प्रियंवद हमारे समय के अलग किस्म के संजीदा कथाकार हैं, अलग इस मायने में कि अब तक की उनकी लेखकीय यात्रा पर दृष्टि डालें तो हम पायेंगे कि उनकी हर रचना एक अलग धरातल पर विकसित हुई है जहां कथानक, भाषा, भाव, शैली, बिम्ब के स्तर पर वैविध्य तो हैं ही, उनके बौद्धिक चिंतन और हर रचना के ट्रीटमेंट का नज़रिया भी अलग है, जो उन्हें खास बनाता है। अभी हाल ही में प्रकाशित उनका उपन्यास 'एक मृत्यु की प्रतीक्षा में सुनी गयी सिम्फ़नि ' जिस ताने-बाने में बुना गया है, वहां इतिहास, मिथक, बिम्ब और शब्दों की जादूगरी के साथ किस्सागोई का कमाल पाठकों को बहुत देर तक अपने गिरफ्त में बांधे रखता है।

यह उपन्यास मृत्यु और उसकी प्रतीक्षा के बीच की उहापोह का उपन्यास है, उपन्यास का आरंभ 'वह अभी मरे नहीं थे, पर मर रहे थे', इन पंक्तियों से होता है, जहां हम समझ पाते हैं मृत्यु यहां कथानक का अनिवार्य अंग है। मृत्यु जो महज एक शब्द या ध्वनि नहीं शाश्वत सत्य है, इस मृत्यु और जीवन के बीच की डिटेलिंग और डिकोडिंग इस पूरे उपन्यास का सार है। प्रियंवद ने इस उपन्यास को इतिहास, रहस्य और औत्सुक्य के रसायन से गढ़ा है, जहां हर कदम पर पाठक चकित होता है, यहां अतीत और वर्तमान दोनों साथ साथ चलते हैं। कथानक के पात्र संकेत और अपनी विशिष्टता के साथ सामने आते हैं, मसलन वह पुरानी चीजों का दुकानदार, बेकरीवाला, नौजवान, पत्रकार, खसखसी दाढ़ी वाला, धर्मगुरु, हकीम, इतिहास का प्रोफेसर आदि-आदि।

इस उपन्यास का कथानक और पात्र बहुपरतीय हैं, एक तरफ इस उपन्यास में जहां 'वह बनाम राजा' मृत्यु शैय्या पर है और उसे अंतिम विदाई देने उसके करीबीजन (तीन पुरुष दो स्त्रियां, धर्मगुरु, हकीम दोस्त, पड़ोसी सभी) हैं, और इन सबके बीच मृत्यु की प्रतीक्षा में पसरे सन्नाटे के बीच जिस तरह से अतीत और वर्तमान की आवाजाही में घटनाएं और किस्से निकलते जाते हैं वे कथानक को बढ़ाते चलते हैं। इस मृत्यु की प्रतीक्षा के उहापोह के बीच जिस तरह से पात्रों और घटनाओं का विकास होता है वह अनूठा है, क्योंकि हर पात्र का एक किस्सा है जो उस मृत्युरत व्यक्ति से जुड़ा है। इन किस्सों का एक अतीत है, जहां उस पात्र के जीवन के पन्ने बारी बारी खुलते हैं। और उस अतीत का भी एक इतिहास है जहां घटनाएं हैं और इन सबके बीच मृत्यु शैय्या पर पड़े व्यक्ति का जीवन विकास पाता है। मोटे तौर पर उपन्यास का कथानक मृत्यु की लंबी प्रतीक्षा और उसके अंत की बीच की कथा है, जहां बहुत सी घटनाएं और किस्से गुथें हैं।

यहां मृत्यु की प्रतीक्षा, उदासी, संत्रास और कुंठा के बीच परिवेश और वातावरण एक अभिन्न अंग है, पहाड़ी पर बसा खंडहरनुमा किला, उसके नीचे बसा कस्बा। आत्मलीन दार्शनिक की तरह उदास और उनींदा किला, पीड़ा और शोषण के युगों के इतिहास का साक्षी है। प्रियंवद ने यहां परिवेश को जिस तरह से जीवंत और कथा प्रवाह का माध्यम बनाया है वह नया है। क्योंकि डर और घृणा के बीच फंसी मृत्यु को परिवेश और वातावरण जीवंत करते चलते हैं। पुरानी सूखी पपड़ियां हैं,अफीम और ताजे चमड़े की गंध है, ठंडा-उदास और निर्जन आकाश है, रंगीन परिंदे हैं, तिलस्मी आकाशगंगायें, पनचक्कियां, स्लेटी अंधेरा, झरने का गंधक वाला पानी है। यह  सभी कुछ मिलकर एक गाढ़ा तिलस्मी वातावरण तैयार करते हैं; जो इतिहास, मिथक और बिम्ब तीनों एक साथ गढ़ता हैं।

