नींद के आगोश में जो हम आ गए
कुछ बिखरे हुए किस्से याद आ गए
राजदां थे वो, जो कल तक जिस हवेली में
जर्जर हवेली देख,पुराने किस्से याद आ गए...

हम आज उस हवेली के सफर पर निकले हैं, जो जर्जर तो नहीं है। ये अब भी शान के साथ खड़ी है। इसका नाम है शरीफ मंजिल। आप अजमेरी गेट के भीड़भाड़ वाले इलाके से बल्लीमरान की तरफ बढ़ते हैं। दिन-रात रहने वाली रौनक यहां का स्थायी भाव है। सड़क पर तिल रखने की जगह नहीं है। बल्लीमरान जाते हुए मिर्जा गालिब का ख्याल आना भी लाजिमी है। पर हम ‘यादगार गालिब’ के करीब शरीफ मंजिल जा रहे हैं। हम स्थानीय वाशिंदों से रास्ता पूछते हुए अपनी मंजिल शरीफ मंजिल पहुंच गए हैं। उधर फिजाओं में अजान की आवाजे भी आ रही हैं।

कब यहां आए थे गांधी?

शरीफ मंजिल का छोटा सा गेट है। इसे गेट से अंदर कदम बढ़ाते हुए पैर ठिठकते हैं। आखिर इधर से ही महात्मा गांधी 13 मार्च 1915 को हकीम अजमल खान से मिलने के लिए आए होंगे। आप उस मंजर को कुछ पलों के लिए सोचते हैं। अब इसमें हकीम अजमल खान के परपौत्र हकीम मसरूर अहमद खान साहब और उनके पुत्र मुनीब अहमद खान सपरिवार रहते हैं। सुप्रीम कोर्ट के वकील हैं मुनीब खान। अजमल खान कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों के सदर रहे। शरीफ मंजिल के ड्राइंग रूम में हकीम अजमल खान के परिवार के बुजुर्गों की तस्वीरें टंगी हैं।

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Photograph: (शरीफ मंजिल)

गांधी जी 12 अप्रैल, 1915 को पहली बार दिल्ली आए थे। तब कश्मीरी गेट पर हुआ करता था सेंट स्टीफंस कॉलेज। वे कस्तूरबा गांधी और अपने कुछ साथियों के साथ आए थे। दिल्ली आने के अगले दिन वे हकीम साहब से मिलने इसी शरीफ मंजिल में पहुंचे थे।

शरीफ मंजिल से कुतुब मीनार

हकीम साहब 14 अप्रैल, 1915 को गांधी जी और कस्तूरबा गांधी को दिल्ली दर्शन के लिए लाल किला और कुतुब मीनार लेकर गए थे। ये सब तब तांगे पर ही गए होंगे। तब तक दिल्ली में 25 कारें भी नहीं होंगी, हकीम साहब ने ही यहां गांधी जी के लिए वैष्णव भोजन की व्यवस्था की थी। दिल्ली में गांधी जी की अपने से छह साल बड़े हकीम अजमल खान से मुलाकात दीनबंधु सी.एफ.एन्ड्रूज की मार्फत हुई थी। उन्हीं के आग्रह पर गांधी जी सेंट स्टीफंस कॉलेज में रूके थे। एन्ड्रूज सेंट स्टीफंस कॉलेज में पढ़ाया करते थे और वे दिल्ली ब्रदरहुड सोसायटी से जुड़े हुए थे।

कितनी पुरानी शरीफ मंजिल

हकीम अजमल साहब की पुश्तैनी हवेली शरीफ मंजिल ने अपना 300 सालों का सफर 2020 में पूरा कर लिया था। यह सन 1720 में तामीर हुई थी। शरीफ मंजिल को दिल्ली के सबसे पुराने आबाद घरों में से एक माना जा सकता है। इसमें अब हकीम अजमल खान के परपौत्र हकीम मसरूर अहमद खान साहब और उनके पुत्र मुनीब अहमद खान सपरिवार रहते हैं। इसी शरीफ मंजिल में कांग्रेस की कई अहम बैठकें हुईं। हकीम साहब की शख्सियत बहुत बुलंद थी। दिल्ली में आने वाले सभी खासमखास लोग उनसे शरीफ मंजिल में जाकर मिलना पसंद करते थे।

कब आए इकबाल

मोहम्मद इकबाल अप्रैल, 1910 में दिल्ली आते हैं। यहां पर उन्हें आल इंडिया मोहम्मडन एजुकेशनल कांफ्रेस में भाग लेना था। वे इस कांफ्रेंस की सदारत करते हैं। वह कुछ महीनों के बाद 8 सितंबर, 1910 को फिर दिल्ली में आए। इस बार उनकी दिल्ली यात्रा का मकसद हकीम अजमल खान से मिलना था। शरीफ मंजिल हकीम साहब के दादा हकीम शरीफ खान के नाम पर बनी थी।

