खटिया पर लेटी हुई मुनरी देवी की चौरासी साल पुरानी आँखें रह-रह कर सावन-भादों हुई जा रही थीं। पसली में चिलक जैसे कुंडली मार कर बैठ गया था। चेहरे पर दर्द की अनगिनत इबारतों के बीच एक दिल भी था जो रुनझुन-रुनझुन धड़क रहा था, जैसे धड़क नहीं गा रहा हो ...
‘हम तुमसे मुहब्बत करके सलम..., रोते भी रहे, हँसते भी रहे।’
कहा जाता है कि तीसरी पीढ़ी वंश बदलता है। तो सचमुच मंगल महतो वंश बदलने ही आये थे। बात-व्यवहार में वे एकदम अपने आजा जैसे ही थे। गाँव-जवार के पुरनिया उन्हें देखकर अक्सर उनके आजा गोधन महतो की चर्चा छेड़ देते। गोधन महतो को तो सब जानते ही हैं। वही ‘पंचलैट’ वाले गोधन।
दो साल के थे मंगल, जब मलेरिया की महामारी में उनके अम्मा-बाबूजी चल बसे थे। और जब ग्यारह के हुए तो उनके आजा गोधन महतो की वापसी हो गयी। उनकी आजी ने मंगल के पढ़ाई-लिखाई में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ा था। उनका ही प्रताप था कि मंगल पटना विश्वविद्यालय के राजनीतिशास्त्र विभाग में शोधकार्य कर रहे थे। इसके साथ ही अपनी दूसरी खूबियों को लेकर भी वे विश्वविद्यालय में काफी लोकप्रिय थे। वैचारिक रूप से अत्यंत समृद्ध, भाषण-कला में निपुण और आवाज के धनी। क्या खूब गाते थे। ‘ऐ मेरे हमसफर इक जरा इन्तजार...।’ जिसे मुदित होकर सुनती थी... वर्तिका। एम.जे.एम.सी. की छात्रा। दबी जुबान से हॉस्टल में यह चर्चा भी थी कि मंगल, वर्तिका के लिए ही गाते थे।
मंगल के पास अपने अम्मा-बाबूजी की कोई स्मृति नहीं है, आजा की हैं, पर वह भी वैसे ही जैसे बाढ़ के दिनों में कोसी के उस पार की चीजे दिखती हैं। आजी से सुनी हुई गैर सिलसिलेवार बातों को अपने हिसाब से जोड़कर मंगल ने अपने खानदान का एक सिजरा बना रखा है। .......
जाति का मान रखते हुए गोधन ने जब पंचलैट जलाया था, तब पूरे टोले का उछाह आसमान पर पहुँच गया था। उसी के बाद उनका मुनरी से ब्याह हुआ। गोधन कल-पुर्जे वाली पंचलैट के जानकार होने के साथ-साथ मानुख भी बड़े भले थे। धीरे-धीरे पूरे गाँव-जवार में उनकी खूब पूछ-पेख बढ़ गयी। बाद के दिनों में वे उसी पंचायत के सरदार बने जिसने कभी सलीमा का गाना गाने के कारण उनका हुक्का-पानी बंद किया था। समय के साथ जब प्रदेश में त्रिस्तरीय पंचायतीराज व्यवस्था लागू हुई तब गोधन पाँच वर्ष के लिए निर्विरोध मुखिया चुने गये। उनकी मुखियागिरी भी उनके पंचलाइट की ही तरह उजियार रही। उसके बाद वे लगातर कई बार मुखिया चुने जाते रहे। उसी दौरान गोधन और मुनरी के एक मात्र सन्तान कन्हैया का जन्म हुआ। कन्हैया निकले एकदम सज्जन मानुख। बात-विचार के हयादार। कन्हैया का ब्याह मेरीगंज में हुआ था।
अपने पिता कन्हैया के ब्याह का किस्सा मंगल ने आजी से बहुत बार सुना था। और हर बार किस्से के अंत में आजी का हँसना मंगल को आज भी याद है। आजी सुनाती थीं कि ‘जान लो बउआ कि इ तुम्हारे आजा का ही इकबाल था कि कन्हैया के बरात में गाँव के हर जात का पंचलैट गया था। बरात में सबसे आगे के बैलगड़ी पर जगमग करता हुआ सात गो पंचलैट चल रहा था। जब मेरीगंज का लोग तो एक साथे ओतना पंचलैट देख के एकदमे भकुआ गया था।’ इतना सुनाने के बाद आजी यह कहते हुए लोट-पोट हों जातीं कि ‘मेरीगंज वाले चौंउकते बहुत हैं।’