priyamvad
प्रियंवद

प्रियंवद की खासियत है कि वो पूरी बौद्धिक तैयारी के साथ रचना का प्लाट तैयार करते हैं। उनका विज़न कहीं अधिक विस्तृत और गहरा होता है। इस उपन्यास के साथ भी ऐसा ही है। यह मृत्युबोध की दार्शनिकता के बीच ईश्वर-धर्म, पाप-पुण्य, राजनीतिक अराजकता, शोषण, तानाशाही और पतन के अनेकानेक मिथकों और बिम्बों के साथ चलता है। उपन्यास में कस्बे के द्वार पर बेडौल फकीर या फिर बागी मूर्तिकार की गढ़ी शराबी बुढ़िया की वह मूर्ति, जिसके माथे की चार सलवटें हर युग की गवाही हैं, ऐसे मिथकों के रूप में उभरकर आयें हैं जहां तानाशाही और अराजकता के बीच बगा़वत और परिवर्तन की स्पष्ट झलक मिल जाती है। दूसरी ओर तथाकथित तनाशाह की सेवा में धर्मगुरु, हकीम और राजा की कब्र का साजो-सामान, विशेषकर चीते के अंडकोष से बना शक्तिवर्धक तेल, मनुष्य की तीसरी दांयी पसली का चूरा और हजार बिच्छुओं के ज़हर से बनी दवाई, सभी विलासिता और शोषण के युग की गवाही देते दिखाई देते हैं। 

प्रियंवद इस उपन्यास में जिन सामाजिक मिथकों को बुनते हैं उनकी प्रासंगिकता आज से भी कहीं-न-कहीं जोड़ी जा सकती है। मरते हुए व्यक्ति की मृत्यु का तामझाम कहीं-न-कहीं अभिजात्य वर्ग की ओर इशारा करत है। दो सौ साल पुरानी तारीखों का कलेंडर बदलते इतिहास का प्रतिनिधित्व करता है, वहीं जोहान्स वर्मीर की पेंटिंग,परोक्ष रूप से ज्यां पाल मारात की हत्या का दृश्य, विद्रोह और परिवर्तन की ओर इशारा है।सत्ता और इतिहास-परिवर्तन की आहट इस उपन्यास में मृत्यु की सिम्फ़नि के बीच मूक रूप से ध्वनित होती चलती है।

चूंकि इतिहास पर प्रियंवद का महत्वपूर्ण काम और गहरी समझ है, ऐसे में पूरे उपन्यास में इतिहास घूम फिरकर बार बार पाठक से टकराता है। कई जगह तो इतिहास और इंसानों के अंतर्संबंध की नई परिभाषाएं हमें पढ़ने मिलती हैं -"इंसानों से इंसानों की नफ़रत का यह इतिहास सबसे ज्यादा जगह घेरे हुए है। नफ़रत , गुलामी, भूख ,हत्या, लूट, बलात्कारों का छुपाया गया इतिहास ही असली इतिहास है, जिसे कोई नहीं लिखता।" या फिर " 'इस तरह सम्पूर्ण को समेटने वाली चीखें इतिहास में बहुत कम हुयी हैं।" इतना ही नहीं सत्ता और धर्म से जनता की टकराहट के ऐतिहासिक बिम्ब भी प्रियंवद ने खूब गढ़े हैं, जहां धर्म की किताबों, पुरोहितों, पंडितों और मुल्लों पर करारा कटाक्ष है, साथ ही धरती को इनसे मुक्त कराने की अपील भी है।उपन्यास के आरंभ में ही फकीर के प्रसंग में "राजमुकुट सर बदलते रहते हैं" का उद्घोष और "जिंदगी में सिर्फ एक ही बात के लिए ताली बजायी जा सकती है वह है आजादी!" का सूत्र इस उपन्यास को रीड बिटवीन द लाइंस की तरफ ले जाता है, जहां मृत्यु की सिम्फ़नि के बीच भी बहुत सी बातें छिपी हैं जिन्हें पाठक को डिकोड करना है।

