लड़का

 मैं उस से मिल कर लौट रहा हूँ। हाँ, उसी से जिस से मिलना मेरे जीवन की कभी न भूलने वाली घटना हुआ करती थी। मुझे हर वह तारीख़ याद है मय हर घटना के जब हम मिले।  कैमरा की नज़र से पकड़ा जा सकता तो हमारी मुलाक़ातें किसी रूमानी फ़िल्म से भी अधिक रूमानी होतीं। ऐसा रूमान जो जीवन में जब चला आता है तो किसी ख़्वाब से कम मालूम नहीं पड़ता और जब चला जाता है तब ज़िंदगी वीरान लगती है, दमघोंटू वीरानी जिसकी वजह मालूम होते हुए भी हम उस वजह को ख़त्म करने के लिए कुछ नहीं कर पाते।  

 पहले हम अक्सर मिलते थे। यह ‘अक्सर’ महीने में दो बार भी हो सकता था और दो बार से ज़्यादा भी। अलग-अलग शहरों में रहकर भी इतना मिल पाना हमारे लिए हासिल से कम नहीं होता। हम दोनों एक-दूसरे से मिलने का बहाना खोजते। अक्सर हमें कोई बहाना नहीं मिलता और हम बग़ैर बहाने के मिलते। एक-दूसरे से मिलने के लिए हम सैकड़ों मीलों की दूरी क़दम भर की दूरी की तरह नाप लेते। कभी-कभी तो वह मिलना एक-दूसरे को देखना भर होता। किसी को देखना भी अपने आप में कैसी मुकम्मल घटना होती है यह उसे देखकर ही मैंने जाना था। कितनी ही बार ऐसा हुआ कि हमने भागती भीड़ में पलकों की ओट से छूकर एक-दूसरे को विदा दे दी। बात करने तक का समय नहीं मिला लेकिन उन मुलाक़ातों का महत्त्व उन मुलाक़ातों से क़तई कम नहीं है जब हम कमरे के निबिड़ मुलायम अँधेरे में घंटों एक-दूसरे से लिपटे रहते थे। 

 एक-दूसरे के साथ की ख्वाहिश इतनी तीव्र होती थी कि मैं बस में बैठकर उसे उसके शहर तक छोड़ने जाता और अगली बस से लौट आता। सोलह घंटों के निरंतर सफ़र के बाद शरीर थकान से ग़ाफ़िल हो जाता पर मन किसी गहरे सुख में डूबा रहता। गड्ढों से पटी सड़कों पर धँसते-उतराते हमारे जिस्म टूट जाते पर हमारी आत्माएँ चमकीले स्वर में सुरीला गीत गातीं।  जब तक हम साथ रहे यह नियम नहीं टूटा बल्कि साथ छूटने पर पर भी मैंने यह नियम बनाये रखने की कोशिश की। कह देने से, मान लेने से क्या दो लोग अलग हो जाते हैं? प्रेम क्या कोई सख़्त चीज़ है जिसे बीच से तोड़कर दो हिस्से कर दिये जायें, कभी न जुड़ने के लिए? प्रेम मुझे इलेक्ट्रोमैग्नेटिक वेव्स से भरी जगह के मानिंद लगता है जहाँ वे सदा उपस्थित रहती हैं, तैरती हुईं।

 अंत कब आया, किसके लिये आया, आया भी अथवा नहीं आया, इस बारे में अभी तक मेरी पक्की राय नहीं बनी। मैंने बहुत सोचा, फ़्लैशबैक में गया, दिनों को रिवाइंड किया पर कुछ हाथ नहीं लगा। मैंने सोचना स्थगित कर दिया। मैंने मान लिया कि कुछ रिश्ते बीच में झूलते रहते हैं, होने या नहीं होने की गफ़लत में डोलते हुए।