पंचायतों में जवाहर रोजगार योजना लागू होते ही धन का प्रवाह तेज हो गया था। गोधन महतो मन के मुखिया थे, धन से उनका निर्वाह कहाँ होता। वैसे भी पंचायत में रूपया आते ही, गाँव से लेकर प्रखंड तक ठेकेदार और दलाल कुकुरमुत्ते की तरह उग रहे थे। समय तेजी से बदल रहा था। बिजली-बत्ती के आगमन के बाद पंचलाइट की पहले जैसी कोई जरूरत नहीं रह गयी थी। कभी जाति का शान रहा पंचलाइट अब गोधन के बरामदे की खूँटी में चुपचाप टंगा रहता। शादी-ब्याह में बिजली की लड़ी लगाना शान समझा जाने लगा था। जिस दिन मुनरी देवी ने खूँटी से पंचलाइट उतार कर अपने बक्से में रखा, उसी दिन गोधन ने मुखिया के पद से इस्तीफा दे दिया। गोधन समझ गये थे कि पंचलाइट के साथ ही उनकी भी अब किसी को जरूरत नहीं रह गयी है।
बेटे-बहू की मृत्यु ने उन्हें भीतर से पहले ही तोड़ दिया था। गाँव-जवार में उनकी वैसी पूछ भी नहीं रही। गाँव में किसी के घर शादी-ब्याह की बात सुनते तो भर दिन इंतजार करते कि कोई आये और उनसे कहे कि, ‘महतो लिकालो पंचलाइट और चलो।’
ऐसे ही एक रात ठाकुर टोले में बारात आयी थी। गोधन महतो को भी न्यौता मिला था, पर उसमें कहीं पंचलाइट की चर्चा नहीं थी। महतो को यह बात बहुत खली। उन्होंने फैसला कर लिया। ‘जब पंचलाइट नहीं जायेगा, तो हम भी नहीं जायेंगे।’ जाकर खटिया पर पड़ गये।
रात में रह-रह कर करवट बदलते देख पत्नी ने पूछा ‘नीन नहीं आ रही है का?’
‘नीन कइसे आएगा मुनरी? इ जनरेटर का हल्ला सुन कर दिल बैइठा जा रहा है।’
‘सुत जाइये, अब इहे हल्ला में बाकी जिनगी काटना है।’
‘तुम्ही काटो जिनगी, हमसे तो अइसे नहीं कटेगा।’
कहते हुए गोधन महतो ने करवट लिया और ऐसे सोये कि फिर उठे ही नहीं।
गोधन के बाद उनके पंचलैट और उसके किस्से को चौराहे-चौराहे पर उग आये ‘लाइट एण्ड साउण्ड’ वालों ने बुझा दिया। हमेशा के लिए। लोगों को अब भी इज्जत की बहुत चिंता रहती। बस उसे बचाने और बढ़ाने वाले लोग और औंजार बदल गये थे।
मंगल जब भी अकेले में होते तो आजी की बातों से अपने आजा की एक तस्वीर बनाते। उसमें मनचाहे रंग भरते और खुश हो जाते। आजा की सरदारी उन्हें अभिभूत करती रहती। वे खुद अपने आजा जैसा ही कुछ बड़ा करना चाहते थे।
अपनी इस इच्छा को वे अक्सर अपनी दोस्त वर्तिका को बताते भी। वर्तिका मंगल की बहुत सी बातों की राजदार थी। वह उसे दुलराते हुए कहती कि तुम्हें तो प्रदेश और देश की राजनीति में होना चाहिए। तुम्हारे आजा इतने लम्बे समय तक गाँव की राजनीति में सक्रिय रहे हैं, तुम्हें उनकी परम्परा को आगे बढ़ाना चाहिए। वैसे भी आज की राजनीति को तुम्हारे जैसे लोगों की जरूरत है। बोलती हुयी वर्तिका, मंगल को और अच्छी लगती। वह बोलती जाती और मंगल उसे सुनते रहते।
कुछ अपने आजा के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर और कुछ वर्तिका से प्रेरित होकर मंगल ने सबसे पहले छात्रसंघ की राजनीति में सक्रिय होने का मन बनाया। जयप्रकाश नारायण के आंदोलन की आखिरी निशानी की तरह बचे कुछेक रिटायर प्रोफेसरों की सोहबत में सामाजिक परिवर्तन की आकांक्षा उनमें जोर मारने लगी थी। छात्रसंघ चुनाव, कॉफी हाउस की गर्मागर्म बहसों आदि में अपनी सोच-समझ को लेकर वे एक प्रबुद्ध छात्रनेता के रूप में धीरे-धीरे चर्चित भी होने लगे थे। प्रखर वक्ता, गाँव-देहात की जमीनी सच्चाइयों से जुड़ा होना आदि सब ने मंगल के पक्ष में गजब का माहौल बनाया और वे भारी मतों से छात्रसंघ अध्यक्ष चुन लिये गये।
