जो मैं कहने जा रही हूं, उस पर खुद यकीन नहीं हो रहा। क्या वाकई मैंने सपने देखने बंद कर दिए! मैं तो खुद को ऐसा रचनाकार मानती थी जो सत्य को स्वप्न सा लचीला मान, कुछ अन्य संवेदनशील रचनाकारों की मदद से, निर्मम को सहृदय बनाने की कुव्वत रखता था। कम से कम पुख्ता यकीन तो था ही कि हम सब रचनाकार मिल कर ऐसा कर सकेंगे।
सच तो यह है कि पाठकों में संवेदना जगाकर, एक से अनेक तक जाकर, यह काम हम लोग कर भी चुके थे कई बार। फिर ऐसा वक्त आया कि खुद मुल्क के निर्वाचित रहबरों ने यथार्थ को भयावह दुस्वप्न बना डाला। वह भी कानूनन।अध्यादेश जारी किया और कानून को जंजीर से बांध पालतू या फ़ालतू बना दिया।
यह सच तो हम आप सब जानते हैं कि चाहे कितने भी रचनाकार और पाठक मिल कर सपना देखें, कानून की मदद बिना उसे साकार नहीं किया जा सकता।
काफी दिन पहले से मैं कहती रही हूं कि, जब तानाशाह किसी मुल्क पर आरोपित किया जाए तो देर- सबेर उसके विरुद्ध क्रांति की आशा की जा सकती है। पर जब किसी हिटलर या ट्रंप या अन्य साहबेआलम को, वोट दे कर बाकायदा चुनाव में जिताया जाता है। तमाम अख्तियार थमा दिए जाते हैं, जो सिर्फ तानाशाह के पास होते हैं, तो किस्सा तमाम हो जाता है।
उसे हटा कर दुबारा लोकतंत्र बहाल करना, लगभग नामुमकिन होता है। इसलिए कि कुछ प्रतिशत नागरिक हमेशा उसके पक्ष में रहते ही हैं। दरअसल उन्हें उसके सत्ता में बने रहने से फायदा पहुंचता है। चूंकि वे ज्यादातर अमीर उमरा होते हैं और प्रतिपक्ष गरीब जनता, तो इनके 100 मिल कर भी उनके एक के बराबर नहीं हो पाते।
तुर्रा यह कि वोट ई. वी. एम मशीन गिने! तब तो 100 के 1000 यूं ही हो जाने वाले हुए। यानी सत्ता की बरसों-बरस पौ-बारह। तो सपने देखने बंद! अजी कहां।
दो दिन नहीं गुज़रे नाउम्मीदी में कि सपने देखने की अलामात या भली-सी आदत वापस आ बिराजी पलकों पर।
आप जानते ही हैं, लेखक वह बला है कि एक पतली सी किताब लिखता है तो उसकी दुंदुभी पिटने के लाख सपने आंखों में संजो लेता है। झूठ क्यों कहे, एक ज़माने में हम भी कर चुके यह गुस्ताखी। हुआ यह कि दुंदुभी के बजाय खुद पीट दिए गए, इसी एकतरफा कानून का सहारा ले कर। पर हम भी ज़िद के पक्के थे। सपने देखने से बाज़ न आए।
पर आजकल किताब के लिए सपने कतई नहीं देखते। देश के हालात इजाज़त नहीं देते। ठीक है बकौल सलमान रुश्दी आप कविता में सच कह सकते हैं, उपन्यास में झूठ का पर्दाफाश कर सकते हैं। ज़रूर हुज़ूर, बशर्ते आपकी तरह हम दूर देश में सुरक्षित बैठे हों। इस देश की सत्ता द्वारा जारी एकतरफ़ा कानून की जद के बाहर,अपने सुरक्षा घेरे में मौज मनाते हुए।
छोड़िए जनाब। आप को तो जो करना था और झेलना था, पूरा करके सरकारी सुरक्षा में, कुछ नुकसान उठा बाहर निकल आए। अपनी शोहरत और सेहत बरकरार रख अब गर्दन तान कर जी सकते हैं और ज्ञान बाँट सकते हैं। वैसे ज्ञान बांटने वालों की अपने मुल्क में कमी नहीं है। यह हमारा राष्ट्रीय खेल है। बंधु की मृत्यु हो या आपकी अपनी बीमारी, वे विस्तार से आपको सलाह देने से गुरेज नहीं करते। न मानें तो खरी खोटी सुनाने से बाज़ नही आते। इनमें रचनाकार भी शामिल रहते हैं। सिर्फ किताब कैसे लिखें बतलाने तक सीमित नहीं रहते।
पर यह उनका प्रमुख धंधा नहीं है। प्रमुख रूप से तो वह अपनी लिखी किताब के सबसे बड़े प्रचारक और प्रशंसक होते हैं। दिक्कत तो आज, देश के हालात पैदा करते हैं। आज हम किसी को अपनी किताब को सपना बनाते देखते हैं तो हंसी और रोना दोनों आता हैं।