कांग्रेस और मुस्लिम लीग के सदर

हकीम साहब ने गांधी का असहयोग आन्दोलन में साथ दिया था। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष भी निर्वाचित हुये थे, तथा 1921 में अहमदाबाद में आयोजित कांग्रेस के सत्र की अध्यक्षता भी की थी। वे 1919 में मुस्लिम लीग के अध्यक्ष बने। वे मुस्लिम लीग के 1906 में ढाका में हुए पहले सम्मेलन में भी शामिल हुए थे। वे 1920 में अखिल भारतीय खिलाफत कमेटी के भी अध्यक्ष थे।  हकीम साहब कांग्रेस के अध्यक्ष बनने वाले पांचवें मुस्लिम थे। “ आप सच्चे मुसलमान होने के साथ-साथ  हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए निरंतर सक्रिय रहते हैं। अब हमें यह अहसास हो गया कि हमें ( ब्रिटिश राज से) स्वाधीनता तब ही मिलेगी जब हमारे में एकता रहेगी,” गांधी जी ने यह बात 12 मार्च, 1922 को साबरमती से हकीम अजमल खान को भेजे पत्र में लिखी थी।

किसकी सलाह पर खोला तिब्बिया कॉलेज

पहली मुलाकात के बाद ही गांधी जी और हकीम अजमल खान में गहरी दोस्ती हो गई थी।  गांधी जी ने ही हकीम अजमल खान को सलाह दी कि वे दिल्ली में एक बड़ा अस्पताल खोलें ताकि यहां की आबादी को लाभ हो। तब तक हकीम अजमल खान लाल कुआं से ही प्रैक्टिस करते थे। उन्होंने कभी सोचा ही नहीं था कि वे लाल कुआं छोड़कर बाहर मरीजों को देखेंगे। उन्हें गांधी जी की सलाह पसंद आई। 

Mahatama Gandhi

उसके बाद करोल बाग में नए अस्पताल और कॉलेज के लिए जमीन देखी गई। जब जमीन को खोज ली गई तो हकीम साहब ने गांधी जी से तिब्बिया कॉलेज और अस्पताल का 13 फरवरी 1921 का उदघाटन करवाया। तिब्बिया कॉलेज का परिसर कांग्रेस के सम्मेलनों का गढ़ बन गया। कांग्रेस सम्मेलनों की सारी व्यवस्था हकीम साहब ही करते। 

भोजन की व्यवस्था जामा मस्जिद के ठीक सामने स्थित हाजी होटल की तरफ से होती। हाजी होटल अब भी आबाद है। जामा मस्जिद एरिया के  सोशल वर्कर मोहम्मद तकी बताते हैं कि तिब्बिया कॉलेज में होने वाले कांग्रेस के कार्यक्रमों में आलू-पूढ़ी और लड्डुओं की व्यवस्था उनके होटल से ही हुआ करती थी।

चेहरा देखकर रोग जान लेते थे

हमदर्द दवाखाना और जामिया हमदर्द यूनिवर्सिटी को स्थापित करने वाले हकीम अब्दुल हमीद ने इस लेखक को 1995 में अपने कौटिल्य मार्ग के घर में बताया था कि हकीम अजमल खान के पास औरतों के मासिक धर्म और मिरगी रोग की अचूक दवाएं होती थीं। उनकी दवाओं को लेने से रामपुर के नवाब की बेगम मृत्यु शैय्य़ा से उठ खड़ी हुईं थीं। वो नौ सालों तक रामपुर के नवाब के हकीम रहे। उनका निधन भी रामपुर में हुआ था। 

दिल्ली के पुराने लोग बताते थे कि हकीम साहब की दवाओं में चमत्कारी असर होता था।  उनकी बुद्धि इतनी कुशाग्र थी कि यह कहा जाता था कि वह केवल रोगी का चेहरा देखकर उसकी किसी भी बीमारी का पता लगा लेते थे।

किसके किराएदार थे चचा गालिब

शरीफ मंजिल से दो मिनट के फासले पर मिर्जा गालिब का स्मारक है। मिर्जा गालिब का तो कभी कोई अपना घर हुआ ही नहीं। वे किराए के घरों में ही रहते रहे। पर अपनी जिंदगी के अंतिम छह साल उस घर में रहे जिसे हकीम अजमल खान के बुजुर्ग हकीम गुलाम महमूद खान ने उन्हें किराए पर रहने के लिए दिया था। गालिब साहब से सांकेतिक किराया लिया जाता था। जिस जगह  गालिब स्मारक बना हुआ है, वहीं गालिब रहा करते थे।

सुनहरी मस्जिद का रिश्ता किससे

दिल्ली के इतिहासकार आर.वी. स्मिथ बताते थे कि हकीम अजमल खान की पहल पर ही उद्योग भवन से सटी सुनहरी मस्जिद को 1920 में री-डवलप किया गया था। आपको याद होगा कि कुछ महीने पहले सुनहरी मस्जिद चर्चा में थी क्योंकि नई दिल्ली नगर परिषद ( एनडीएमसी) इसे यहां से हटाना चाह रही थी। उसका कहनाथा कि यह सड़क के बीचों-बीच गोल चक्कर में स्थित है। इस कारण से ट्रैफिक समूथली नहीं चल पाता। कभी इस गोल चक्कर को ‘हकीम जी का बाग’ कहा जाता था। 