छात्रसंघ अघ्यक्ष बनते ही मंगल प्रदेश के राजनीतिक दलों के निगाह में आ गये। सत्तारूढ़ दल के कई नेता उन्हें अपना खास बताने लगे। पर बाजी मार ले गये प्रदेश सरकार के एक कैबिनेट मंत्री रामसनेही जी। एक कार्यक्रम में रामसनेही जी ने मंगल की भूरि-भूरि प्रशंसा की और उन्हें प्रदेश की राजनीति का आगामी चेहरा बता दिया। बस क्या था, दूसरे दिन के अखबार में मंत्री जी का बयान और तीसरे दिन के अखबार में मंत्रीजी और मंगल के मुलाकात की खबर छपी।
अचानक से मंगल बड़े नेता बन गये। मंत्रीजी की अनुशंसा पर मंगल ने सबसे पहले अपने गाँव में अस्पताल खुलवाया। जिसका लोकार्पण मंत्रीजी और मंगल की आजी मुनरी देवी ने साथ-साथ किया।
इस घटना के बाद मंगल का रूतबा बढ़ गया। अब एक फिर गाँव का समीकरण बदलने लगा था। मंगल अब भी पटना में ही रहते पर हर दूसरे-चौथे दिन गाँव जरूर आते। उनके गाँव आते ही फरियादियों की भीड़ लग जाती। बरामदे में बैठी हुयी आजी अपने पोते को चुपचाप देखतीं और मुस्कुराती रहतीं।
उधर राजधानी में मंगल मंत्री राम स्नेही जी के परम लम्गू-भग्गू माने जाने लगे थे। मंत्रीजी के मार्फत उनका रोज ही बड़े-बड़े नेताओं के साथ उठना-बैठना होने लगा। रामसनेही जी मंगल के राजनीतिक गुरू बन गये थे। उनका ही सह पाकर मंगल ने दर्जन भर से अधिक गाँवो में अस्पताल खोलवाने का सफल अभियान चलाया। लेकिन इस अभियान की खास बात यह थी कि अस्पतालों के लिए भवन-निर्माण का ठेका मंगल को ही मिलता था। अपने नितान्त अकेले में मंत्री जी कहते थे ‘मंगल बाबू आज की राजनीति में यदि बने रहना है तो सेवा और मेवा दोनों की डोर कस के पकड़े रखना होगा।’ मंगल अब ‘सेवा से मेवा’ वाली राजनीति के पक्के खिलाड़ी बनते जा रहे थे। बहुत जल्दी ही गाँव का पैतृक मकान दू-तल्ले में बदल गया। पटना के पाश कालोनी में एक मध्यम साइज का आशियाना भी कायम हुआ। यूनिवर्सिटी में पैदल चप्पल चटकाते घूमने वाले मंगल अब बोलेरो से चलने लगे थे। कुछ लोग दबी जुबान से बताते थे कि मंगल द्वारा बनवाये गये दो दर्जन से अधिक अस्पतालों से जनता का स्वास्थ्य सुधरा हो या नहीं, पर मंगल का आर्थिक स्वास्थ्य जरूर सुधर गया था।
मंगल की राजनीतिक महत्वाकांक्षा बढ़ने लगी थी। उनको और आगे जाना था। जिसका पता होली, दीवाली, छठ, ईद जैसे त्योहारों पर अखबारों में मंगल के नाम से छपने वाले शुभकामना संदेशों से चल रहा था। उन संदेशों में सबसे बड़ा फोटो सत्ताधारी पार्टी के दिल्ली वाले हाईकमान का होता था। रामसनेही जी का भी फोटो छपता था, पर घटते हुए साइज में। इसका परिणाम यह हुआ कि उन्हें हाईकमान ने पार्टी का प्रदेश प्रवक्ता बना दिया। अखबारों में ‘मंगल महतों फैन क्लब’ की ओर से एक बड़ा विज्ञापन छपा, जिसमें रामसनेही जी की फोटो तो क्या नाम तक नहीं था। उस दिन मंगल गुरू से आगे निकल गये थे।
कुछ ही दिनों में मंगल महतो हर अखबार में, टी.वी. चैनलों में बोलते दिखने लगे थे। उन्हें पार्टी का युवा तुर्क कहा जाता था। उनका गाँव जाना बहुत कम हो गया था। आजी मुनरी देवी को शहर में लाने का उन्होंने बहुत जुगत किया पर वे गाँव छोड़ने को राजी नहीं हुईं। खैर आजी का सेवा के लिए उन्होंने नौकर लगा दिया था। नौकर को मोबाइल दिया, जो हफ्ते में दो-चार बार आजी से उनकी बात करा देता था। आजी, पोते का कुशल क्षेम जानकर संतुष्ट हो जातीं।