यह उपन्यास मृत्यु की आहट और प्रतीक्षा और उसके बीच फंसे लोगों की कथा है। यहां मृत्यु का दर्शन भले ही न हो, मगर मृत्यु की प्रतीक्षा, ऊब ,पीड़ा, संत्रास और कुंठा सभी भाव सामने आते हैं; जिन्हें किस्सागोई के जरिए लेखक उभारता चलता है। ये किस्से दर्शन न सही मगर दार्शनिक सवालों के जवाब के मानिंद जरूर लगते हैं। इससे पहले मृत्यु बोध को हम अज्ञेय और निर्मल वर्मा के यहां भी देख चुके हैं, मगर इस संदर्भ में प्रियंवद यहां थोड़ा अतिक्रमण कर जाते हैं, वे मिथकों और बिम्बों को इतिहास, सामाजिकता, तर्क और किस्सों का लबादा उढ़ाकर मृत्युबोध का एक अलग नज़रिया विकसित करते हैं जो इस उपन्यास को रहस्यात्मक और दिलचस्प दोनों बनाता है। 

गौरतलब तो यह है कि इस पूरे उपन्यास में मृत्यु की सिम्फ़नि ध्वनित होती चलती है, पाठक सीधे उससे नहीं टकराता। यह सिम्फ़नि हमें लोगों और परिजनों की भीड़ के बीच मृत्यु के तामझाम के बीच सुनायी देती है जो कहीं न कहीं आकर्षित करती है,और उपन्यास को एक प्रवाह देती है।

प्रियंवद की लेखन शैली यहां कायल करती है। शब्दों की जादूगरी, बिम्बों और मिथकों का चमत्कार साथ ही मनुष्य, प्रकृति और आसपास के परिवेश का एक दूसरे के साथ गुम्फन उनकी लेखनी की धार और रचनात्मक कौशल की ओर बखूबी इशारा है। यहां बिम्ब सजीव हैं, पाठक के मन में वे दृश्यों की तरह तैरते हैं - "रात उतर आयी थी। कमरे के अंदर पता नहीं चल पा रहा था पर बाहर गीला और गाढ़ा कोहरा पेड़ों और घरों की मुंडेरों पर पंजे जमा कर उतरने लगा था......." इस उपन्यास के शिल्प की एक खूबी और है कि यहां रूपक, बिम्ब और प्रतीक कविता की मानिंद झंकृत होते हैं, उनमें भी एक ध्वनि है ।

इस उपन्यास को पढ़ते हुए टॉल्स्टॉय की रचना 'इवान इलिच की मृत्यु ' की याद आती है। इस उपन्यास में भी मृत्यु, उसकी प्रतीक्षा और पीड़ा की कहानी हैं। दोनों रचनाओं में अद्भुत साम्य है कि मृत्यु शैय्या पर पड़े दोनों व्यक्ति अभिजात वर्ग के प्रतिनिधि हैं। दोनों में दंभ हैं, दोनों ने भरपूर जीवन जिया और दोनों ने एक पर्याप्त समय तक मृत्यु की प्रतीक्षा की। हालांकि टाल्सटाय का उपन्यास जहां मृत्यु के साथ उलझाव,उसकी प्रतीक्षा और यथार्थवादी दृष्टिकोण लेकर चलता है, वहीं प्रियंवद अपने यहां मृत्यु की प्रतीक्षा के बीच बहुत से अन्य किस्सों को गुंफित करते चलते हैं। यहां मृत्यु यथार्थ तो है मगर इतिहास और मिथक की जुगलबंदी इसे भिन्न धरातल देते हैं। एक बात और टॉल्स्टॉय अपने उपन्यास के पात्र को उसकी खूबियों और खामियों के साथ विकसित करते हुए मृत्यु शैय्या तक ले जाते हैं, मगर प्रियंवद मृत्यु शैय्या पर पड़े पात्र का चरित्र दर्शक दीर्घा में बैठे उसके करीबियों के हवाले से पर्त दर पर्त खोलते हैं। दर्शन, यथार्थ और इतिहास यहां कलेवर जरूर भिन्न करते हैं लेकिन दोनों उपन्यासों में मृत्यु की प्रतीक्षा एक बराबर देखी जा सकती है।

मृत्यु की आहट पर लिखा टॉल्स्टॉय का उपन्यास उनके आत्म-संदेह और आध्यात्मिक उथल पुथल और जीवन के अंतिम वर्षों की परिणति के रूप में सामने आता है, मगर प्रियंवद द्वारा ऐसे विषय पर उपन्यास लिखना कई सवाल उठाता है? क्या उनके द्वारा मृत्यु जैसा विषय चुनना विश्वव्यापी कोरोना महामारी और उसके उत्पन्न मृत्यु के भय की उपज के रूप में आया है। और यह तथ्य भी विचारणीय है।

साहित्य और सिनेमा एक दूसरे के पूरक हैं, प्रियंवद के इस  उपन्यास को पढ़ते हुए जो बिम्ब उभरते हैं, जिस नाटकीय प्रतीक्षा का मंचन इस उपन्यास में है वो 'Whoes Life Is It Anyway'(1981), 'The sea Inside'(2004) और 'रामप्रसाद की तेरहवीं ' जैसी फिल्मों की याद दिलाते हैं। 

