बिहार में हिंदी नवजागरण

आचार्य शिवपूजन सहाय की 132वीं जयंती और आरा नागरी प्रचारिणी सभा के 125वें वार्षिक स्मृति समारोह के उपलक्ष्य में 10 अगस्त 2025 की सुबह, आरा के वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय में एक वृहत् आयोजन सम्पन्न हुआ। यह आयोजन “बिहार में हिंदी नवजागरण की बहुआयामी पड़ताल' के लिए भी आयोजित किया गया था। इसकी विस्तृत रपट प्रस्तुत कर रहे हैं अंशु कुमार चौधरी-

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10 अगस्त 2025 की नम सुबह, आरा के वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय का विशाल सभागार देश के बौद्धिक मानचित्र पर एक नई गूंज पैदा कर रहा था। मानसून की हल्की रौशनी और सरस्वती वंदना की मधुरता के बीच, मंच पर कुलपति प्रो. शैलेन्द्र कुमार चतुर्वेदी, मुख्य वक्ता प्रो. अवधेश प्रधान, अध्यक्ष डॉ. शंभूनाथ, हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. मृत्युंजय सिंह, शिवपूजन सहाय न्यास के कैलाशचंद्र झा, प्रेम कुमार मणि, हितेंद्र पटेल, समीर पाठक, अरविंद कुमार, पूनम सिंह, जितेंद्र कुमार, अंशु चौधरी, सुनीता सृष्टि सहित राज्य भर के विद्वान, छात्र-शोधार्थी, आलोचक और हिंदी प्रेमी जुटे थे। आयोजन, आचार्य शिवपूजन सहाय की 132वीं जयंती और आरा, नागरी प्रचारिणी सभा के 125वें वार्षिक स्मृति समारोह को समर्पित था — और साथ ही “बिहार में हिंदी नवजागरण” की बहुआयामी पड़ताल के लिए आयोजित किया गया।

सभागार की शुरुआत में ही कुलपति प्रो. शैलेन्द्र कुमार चतुर्वेदी ने अपने उद्धाटन भाषण में कहा कि किसी समाज की सार्थकता उसके सांस्कृतिक और बौद्धिक पुनर्जागरण में निहित होती है, केवल राजनीतिक उपलब्धियों में नहीं। आज बिहार के जिस नवजागरण की बात हम कर रहे हैं, वही भारत के पुनर्जागरण की आत्मा है — जिसका गौरवपूर्ण इतिहास और भविष्य दोनों हमें अपने भीतर झांकने के लिए विवश करते हैं।

इसके बाद, हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. मृत्युंजय सिंह ने औपचारिक भूमिका प्रस्तुत करते हुए बिहार नवजागरण की ऐतिहासिक उपेक्षा पर ध्यान दिलाया। उन्होंने कहा कि आज तक बंगाल, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र जैसे राज्यों के नवजागरण पर चर्चा होती रही, पर बिहार की भाषिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक उपस्थिति प्रायः हाशिए पर ही बनी रही। यह संगोष्ठी असल में बिहार के नवजागरण की ऐतिहासिकता, महत्ता और वर्तमान प्रासंगिकता को पुनः उठाने और स्थापित करने की एक कोशिश है। उनका स्पष्ट मत था कि आज जब हम इस नवजागरण को साहित्य, किसान आंदोलनों, सामाजिक सुधार और सांस्कृतिक निर्माण की चौराहों से देखते हैं, तभी उसकी असली सामर्थ्य और गहराई समझ सकते हैं।

दूसरे सत्र की अध्यक्षता में डॉ. शंभूनाथ (संपादक वागर्थ एवं पूर्व विभागाध्यक्ष, कोलकाता विश्वविद्यालय) ने पूरे विमर्श को ऐतिहासिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक आलोक में रखा। उन्होंने बेहद प्रभावी तरीके से कहा — हिंदी का जन्म बिहार की धरती पर प्रतिवाद की चेतना के साथ हुआ। बिहार नवजागरण को समझना दरअसल बिहार की आत्मा को सुनना है, जिसका तानाबाना बौद्ध धर्म के 'विहार', प्राचीन नालंदा- विक्रमशिला के विश्वविद्यालय, सिद्ध परंपरा (सरहपा-लुइपा) और विद्यापति जैसी विरासत तक फैला है। उन्होंने ‘गोल संतरा’ की उपमा देते हुए कहा — जैसे एक संतरे की हर फांक का स्वाद भिन्न हो सकता है लेकिन मिठास सबमें एक जैसी रहती है, वैसे ही राष्ट्रीय नवजागरण की हर प्रादेशिक धारा अपनी विशिष्टता के बावजूद मूल से जुड़ी है।