धीरे-धीरे वे खुद को भावी विधायक मानने लगे थे। पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेताओं ने ऐसा संकेत भी किया था। वे विधायकी की तैयारी भी करते रहे, जिसमें भारी रूपया खर्च हो रहा था। पर सब कुछ निर्भर था अगले चुनाव में टिकट मिलने पर। इसके लिए मंगल ने अपने हर बयान में पार्टी आलाकमान की स्तुति बढ़ा दी थी। ठीक उसी समय देश-प्रदेश की राजनीति में बड़े बदलाव की धमक सुनाई देने लगी थी। जयप्रकाश आन्दोलन से उपजे समाजवादी नेताओं ने जाति को अस्मिता में और अस्मिता को राजनीति में बदल दिया। जिसे देखकर मंगल सोच रहे थे कि उनके आजा गोधन के जमाने में जातियों की अलग-अलग ‘सभाचट्टी’ होती थीं, अब जातियों की अलग-अलग राजनीतिक पार्टियाँ होने बनने लगी हैं। पर उनके हाथ में कुछ नहीं था। उनकी सत्तारूढ़ पार्टी ने जातिगत समीकरणों को साधते हुए तीन क्षेत्रीय दलों के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन कर लिया। मंगल महतो की संभावित सीट गठबंधन में चली गयी। उनको टिकट नहीं मिला। चुनाव होने में अभी देरी थी पर वे क्षेत्र में बहुत सारा रूपया बहा चुके थे। मंगल ने एक बार और कोशिश की लेकिन अबकी उन्हें आलाकामन का कठोर संदेश प्राप्त हुआ कि पार्टी के एक सच्चे कार्यकर्ता की तरह वे पार्टी का प्रचार करें। पार्टी की सरकार बनने पर उन्हें कोई बड़ा पद दिया जायेगा।
मंगल ठहरे गाँव के आदमी। वे खूब जानते थे कि जो खेत मे ऊँख नहीं दे रहा वो कोल्हू पर गुड़ क्या देगा। उन्होंने सार्वजनिक रूप से अपनी नाराजगी जाहिर की। प्रमुख विपक्षी पार्टी ने मंगल की नाराजगी को हवा दे दिया। उन्हीं हवाओं में उड़ती-उड़ती बात यह भी थी कि यदि मंगल अपनी पुरानी पार्टी छोड़ दें तो विपक्षी पार्टी में उनका स्वागत है। इस तरह की खबरें अखबारों में भी छप रही थीं। वर्तिका के माध्यम से और भी बातें मंगल को पता चल रही थीं। मंगल अभी कोई फैसला लेते उससे पहले उनकी ही पार्टी ने गठबंधन-धर्म का निर्वाह करते हुए उनको पार्टी विरोधी गतिविधियों में लिप्त बताकर बाहर कर दिया।
मंगल इससे बड़े आहत हुए। रामसनेही जी का अपना टिकट ही फंसा हुआ था, सो उनसे मदद मिलने की कोर्द उम्मीद नहीं थी। वैसे भी मंगल पीछे छोड़े काफी दूर निकल आये थे। वे दो-चार दिन अपने पटना आवास पर रहे। लेकिन विपक्षी पार्टी ने भी कोई पहल नहीं की। अब मंगल समझ गये थे कि वे राजनीति करने निकले थे और पहले ही कदम पर उसी राजनीति के शिकार हो गये थे। शुरू होने से पहले ही उनका कैरियर खतम होने जा रहा था। ऐसे में एक सुबह वे चुपचाप अपने गाँव चल दिये।
गाँव में उदास और अकेले उनके दो ही दिन बीते थे कि वर्तिका का फोन आया।
‘क्या हाल है ?’
इतना सुनते ही फफक कर रो पड़े मंगल। फोन के उस पार वर्तिका अचकचा गयी।
‘अरे क्या हुआ?.... सब ठीक हो जायेगा।’
‘कुछ ठीक नहीं होगा वर्तिका, कुछ..।’
‘अच्छा, सुनो, मेरी बात सुनो...पहले चुप हो जाओ।’
मंगल थोड़ा संभले... ‘एकदम से पलिहर का बानर हो गया हूँ वर्तिका ! पलिहर का बानर।’
‘कोई कुछ नहीं हुआ, सब ठीक है। तुम किसी के भरोसे हो क्या? कोई और रास्ता सोचो, इनके साथ ही क्यों, तुम अपनी अलग से भी तो राह बना सकते हो।’
वर्तिका की बातों से मंगल को थोड़ी नहीं बहुत राहत मिली। वे संयत हुए।
‘वहाँ सत्ता के गलियारे में मुझे लेकर क्या बाते हो रहीं हैं?’
