हिमाचल प्रदेश के धौलाधार पर्वतों की छाँव में बसे जुड़वा गाँव गरली और परागपुर उन कम लोकप्रिय जगहों में से हैं, जहाँ वास्तुकला, इतिहास और स्थानीयता की अनूठी जुगलबंदी मौजूद है। धरोहर के लिहाज़ से इन दोनों गांवों की अहमियत मानते हुए हिमाचल प्रदेश सरकार ने पर्यटन नीति के तहत 1997 में परागपुर और 2002 में गरली को धरोहर गाँव का दर्जा दिया था। तबसे अब तक इन्हें बतौर विरासत संरक्षण तो मिला है, लेकिन जिस लिहाज़ से इन्हें प्रचार और रख रखाव मिलना चाहिए, वह अभी नाकाफी है। 

इतिहास के पदचिह्न 

परागपुर 16वीं शताब्दी में जस्वां रियासत का हिस्सा था और इसे रियासत की राजकुमारी पराग देई के नाम पर बसाया गया था। राजशाही के आदेश पर इस गाँव में 57 कुठियाला सूद परिवारों की बसावट की गई। लोकस्मृति में परागपुर के आबाद होने का समय लगभग वही है जब आगरा में ताजमहल बनाया जा रहा था। ऐसे ही अंग्रेजों ने 1846 में कांगड़ा पर अधिकार कर लिया और 1868 में परागपुर को गजेटियर में दर्ज कर लिया गया। इसी तरह सूद व्यापारियों ने गरली गाँव में 19वीं शताब्दी के अंत में रहना शुरू किया, जिस समय अंग्रेज़ों का प्रभाव भारतीय उपमहाद्वीप पर गहरा असर कर चुका था।

शहरी आवरण में लिपटी ग्रामीण विरासत

जब अंग्रेज़ों ने शिमला को अपनी ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाया, तब परागपुर-गरली के कई सूद परिवार व्यापार के लिए शिमला जा बसे। शिमला में बन रहीं अंग्रेज़ी वास्तुकला की इमारतों ने इन्हें खूब प्रभावित किया और इन्होंने अपने पैतृक गाँवों परागपुर और गरली में आकर भी औपनिवेशिक (कॉलोनियल) शैली में ही इमारतें बनवाईं। 

सूद समुदाय ने परागपुर-गरली में ताल और धर्मशालाएं भी बनवाईं। इसके अलावा, उन्होंने शिक्षा पर ज़ोर दिया और गरली हेरिटेज विलेज अब लड़कों और लड़कियों के सबसे पुराने सरकारी स्कूल के लिए जाना जाता है, जिसकी इमारत बेहद आकर्षक है। 1800 के दशक के अंत से लेकर 1900 के दशक की शुरुआत तक, गरली एक अग्रणी गांव था और इसके विकास में आज तक जनभागीदारी मौजूद रहती है। यूँ तो ये जुड़वा गाँव अपनी ग्रामीण विरासत के बूते पर पर्यटकों को आकर्षित करते हैं लेकिन इन गाँवों का नक्शा और नियोजन शुरू से किसी शहर से कम नहीं रहा। यहाँ पंचायतें पुरानी विरासत को संरक्षित करने के साथ-साथ नए निर्माण को मंजूरी देने में सलाहकार की भूमिका निभाती हैं ताकि यह इन गाँवों का विरासती चरित्र बरकरार रखा जा सके। राजशाही द्वारा स्थापित ये जुड़वा गाँव सूद व्यापारियों द्वारा आबाद हुए और अंग्रेज़ी हुकूमत की छाप लिए हुए आधुनिक होते चले गए मगर ग्रामीण विरासत को आज भी अपनी पंचायती प्रणाली से बरकरार रखे हुए हैं।