 आज मैं उस से चार साल बाद मिला, ब्रेकअप के चार साल बाद। हाँ, हम दोनों का वैसा ब्रेकअप नहीं हुआ था जैसा आम तौर पर होता है। हमारा झगड़ा नहीं हुआ न हमारा एक-दूसरे से मन भरा लेकिन फिर भी हम अलग हो गये। शायद अप्रेम हर उस रिश्ते की नियति है जहाँ बहुत प्रेम होता है।  हम साथ नहीं थे पर साथ थे, साथ ख़त्म हुआ लेकिन हम पूरी तरह अलग नहीं हो सके। हमने एक-दूसरे को न कहीं ब्लॉक किया न अनफ़्रेंड। हम लगातार एक-दूसरे से बात करते रहे, एक-दूसरे को तोहफ़े देते रहे। हम एक-दूसरे से सब कुछ साझा करते रहे, नयी ख़ुशियों से लेकर पुराने दुखों तक। मैं उसे हमेशा की तरह लंबे मेल  लिखता रहा जिनका वह जवाब देती रही लेकिन हमारा मिलना बंद हो गया। क्या प्रेम के होने और न होने में बस इतना ही अंतर होता है?  मिलने का, एक-दूसरे को छूने का। किंतु लोग प्रेम में भी एक-दूसरे को छुए बग़ैर रहते हैं और बग़ैर प्रेम के भी एक-दूसरे को छूते हैं। फिर हमारे बीच क्या था जो नहीं रहा या हमारे बीच क्या उग आया जो पहले नहीं था? कभी-कभी प्रश्नों के अंत से प्रश्न-चिह्न हटाना सबसे बड़ी चुनौती होती है। 

 आज उसे चार साल बाद देखा तो उसमें ऐसा कोई बदलाव मुझे नहीं दिखाई पड़ा जिसे रेखांकित किया जा सके। नोक बराबर अन्तर उसके वज़न में आया होगा जो उसके ऊपर अच्छा लग रहा था। उसे ठीक-ठाक सुंदर कहा जा सकता है। वैसा सुंदर नहीं जिसको छूने से मैला हो जाने का डर हो बल्कि वैसा सुंदर जिसे हथेलियों में भर कर जब चाहे चूमा जा सके। मैंने उसे देखा तो उसे चूमने की वैसी ही इच्छा हुई जैसी पहले हुआ करती थी। जब हम साथ थे मैं उसे अक्सर चूम लिया करता। वह कभी मना नहीं करती थी बल्कि चूमे जाने की शदीद ख़्वाहिश उसके भीतर थी। वह कहती थी मेरे चूमने से उसके भीतर का रेगिस्तान नम हो जाता है जहाँ सुंदर फूलों वाले पौधे अँखुआ जाते हैं। हमने असंख्य बार एक-दूसरे को चूमा, घंटों तक चूमा। वह चूमने के नये तरीक़े ईजाद करती और मुझे बताती। मैं उसकी हर इच्छा को अमली जामा पहनाता चला जाता। एक-दूसरे को चूमना कभी हमारे लिए उबाऊ काम नहीं रहा ना कभी मशीनी जैसा कभी-कभी पुराने जोड़ों में हो जाता है। हम धीरे-धीरे होंठों को सहलाते, कभी तेज़ी से उन्हें काटते, कभी उन्हें सिर्फ़ सटाए रखते। वक़्त को चलाने वाली घड़ी हमारे होंठों में थी और हमारे होंठों को वक़्त से धीरे चलने की आदत थी। आज उसे देखते ही पुराने दिन याद आये और मैंने आगे बढ़ कर उसके होंठ चूम लिए। उसने मुझे चूमने दिया ज्यों यह रोज़ की बात हो। ज्यों उसके होंठ, होंठ न हों, हथेली या माथा हों। उसने न उत्साह दिखाया न ग़ुस्सा जताया। शायद बहुत पहचान के बाद का अलगाव यह तटस्थता ले आता हो। 