‘अरे! ऊपर से वे चाहे जो कहें, पर अन्दर ही अन्दर लोग तो तुम्हे हीरो मान रहे हैं। तुम्ही हो कि चुपचाप भाग गये।’
मंगल के भीतर कुछ बदल रहा था।
‘भागा नहीं हूँ वर्तिका, थोड़ा सांस लेने आया हूँ।’
‘तो जल्दी लौटो’
‘लौटूँगा वर्तिका, लौटूँगा... मगर अब ऐसे लौटूँगा कि पूरा पटना देखेगा।’
वर्तिका हँसते हुए.. ‘ये हुई न बात।... अब लग रहा है कि मैं उस मंगल से बात कर रही हूँ, जो हर समय, हर हाल में यूनिवर्सिटी के छात्रों के लिए लड़ता रहता और गाता रहता..। अच्छा, वह कौन सा गाना था...?’
‘अरे! छोड़ो अब।’
‘सुनो ना! बहुत दिन हो गये यार, सुनाओ न, बस दो लाइन... प्ली....ज।’
मंगल के होठों पर मुस्कुराहट तैर गयी। उन्होंने हल्का सा गला साफ किया और गुनगुनाने लगे...
‘अब है जुदाई का मौसम दो पल का मेहमान, कैसे न जायेगा अंधेरा क्यों न थमेगा तूफान
कैसे ना मिलेगी मंजिल प्यार की।’
उधर से वर्तिका ने भी स्वर मिलाया। फिर तो दो जन, एक ही धुन में गुनगुनाते रहे, देर तक...
‘प्यार ने जहाँ पे रखा है, झूम के कदम एक बार,
वहीं से खुला है कोई रास्ता, वहीं से गिरी है दीवार,
रोके कब रुकी है, मंजिल प्यार की...
ऐ मेरे हम सफर...।’
गाँव में खबर फैल गयी। बड़े-बुजुर्ग, बच्चे और स्त्रियाँ, सब मंगल महतों के बरामदे में जुटने लगे। सब चकित थे। सब उत्साहित। जिस पंचलैट की उन्होंने सिर्फ कहानी सुनी थी, उस दिन वह सबके सामने था। हकीकत की तरह। पंचलैट के प्रति लोगों की प्रतिक्रिया से मंगल महतो का भी दिल बज रहा था .... तिड़बिक....तिड़बिक...तिन धिन्ना धिन्ना....।
वे झप से भीतर गये और आजी का हाथ पकड़कर बरामदे में ले आये।
‘आजी! हई चिन्हिये तो का हैं?’
चौरासी बरस की मुनरी देवी ने चस्मे के भीतर से अपनी आँखे मुलमुलाते हुए देखा। सामने स्टूल पर पंचलाइट रखा हुआ था। उनके चेहरे का भाव बदल गया। कानों में कोई भूली-बिसरी धुन बजने लगी थी। सब उन्हीं को ही देख रहे थे। बहुत पुरानी कुछ भूली-बिसरी आवाजें पुरूआ-पछुआ की तरह आ-जा रहीं थीं, जिसे सिर्फ मुनरी देवी ही सुन पा रही थीं।
‘कनेली!.... चिगो, चिध-ऽऽ, चिन...!’
‘सलम-सलम वाला सलीमा का गीत गाता है’
‘जाति की बन्दिश क्या, जबकि जाति की इज्जत ही पानी में बही जा रही है’
‘तुमने जाति की इज्जत रखी है। तुम्हारा सात खून माफ। खूब गाओ सलीमा गाना।’
आवाजें आँधी बनने लगीं। पाँव थरथराने लगे थे। आजी थथमथा कर बैठ गयीं। उनकी आँखों डबडबा आयीं।
मुनरी देवी, गोधन महतों के जाने के बाद पहली बार पंचलैट को देख रही थीं। उनकी चौरासी साल पुरानी हड्डियाँ कुड़कुड़ाने लगीं, और उसी के आखिर में उनकी पसली में कुछ चटका। मुनरी देवी के चेहरे की झुर्रियाँ आपस में उलझ गयीं।
मंगल ने बड़े कातर स्वर में पूछा ‘का हुआ आजी?’
‘कुछ नहीं बउआ, इहाँ तनिक दरद हो रहा है।’
रमतुलिया की अम्मा आगे बढ़ कर मुनरी देवी की पसली सुहलाते हुए बोली ‘लगता है, आजी के पसली में चिल्लुक समा गया है।’
वर्तिका के मोबाइल का स्क्रीन चमका। मंगल कालिंग ..। उसके होठों पर एक गज्झिन मुस्कान खिल उठी।
‘हाँ, बोलो! आ रहे हो?’