वैश्विक वास्तुकला का प्रभाव

अंग्रेज़ों के सानिध्य में रहकर सूद व्यापारियों ने न सिर्फ ब्रिटिश सरकार की नौकरियों और व्यापार में अपना प्रभुत्व जमाया बल्कि यूरोपीय वास्तुकला को भी अपनाया और अपने परागपुर गरली गाँवों की इमारतों में पाश्चात्य प्रभाव शामिल किया। परागपुर गरली की गलियों में घूमते हुए आपको किसी छोटे से यूरोपीय कस्बे में चहल कदमी करने का एहसास होगा। यहाँ के पत्थर की टाइल वाले रास्ते, इतालवी शैली वाली हवेलियाँ, अंग्रेज़ी प्रभाव वाले बंगले और स्कॉटिश किलेनुमा मकान आपको इतिहास के किसी दूसरे दौर में ले जाते हैं। गली के एक मोड़ पर आपको एक स्थानीय बेकरी मिल जाएगी तो दूसरे सिरे पर पानी के संचयन के लिए बनाया गया एक ताल। संकरी गलियों के दोनों ओर छोटी बड़ी दुकानों कीकतारें हैं जिनमें आज भी गुज़िश्ता दौर का एहसास तारी है।

कभी परागपुर की पहचान रही जज की कोठी आज जजेस कोर्ट नामक हेरिटेज होटल में तब्दील हो चुकी है। यह कोठी जय लाल सूद नामक व्यक्ति ने बनवाई थी, जो कि भारतीय, इस्लामी और अंग्रेज़ी वास्तुकला का सम्मिश्रण है। इस होटल में आज भी खूब पर्यटक आते हैं और इसकी स्थापत्य कला को सराहते हैं। 

इसी तरह गरली में स्थित शैटू गरली भी औपनिवेशिक, पुर्तगाली, मुगल, राजस्थानी और कांगड़ी प्रभाव में बना महल है। इसका निर्माण लाला मेला राम सूद ने 1921 में करवाया था। आज यह भी होटल में तब्दील हो चुका है और फिल्मी शूटिंग समूहों और देसी विदेशी पर्यटकों की मेहमनावाज़ी करता है। 

गरली में नौरंग यात्री निवास नाम की लाल ईंटों से बनी एक खूबसूरत धर्मशाला भी मौजूद है, जिसका निर्माण राय बहादुर मोहन लाल द्वारा जनता के लाभ के लिए अपने पिता लाला नौरंग मल के सम्मान में करवाया गया था। पहले पहल इसका इस्तेमाल एक ब्रिटिश अफसर के रैन बसेरे के तौर पर किया गया लेकिन धीरे धीरे यह सराय गुज़रने वाले व्यापारियों और मुसाफिरों के ठिकाना बन गई। आज ये सराय भी एक होटल में तब्दील हो चुकी है।

इसी तरह धुनीलाल भर्दियाल की सराय, बुटैल निवास, नहर भवन आदि कई धरोहरनुमा इमारतें परागपुर-गरली के माथे के मोड़ की तरह आज तक खड़ी हैं। 

लौटने वालों की राह देखते लावारिस धरोहर

यहाँ के स्थानीय लोग अपने बंगले और कोठियाँ खाली छोड़कर आज शहरों और विदेश में जा बसे हैं लेकिन ये खाली मकान आज भी बड़ी शिद्दत से सिर उठाए अपने मालिकान की राह देखते हैं। 

परागपुर गरली के विस्थापित बाशिंदों के लिए भी उन पुरानी जानी-पहचानी दीवारों, दरवाजों और झरोखों की यादें उनका जीवन भर पीछा करती रहती है। हमारा एक हिस्सा हमेशा उन दीवारों की दरारों में दबा रहता है जिनके बीच हम कभी बड़े हुए हों या जहाँ हमारी जड़ें दबी हों। यह भी शाश्वत सत्य है कि घर, मोहल्ले, स्कूल, चौक सिर्फ़ जगहें और चारदीवारी नहीं होते बल्कि अपने आप में 'जीवित संस्थाएँ' होते हैं, जिनकी छाप हमारे अस्तित्व पर हमेशा रहती है। 

दुनिया भर में जा बसा परागपुर गरली का सूद समुदाय अपनी विरासत के साथ मोह के धागे से आज भी बँधा हुआ है। ज़रूरत बस इतनी है कि अपनी विरासत को सहेज कर दुनिया में इसका नाम किया जाए। पहाड़ के साए में आबाद किए गए यह आधुनिक विरासती गाँव अपने अनूठेपन के चलते पर्यटकय लोकप्रियता और बेहतर सरकारी तवज्जो के मुंतज़िर हैं।