इस छोटे से बाग में सुनहरी मस्जिद खड़ी है। इसके चारों तरफ दिन-रात ट्रैफिक चल रहा होता है। एनडीएमसी की तरफ से कुछ समय पहले एक विज्ञापन में जनता से इस मस्जिद को हटाने के संबंध में अपने सुझाव और आपत्तियां मांगी हैं।

जामिया को खड़ा करने वाले कौन

हकीम अजमल ख़ान जामिया मिलिया इस्लामिया के संस्थापकों में से एक थे। उन्हें 22 नवम्बर 1920 को इसका पहला कुलाधिपति चुना गया और 1927 में अपनी मृत्यु तक उन्होंने इस पद को संभाला। वे शरीफ मंजिल से ही जामिया के करोल बाग के कैंपस में जाया करते थे। जामिया मिल्लिया इस्लामिया के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर डॉ. आसिफ उमर कहते हैं कि जामिया की स्थापना गांधी जी के आशीर्वाद से हुई थी। 

दरअसल 1920 के दशक के राजनीतिक माहौल में, एक उत्प्रेरक के रूप में महात्मा गांधी ने जामिया के निर्माण में मदद की थी। गाँधीजी के आह्वान पर औपनिवेशिक शासन द्वारा समर्थित या चलाए जा रहे सभी शैक्षणिक संस्थाओं का बहिष्कार करने के लिए, राष्ट्रवादी शिक्षकों और छात्रों के एक समूह ने ब्रिटिश समर्थक इच्छा के खिलाफ विरोध कर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय छोड़ दिया था। 

इस आंदोलन के सदस्यों में हकीम अजमल खान, डॉ. मुख्तार अहमद अंसारी और अब्दुल मजीद ख़्वाजा प्रमुख थे। हकीम अजमल ख़ान ने जामिया को 1925 में अलीगढ़ से दिल्ली के करोल बाग,  दिल्ली में शिफ्ट करवाया ।  

सोने दो उसे

आज जब राजधानी में कनॉट प्लेस से पंचकुईया रोड की तरफ आगे बढ़ते हैं, तो आर.के.आश्रम मेट्रो से कुछ ही दूरी पर टूटा- फूटा एक सफेद रंग का गेट नजर आता है। उसके बाहर काफी हलचल रहती है। आप गेट को पार करके बस्ती हसन रसूल में दाखिल होते हैं। यहां पर छोटे-छोटे घरों के बाहर कई कब्रें दिखाई देती हैं। समझ नहीं आता कि यह कब्रिस्तान है या बस्ती। 

कब्रों के आसपास गप-शप करते हुए लोग मिल जाते हैं। घरों से ढोलक बजने और कुछ लोगो के संगीत का रियाज करने की भी आवाजें सुनाई देती हैं। आप एक बुजुर्ग सज्जन से हकीम अजमल खान की कब्र के बारे में पूछते हैं। रमजान नाम के सज्जन इशारा करके बता देते हैं। अब आप उस बुलंद शख्सियत की बेहद मामूली सी दिखाई दे रही कब्र के पास खड़े हैं। वे चोटी के यूनानी चिकित्सक तो थे ही। वे रोज सैकड़ों रोगियों का इलाज करते थे।  उन्हें ‘मसीहा ए हिन्द’ कहा जाता था। 

हकीम अजमल खान की कब्र के आगे एक अधेड़ उम्र की महिला बैठीं हैं। उनका नाम फौजिया है। वह बताती हैं, “हम ही हकीम साहब की कब्र की देखभाल करते हैं। यहां पर कुऱआन खानी और फातिया पढ़ लेते हैं।” हकीम साहब की कब्र के ऊपर गुलाब के कुछ सूख चुके फूल पड़े हैं। फौजिया बताती हैं कि कब्र पर कोई मशहूर शख्स या हकीम साहब के परिवार का कोई सदस्य श्रद्धांजलि देने के लिए नहीं आता।

Grave

हालांकि इस आरोप को हकीम साहब के परपोते (ग्रेट ग्रेट ग्रेंड सन) और सुप्रीम कोर्ट के वकील मुनीब अहमद खान खारिज करते हैं। वे कहते हैं, “मैं हकीम साहब की 11 फरवरी को जयंती के मौके पर अपने भाई और परिवार के कुछ सदस्यों के साथ यहां कब्र पर अवश्य आता हूं। यह सारा अहाता हमारे परिवार का ही था। यहां पर हमारे बुजुर्ग दफन थे। पर इधर कब्जे कर लिए गए।” 

मुनीब अहमद खान
मुनीब अहमद खान

 इनका इशारा उस महिला की तरफ था जो अपने को हकीम साहब की कब्र की रखवली करने वाली बता रही थी। आप कुछ देर उस अजीम शख्यिसत की कब्र के पास रहने के बाद फिर से मेन रोड की तरफ आ जाते हैं। यहां चारों तरफ शोर-गुल हैं। दिल्ली के पास अपने बुजुर्ग को याद करने का वक्त नहीं है।