हालांकि 'Whoes Life Is It Anyway','The Sea Inside', 'Me Before You' और 'गुज़ारिश' ये सभी फिल्में 'इच्छामृत्यु' के कांसेप्ट पर आधारित हैं मगर मृत्यु शैय्या पर पड़े पात्र की पीड़ा, उसकी ऊब, नीरसता, मृत्यु की आहट और लंबी प्रतीक्षा के बिम्ब कहीं- न- कहीं इस उपन्यास को पढ़ते हुए सामने तैरते हैं और हम उपन्यास से और गहरे जुड़ पाते हैं। बढ़िया इत्तेफ़ाक है कि उपन्यास और फिल्म 'रामप्रसाद की तेरहवीं ' में अद्भुत साम्य दिखाई देता है, मसलन दोनों जगह जो मृत्यु की प्रतीक्षा में एक दर्शक दीर्घा बैठी हुई है, जिनमें कुछ परिवारजन हैं तो कुछ आस पास के मित्र या पड़ोसी, मगर मजेदार बात यह कि दोनों जगह मर रहे या मर चुके पात्र के बीते जीवन पर उपस्थित हर व्यक्ति की एक मुक्कमल कहानी है, जिसे वो अपने हिसाब से नरेट करता चलता है। 

इसका शीर्षक पढ़ते ही मन में कौतुक जगता है 'एक मृत्यु की प्रतीक्षा में सुनी गयी सिम्फ़नि' आद्योपांत उपन्यास में बहती रहती है, मगर सवाल उठता है 'सिम्फ़नि' ही क्यों? कुछ और क्यों नहीं? हम जानते हैं प्रियंवद के लेखन और चिन्तन का विज़न बहुत विस्तृत है। बहुत संभव है मृत्यु के संदर्भ में 'सिम्फ़नि' की अवधारणा उन्होंने कुछ विशेष कारणों से गढ़ी हो। बहरहाल शाब्दिक तौर पर देखें तो 'सिम्फ़नि' ग्रीक शब्द 'सिंफोनिया' से बना है ,जिसका अर्थ 'एक साथ ध्वनि करना' होता है। हो सकता 'आह' जो जीवन की अंतिम सिम्फ़नि है, उसके विपरीत उठी कुछ दबी सिसकियां, जो बाद में मृत्यु के समवेत रूदन में बदल गईं, इसी परिप्रेक्ष्य में प्रियंवद ने यह शब्द लिया हो।

प्रियंवद इस उपन्यास में पात्रों की तरह ही देश-काल और समय पर कहीं स्पष्ट नहीं होते मगर कथानक के सूत्र हमें 18वीं सदी के मध्य और 19वीं सदी की ओर ले जाते हैं।उस समय तक 'सिम्फ़नि' शब्द ऑर्केस्ट्रा लिए लिखी गई संगीत रचना के लिए रूढ़ हो चुका था।इसी संदर्भ में हम बोहेमियन संगीतकार 'गुस्ताव महलर' को याद कर सकते हैं, उन्होंने प्रेम से लेकर विनाश तक को संगीत में उड़ेल दिया था। यह ऑर्केस्ट्रा का दौर था। उन्होंने कुल नौ सिम्फ़नीज़ की रचना की थी। उनकी सिम्फ़नि नं-9 ब्रह्मांडीय पैमाने पर जीवन और मृत्यु पर विचार करती है। यह मृत्यु के साथ टकराव और पीड़ा की भी ध्वनि है, इसी कारण इसे 'मृत्यु की सिम्फ़नि' भी कहा जाता है। हो सकता है इस उपन्यास के शीर्षक के सूत्र यहां से जुड़ते हों‌

एक पाठक के तौर पर इस उपन्यास को पढ़ते हुए पात्रों और समयकाल की अस्पष्टता थोड़ा व्यवधान अवश्य उत्पन्न करती है, जिस कारण कहीं -कहीं सब कुछ गड्ड-मड्ड सा लगता है। प्रियंवद के यहां स्त्री पात्रों को स्पेस कम मिलता है, इस उपन्यास में भी यह देखा जा सकता है। बावजूद इसके प्रियंवद के शिल्प की कारीगरी और शब्दों की जादूगरी, कहीं से भी उपन्यास को बोझिल नहीं होने देते। पाठक मृत्यु की प्रतीक्षा की सिम्फ़नि में डूबते-उतराते किनारे तक आ ही जाता है।

प्रकाशक- संवाद प्रकाशन, मेरठ
मूल्य- 200 रुपये.