उधर से मंगल कुछ बताते रहे। वर्तिका के चेहरे पर कई तरह के भाव आ-जा रहे थे। अन्त में उसने मोबाइल सामने मेज पर रखा। और थोड़ी देर तक वैसे ही बैठी रही।
दूसरे दिन शहर को एक नया मसाला मिल गया। अखबारों की स्याही कुछ गाढ़ी और चैनलों का शोर कुछ ज्यादा हो गया था। सबकी जुबान पर एक ही तरह की बात। ‘मंगल ने की बगावत’, ‘मंगल ने बनाया महतो मुक्ति मोर्चा’, ‘मुख्यमंत्री के खिलाफ निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में लड़ेंगे चुनाव’, ‘अगले महीने पटना के गाँधी मैदान में करेंगे आम जन सभा।’
फिर क्या था मीडिया से लेकर राजनीतिक हलकों में हर जगह मंगल की ही चर्चा थी। कोई उस खबर की स्वागत कर रहा था तो कोई ‘देखें किसमे कितना है दम’ की तर्ज पर ललकार रहा था।
जैसे-जैसे समय नजदीक आ रहा था। वैसे-वैसे शहर की दीवारें ‘महतो मुक्ति मोर्चा’ की आगामी रैली के पोस्टरों से पटती जा रही थीं। रिक्सा, आटो और बसों पर लगे पोस्टरों से पूरे राज्य में बिना पैसे का प्रचार हो रहा था। मंगल छात्रसंघ के अध्यक्ष थे। इसका लाभ उन्हें खूब मिल रहा था। यूनिवर्सिटी के लड़के चौराहों, मुहल्लों में नुक्कड़ नाटक आदि के द्वारा मंगल की आगामी रैली का प्रचार कर रहे थे। जनता को इस तरह की राजनीति और इस तरह का प्रचार बड़ा अजगुत लग रहा था। जल्दी ही देश के दूसरे विश्वविद्यालयों के छात्रसंघों ने मंगल के पक्ष में बयान जारी करना शुरू कर दिया। मंगल की आगामी रैली सुर्खियों में थी। तमाम बुद्धिजीवी, लेखक, पत्रकार और गैरसामाजिक संगठन जो चल रही राजनीतिक परिदृश्य के आलोचक थे, वे सब भी स्वतः ही मंगल के पक्ष में बयान देने लगे। मंगल का युवा होना, छात्र नेता होना, वर्तमान सरकार का निष्कासित प्रवक्ता होना, प्रखर और भदेस वक्ता होना आदि अब खूब काम आ रहा था। मीडिया चैनलों पर मंगल छाये हुए थे। जिसके पीछे अप्रत्यक्ष रूप से वर्तिका की मेहनत भी काम कर रही थी।
शक्ति प्रदर्शन रैली के दो-तीन दिन पहले तो सरकार के कई मंत्री भी मंगल को पीड़ित बताने लगे। ये अलग बात है कि वे मंगल के पक्ष में बयान देकर पार्टी और सरकार से अपना टिकट कन्फर्म करा रहे थे। पर इन सबसे मंगल के ‘महतो मुक्ति मोर्चा’ का माहौल बन रहा था। सरकार भी सक्रिय हुई। उसके कई मंत्री और नेता मंगल को लल्लू-पंजू बताने में लगाये गये। सरकार के कान खड़े हो गये थे। छात्र आन्दोलनों के कई पुराने मामलों को लेकर उन पर धड़ाधड़ मुकदमें दर्ज कराये जा रहे थे। यूनिवर्सिटी के दिनों के उनके कई पुराने वीडियो वायरल हो रहे थे। वैसे ही एक वीडियों में मंगल सिनेमा का गाना गाते दिख रहे थे, ‘ऐ मेरे हम सफर एक जरा इन्तजार, सुन सदाऐं दे रहीं है मजिल प्यार की।’ इस वीडियो को लेकर वर्तिका का नाम भी खूब उछला। वर्तिका की जाति के कुछ नेताओं से सरकार ने मंगल के खिलाफ बयान भी दिलवाया कि ‘मंगल महतो यूनिवर्सिटी की उँची जाति की लड़कियों को देखकर सिनेमा का गाना गाने वाला लम्पट है। जनता उनका हुक्का-पानी बंद कर देगी।’ दूसरी तरफ उसी गाने वाले वीडियों को यूट्यूब पर सबसे ज्यादा लाइक्स भी मिल रहे थे।