डॉ. शंभूनाथ ने बताया कि किस प्रकार 'बिहार' नाम ही बौद्ध 'विहार' से आया है, जो दर्शाता है कि यह भूमि पुरातन बौद्धिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र रही है। 'हिंदी साहित्य और बिहार' नामक शिवपूजन सहाय की कृति का हवाला देते हुए उन्होंने सिद्धों, सरहपा–लुइपा आदि से विद्यापति तक की श्रृंखला को बिहार के बौद्धिक संसार की जड़ों के रूप में उल्लेखित किया। सरहपा की प्रसिद्ध पंक्ति "पंडित शास्त्रों का बखान करते हैं, पर यह नहीं जानते कि देह में ही बुद्ध का वास है" को उन्होंने सामाजिक-धार्मिक प्रतिवाद का प्रतीक निरूपित किया — यानी भेदभाव से ऊपर उठकर आत्म-ज्ञान ही सबसे श्रेष्ठ ज्ञान है।

1763 से 1800 के दौरान, बिहार में अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ हिंदू संन्यासियों और मुस्लिम फकीरों के विद्रोह, 1917 के चंपारण सत्याग्रह, आधी सदी बाद दलित–पिछड़ी जातियों के संस्कृतिकरण आंदोलनों (जैसे जाति के उपनाम - ‘सिंह’, ‘कायस्थ’ में यमराज-दरबार के चित्रगुप्त से जोड़ना) को उन्होंने नवजागरण के ऐतिहासिक बिन्दुओं के रूप में रेखांकित किया। उन्होंने बताया कि यह सांस्कृतिकरण स्वयं को उन्नत जातियों के समकक्ष स्थापित करने और आत्मसम्मान के लिए सामाजिक जड़ता को चुनौती देने की प्रक्रिया थी।

पत्रकारिता के क्षेत्र में बिहारबंधु जैसे अखबारों का उल्लेख करते हुए, उनके 1883 व 1874 के अंकों की वे पंक्तियां दोहराईं — "बिहार की दशा देखकर रोआई आती है, क्या बिहार सदा इसी स्थिति में रहेगा?" और "हिंदुस्तान की फुलवारी में फूट की हवा ऐसी बही कि कोई फूल बच नहीं रहा।" उन्होंने इस ऐतिहासिक चिंता को आज भी उतनी ही प्रासंगिक बताया।

उन्होंने यह भी कहा कि 'हिंदी साहित्य और बिहार' पुस्तक का नाम बदलकर 'बिहार का साहित्यिक विकास' से 'हिंदी साहित्य और बिहार' किया गया, जिससे यह संकेत मिलता है कि हिंदी कभी एकाधिपत्य की भाषा नहीं रही — उसमें समावेशी और लोकतांत्रिक भावना रही है। आज जबकि देश में प्रांतीयता, भाषा के बाहरी–भीतरी के झगड़े आम हो रहे हैं, ऐसे में बिहार नवजागरण का मूल संदेश और भी अधिक मौलिक एवं जरूरी बन जाता है। बिहार नवजागरण दरअसल केवल सांस्कृतिक पहलू नहीं, बल्कि धर्म, जाति, भाषा और प्रादेशिकता की दीवारों को तोड़ने का संकल्प है।

