घनदार है।' और फिर हंसने की कोशिश। तर आँखें लिए मैं भी हंस पड़ी।
'इसी तरह हंसती रहना, नहीं तो हमको चैन नहीं मिलेगा' कराहती आवाज़ टूटकर बिखर जाती हैं, काँच के मानिंद!
'तीन माह तक तो मुझे पता भी नहीं चला कि मेरे अंदर वह पल-बढ़ रही है। जब उल्टी के दौरे पड़ने लगे तब माँ ने जाँच करवाया। मैं पतंग छोकरी थी लेकिन मेरे पैरों में एहतियात की बेड़ियाँ डल गई। दिन-ब-दिन बेढब होता शरीर और बढ़ती बंदिशें। ऐसी खीज होती मानो ख़ुद का गला दबाकर उससे मुक्त हो जाऊँ।
चाय का कप उठाते हुए उनके हाथ काँप रहे थे और मेरा अंतस।
'आप कोई काम ठीक से नहीं करती, देखिए कितनी ख़राब हेमिंग की ही आपने।' मैं स्कूल की स्कर्ट लिए खड़ी थी।
'अभी सुधार देती हूँ, आजकल कम दिखने लगा है शायद सिर दर्द भी इसी कारण होता रहता है। उनके माथे पापा की पुरानी रूमाल कस के बंधी है।'
और फिर उस दिन लड़खड़ा कर गिर पड़ी थी, डॉक्टर ने कहा ब्रेन में ट्यूमर है!'
'तुम्हारी आँखें लाल हो रही हैं।'
उनकी आवाज़ का गीलापन मुझे नम करता है।' वर्षों से एक किरचन अटकी है, इन आंखों में।'
'मैं निकाल दूँ ?'
'नहीं, अब ये सुकून है।' यूं बेसाख़्ता कह गई, जैसे किसी ने धक्का दिया हो। मैंने अपनी सजल हुई आँखें मींच ली हैं।
कई बार धुएँ के साथ-साथ मन का विकार भी निकल जाता है। हम दोनों ने साथ में धुएँ का ग़ुबार छोड़ा, दो आकृति बनती है और फिर वे आपस में गड्ड मड्ड हो कहीं गुम हो जाती है, देखते ही देखते।
'इस घर की बनावट पर तुमने कभी ग़ौर किया है?'
'न,नहीं... उनके यूँ औचक पूछने पर मैं घबरा गई।
'तुम्हारे और मेरे सिरहाने की दीवार एक है।'
मुझे लगा जैसे मेरी चोरी पकड़ी गई है। मैं एक दूसरी सिगरेट जलाती हूँ।वह भी हाथ बढ़ाती है।
'क्या तुम्हें ठीक से नींद आती है?' वह निःसंकोच पूछती हैं।
मैं कलाई में पड़ा कंगन घुमाने लगी। अम्मा ने पहना दिया था, उसका आशीर्वाद साथ रहेगा।
'कई-कई बार नींद उचट जाती है।'
'कभी-कभी मुझे सिसकने की आवाज़ आती है। ऐसा लगता है कहीं कोई रो रहा है। और कभी -कभी ऐसा महसूस होता है कोई बालों में उँगलियाँ फिरा रहा।'
' कभी-कभी मैं लोरी का राग भी सुनती हूँ।'
तुम यह कंगन उतार क्यों नहीं देती?
मुझे अकेले में डर लगता है।
वे खामोशी से मुझे देखती है, मैं होंठ चबाने लगती हूँ!
'तुम यहाँ क्यों आई हो?' मेरी चुप्पी से वह कुढ़ जाती है।
'मैं तंज़ानिया जा रही हूँ।' 'कब तक भागती रहोगी?पहले हॉस्टल और अब अफ़्रीका?
मैं चुप रहती हूँ।
'फ़ोन करोगी?' पापा की उद्घिग्नता, मेरा सुख है।
मैं उनका नंबर ब्लॉक-लिस्ट में डाल देती हूँ!
एक अनजान देश आने का निर्णय लेना इतना मुश्किल नहीं था। अम्मा के बाद इस समूची दुनिया में ऐसा कोई नहीं था, जिसके कंधे पर सिर रख दुख बहा सकूँ।
मेरे अंदर दुख जमने लगा था परत दर परत। मैं ढँकती जा रही थी। दबती जा रही थी, भीतर और भीतर। निखिल मुझे तलाशता लेकिन मैं दुख के भीतर छुपी रही। उसने पुकारा लेकिन मैं अनसुनी करती रही। उसने कहा था-' तुम्हारी चुप्पी तुम्हारा दुश्मन है।'
अम्मा कहती थीं- ' इतनी तहों भीतर, किसी दिन मैं सड़-गल जाऊँगी और दुनिया को कानोंकान खबर नहीं होगी।'
मेरे कंठ अवरुद्ध हो जाते हैं, पुकार नहीं निकलती।
'तुम कोशिश नहीं करती।'
मैं नज़रे चुराती हूँ!
'तुमने ठीक सुना है दुख बाँटने से कमता है।' वह अपने चकत्ते सहलाती हैं।
मैं होंठ चबा रही हूँ।
वे जाने को उद्यत हैं, मैं रोकना चाहती हूँ। लेकिन शब्द आपस में नहीं जुड़ रहे़, कोई वाक्य नहीं सधता।
वो जा रही हैं, मैं उसी तरह बैठी हूँ होंठ चबाते हुए।
मेरे भीतर मेरे दुख का हिमालय अडिग खड़ा है।
वो जाते-जाते पलट कर कहती हैं- ' सुनो, मेरे पास हमेशा एक्स्ट्रा करी लीव्स होते हैं।
कथाकार का परिचय
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नामः प्रियंका ओम