भारतीय उपमहाद्वीप के प्राचीन व्यापार मार्गों पर होने के चलते यहाँ दूसरे महाद्वीपों से कई हमलावर, कई यात्री, कई उपनिवेशक, कई शरणार्थी और कई धर्म प्रचारक आए। कुछ यहीं बसे, कुछ लूटपाट कर चले गए, कुछ ने यहाँ रहकर राज किया और कुछ ने यहाँ सांस्कृतिक आदान-प्रदान किया। लेकिन इतिहास को जब हम राष्ट्रीयता, क्षेत्रीयता या स्थानीयता के लेंस से देखने लगते हैं, तब ऐतिहासिक धरोहरों को सहेजना और भी चुनौतीपूर्ण हो जाता है। कई बार हम स्थानीय बनाम बाहरी के द्वंद्व में पड़कर भी इतिहास की परतों को अपने स्वाद और सुविधा अनुसार बचाने और ज़ाया हो जाने के लिए छोड़ देते हैं। लेकिन इस पक्षपाती रवैय्ये के कारण इतिहास की कई कड़ियाँ टूटकर बिखर जाती हैं और भूत से भविष्य की ओर जाने वाला रास्ता खोजना और भी मुश्क़िल हो जाता है।
गोरखा किले: शह और मात के प्रतीक
ऐसी ही एक ऐतिहासिक कड़ी है गोरखों द्वारा भारत में बनवाये गए किले, जो देखरेख के अभाव में आज जर्जर हो चुके हैं। नेपाली मूल के गोरखा एक लड़ाका जनसमूह के रूप में जाने जाते हैं। 19वीं शताब्दी की शुरुआत में जब नेपाल का राष्ट्र के रूप में अस्तित्व नहीं था, तब वहाँ की गोरखा सेना ने महाकाली नदी के पार आकर काठमांडू से भी 1000 किलोमीटर दूर बसे हिमाचल हिल स्टेट और आज के उत्तराखंड में हमला कर अपने राज्य का विस्तार किया। गोरखा शासकों ने मैदानों से आने वाली अंग्रेज़ी सेना पर नजर रखने के लिए उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में कई किलों का निर्माण करवाया और साथ ही परास्त होने वाले कुछ पहाड़ी राजाओं के किलों पर कब्ज़ा भी किया।
सेनापति अमर सिंह थापा के नेतृत्व में गोरखा सेना ने 1804-1815 के बीच कई पहाड़ी राजाओं और छोटे सरदारों को हराने के बाद वर्तमान हिमाचल प्रदेश में कई किलों पर कब्ज़ा किया, जिनमें से ज्यादातर सोलन जिले में थे। ये किले कभी पहाड़ियों में नेपाली शासन के प्रतीक हुआ करते थे।
किले: कल, आज और कल
कसौली तहसील की बनासर पंचायत में स्थित बनासर का किला गोरखा सेनापति अमर सिंह थापा ने 1806 से 1815 ईसवी के मध्य बनवाया था। आज यह किला रख रखाव के अभाव में नष्ट होने के कगार पर है।
इसी दौरान गोरखा सेनापति ने धारों की धार, जोहड़जी, मलौण और सुबाथू किले का निर्माण भी करवाया था।
सोलन शहर से करीब 18 किलोमीटर दूर ग्राम पंचायत शमरोड़ के ऐतिहासिक गांव धारों की धार में बघाट रियासत के पहले पंवर राजपूत राजा जामवान और रानी जामवंती ने धारों की धार किले का निर्माण करवाया था। यह किला 5 हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित है। धारों की धार किले के जरिए शिमला, कसौली, अर्की, चायल, सिरमौर रियासतों पर नजर रखी जाती थी। पहले आंग्ल-गोरखा युद्ध (1814-1816) के दौरान गोरखों ने भी इस किले का इस्तेमाल किया था, जिस कारण से इसे 'जंग बहादुर गोरखा किला' भी कहा जाता है। लेकिन जंग में अंग्रेज़ी हुकूमत की विजय के बाद से ये किला लावारिस पड़ा है।
1800 ई. में चंदेल राजपूत राजा ईश्वर चन्द नालागढ़ रियासत के राजा थे और मलौण किले पर गोरखों के कब्ज़े से पहले इन्हीं का आधिपत्य हुआ करता था। जब गोरखों और अंग्रेजों के बीच युद्ध हुआ, जिसमें सर डी ओक्टरलोनी ने गोरखों को हराया, इस दौरान अमर सिंह थापा का विश्वसनीय शूरवीर भक्ति थापा युद्ध में मारा गया और गोरखा सैनिकों को मलौण किले पर ही अंग्रेजी सेना के सामने आत्मसमर्पण करना पड़ा। इसी मलौण किले पर ही अंग्रेज़ी फौज की नसीरी रेजिमेंट का गठन किया, जिसमें प्रमुखत: गोरखा सैनिक शामिल किए गए। यही रेजिमेंट आगे चलकर 1st Gorkha Rifles बनी।
सुबाथू का गोरखा किला समुद्र तल से 4,500 फीट की ऊंचाई पर एक छोटी सी पहाड़ी पर स्थित है। किले में 180 वर्ष पुरानी तोपें हैं। ऐसा माना जाता है कि गोरखा सेनापति अमर सिंह थापा ने अंग्रेजों के साथ युद्ध की तैयारी के लिए वर्ष 1900 ई. में इस किले का निर्माण करवाया था। आज यहाँ भारतीय सेना की 14वीं गोरखा राइफल्स का प्रशिक्षण होता है।