 मुझे याद है आख़िरी से पहले वाले चुंबन तक हमारी साँसें तेज़ थीं और धड़कनें सरपट भागे चली जा रही थीं। हाँ, आख़िरी चुंबन कुंद पड़ गया था। पड़ना ही था। वह पुराने चुंबनों तक पहुँचने की कोशिश में मेरे द्वारा लिया गया चुंबन था जिसमें वह अपने होंठ मेरे होंठों में बग़ैर किसी हरकत के दिये बैठी थी। मुझे ठीक से याद है मैंने उसे छूकर संवेदना का संचार करने की कोशिश की थी लेकिन उसका जिस्म जैसे बुत हो गया था, अरसे से बंद किताब में दबे बुकमार्क की तरह। उसने मुझे रोका नहीं लेकिन मैं जान गया था वह घट चुका है जिसका डर प्रेम के पहले रोज़ ही कहीं न कहीं आ बैठता है। इस डर से निस्तार नहीं मिलता जब तक यह डर सही साबित न हो जाये। शुरू के प्रेमिल दिनों में कोई नहीं मानता कि प्रेम ख़त्म होगा पर वह ख़त्म हो जाता है। बेवजह भी या बेवजहों की वजहों से भी। 

 फिर उस रोज़ उसने कह दिया कि वह नहीं चाहती अब मैं उसे चूमूँ। मुझे मना करने के उसके पास बहुत-से कारण थे। सबसे मुख्य कारण यह था कि उसे लगने लगा था कि मैं अब उसे प्रेम नहीं करता। ठीक उन्हीं शब्दों में कहूँ तो मेरे प्रेम की तीव्रता उसे कम लगने लगी थी। बात इतनी ग़लत भी नहीं थी। हमारी मुहब्बत में दूरी बहुत थी। कई सालों तक मेरे बदन की भूख मेरे मन की नीयत के साथ सिंक में रही। कुछ समय से धीरे-धीरे वह सिंक कम हो रहा था और मेरा जिस्म ऐसी माँगें करने लगा था जिसे रोक पाना मेरे बस में नहीं रह गया था। मैं अपने बदन के तक़ाज़ों को मानकर इधर-उधर जाने लगा था। कुछ औरतें प्रेमवश, कुछ मजबूरी के कारण, कुछ ख़ुद की इच्छाओं की वजह से मेरे साथ सोने लगी थीं। मेरे लिए यह सब नया था और मुझे आनंदित कर रहा था। मुझे यह कहने में शर्म नहीं कि अलग-अलग होंठों की हरकतें मुझे अच्छी लग रही थीं, हर बार एक नया आवेग और नयी उत्सुकता। मुझे याद है एक लड़की जिसके साथ मैं अनिच्छा से यूँ ही चला गया था, अगली सुबह तक वह मुझे अपना  तलबगार बना गई थी। ऐसे अनेक आश्चर्यों से मेरा सामना होता था और मैं उनमें रमने लगा था। नयापन मुझे खींचने लगा था। देह को देह की तरह बरतना मुझे आ रहा था। इसमें कोई बुराई भी मुझे मालूम नहीं होती थी।  लेकिन प्रेम और जिस्मानी भूख का अंतर मुझे मालूम था। प्रेम का यानी मेरी प्रेमिका का कोई स्थानापन्न मेरे जीवन में नहीं था। किंतु कुछ बदलाव मेरे भीतर अवश्य आये होंगे जिन्हें उसने महसूस कर लिया था। उसकी छठा सेंस यूँ भी बहुत तेज़ था, प्यार में पड़ी हर लड़की का होता है। प्रेमी के व्यवहार में नोक-पलक का अंतर भी वह भाँप लेती है। वह अगर झगड़ती तो हो सकता है मैं रुक जाता या उसे अपनी ज़रूरतों के बारे में बता कर किसी समाधान तक पहुँचने की कोशिश करता। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। उसने मुझे अपने जीवन से तकिये के ग़िलाफ़ में आ लगे बाल की तरह झाड़ दिया। उसने एक दिन बग़ैर किसी भूमिका के कह दिया कि हमारे बीच वह इस तरह का कुछ भी नहीं चाहती है। मुझे झटका लगा। यह मेरे लिये हार की तरह था। इकलौती लड़की जिस से मैं प्यार करता था मुझे ख़ारिज कर रही थी। मैंने उसे समझाने की, मनाने की कोशिश की लेकिन वह नहीं मानी। मैं उस से बार-बार पूछता कि हुआ क्या है लेकिन वह चुप रहती। हमने कभी मेरी ग़लतियाँ पर चर्चा नहीं की लेकिन मैं फिर भी माफ़ी माँगता रहा। वह एक दिन मान जाएगी इस उम्मीद में मैं आज तक हूँ। मैं उस से प्रेम करता था, करता हूँ। यह प्रेम भाव किसी और के साथ नहीं आ पाया। संबंध बार-बार घट सकते हैं परंतु प्रेम वह घटना है जो विरल होती है। दोनों ओर से प्रेम होना उतना ही चमत्कारिक है जितना किसी दूसरे ग्रह पर जीवन होना।   