खैर! वह दिन भी आया। पटना की सारी सड़के जैसे गाँधी मैदान की और मुड़ गयीं थीं। लोगों को रेला उधर ही बढ़ा जा रहा था। दोपहर के बाद से ही गाँधी मैदान भरना शुरू हो गया था। बड़ा सा मंच तैयार था। भीड़ जुटाने के लिए मंच पर कई तरह के सांस्कृतिक समूहों और नाट्य दलों का कार्यक्रम लगातार चल रहा था। इस तैयारी में मंगल ने अपनी बची-खुची पूँजी भी झोंक दिया था। मीडिया के ओ.वी. वैन जम चुके थे। कई चैनलों ने अभी से ही लाइव शुरू कर दिया था। लोग बड़ी संख्या में महीना भर से चल रहे घमासान का अंजाम देखने पहुँचे थे। अचरज ने जैसे आदमियों की शक्लें धर लिया था। शाम होते-होते मंच से ऐलान हुआ कि मंगल महतो का जुलूस बस पहुँचने ही वाला है। लोगों की उत्सुकता बढ़़ती ही जा रही थी। थोड़ी ही देर में तुरही, झाल और नगाडे़ की आवाज सुनाई देने लगी। लोग खडे होकर देखने लगे। मंच पर अनेक कवि, लेखक, रंगकर्मी, बौद्धिक विराजमान थे। शहर का सबसे मशहूर मिमिक्री कलाकार मंच संभाले हुए था, वह फिल्मी कलाकारों की आवाज में बोले जा रहा था, ‘बइठ जाइये और शान्ति का जोगदान दीजिए...दीजिए..दीजि.., माटी के लाल मंगल महतो बहुत जल्द आपके बीच में होंगे...गे...गे...गे।’
अचानक भारी जयघोष हुआ...। मंच पर सबसे पहले पुराने जमाने के छड़ीदार के गेटअप में एक व्यक्ति माथे पर पंचलाइट लेकर चढ़ा। लोग भौचक। पीछे से गर्दन तक फूल-माला से ढंके, पगड़ी बाँधे मंगल महतो मंच पर अवतरित हुए। पंचलाइट को मंच पर सामने की ओर सबसे ऊँचे स्थान पर रख दिया गया। पंचलाइट देखकर भींड़ भारी अचरज में थी। उसमें बहुत से ऐसे लोग थे जो पहली बार पंचलाइट देख रहे थे। पत्रकारों के बीच सरगर्मी बढ़ गयी। शक्ति प्रदर्शन रैली में पंचलाइट का क्या काम, यह किसी को समझ में नहीं आ रहा था। एल.आई.यू. के लोग भी रैली में थे। तुरन्त ही पंचलाइट की जानकारी सरकार को दी गयी। भीड़ बेकाबू हो रही थी। शुरूआत में शहर के कुछ बौद्धिकों और साहित्यकारों ने वर्तमान राजनीतिक दिशाहीनता पर जम कर भाषण फटकारते हुए मंगल को राजनीति की नई संभवाना बताया। लेकिन भीड़ मंगल महतो को देखने और सुनने आयी थी। आखिरकार मंगल खड़े हुए। बायें हाथ से माइक पकड़ा और दाहिना हाथ हिलाकर लोगों का अभिवादन किया। मंच के नीचे खड़े यूनिवर्सिटी के लड़कों ने नारा लगाया ... ‘कौन चला है कौन चला है, धरती का लाल चला है।’ भीड़ ऐसे नारों की अभ्यस्त नहीं थीं। इसलिए उसे सबकुछ नया-नया लग रहा था। मंगल ने सबको शांत कराया।
मंगल ने भींड़ का थाह लिया और इस नई पारी का पहला वाक्य बोला, ‘मेरे प्यारे आजा-आजियो, काका-काकियो, बहनो और भाइयो!’
गाँव-देहात के इन आत्मीय रिश्ते के इस सम्बोधन से भींड़ में एक लहर सी उठी।
‘हम हैं, मंगल गोधन महतो।’
भीड़ चकित। चैनल के कैमरे मंगल के क्लोजअप शॉट पर फिक्स हुए।
‘और इ है हमारे गाँव-देहात के, गरीब-गुरबा के, किसान-मजदूर के इज्जत का प्रतीक पंचलाइट।’
कैमरों ने मंगल और पंचलाइट को मास्टरफ्रेम में साधा।
‘हम जानते हैं कि आज की रैली को लेकर यह पूँजीपतियों की सरकार हमारा मजाक उड़ा रही है, लेकिन हमको कोई फर्क नहीं पड़ता। अरे मजाक तो तब भी उड़ाया गया था, जब हमारे गाँव के पंचायत में यह पंचलाइट आया था। कहते थे कि पंचलैट के सामने पाँच बार उठो-बैठो, तुरंत जलने लगेगा।’
यह कहते हुए मंगल की आवाज थोड़ी भर्रा गयी थी। भीड़ तक उनकी आवाज की नमी ठीक-ठीक पहुँच रही थी। मंगल ने पानी से गला तर किया।
‘लेकिन आप ही बताइये कि पंचलाइट जला?’
भीड़ से आवाजी आयी ‘जला’
‘पंचलाइट जलाऽऽ?’