प्रोफेसर अवधेश प्रधान (पूर्व अध्यक्ष, हिंदी विभाग, काशी हिंदू विश्वविद्यालय) ने अपने मुख्य वक्तव्य में बिहार नवजागरण को महज साहित्यिक आंदोलन नहीं, बल्कि किसान आंदोलनों, सामाजिक सुधार और राजनीतिक प्रतिवाद की एकीकृत प्रक्रिया माना। उन्होंने बेहद स्पष्टता से कहा — बिहार के जमींदार किसानों की लड़कियों की बिक्री तक में कमीशन खाते थे, और इस घोर शोषण व्यवस्था के विरुद्ध स्वामी सहजानंद सरस्वती ने व्यापक किसान आंदोलन खड़ा किया जिसने न केवल भूमि-सुधार, बल्कि सामाजिक-जातीय जड़ताओं के उन्मूलन का मार्ग प्रशस्त किया।

उन्होंने बिहार नवजागरण को जनचेतना, किसानों के अधिकार, भूमि संबंधी प्रश्नों, स्त्रियों तथा विद्यार्थियों की भूमिका, और साहित्यिक-सांस्कृतिक संश्लिष्टता के रूप में विस्तार दिया। उन्होंने राहुल सांकृत्यायन को 'बौद्धिक किसान' की संज्ञा देते हुए कहा — वे न केवल खेतों और गांवों में संवाद करते, बल्कि कलम से भी जनचेतना लाते थे। अवधेश प्रधान ने चंपारण के सत्याग्रह से लेकर किसान आंदोलनों की पूरी परंपरा को बिहार के सामाजिक नवजागरण की धुरी बताया। उन्होंने महिलाओं की सक्रिय भागीदारी एवं सामाजिक नवाचार की धाराओं पर भी विस्तार से चर्चा की।

इतिहासकार प्रो. हितेंद्र पटेल (रवींद्र भारती विश्वविद्यालय, कोलकाता) ने भारतीय नवजागरण की केंद्रीय भावना — 'भारतीय एकता के गैर-राजनीतिक आधार की खोज' — को स्पष्ट किया। उन्होंने बताया कि बंगाल, महाराष्ट्र, मद्रास और बिहार की जागृतियां विरोधी नहीं, बल्कि पूरक थीं। उन्होंने 1881-82 में बिहार में हिंदी के दफ्तरी भाषा बनने (भूदेव मुखोपाध्याय की भूमिका सहित) को भाषा और सांस्कृतिक स्वायत्तता के लिए क्रांतिकारी घटना बताया। उन्होंने चिंता जताई कि बिहार पर आज तक नवजागरण विषयक गम्भीर अकादमिक शोध बेहद कम हैं, जिसे दुरुस्त करने की जरूरत है।

साहित्यकार प्रेम कुमार मणि ने कहा — 'नवजागरण' को जबरन बस 'हिंदी नवजागरण' कहना, उसके सामाजिक सुधारक और सर्वसमावेशी पक्ष को कम कर देता है। उनके अनुसार, नवजागरण की असली आत्मा समाज के वंचित, दलित, स्त्रियों और बहुजन का समावेश है। उन्होंने हीरा डोम जैसे लेखक की उपेक्षा पर प्रश्न उठाया और आलोचना की कि क्यों ऐसे बहुजन–दलित विमर्शकार नवजागरण की मुख्यधारा का हिस्सा नहीं बन पाते।

लेखक-आलोचक समीर कुमार पाठक ने आत्मालोचन करते हुए स्वीकार किया कि रामचंद्र शुक्ल, रामविलास शर्मा, नामवर सिंह जैसे बड़े आलोचकों ने बिहार के रचनाकारों को समुचित सम्मान नहीं दिया, लेकिन स्वयं बिहार के बुद्धिजीवी भी अपने साहित्यकारों का संरक्षण, संपादन और प्रचार नहीं कर सके। उन्होंने बिहार के अपने ही साहित्य, प्रतिभा और सांस्कृतिक पूंजी को सहेजने की जरूरत को रेखांकित किया।

कैलाशचंद्र झा (शिवपूजन सहाय न्यास) ने स्वामी सहजानंद सरस्वती के आंदोलन से जुड़े लेखकों-नेताओं और स्वयं शिवपूजन सहाय के दुर्लभ पत्रों के संरक्षण के अपने प्रयास का वर्णन किया। उनके अनुसार, ये पत्र और दस्तावेज बिहार के नवजागरण की बौद्धिक-सामाजिक गहराइयों को उजागर करते हैं, और भविष्य की शोध-परंपरा के अभिन्न आधार बन सकते हैं।