 वह अरसे तक मुझसे मिलना टालती रही। मैं जितनी बार कहता उतनी बार वह मना कर देती। मैं पुराने दिनों की याद में ग़ाफ़िल होता। किसी और बदन से लिपट कर रोता और इंस्टाग्राम पर रील देखते हुए सो जाता। मेरी पुरानी दिनचर्या ख़त्म हो गई थी जहाँ एक मुलाक़ात के बाद दूसरी मुलाक़ात की तलब होती थी। उसके तलवों पर लकीरें उकेरने की, उसकी हथेलियों को मुट्ठी में भरने की, उसकी गर्दन पर निशान छोड़ देने की, उसके कंधों पर फूल उगाने की, उसकी नाक की नोक पर अटकी बूँद को उँगली से छिटका देने की उत्कण्ठाएँ मुझे घेरने लगी थीं। मैं उसे स्वप्न में देखता और स्वप्न में न देखने के जतन करता, दोबारा स्वप्न में उसे देखने की प्रतीक्षा लिए। ये चार साल हमने मिले बिना बिताये किंतु यह भी उतना ही सच है कि इन चार सालों में एक दिन भी बात किए बग़ैर नहीं बीता। उसके जीवन में कोई नहीं था, मेरे जीवन की सतह पर बहुत-से लोग थे। मैं ख़ाली हो गया था, वह नित भरती जा रही थी। 

 आज उसे देखने पर मैंने पाया कि वह आज भी मुझे उतने ही प्यार से देखती है। मुझे देखते ही उसकी आँखों में पुरानी पहचान के साथ पुराना प्यार उतर आया। यह देखकर मैं फिर आशान्वित हुआ। आज मैंने उसे फिर बताया कि मैं उसे और पुराने दिनों को कितना याद करता हूँ। बात करना अलग बात है किंतु एक-दूसरे को निर्वस्त्र कर एक-दूसरे में समाहित हो जाना एकदम अलग। मैं उसके आगे लगभग गिड़गिड़ाने लगा कि वह हमारा संबंध पहले जैसा कर दे। मुझे ऐसे देखकर वह रोने लगी थी और मेरे सिर पर हाथ फेर कर चली गई थी। एक नीला धब्बा देर तक मेरी आँखों के आगे चमकता रहा था।

लड़की

 मैं उस से मिल कर लौट रही हूँ। मेरी आँखों में सपने उगाने वाले पुरुष से। वह पहला पुरुष था जिसके आगे मैं स्त्री हो गई थी, अपनी संपूर्णता में। मेरे जीवन में सबसे सुंदर दिनों का आह्वान उसी ने किया था। मैंने उसके साथ जो समय बिताया, वह कभी दोहराया नहीं जा सकता। किसी के साथ भी नहीं। प्रेम की गणना अगर संभव होती तो वह मेरा इकलौता प्रेमी कहाएगा। मेरे जीवन में आने वाले तमाम पुरुषों के बावजूद। नहीं, मैं उसके प्रति पक्षपाती नहीं हो रही हूँ। प्रेम का ककहरा मैंने उसी से सीखा। प्रेम जिसमें स्वयं को समर्पित कर दिया जाता है। प्रेम जिसमें ‘मैं’ विलीन हो जाता है। प्रेम जिसमें प्रेमी का अस्तित्व रह जाता है, स्वयं का मिट जाता है। संसार मेरे लिये एक ही नाम में सिमट आया था। एक ही नाम मेरे लिये संसार हो उठा था। उसकी छोटी-छोटी बातों से मेरे दिन गुँथने लगे थे। समान प्रजाति द्वारा दिये जाने वाले विशिष्ट संकेतों-सी होती हैं प्रेमी युगल की बातें। 