‘ज.....लाऽऽऽऽऽ’
‘पंचलाइट को जलाया था, हमारे आजा स्व. गोधन महतो ने।’
नारेबाज अभ्यासी मुस्तैद थे ... ‘काहें पड़े हो चक्कर में, कवनो नहीं है टक्कर में’
‘हमारे आजा, काहे लिए जलाये पंचलाइट? अपने लिए नहीं, अपने समाज के इज्जत के लिए। मान के लिए।’
भीड़ बढ़ती जा रही थी। टी.वी. पर पटना के गाँधी मैदान से धुँआधार लाइव प्रसारण चल रहा था। लग रहा था कि मुख्यमंत्री जी चुनाव से पहले ही हार जायेगें। सरकारी महकमें में हड़कम्प मचा हुआ था। मुख्यमंत्री जी ने आनन-फानन में पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की आपातकालीन बैठक बुला लिया। बैठक में काफी हंगामा हो रहा थ। कुछ नेता पार्टी के वरिष्ठ नेताओं पर समय रहते इस रैली को गंभीरता से नहीं लेने का आरोप लगा रहे थे। मुख्यमंत्री जी ने सबको शांत कराते हुए अपना हुकुम सुनाया कि ‘कुछ भी हो, किसी भी तरह हो, मंगल की रैली की हवा रैली के बीच मे ही निकालना होगा।’
उधर थोड़ी ही देर में पूरा गाँधी मैदान रोशनी से जगमग करने लगा। ऊपर से शाम उतर रही थी और बिजली की रोशनी में गुम हो जा रही थी। मंगल महतो पूरे फार्म में थे।
‘आज मैं आपके सामने वही पंचलाइट लेकर आया हूँ। यही होगा हमारा निशान।’
भारी करतल ध्वनि हुई।
लड़कों ने नारा लगाया ... ‘गरीबों का अरमान, पंचलैट निशाऽऽऽन।’
‘यह कोई ऐसी-वैसी चीज नहीं है। यह हमारे इज्जत का प्रमान है, जिस पर रेणु जी ने कहानी लिखा था ... पंचलाइट। जिसे आज तक सारा देश पढ़ रहा है।’
थोड़ी देर तक विद्यार्थियों के बीच ‘घेर-घार के बरसो, वाह रे मंगल महतो’ और ‘गरीब-गुरबा का अरमान, पंचलैट निशाऽऽऽन’ के नारे का जबाबी कव्वाली जैसा चलता रहा।
मंगल ने फिर बोलना शुरू किया...
‘आज मैं आपके सामने गोधन महतो का वही पंचलाइट, रेणु जी का वही पंचलाइट लेकर आया हूँ। आपसे हाथ जोड़कर विनती कर रहा, आप इस पंचलाइट का मान रख लीजिए और आने वाले चुनाव में उखाड़ फेंकिए इस जालिम व्यवस्था को।’
उनके इस आह्वान पर तालियों और नारों की जुगलबंदी शुरू ही हुई थी कि अचानक पूरे मैदान की बिजली गुल हो गयी। व्यवस्थापक भागे-भागे जनरेटर के पास पहुँचे तो वहाँ पता चला कि जेनरेटर के सारे आपरेटर गायब हैं। ऐसी ही स्थिति के लिए बड़े-बड़े जनरेटर मंगाये गये थे। पत्रकारों ने कैमरे की लाइट को खोल दिया। कुछ विद्यार्थियों ने गुस्से में परम्परानुसार तोड़-फोड़ भी शुरू कर दिया। भारी अफरा-तफरी मच गयी। लोगों के तमाशे में खलल पड़ा। वे उठने लगे।
मंगल ऊँची आवाज में लोगों को शांत करा रहे थे, उनकी आवाज वापस जा रहे लोगों की पीठ से टकरा कर लौट आ रही थी...‘यह सरकार की साजिश है। बिजली गयी नहीं, काटी गयी है।’
मंगल जोर-जोर से चिल्लाने जैसा कुछ बोल रहे थे। भावावेश में उनकी आवाज काँप रही थी। उन्होंने बहुत ही असहाय दृष्टि से मंच के बायीं ओर देखा, वहाँ ओ.वी. वैन से पीठ टिकाये वर्तिका स्तब्ध खड़ी थी। पत्रकारों के कैमरे एक-एक कर बंद होने लगे।
अंधेरे में घिरते जा रहे मंगल की बदहवास अपील पर लगभग दर्जन भर समथकों ने अपने मोबाइल का फ्लैश लाइट जला दिया।
उजड़ते हुए मजमें ने आखिरी बार पलट कर देखा गोधन-मुनरी का पंचलैट मोबाइल की पीली और उदास रोशनी में गुमसुम पड़ा था।
कथाकार का परिचय
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हमारे समय के महत्त्वपूर्ण कथाकार आशुतोष अपनी ग्राम्यगंधी कहानियों और बेजोड़ किस्सागोई के लिए जाने जाते हैं। कहानियों की दो और आलोचना की तीन किताबें प्रकाशित। कुछ कहानियों का अंग्रेजी सहित कई भारतीय भाषाओं में अनुवाद। कथालेखन के लिए कई पुरस्कारों से सम्मानित। सम्प्रति दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन।