यही है जिंदगी कुछ ख्वाब चंद उम्मीदें,
इन्हीं खिलौनों से तुम भी बहल सको तो चलो!
निदा फाज़ली
कोई भी रचनाकार स्मृति का पाथेय लेकर यथार्थ के सुरंग में घुसता है और सुरंग के पार झिलमिलाते सपनों की रोशनी देखता है - आगे बढ़ता जाता है। यही स्वप्न उसे हौसला देता है- बढ़ते जाने का। यथार्थ की अंधेरी सुरंग, जो चट्टानों से बनी होती है, उनसे टकराता ,लहुलुहान होता है। जब हिम्मत हारने लगता है तो यही सुरंग पार की रोशनी कहती है - बढ़े चलो। रचनाएं भी तभी बड़ी रचना बन पाती है जब उनमें सपनों की ज्योतिरेख झिलमिलाती है। संभवतः मनुष्य में ही सपने देखने की सलाहियत है क्योंकि अभी तक पशुओं के स्वप्न देखने को लेकर कोई अनुमान या शोध सामने नहीं आया है।
पिकासो की गुएरनिका को देखें तो यह युद्ध की विभीषिका को दर्शाने वाली पेंटिंग है, जो हमें अंदर तक हिला देती है। लेकिन इसके पीछे एक युद्ध विहीन वैकल्पिक दुनिया का स्वप्न मुस्कुराता है। यही रचनाकार की शक्ति है। यूं तो अधिकतर सपने व्यक्तिगत रूप से देखे जाते हैं पर कुछ साझा सपने भी होते हैं। स्वतंत्रता आंदोलन के शिल्पकारों का साझा स्वप्न था- देश को स्वतंत्र देखना। पूरा भी हुआ। लेकिन जब सुरंग के पार पहुंचे तो रोशनी थोड़ी और दूर लगने लगी, जिसके बारे में फैज ने कहा था -
'ये दाग़ दाग़ उजाला ये शबगज़ीदा सहर/
वो इंतिज़ार था जिसका ये वो सहर तो नहींं!'
जिनका सपना सत्तासुख हासिल करना था उनके सपने तो पूरे हो गए, लेकिन जो मनुष्यों के बीच आर्थिक सामाजिक समानता का स्वप्न लेकर चले थे, उनकी मंजिल तो अब भी दूर थी। बतौर रचनाकार हम उस स्वप्नभंग की पीड़ा को महसूस कर सकते थे। स्वप्न के साथ-साथ स्वप्नभंग भी लगा रहता है, जैसे उसका जुड़वाँ भाई हो। इब्ने इंशा कहते हैं -
'वो रातें चांद के साथ गईं, वो बातें चांद के साथ गईं।
अब सुख के सपने क्या देखें, जब दुख का सूरज सर पर हो?'
दुख का सूरज सर पर तो जरुर था, लेकिन एक विराट स्वप्न की घनी छांव भी महसूस हो रही थी उस समय तक। रचनाकार को विश्वास था कि वो सुबह कभी तो आएगी -बंटवारे का दंश, आर्थिक सामाजिक गैरबराबरी, हिंसा, भ्रष्टाचार- यह सब राष्ट्र के पुनर्निर्माण के साथ साथ ही चल रहे थे। तभी तो रचनाकार चीख कर कह रहा है- 'एक आदमी रोटी बेलता है/ एक आदमी रोटी खाता है /एक तीसरा आदमी भी है जो ना रोटी बेलता है, ना रोटी खाता है/ वह रोटी से खेलता है /मैं पूछता हूं - यह तीसरा आदमी कौन है? इस पर मेरे देश की संसद मौन है।'
रचनाकार टूटे- दरके सपनों की कथा कहता है। लेकिन इसी चीख के पीछे एक वैकल्पिक सुंदर दुनिया की चाहत का स्वप्न भी झांकता है। एक रचनाकार के रूप में सपनों का एहसास उस उम्र में हुआ जब धरती को धकेलते हुए चलते थे। नुक्कड़ नाटक करने वाले कुछ संगी साथी जुट गए थे, जो नुक्कड़ की दुकान पर साथ चाय पीते हुए दुनिया को बदल देने का स्वप्न देखते थे और न सिर्फ देखते बल्कि पुरज़ोर यकीन भी करते थे। अस्सी के दशक का उत्तरार्द्ध था यह और अपने आसपास की चीजों से नाइत्तफाकी बढ़ती जा रही थी। होटलों ढाबों में काम करते हुऎ बच्चे, भागलपुर के सैंडिस कंपाउंड में घर जाने से शायद डरते, देर देर तक टहलने वाले उपेक्षित बूढ़े, शोहदों से छेड़े जाने के डर से झुंड में चलती सहमी सी लड़कियां, गर्मी की भरी दोपहरी में रिक्शा खींचते अधेड़- लगता था कि कोई तो ऐसी दुनिया हो जहाँ इनको मनचाहे ढंग से जीने का मौका मिले।
और फिर 1989 में घटित हुआ भागलपुर का कुख्यात दंगा- जिसके बाद शहर वैसा नहीं रह गया, पहले जैसा था। वैसे ज़हरआलूदा हवायें तो पहले से ही चल रही थी। लेकिन इंसानियत को तार-तार होते देखकर कहीं ना कहीं सारे सपने दरक गए थे बुरी तरह। दंगा पीड़ित गांवों की जली हुई झोपड़ियां, वो कुख्यात गोभी के खेत जहाँ लाशों को गाड़कर ऊपर से गोभी रोप दी गई थी, डरे सहमें यतीम बच्चे जिनकी आंखों में खौफ की वीरानगी बस गई थी जैसे - बतौर रचनाकार हम यह सपना देखने लगे कि शायद हम उनकी जिंदगी बदलने के लिए कुछ कर सकें। कुछ नहीं तो कम से कम चंद लफ्ज़ों का मरहम ही रख सके।
सांप्रदायिकता का उद्दाम नग्न नृत्य जारी था। एक साथ उठने बैठने वाले लोगों के बीच दरार आ गई थी। दूसरी तरफ बाजार के क्रूर रथचक्र के नीचे लोग पिसे जा रहे थे। साधारण सीधे सादे लोगों को जीने के लिए अमानुषिक श्रम करते देख लगता था कि ये एक असमान और असमाप्त लड़ाई लड़ रहे हैं, जिसमें इनकी हार निश्चित है। बाजार उनकी आंखों में एक ऐसा सपना भर रहा था, जिसके चाकचिक्य में सुकून की नींद नहीं, बेचैन चौंधियाहट भरने वाली थी। बराबरी का विराट स्वप्न कहीं कोने में रो रहा था। पूंजी का हाहाकारी सर्वग्राशी रूप किसी उन्मत्त कापालिक की भांति उद्दाम नर्तन कर रहा था। यह सारी भूमिका उन अच्छे दिनों की बन रही थी, जिसमें धार्मिक उन्माद, अपराध और पूंजी का गठजोड़ मिलकर राज्यसत्ता पर काबिज़ होकर कॉरपोरेट राज्य की, क्रॉनी कैपिटलिज़्म की बुनियाद मजबूत करने के लिए काम करने की दिशा में कदम बढ़ा चुके थे। इस यज्ञ के होत्र बने राजनीति के छली बली और चारण बना मीडिया, जो इस तंत्र की प्रशंसा में मंत्र पाठ में जुटा था। सभी प्रकार के मूल्यों को तिलांजलि देने का समय था। मनुष्य के जीवन पर ,उसके मन मस्तिष्क पर ,सोच विचार, सपनों तक पर कब्जा करने की सारी योजनाएं सफलीभूत हो रही थी।
ऐसे में रचनाकार स्वप्नभंग की अवस्था से निकलकर सपनों को रीओरियंट करने की कोशिश ही तो कर सकता था। सपनों के वायुमंडल में दिनानुदिन बढ़ते जा रहे ओजोन छिद्र की मरम्मत करके फिर से एक नया सपना बुनने का प्रयास ही कर सकता है। यूटोपिया से ज्यादा डिस्टोपिया लुभाने लगा था। पल -पल बदलता यथार्थ हाथ से जैसे फिसल फिसल जाता है। कल्पना जब तक जीवन को समझने की कोशिश करें, तब तक स्थितियां बहुत बदल गई रहती हैं। फोकस डिफोकस के इस खेल में रचनाकार बार-बार स्वप्नभंग का शिकार होता रहता है।
छल इस समय का बीज शब्द बन गया है। अपराध-धर्म- पूंजी- राजसत्ता के इस कॉकटेल का नशा आमजन की चेतना पर इस कदर तारी है कि छल को छल नहीं समझता है। रचनाकार अपनी रचना में बार-बार इस छली समय को डिकोड करके, सारी धुंध को हटाकर, लुकछिप करने वाले यथार्थ को समझने और एक बेहतर सुंदर दुनिया का स्वप्न, लोगों की आंखों में रोपने का उपक्रम करता रहता है।
छोटे-छोटे शहरों में उगते माॅल, जो बाजार के आधुनिक मंदिर है, टूट-टूट पड़ती हुई पागल भीड़ उनमें, जैसे चीजे़ं मुफ्त मिल रही हो-यह नया पैदा हुआ मध्य वर्ग था। जिसके कपड़े ,चीज़ें ,सपने तक डिजाइनर थे। बाजार उनकी सारी मुख्तलिफ पहचानों को मिटा कर एक बड़े से खरल मूसल में पीसकर कस्टमर पैदा कर रहा था, जिनका ध्येय था- उपभोग, असीमित उपभोग। सीधा सादा होना, महत्वकांक्षी नहीं होना, ऐसे मूल्य बन गए थे जो पिछड़ेपन की निशानी थे। हर चीज में स्मार्ट पदबंध लगाकर उसके पूरे डीएनए को बदला जा रहा था।