 मेरे जीवन की घड़ी हो गया था वह। उसकी नींद सोना, उसकी नींद जागना।  वह कहे न कहे, उसके मन की हर बात मैं जानने-समझने लगी थी। प्रेमी जोड़ों के पास अनूठी शक्ति होती है, अदृश्य किरण-पात के समूह से अपने प्रेम की किरणों को ग्रहण करने की। उसके मन की करूँ-कहूँ, यही मेरे जीवन का एकमात्र ध्येय हो चला था। एकनिष्ठ प्रेम का आनंद कितना सुखदायी होता है यह जब मैंने जाना तब से मेरे स्वप्न तक में किसी का प्रवेश वर्जित हो चला था। मैं प्रेम में बंधन की पैरोकार नहीं थी किंतु प्रेम ऐसे बंधन साथ लाता है जो अनैच्छिक क्रियाओं की तरह काम करते हैं। वे अपना काम करते जाते हैं, बग़ैर हमारे कंट्रोल के। 

 हमारा प्रेम आरंभ कैसे हुआ, यह बात इतनी महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि हमारा साथ होना उसी दिन से तय था जब इस सृष्टि का आरंभ हुआ। हम किसी सदी के किसी क्षण यहाँ होंगे और एक-दूसरे के हो रहेंगे यही एकमात्र सत्य था। अलग-अलग क्षणों का सत्य भिन्न हो सकता है यह कोई प्रेमी नहीं सोचता। हमने भी नहीं सोचा था। सोचा तो यह था सृष्टि के अंत तक हमारा साथ बना रहेगा पर हमारी सृष्टि समय से पहले ही ख़त्म हो गई अथवा वही समय रहा होगा उसके अंत का। सृष्टियों का आरंभ और अंत, व्यक्ति की लालसाओं का मोहताज नहीं होता। 

 मेरे प्रेम का मर्तबान उस से लबालब भरा था। वह मेरी ख़ुशियों का केंद्र था, मैं तृप्त थी। कई वर्षों तक हमारा प्रेम किसी भी कारणवश दूषित नहीं हुआ। दूर रहने के बावजूद। वह आवाज़ लगाता, मैं जाती। मैं बुलाती, वह चला आता। हम बग़ैर बुलाये भी  एक-दूसरे से मिलते। मिलना हमारे जीवन को संभव करने वाली ऐसी क्रिया थी जिसे एक निश्चित अंतराल में घटना ही होता। कई बार अंतरालों के बग़ैर भी। एक दफ़ा आधी रात बात करते हुए उसने मिलने की तवील इच्छा ज़ाहिर की। मैं उसी दम गाड़ी लेकर निकल पड़ी मीलों की यात्रा पर, हर प्रकार के डर को पीछे छोड़ते हुए। प्रेम में दूरियों का महत्त्व नहीं होता, बस साथ होने की आकांक्षा का महत्त्व होता है, यह मैंने उसी के साथ जाना। दूरियों को तराशते हुए, काटते-छाँटते हुए नज़दीकियों में तब्दील करना हमें आ गया था।  