जैतक किला सिरमौर के नाहन में जैतक पहाड़ियों में स्थित है। इस किले का निर्माण वर्ष 1810 में गोरखाओं द्वारा नाहन महल पर हमले के बाद किया गया था। ऐसा माना जाता है कि इस किले का निर्माण विध्वस्त नाहन महल के अवशेषों से किया गया है। गोरखा सरदार रणजोर सिंह थापा को किले के निर्माण का श्रेय दिया जाता है। इस किले को 1814 से 1815 के बीच अंग्रेजों और गोरखा सेना के बीच हुए युद्ध का चश्मदीद माना जाता है और कहा जाता है कि नेपाली सेना अंग्रेजों पर जीत हासिल करने में सफल रही थी।
कुमाऊँ का सबसे पुराना गोरखा किला मल्ला महल नामक किला है, जो कि उत्तराखंड के अल्मोडा में स्थित है। 1588 में राजा रुद्र चंद्र द्वारा पत्थर और लकड़ी से निर्मित मल्ला महल एक समय चंद वंश के शासकों का किला था। 1790 में गोरखा शासकों ने चंद राजाओं को हराया और अल्मोडा पर कब्ज़ा कर लिया। लगभग 25 वर्षों तक यह किला गोरखा शासन के अधीन रहा। गोरखा शासनकाल के दौरान इस किले को 'नंदा देवी किले' के नाम से भी जाना जाता था।
वर्ष 1789 में गोरखाओं द्वारा निर्मित, पिथौरागढ किला, पिथौरागढ के बाहरी इलाके में स्थित है। पत्थर से बना यह किला गोरखा वास्तुकला को दर्शाने वाले सबसे महत्वपूर्ण नमूनों में से एक है।
1814 में नालापानी की जंग, जिसे प्रथम आंग्ल-गोरखा युद्ध के रूप में भी जाना जाता है, देहरादून के पास लड़ी गई। इस जंग में केवल 600 गोरखाओं ने 3,000 ब्रिटिश सैनिकों की भारी सेना के खिलाफ खलंगा किले की बहादुरी से रक्षा की। गोरखाओं के अदम्य साहस का प्रतीक यह किला अब एक ऐतिहासिक स्मारक है, जो अब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) की देखरेख में है।
बचाव और रख-रखाव का अभाव
इतिहास गली से गुज़रते हुए हम आज उस पड़ाव पर हैं जब गोरखा सैनिक हमारी भारतीय फौज में दशकों से अपनी सेवाएँ दे रहे हैं और नेपाली मूल के लोग उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश जैसे पड़ोसी राज्यों में रोजगार की तलाश में आते रहे हैं। भारत के राजघरानों के वैवाहिक संबंध आज भी नेपाली शाही परिवार से जुड़ते हैं और परिस्थितियों के अनुसार दोनों देशों के बीच रिश्ता सुधरता बिगड़ता रहता है। लेकिन इस बीच सरकारी उदासीनता का शिकार बने हैं गोरखा किले, जिन्होंने बचाव और रख-रखाव के अभाव का सियासी दंश तो सहा ही है, साथ ही ये किले उस ऐतिहासिक स्मृति से भी अभिशप्त हैं, जो 200 साल से अधिक समय पहले गोरखा सेना के स्थानीय शासकों पर किये हमलों से जुड़ी हैं।
नाहन के पूर्व एमएलए और हिमाचल प्रदेश की सिरमौर रियासत के वंशज कंवर अजय बहादुर सिंह आज जैतक किले के संरक्षक हैं और गोरखा विरासत का अंश होने पर बहुत गर्व महसूस करते हैं। इनका स्पष्ट कहना है, "न तो भारत सरकार और न ही नेपाल सरकार ने इन इमारतों के जीर्णोद्धार पर कोई विचार किया है। अगर राजस्थान में किलों को रिज़ॉर्ट में बदला जा सकता है, और यहां तक कि कांगड़ा किला भी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित है, तो अन्य गोरखा किले इतनी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में क्यों हैं?"
आज धराशायी होने की कगार पर खड़े ये गोरखा किले हमारे एकायामी इतिहासबोध का गवाह हैं, जो केवल स्थानीय और विदेशी जैसे पालों में बांधकर हमारे धरोहरों के प्रति हमारा रुख निर्धारित करता है। हम इन गोरखा किलों के ह्रास पर सिर्फ इसीलिए मौन हैं क्योंकि हमारी बौद्धिकता में प्रतिशोध और सियासी स्थानीयता का प्रभाव अंतर्निहित है। गोरखा मूल के धरोहरों के प्रति हमारी उदासीनता कवि नरेश सक्सेना की कविता 'सीढ़ी' की उन पंक्तियों को चरित्रार्थ करती है, जो कहती हैंः
"मैं किले को जीतना नहीं, उसे ध्वस्त कर देना चाहता हूँ।"