नई दिल्लीः “हिंदी भारत की मातृभाषा है, इसका ‘डेवलपमेंट’ करना पड़ेगा”। यह शब्द भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हैं। उन्होंने यह एक सभा को संबोधित करते हुए कहा था। देश में हिंदी भाषा की स्थिति पूर्व प्रधानमंत्री के इन शब्दों से पता चलती है।
हर साल 14 सितंबर को मनाया जाने वाला ‘हिंदी दिवस’ भारत वासियों के लिए गर्व का दिन होता है। क्योंकि इसी दिन 1949 में संविधान सभा द्वारा देवनागरी लिपि में लिखी हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया था। इसके बाद 14 सितंबर 1953 से हिंदी को पूरे देश में बढ़ावा देने के लिए हर साल मनाया जाने लगा।
इन सब के बावजूद क्या हिंदी का उतना विकास हो रहा है, जितना होना चाहिए था? क्या इस डिजिटल युग में हिंदी के साथ न्याय हो पा रहा है? हिंदी बोली के तौर पर तो समृद्ध हो रही है लेकिन क्या लेखन और पाठन में भी ऐसा हो पा रहा है? इसी विषय पर वरिष्ठ पत्रकार और भारत सरकार में केंद्रीय हिंदी समिति सहित कई समितियों के सदस्य रहे राहुल देव कहते हैं, ‘यह हिंदी दिवस नहीं है, यह राजभाषा दिवस है। जो लोग यह मानते हैं कि हिंदी का चलन देश में खूब बढ़ रहा है। वह लोग फिल्मों, टीवी, समाचार माध्यमों और खेल की कमेंट्री का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि हिंदी का चलन बढ़ा है।’
वरिष्ठ पत्रकार हिंदी की विकास यात्रा की बात करते हैं। कहते हैं, मैं इस बात को ऐसे देखता हूं कि हिंदी में विशेष रूप से नई पीढ़ी में कितनी प्रचलित है। क्योंकि हिंदी का भविष्य वयस्कों और प्रौढ़ों से नही तय होता है। हिंदी के विकास को जानने के लिए हमें यह जानना होगा कि जो हमारी युवा पीढ़ी है उनमें हिंदी का चलन घट रहा है या बढ़ रहा है। फिल्मों और अन्य माध्यमों से हिंदी की जो बढ़ने की बात की जाती है उसका हिंदी की बोली के रूप में विस्तार हो रहा है। किसी भाषा के विकास में तीन चीजें जरूरी होती हैं। भाषा को समझना, बोलना और लिखना। किसी भाषा के विकास के ये तीन पैमाने होते हैं।
क्या है हिंदी जगत की समस्या?
राहुल देव मुख्य समस्या की ओर ध्यान आकर्षित कराते हैं। उनके अनुसार, क्या हिंदी के विकास में ये तीनों पैमाने बढ़ रहे हैं? जब तक ये तीनों प्रक्रियाएं न बढ़ रही हों तब तक हम यह नहीं कह सकते कि वह भाषा बढ़ रही है। शहरों, गावों के रहने वाले लोगों के बच्चे भी तथाकथित अंग्रेजी माध्यम में पढ़ रहे हैं। मेरे खुद के बच्चे भी शहरों में रहकर अंग्रेजी माध्यम में पढ़ रहे हैं। वह हिंदी सिर्फ बोलते हैं, लेकिन हिंदी लिखना और पढ़ना न तो उनके अभ्यास में शामिल है और न ही वह लिख सकते हैं। अगर उन्हें कुछ लिखने के लिए कह दिया जाए तो उनकी सांस फूल जाती है। वह आजकल हिंदी में कुछ अच्छा पढ़ते ही नहीं हैं। यह समस्या पूरे हिंदी जगत की है। इसलिए हमें इस भ्रम को दूर करना चाहिए की बोली के विस्तार से भाषा का विस्तार होता है।”