 बाद में मैंने यह भी जाना कि संसार में कोई बात महत्त्वहीन नहीं होती। हर बात का महत्त्व होता है और हर बात के परिणाम भी होते हैं। अहिंसक बातों के नाखून अगर काटे न जायें तो वे भी गड़ना आरंभ कर देती हैं। गहरे, निर्दोष प्रेम की बातें इतनी सच नहीं होतीं, जितना दावा किताबें करती हैं। किताबों की बातें जीवन में उतर भी आएँ तो अपनी शर्तों के साथ उतरती हैं, हू-ब-हू नहीं। जीवन के गणित में प्रेम कांस्टेंट नहीं, वेरिएबल है। एक समय आता है जब प्रेम में मिलावट होने लगती है, बाहर से ज़्यादा भीतर के कारणों से। व्यक्ति बदलने लगता है, इंच-दर-इंच  इस तरह कि वह स्वयं भी इस बात को आरंभ में पकड़ नहीं पाता, अपने मन का भटकाव चीह्न नहीं पाता। उसकी ज़रूरतें बढ़ने लगती हैं या तब्दील होने लगती हैं। पहले-पहल वे इन बदलावों को नज़र-अन्दाज़ करता है, स्वयं के बेहतर और अलग होने के भ्रम में। अंत में थक कर उनके आगे घुटने टेक देता है। अच्छे होने का दबाव इस तरह उस के ऊपर हावी होता है कि मामूल से हट कर अपनी किसी भी इच्छा को वह अनैतिक मानने लगता है। उसके साथ भी यही हुआ। उसके मन में इच्छाओं की शाखें उगने लगीं। मेरे होने की चाहना से अलग चाहनाओं ने सर उठाना शुरू कर दिया था। वह इन इच्छाओं को सुलाता रहा, मन के गह्वर में दबाता रहा। वह सबके सामने मुझे हलफ़नामा देना चाहता था जिसमें लिखा था वह मेरे सिवा किसी को नहीं छुएगा। किंतु प्रेम क्या शपथ-पत्रों का मोहताज होता है। एक दिन उसके सारे वायदे धराशायी हो गये। उसने ज़िक्र नहीं किया पर मुझे ख़बर हो गई थी। उसके स्पर्श में मिलावट रहने लगी थी। स्पर्श की मिलावट मन तक पहुँचने लगी थी। हम अब भी निश्चित अंतराल पर मिलते थे पर उसके होंठों की आवाज़ में इको सुनाई देने लगा था। उसके होंठों की हरकत में नयी हरकतें शामिल होने लगी, वे जो हमारे सिलेबस से बाहर की थीं। चूमने के जो पाठ मैंने उसे पढ़ाये थे, उन पर दस्तख़त किसी और के होते। उसके होंठों की महक में अनगिनत होंठों की महक पैबस्त हो गई थी। उसके होंठों की नयी स्मृतियाँ, पुरानी स्मृतियों को ढँकने लगी थीं। मेरे बदन पर अपरिचित बासी निशान बनने लगे थे। कितने क्षण ऐसे आते जब वह भूल जाता कि वह मेरे साथ है। उन क्षणों में मैं उसके लिये सामान्य-सी कोई औरत हो जाती। उसके आसपास की भीड़ का हिस्सा होकर मैं असहज होने लगी थी। स्त्री सब स्वीकार कर सकती है, अपने प्रेमी के लिए सामान्य हो जाना नहीं। प्रेमी की दृष्टि में असाधारण होना ही उसका प्रेम सुरक्षित रखता है। किंतु उसकी आँखों में तो मेरे अक्स के साथ कई अपरिचित अक्स हँसने लगे थे। वह मेरे कपड़े उतारता तो कई स्त्रियाँ निर्वस्त्र होतीं। वे सब उस तक पहुँचने की होड़ में मुझे चोट पहुँचा देतीं। मेरी चोट से उसे सरोकार नहीं था। वह सिर्फ़ नग्नता के लिए उत्सुक रहता और पाते ही पैनी उत्तेजना से भर जाता। मैं नहीं जानती थी मुझे कैसी प्रतिक्रिया देनी चाहिए थी।  क्या अपने प्रेमी की ज़रूरतों को समझ कर चुप रह जाना चाहिए था या उन ज़रूरतों के साथ चियर्स कर, मुझे भी दर्शक-दीर्घा में बैठ कर निर्वस्त्र स्त्रियाँ देखनी चाहिए थीं?  प्रेम में किस सीमा तक जाना चाहिए और कहाँ रुक जाना चाहिए, यह ज्ञान किसी टेक्स्ट बुक में नहीं मिलता। यह मिलता है प्रेमिल स्पर्शों से और उन स्पर्शों की क्षति से।  