भोग की लेलिहान लपट में जब रिश्ते नाते, पुराने चिरंतन मूल्य सब स्वाहा हो रहे थे तो रचनाकार का स्वप्न बहुत ही धूसर, चमकरहित, सीधी सरल दुनिया बनाने का ही था, जिसमें अधिसंख्य की रुचि नहीं थी। लेकिन रचनाकार तो तमाम चमकीली दृश्यावलियों के पीछे का जो अंधकार है गहन- जो समय की आहटें हैं, जो चुप चीखें हैं, सुगबुगाहटें हैं, उन्हें सुनने का जतन करता रहता है। एक अलग फ्रीक्वेंसी पर उसके कान सेट होते हैं। अनसुनी आवाज़ों को, हाशिये पर के लोगों की गूंगी रुलाई को सुनने के अभ्यस्त होते हैं कान उसके। बहुसंख्य उपभोक्ताओं के चमकीले स्वप्न से अलग स्वप्न देखने का अभ्यास करता है। एक ऐसा स्वप्न, जिसमें हर तबके की शमूलियात हो।
रचनाकार की हैसियत से समय समाज की समीक्षा करते हुए सपनों के रंग भी बदलते गये - काम पर जाते हुऎ बच्चों के हाथों में किताबें थमाने का स्वप्न, अल्पसंख्यकों के मन में व्याप्त भय को दूर करने का स्वप्न, दलितों को मानवीय गरिमा के साथ जीने की इज्जतआफजाई का स्वप्न, आदिवासियों के हृदय में फौजी बूटों की धमक को हमेशा के लिए हटा देने का सपना, न्याय पर आधारित समाज बनाने का स्वप्न जिसमें बिना सुनवाई के नौजवानों को लंबे समय तक जेल में नहीं रखा जा सके, प्रेम में सर्वस्व दे देने और प्रेमिल दुनिया बनाने का स्वप्न, स्त्रियों के मन से पितृसत्ता की हनक को मिटा देने का सपना, श्लथ पड़े हाथों को काम देने का स्वप्न, विश्व गुरु बनने, विकसित देश बनाने जैसे तमाम छल छद्मों की दीवारें गिरा देने का स्वप्न, ज़ाॅम्बी में परिणत हो गये युवा वर्ग की आंखों से जहालत के परदे नोच डालने का स्वप्न, घरमुंहा बैल की तरह बार-बार इतिहास की तरफ दौड़ लगाने से रोकने का स्वप्न ( जिसमें कहा जा सके कि आँखें सामने इसलिए हैं कि आगे भविष्य को देखा जा सके) कृत्रिम मेधा को मानव मेधा पर तरजीह नहीं देने का स्वप्न (हालांकि अच्छी बात ये है कि कृत्रिम मेधा में अभी सपने देखने की शक्ति नहीं है) युद्धविहीन दुनिया का स्वप्न - इस तरह के बहुत सारे सपनों से अभी भी आबाद है मेरे अंदर के रचनाकार का अंतरिक्ष। जैसा कि ब्रेख्त से किसी ने पूछा था -'अंधेरा घना है, ऐसे में गीत कैसे गाए जाएंगे?' तो कहा था ब्रेख्त ने कि 'अंधेरे समय मेंं, अंधेरों के गीत गाए जाएंगे।' सपने देखे जाते रहेेंगे, टूटते रहेेंगे, स्वप्न दु:स्वप्नों में बदलते रहेेंगे, स्वप्नभंग भी होते रहेेंगे लेकिन रचनाकार स्वप्न देखना तो नहीं छोड़ सकता है न। राजेश रेड्डी का एक शेर है कि -
'रोज़ इन आंखों के सपने टूट जाते हैं तो क्या,
रोज इन आंखों में सपने सजाना चाहिए!'
अपने भयप्रद उपकरणों- मीडिया, सोशल मीडिया, राजसत्ता सब भय का माहौल ऐसा बनाएंगे कि स्वप्न देखने में भी भय लगे। लेकिन रचनाकार तो ऐसी दुनिया बनाने ही निकला है, जहां किसी प्रकार का भय ना हो। मानव को मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार मिले और ऐसा सपना देखा जाता रहेगा जब तक सभ्यता है । कविगुरु के शब्दों में-
हो चित्त जहां भय शून्य ,माथ हो उन्नत।
'हो ज्ञान जहां पर मुक्त, खुला यह जग हो।'
ऐसी ही दुनिया की प्रतीक्षा में रहते है हम रचनाकार।