भाषा क्यों नहीं फली फूली इसकी वजह भी बताते हैं। आगे कहते हैं, आजादी के बाद से ही हिंदी प्रदेश की सरकारों सहित सभी सरकारों ने इस पर ध्यान नहीं दिया और हिंदी को एक भाषा के रूप में विकसित करने के लिए जो जरूरी बातें हैं उनको ठीक से नहीं समझा। सरकारों को लगता था कि हिंदी को प्रांत की राजभाषा बना देने से, हिंदी की अकादमियां बना देने से, साहित्य अकादमियां बना देने से भाषा का विकास और विस्तार हो जाएगा। भाषा के विकास का मतलब केवल साहित्य का विकास नहीं होता है। एक भाषा को साहित्य से कहीं ज्यादा उसके ज्ञान और विज्ञान के विस्तार की जरूरत होती है। जब तक विज्ञान, तकनीकी आदि तमाम क्षेत्रों में उस भाषा का चलन नहीं बढ़ेगा तब तक भाषा का विकास संभव नहीं है। हिंदी के साथ यही हुआ है।
हिंदी के पास इस समय 10 से 15 लाख शब्द
आगे कहते हैं, तमाम विषयों पर पढ़ाई के लिए परिभाषित शब्दों की जरूरत होती है। दुनिया में हर भाषा की हर विषय के लिए अपनी विविध पारिभाषित शब्दावली या शब्दकोश है। अंग्रेजी भाषा की ही बात करें तो वहां विधि का अलग शब्दकोश है, विज्ञान का अलग शब्दकोश है, अर्थशास्त्र का अलग शब्दकोश है। लेकिन हिंदी का परिभाषित शब्दकोश बहुत बाद में बनाया गया। बताया जा रहा है कि हिंदी सहित भारतीय भाषाओं के पास इस समय अलग अलग विषयों पर 22 लाख से ज्यादा शब्दकोश मौजूद है। केवल हिंदी के पास इस समय 10 से 15 लाख शब्द हैं। ये सारे शब्द बहुत बड़े सैकड़ों विद्वानों द्वारा बड़े समर्पित भाव से बनाए गए हैं। इसके लिए सरकार ने 1961 में वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग का गठन कर दिया था। उस समय की सरकार ने दूरदर्शिता दिखाते हुए यह समझा कि हमारी भाषा को आगे बढ़ने के लिए विज्ञान और तकनीकी शब्दों की जरूरत पड़ेगी। सरकारों के इस प्रयास से देश को 22 लाख शब्दों की एक संपदा मिली। दुर्भाग्य से हिंदी के लोगों को ही इसका पता नहीं है।
वह हिंदी के मातृभाषा और राष्ट्रीय भाषा होने पर देश दुनिया में चलती बहसों का जवाब देते हुए कहते हैं, “हिंदी भारत की राष्ट्रीय भाषा तो है लेकिन यह राष्ट्रभाषा नहीं है। दोनों में बहुत बड़ा अंतर है। इसके अलावा कई विद्वानों द्वारा हिंदी को भारत की मातृभाषा भी कहा जाता है। यह तो परम मूर्खता है। यह वही लोग कह सकते हैं जिनको मातृ भाषा, प्रथम भाषा, द्वितीय भाषा का ज्ञान नहीं है। अक्सर लोग यह कहते है कि राजभाषा कठिन है। कार्यालयी हिंदी कठिन है। यह इसलिए है क्योंकि पारिभाषित हिंदी शब्दावली को सिखाने का कोई विशेष प्रयास नहीं किया गया।”
राहुल देव साफ भाषा बोलने के पक्षधर हैं। वह हिंदी भाषा में अंग्रेजी के शब्दों को मिलाकर ‘हिंग्लिश’ बोलने के घोर विरोधी हैं। कहते हैं कि यह हिंग्लिश हिंदी को खत्म कर देगी। क्या कोई अंग्रेजी बोलने वाला व्यक्ति हिंदी के शब्दों का इस्तेमाल करता है? नहीं करता है, लेकिन हिंदी बोलने वाले लोग आधे से ज्यादा शब्दों में अंग्रेजी बोलते हैं। इससे हिंदी को बहुत नुकसान हुआ है।
वह आगे कहते हैं, “ किसी एक अखबार ने इस हिंग्लिश रूपी हिंदी की शुरुआत की थी। आज कई अखबार हिंग्लिश छाप कर हिंदी की दैनिक हत्या कर रहे हैं। लेकिन इसमें अपवाद स्वरूप कुछ अखबार ऐसे हैं, जो आज भी हिंदी को बचाने के लिए संकल्पबद्ध दिखते हैं। जिन अखबारों ने हिंदी के विस्तार में अहम भूमिका निभाई है वही अखबार आज हिंदी के भक्षक बन गए हैं।”