 कुछ समय तक मैं उसकी ख़ब्त को उँगली पकड़ कर चलाती रही पर वह मेरी उँगली छुड़ाने पर आमादा था। वह जब-तब कुछ ऐसा कह-कर देता कि मेरा सब्र जवाब देने लगा था। धीरे-धीरे मेरी दृष्टि में उसकी प्रतिमा खंडित हो चली थी और खंडित प्रतिमाओं की उपासना नहीं होती। वह किसी अन्य के प्रेम में पड़ जाता तब भी मेरे मन में उसके प्रति सम्मान रहता। संभव है मैं उसके प्रेम को स्वीकार भी कर लेती जैसे माता-पिता अपने बच्चे का प्रेम नापसंद होते हुए भी स्वीकार करते हैं। प्रेम में एकनिष्ठता का अत्यधिक आग्रह मैं नहीं रखती थी किंतु मैं उस पुरुष से आँख तक नहीं मिला पा रही थी जो ऑक्टोपस की मृत बाँहों की भाँति शिकार करता घूम रहा था। वह मेरा प्रेमी था यह सोचते हुए भी मुझे शर्मिंदगी होती। उसके हाव-भाव में सस्ते लटके-झटके शामिल हो गये थे। उसे देखकर प्रतीत होता मैं किसी बाज़ारू पुरुष के साथ हूँ। वह आकर्षक होने के मद में चूर रहता। हमारा ‘हम’, दो ‘मैं’ में बँट गया था जिसके बीच में देह की खाई आन खड़ी हुई थी। उसका अहम हमारे प्रेम से बड़ा होने लगा था। इतनी स्त्रियों का प्रेमी होने का मान उसकी बातों में उतर आया था। स्त्रियों की तवज्जोह ने उसे हाइपरऐक्टिव बना दिया था। वह भूख से ग्रस्त ऐसा व्यक्ति हो गया था जो खाने की ख़ुशबू से ही लार टपकाने लगता। स्त्री वस्तु थी, वह बरतने वाला। स्त्री की देह को देखते ही उसकी आँखें एक्स-रे मशीन बन जातीं और वह उनकी क़द-काठी से लेकर उनके आकार तक सब नापने लगता। वह पुरुष से प्रिडेटर में बदल गया और प्रिडेटर शिकार दिखाई पड़ते ही पागल हो जाता है। उसकी सारी इंद्रियाँ अपने शिकार को हासिल करने की ओर मुब्तिला हो जाती हैं। वह मेरा पुरुष क़तई नहीं था किंतु वह पुरुष अवश्य था जिस से मैंने प्रेम किया था। उसके प्रति मेरे प्रेम में किंचित् भी अंतर नहीं पड़ा था किंतु प्रेम जताने के तरीक़ों में से एक तरीक़ा कम हो गया था। मैंने हम दोनों के जीवन से हमारे देह-मिलन को मिटा दिया था। यह मैंने उसे सज़ा देने के लिए किया हो, ऐसा नहीं था। न ही उसकी देह को मैंने अपवित्र माना था। देह की शुचिता स्पर्श के आनुपातिक नहीं होती है किंतु अत्यधिक नवीन स्पर्श देह की स्मृतियों को बाधित करते हैं। जिसकी स्मृतियों में मैं थी ही नहीं या गड्डमड्ड स्थिति में थी, उसके साथ किस प्रकार मैं रहती। एक दिन मैंने उस से मिलना बंद कर दिया। प्रेम नहीं चुका, साथ चुक गया।

वह निरंतर मुझसे मेरी संपूर्ण उपस्थिति माँगता रहा किंतु मुझे उसके आग्रह में ठेस की ध्वनि सुनाई देती, मेरे होने की कामना से अधिक। वह इस बात से आश्चर्यचकित था और आहत भी कि प्रेम करने वाली स्त्री, प्रेम में अपनी शर्त के साथ उपस्थित थी। संपूर्णता, अपूर्णता में बदल गई। उसकी शर्तें, मेरी शर्तों से टकराने लगीं और मेरी उपस्थिति, अनुपस्थिति में बदलती गई। मैं अपने प्रेम की डोर पकड़े रही, वह अपनी कामनाओं को थामे रहा। हम दोनों के  प्रेम और देह की लालसाएँ अलग-अलग स्केल पर थीं। क्यों थीं, मैं इस बात को ठीक से न तब समझ पायी न अब समझ पायी हूँ। मैं वह सब कुछ करती रही जो प्रेम में किया जाता है, वह उनका प्रत्युत्तर देता रहा। हम दोनों को उम्मीद थी कि एक दिन सब कुछ लौट आएगा। हम दोनों प्रतीक्षा में थे कि किसी दिन हम दोनों में से कोई बदल जायेगा। 