पूनम सिंह ने नवजागरण में महिला लेखन और साहित्यिक उपस्थिति की लगभग अनुपस्थिति पर प्रश्न उठाया — "यदि नवजागरण सर्वसमावेशी था, तो महिलाओं के जबर्दस्त योगदान के बावजूद इतिहास में उनकी आवाज़ इतने सीमित संदर्भों में क्यों देखी जाती है?" उन्होंने मुजफ्फरपुर के 1857 के पहले शहीद और अयोध्या प्रसाद खत्री के खड़ी बोली आंदोलन का उल्लेख कर विमर्श को गहराई दी।

अरविंद कुमार ने आरा के साहित्यिक योगदान और खासतौर पर ब्रजवल्लभ के 'लालचीन', हरद्वार प्रसाद जालान आदि के उपन्यासों जैसी विलुप्त कृतियों की चिंता जाहिर की। उन्होंने जोर देकर कहा कि बिना दस्तावेज़ी संरक्षण के, शोध में रिक्तियाँ हमेशा बनी रहेंगी; अतः साहित्यिक धरोहर का डिजिटलीकरण किया जाना चाहिए।

सुनीता सृष्टि ने नवजागरण के सामाजिक सुधार, विशेषकर महिला शिक्षा और स्त्री स्वावलंबन के प्रसंगों को सामने रखा। उन्होंने कहा कि दस्तावेजों में भले कम उल्लेख हैं, लेकिन नवजागरण की लगभग हर धारा में महिलाओं की उपस्थिति रही — अब जरूरत उनके योगदान की पहचान, शोध और पुनर्पाठ की है।

युवा अंशु चौधरी ने अपने वक्तव्य में कहा कि नवजागरण को सिर्फ अतीत की पदचाप न मानें, बल्कि उसके मूल्यों — समानता, शिक्षा, प्रतिवाद और मानवता — को आज की डिजिटल पीढ़ी से जोड़कर देखें तो बिहार और देश नई चेतना की ओर बढ़ सकते हैं। उन्होंने इंटरनेट, डिजिटल संग्रहालय, सोशल मीडिया आदि के जरिए नवजागरण को अगली पीढ़ियों के लिए सुलभ बनाने का सुझाव भी रखा।

समापन भाषण में डॉ. शंभूनाथ ने कहा — "बिहार नवजागरण को भूलना, अपने प्रदेश की आत्मा को भूलना है।" नवजागरण केवल अतीत का आलेख नहीं, बल्कि वर्तमान सामाजिक-सांस्कृतिक बिखराव से लड़ने की प्रेरणा भी है। उन्होंने पुनः सामूहिक स्मृति को जाग्रत करने, भेदभाव मिटाने और सांस्कृतिक आत्मसम्मान की लौ जलाने का आह्वान किया।

इस मौके पर विमल कुमार की पुस्तक ‘आरानामा’ का विमोचन हुआ। धन्यवाद ज्ञापन रणविजय सिंह ने किया और संचालन नवनीत कुमार राय ने गरिमा के साथ संभाला। कार्यक्रम के अंत में यह भावना स्पष्ट थी कि बिहार नवजागरण पर इस तरह का गहन विमर्श पहली बार आयोजित हुआ है। अब तक इस विषय पर गंभीरतापूर्वक विचार नहीं किया गया था, और यह संगोष्ठी इस दिशा में एक नई शुरुआत बन गई। उपस्थित सभी विद्वानों ने आशा जताई कि इसके बाद इस विषय पर चर्चा और शोध का सिलसिला आगे भी चलता रहेगा।

निष्कर्षत: यह संगोष्ठी ‘बिहार में हिंदी नवजागरण’ को सिर्फ ऐतिहासिक या साहित्यिक विमर्श की तरह नहीं, बल्कि सामाजिक-जागरण, किसान आंदोलनों, स्त्री शिक्षा, बहुजन चेतना, सांस्कृतिक संघर्ष और बौद्धिक आत्मावलोकन के एक समावेशी संदर्भ में रखने का नया प्रयास रही। 

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