जुनून में आ कर किताब लिख मारी यह तो समझ में आता है। पर यह कैसा जुनून है कि आज के माहौल से पूरी तरह बेनियाज़, आंखें पूरी खोल सोए जा रहे हैं गहरी नींद। इतनी गहरी कि सपने भी आ रहे हैं, मुल्क को छोड़, सिर्फ़ अपनी पिछली, अगली, आज की किताब के।
यही नहीं, आजकल हिंदी के लेखकों को एक नया शौक चर्राया है। ए.आई का ग्रोक छाया है न चारों ओर। उससे किसी दिमागी उलझन सुलझाने में या ऐतिहासिक तथ्य की पड़ताल में सलाह नहीं मांगते। वह तो समझ में आता है। पहले जो शिक्षक या विचारक से पूछते थे, अब ग्रोक से पूछ लो। नया नकोर मुफ्त का सलाहकार जो दिलवा दिया इलोन मस्क ने।
पर वे पूछते हैं तो क्या पूछते हैं, खालिस अपने बारे में। ग्रोक बेचारा एक्स पर पढ़ा मसाला एकत्र करता है। उसे ए.आई की तकनीक से सिलसिलेवार बना कर उन्हें थमा देता है। वे गदगद होकर उसे सोशल मीडिया पर शेयर करने लगते हैं। सोशल मीडिया से वापस सोशल मीडिया तलक। वाह भई वाह। चक्राकार समय का क्या उत्तम उत्पाद करते हैं। रचनाकार ठहरे। उन्हें मतलब अपनी तारीफ़ करवाने से है। मानुष करे या उनके ही बयानात का चूरमा परोस कर ए.आई का पुरोधा ग्रोक! आत्म मुग्धता से बड़ा कोई सपना नहीं होता, रचनाकार की ख्याली दुनिया में।
उतनी रईसी हमने कभी न की तो अब क्या खा कर करेंगे, जब खाने के लाले पड़े हुए हैं।अब साहब जुनूनी कितने भी हों, ज़मीर दिमाग़ को पटकनी देना नहीं छोड़ता।
इस रचनाकार का तो अब एक ही सपना है। यह जो न्यायालय नाम की चिड़िया है, जिसके डैने अब तक पूरे काटे नहीं गए हैं, रचनाकार किस्म के जुनून या तैश में आ जाए और अपनी संवैधानिक औकात दिखला दे। एक झटके में ई.वी.एम मशीन से वोट गिनने को कानूनन खारिज कर दे! दो कदम और आगे बढ़े। धार्मिक उन्माद फैलाने वाले संविधान के खिलाफ़ फैसलों को भी खारिज कर दे।
उसके बाद, फटेहाल आम जन ही नहीं, भरपेट न सही, आधा-पौना पेट भरने वाला मध्य वर्ग भी लोकतंत्र बहाली के पक्ष में वोट डालने पर आमादा हो जाएं। और तब, इस डर से आंख बंद रखने को मजबूर हम, कि अपनी गफलत झूठी न साबित हो जाए, सहमे-सकुचाए आँखें खोलें।
और अल्लाह या भगवान का करम। देखें तो क्या देखें कि हज़ारों हज़ार लोग वही सपना देख रहे हैं जो हम डर-डर कर देख रहे थे।
जब इतने इतने वोटर एक ही स्वप्न देखते हैं तो वह, रचनाकार की कसम, पूरा हो कर रहता है। यानी हमारा यह स्वप्न जो हमने बतौर रचनाकार ही नहीं, बतौर नागरिक देखा, पूरा हो सकता है? क्या हम दुबारा किताब लिख कर सुखी होने का स्वप्न देख सकते हैं?
समझ लीजिए कि यह इस रचनाकार का अंतिम स्वप्न है, जो तभी देखा जा सकता है,जब हालिया सपना पूरा हो।
क्या पूरी शिद्दत से उसकी चाहना करने पर, वह इन नाचीज़ हाथों में आ समाएगा। हां ज़रूर।
बुद्ध ने कहा था, जो सचमुच चाहते हो अवश्य पा सकते हो। पर चाहना पूरे मनोबल से पड़ेगा।
तब क्या दुबारा ऐसा समय आएगा जब हम रचनाकार, एक बड़े समुदाय में संवेदना जगाने का काम कर सकेंगे। उन्हें लोकतंत्र के सिद्धांतों की हिफ़ाज़त करने में मुब्तिला कर सकेंगे। लेखन और कुछ करे न करे, लोगों का सोच बदलने का काम ज़रूर कर सकता है। बशर्ते वे सोचना बंद करके व्यवस्था या सत्ता या किसी के एकल अधिकार के अंधभक्त न बन चुके हों। क्या अफ्रीकन देशों की तरह, हमारा स्वाभिमान भी जगेगा और हमारा नेता और हम, हर बाहरी तानाशाही हस्तक्षेप से लड़ मरने को तैयार हो जाएंगे। तब वह वाकई हमारा नेता होगा और हर रचनाकार उसका पैरोकार। बस यही है इस रचनाकार का स्वप्न।