 आज मैं उस से चार वर्ष बाद मिली। इतने समय तक उसके आग्रह को मैं टालती रही थी किंतु इस बार जब उसने कहा तो मैंने मना नहीं किया। कुछ प्रश्नों के उत्तर का लोभ मुझे अब भी था। उस से मिलने पर मैंने पाया कि इन चार वर्षों में कुछ नहीं बदला था। वह और मैं दोनों वैसे ही थे। न गहरा प्रेम न लंबी दूरी, कुछ भी हम दोनों को नहीं बदल पाया।  मुझे उसके वर्तमान से विरक्ति थी किंतु उसको देखा तो हमारे अतीत पर प्रेम उमड़ आया। प्रेम अक्षुण्ण था, ठहरा हुआ, दो प्रेमियों के लिए। प्रेमी उस ठहराव के लिए प्रस्तुत नहीं थे। उसने मेरे होंठों को चूमा। मैंने उसे चूमने दिया। मैं किसी कौतुक के इंतज़ार में थी परन्तु कुछ नहीं घटा। मेरे होंठ उसके होंठों को पहचान नहीं सके इसलिए मौन रहे। जहाँ पहचान ही न हो वहाँ किसी प्रश्न का कोई औचित्य नहीं। मैंने उस से कुछ नहीं पूछा। उसने फिर मुझसे वही माँग की जो वह इतने वर्षों से करता आ रहा था। उसे भिक्षुक रूप में देख मेरा मन तरल हो आया। क्षण भर के लिये मैंने सोचा कि क्यों न उसकी इच्छा पूरी कर दूँ किंतु मैं विवश थी। मेरे होंठों ने उसे अजनबी जो घोषित कर दिया था। उसके स्पर्श से मेरे भीतर किसी कामना का संचार नहीं हुआ था। मैंने उसके सिर पर हाथ फेरा। उसकी आँखों में कई छायाओं को बनते-बिगड़ते देख। फिर लौट चली, अपने पीछे उसकी याचनाओं को छोड़ कर।  

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लेखिका दिव्या विजय का परिचय

जन्म - 20 नवम्बर1984

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लेखिका दिव्या विजय

बायोटेक्नोलॉजी से स्नातकसेल्स एंड मार्केटिंग में एम.बी.ए.ड्रामेटिक्स से स्नातकोत्तर। पहला कहानी संग्रह 'अलगोज़े की धुन परराजपाल से प्रकाशित। दूसरी पुस्तक ‘सगबग मन’ भारतीय ज्ञानपीठ’ से प्रकाशित। तीसरी पुस्तक ‘दराज़ों में बंद ज़िंदगी’ राजपाल से प्रकाशित। चौथा कथा संग्रह ‘दो बारहबानी’ हाल में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित। 

 हिन्दी साहित्य की मूर्धन्य पत्रिकाओं कथादेशहंसनया ज्ञानोदय आदि में कहानी लेखन। प्रतिष्ठित समाचार पत्रों और अग्रणी वेबसाइट्स के लिए सृजनात्मक लेखन। अंधा युगनटी बिनोदिनीकिंग लियर आदि नाटकों में अभिनय। रेडियो नाटकों में स्वर अभिनय व लेखन।

 मैन्यूस्क्रिप्ट कॉन्टेस्टमुंबई लिट-ओ-फ़ेस्ट 2017 से सम्मानित। ‘अलगोज़े की धुन पर’ के लिए 2019 का ‘स्पंदन कृति सम्मान’। ‘सगबग मन’ के लिए 2020 का ‘कृष्ण प्रताप कथा सम्मान’। ‘सगबग मन’ के लिए 2023 का ‘जानकीपुल शशिभूषण द्विवेदी सम्मान’

 सम्प्रति -  स्वतंत्र लेखन।